आधुनिक भारतइतिहास

प्रांतीय स्वायत्तता क्या है

प्रांतीय स्वायत्तता क्या है

प्रांतीय स्वायत्तता

प्रांतीय कार्यपालिका

द्वैध शासन का पुनर्गठन एवं समाप्ति- प्रांतों के संदर्भ में बर्मा, भारत से अलग रहो चुका था, और उङीसा और सिंध दो नए प्रांत बन गए थे। केन्द्र में सरकार के संघीय रूप के मद्देनजर प्रांतों को कानूनी जामा पहना दिया गया था। द्वैध शासन के समापन के साथ ही सभी प्रांतीय विषयों को लोकप्रिय नियंत्रण की ओर स्थानान्तरित कर दिया गया था।

प्रांतीय स्वायत्तता

गवर्नरों की नियुक्ति राज्य सचिव की सलाह पर पांच वर्ष के लिये होती थी। आमतौर पर इस पद हेतु आई.सी.एस. के वरिष्ठ अधिकारियों को ही चुना जाता था, हालांकि बाहरी लोगों की नियुक्ति पर कोई प्रतिबंध नहीं था।

गवर्नर को तीन प्रकार से काम करना होता था – अपने मंत्रियों से वह परामर्श लेता था किन्तु उनका परामर्श मानने को वह बाध्य नहीं था। स्वविवेक की स्थिति में वह बिना मंत्रिपरिषद की सलाह के ही कोई फैसला ले सकता था।

कर्त्तव्यों के निर्वहन में सलाह देने के लिये गवर्नर, मंत्रीपरिषद का चयन करता था। मंत्रिपरिषद का गठन वह एक ऐसे व्यक्ति के नेतृत्व में करता था, जिसे गवर्नर की नजर में विधायिका का बहुमत हासिल हो। मंत्रिपरिषद गवर्नर के प्रसाद पर्यन्त कार्य करती थी।

लेकिन प्रांतों में महाधिवक्ता की नियुक्ति व बर्खास्त के लिये गवर्नर अपने व्यक्तिगत फैसले पर निर्भर था।

गवर्नर की विशेष शक्तियां

राज्य की समस्त कार्यपालिका शक्तियां गवर्नर में निहित थी तथा उसके पास विशेष वित्तीय शक्तियां थी।

वित्त विधेयक गवर्नर की ही सिफारिश पर पेश हो सकता था।

वह वार्षिक वित्तीय यानि बजट प्रस्तुत करने की व्यवस्था करता था। इसे विधायिका के समक्ष दो भागों में रखा जाता था। एक भाग में राज्यों के राजस्व पर भारित व्यय होता था तथा दूसरे भाग में उन कार्यों एवं विषयों के लिये धन का प्रावधान होता था जो प्रांतों के राजस्व से संबंधित होते थे।

अपने स्वविवेक से गवर्नर किस विषय पर मत विभाजन आवश्यक है और किस पर नहीं। विधायिका इसे स्वीकार कर सकती थी, अस्वीकार कर सकती थी तथा इस भारित मद को छोङकर अन्य में कटौती के लिये प्रावधान करने हेतु स्वीकार कर सकती थी।

किसी अनुदान के खारिज होने की स्थिति में गवर्नर अपने स्वविवेक से इसी स्वीकृत कर सकता था बर्शते उसे यह महसूस हो कि यह अनुदान आवश्यक है तथा इसके नहीं होने पर कोई विपरीत प्रभाव उत्पन्न होने की आशंका है।

गवर्नर की विधायी शक्तियां – गवर्नर को विधायी क्षेत्र में भी महत्त्वपूर्ण अधिकार प्राप्त थे

जब भी आवश्यक हो वह विधानमंडल की बैठख आहूत कर सकता था या दोनों सदनों का संयुक्त अधिवेशन बुला सकता था।

वह विधानमंडल की कार्य संचालन प्रक्रिया को दिशा-निर्देशित कर सकता था, बैठक को संबोधित कर सकता था या उसे संदेश भेज सकता था।

वह विधानमंडल की कार्य संचालन प्रक्रिया को दिशा निर्देशित कर सकता था, बैठक को संबोधित कर सकता था या उसे संदेश भेज सकता था।

वह व्यवस्थापिका द्वारा पारित किसी विधेयक को स्वीकृति प्रदान कर सकता था, उसे रोककर रख सकता था, उसे पुनर्विचार के लिये वापस भेज सकता था या गवर्नर जनरल के लिये आरक्षित कर सकता था।

वह दोनों सदनों का सत्र आहूत कर सकता था एवं निचले सदन को भंग कर सकता था।

पुलिस बल से संबंधित कोई विधेयक, गवर्नर के अध्यादेश से संबंधित कोई विधेयक, उसके स्वविवेक से किये गये कार्य से संबंधित कोई विधेयक तथा उसके किसी अन्य कार्य से संबंधित कोई विधेयक बिना उसकी पूर्वाअनुमति के सदन में प्रस्तुत नहीं किया जा सकता था।

जब व्यवस्थापिका सत्र में न हो तो वह कोई अध्यादेश जारी कर सकता था।

गवर्नर जनरल की बिना पूर्व स्वीकृति के वह कोई अध्यादेश जारी करने का अधिकारी नहीं था। लेकिन अतिआवश्यक परिस्थितियों में यदि ऐसा करना पङा तो बाद में उसे इससे परिचित करवाना या इसकी सूचना देना अनिवार्य था।

