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द्वितीय आंग्ल-बर्मी युद्ध का वर्णन

यांडबू की संधि द्वारा दोनों (अंग्रेज व बर्मा) के बीच कूटनीतिक संबंध स्थापित करने का निश्चय किया गया था। किन्तु बर्मा सरकार ने गवर्नर जनरल के पास अपना राजदूत भेजना अपना अपमान समझा, अतः अपना कोई राजदूत कलकत्ता नहीं भेजा।

द्वितीय आंग्ल-बर्मी युद्ध का मुख्य कारण-

बर्मा के दरबार में ब्रिटिश रेजीडेण्ट के साथ बङा अपमानजनक व्यवहार हुआ, अतः 1840 ई. के बाद बर्मा में कोई रेजीडेण्ट नहीं रहा। इस प्रकार 1840 ई.के बाद दोनों के बीच कोई संपर्क नहीं रहा। धीरे-धीरे पक्षों के बीच कटुता और घृणा फैलने लगी।

यांडबू की संधि द्वारा अंग्रेज व्यापारियों को रंगून में बसने और व्यापार करने का अधिकार मिला। लेकिन अंग्रेज व्यापारियों का व्यवहार बङा अनुचित होता गया। ये लोग बर्मी सरकार को चुँगी तथा अन्य करों की अदायगी को लेकर झगङा-फसाद करते रहते थे और उलटे बर्मा के निवासियों की तथा बर्मी सरकार के दुर्व्यवहार संबंधी अनेक बातें, बढा-चढाकर भारत के गवर्नर-जनरल को लिखते रहते थे। अंग्रेज व्यापारियों की यह शिकायत थी कि बर्मा सरकार निश्चित किये हुए कर से अधिक कर की माँग कर रही है, जबकि बर्मा सरकार का कहना था कि अंग्रेज व्यापारी निश्चित कर नहीं चुका रहे हैं।

1848 ई. में जब लार्ड डलहौजी भारत में गवर्नर-जनरल बनकर आया तो उसने अंग्रेज व्यापारियों को ऐसी शिकायतें लिखने हेतु प्रोत्साहित किया। अतः अंग्रेज व्यापारियों ने एक शिकायती पत्र डलहौजी के पास भी भेजा। शिकायती पत्र प्राप्त होते ही जलहौजी ने अपनी नौसेना के प्रधान लेम्बर्ट को सारे युद्धपोत लेकर रंगून जाने का आदेश दे दिया।

द्वितीय आंग्ल-बर्मी युद्ध(1852 ईसवी )

लेम्बर्ट ने रंगून पहुंचकर बर्मा सरकार से मांग की कि वह रंगून के बर्मी गवर्नर को हटादे तथा दस हजार रुपये हर्जाने के रूप में अदा करे। बर्मा के राजा ने भयभीत होकर रंगून के गवर्नर को तो हटा दिया, लेकिन क्षतिपूर्ति के संबंध में उचित जाँच कर उचित कार्यवाही करने का आश्वासन दिया।

इस पर लेम्बर्ट ने अपने एक युद्धपोत को आगे बढने का आदेश दे दिया। बर्मा के राजा ने अंग्रेजी युद्धपोत पकङ लिया और चेतावनी दी कि कोई भी अंग्रेजी जहाज आगे नहीं बढे।

लेम्बर्ट ने इसकी कोई परवाह नहीं की और अपने जहाजों को आगे बढाने का आदेश दे दिया। इस पर बर्मी सेना ने तोपें दागनी आरंभ कर दी। लेम्बर्ट ने भी तोपों का जवाब तोपों से दिया। इस प्रकार दोनों ओर से गोलाबारी आरंभ हो गयी।

लार्ड डलहौजी ने भी कलकत्ता से बर्मा के राजा को चेतावनी दी कि 1 अप्रैल, 1852 तक एक लाख पौंड क्षतिपूर्ति अदा करे अन्यथा बर्मा पर आक्रमण कर दिया जायेगा। इस चेतावनी के साथ ही डलहौजी ने जनरल गाडविन के नेतृत्व में एक सेना भेज दी।

2 अप्रैल,1852 को गाडविन ने आक्रमण करके मर्तबान व रंगून पर अधिकार कर लिया। इसके बाद ब्रिटिश सेनाओं ने पीगू के संपूर्ण समुद्रतट पर अधिकार कर लिया। 9अक्टूबर, 1852 को प्रोम पर अधिकार कर लिया। प्रोम विजय ने अंग्रेजों को निचले बर्मा का स्वामी बना दिया। दिसंबर,1852 ई. में डलहौजी ने संपूर्ण निचला बर्मा ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया गया और उसका एक अलग प्रांत बनाकर रंगून को उस प्रांत की राजधानी बना दिया। इसके साथ ही बर्मा युद्ध समाप्त हो गया।

अब उत्तर में चटगाँव से लेकर दक्षिण में सिंगापुर तक बर्मा का समस्त समुद्री तट अंग्रेजों के अधिकार में आ गया और बर्मावासियों को स्थल भूमि तक ही सीमित कर दिया।इसी कारण आगे चलकर 1886 ई. में लार्ड डफरिन के समय बर्मा का तीसरा युद्ध हुआ और संपूर्ण बर्मा को ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया गया।

Reference : https://www.indiaolddays.com/

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