व्यवस्थापिका के कार्यपालिका उत्तरदायित्व

संसदीय व्यवस्था की वास्तविक प्रकृति व्यवस्थापिका के कार्यपालिका उत्तरदायित्व के सिद्धांत में निहित है।

या तो कार्यपालिका, व्यवस्थापिका के प्रति उत्तरदायी है या बाद में इसके विघटन के उपरांत नयी व्यवस्थापिका, कार्यपालिका कर्तव्यों के निर्वहन के लिये गठित होती है।

1935 के अधिनियन के अंतर्गत यद्यपि एक तीसरे विकल्प का भी प्रावधान है। यदि किसी समय गवर्नर को यह महसूस होता है कि किसी प्रांत में सरकार द्वारा किसी आवश्यक अधिनियम के संबंध में अध्यादेश जारी नहीं किया जा रहा है तो इस स्थिति में वह उस प्रांत का प्रशासन अपने हाथ में ले सकता है।

इसके परिप्रेक्ष्य में यह कहा गया है कि प्रांतों में संसदीय व्यवस्था अति नियंत्रित है तथा मूलतः इसकी वास्तविक शक्तियां गवर्नर के हाथों में होती हैं।

प्रांतीय व्यवस्थापिका का संगठन एवं प्रकृति

छह प्रांतों (यथा – असम, बंगाल, बिहार, बम्बई, मद्रास एवं संयुक्त प्रांत) में द्विसदनीय विधायिका थी। इसमें एक विधानसभा एवं दूसरी विधान सपरिषद । विधानसभा, निम्न सदन एवं विधान परिषद, उच्च सदन थी।

अन्य पांच प्रांतों (यथा – पंजाब, उत्तरप्रदेश सीमा प्रांत, सिंध, उङीसा, मध्य प्रांत एवं बरार) में मात्र एकसदनीय विधायिका थी। इसका नाम विधानसभा था।

विधायिका के सदस्य विभिन्न निर्वाचन क्षेत्रों से धार्मिक, प्रजातीय व अन्य विभिन्न प्रकार के प्रतिनिधित्व के आधार पर चुने जाते थे। मुस्लिम, सिख, आंग्ल-भारतीय, इसाई एवं यूरोपीय के लिये साम्प्रादायिक आधार पर स्थानों की व्यवस्था का गयी थी।

सामान्य निर्वाचन क्षेत्रों के अलावा समाज के अन्य वर्गों को भी प्रतिनिधित्व देने की व्यवस्था थी। ये क्षेत्र थे, यथा – उद्योग, व्यापार, वाणिज्य, जमीदारी, विश्वविद्यालय एवं श्रमिक। कुछ स्थान महिलाओं के लिये भी आरक्षित किये गये थे।

प्रत्यक्ष आधार पर निर्वाचन की व्यवस्था थी। यद्यपि मताधिकार के आधार में एक प्रांत से दूसरे प्रांत में भिन्नता थी। सामान्यतया इसका आधार एक व्यक्ति द्वारा उसके पास निहित भूमि के एवज में अदा किये गये राजस्व या गृहकर था।

मताधिकार हेतु एक निश्चित शैक्षणिक योग्यता एवं सैन्य सेवा को भी माना जाता था। कुल 14 प्रतिशत जनसंख्या में से 1919 के अधिनियम द्वारा केवल 3 प्रतिशत को ही मत देने का अधिकार मिल सका था।

विधानसभा का कार्यकाल 5 वर्ष था। विधान परिषद एक स्थाई सदन थी, जिसके एक-तिहाई सदस्य प्रत्येक तीसरे वर्ष सेवानिवृत्त हो जाते थे।

विधानसभा में ज्यादातर सदस्य निर्वाचित होते थे। कुछ अप्रत्क्ष रीति से चुने जाते थे तथा कुछ गवर्नर द्वारा मनोनीत होते थे।

विधायी शक्तियाँ एवं कार्यप्रणाली

वित्तीय मामलों के अलावा, दोनों सदनों को समान शक्तियां प्राप्त थी। लेकिन धन विधेयक केवल विधानसभा में ही पेश किया जा सकता था। अनुदानों के संबंध में विधानपरिषद को कोई अधिकार नहीं था। दोनों सदनों के मध्य टकराव की स्थिति में गवर्नर स्थिति का समाधान करने के लिये दोनों सदनों का संयुक्त अधिवेशन बुला सकता था।

प्रांत, राज्य सूची में वर्णित सभी विषयों पर कानून बना सकते थे। यद्यपि इस संबंध में दो प्रतिबंध थे – 1.) यदि दो या दो से अधिक राज्य अपनी विधानसभाओं में इस आशय का प्रस्ताव पारित कर केन्द्रीय सरकार से किसी प्रांतीय विषय के संबंध में विधान बनाने का आग्रह करें। 2.) आपातकाल की स्थिति में गवर्नर जनरल केन्द्रीय सरकार से किसी प्रांतीय विषय के संबंध में विधान बनाने को कहे।

प्रांतीय सरकार से समवर्ती सूची के विषय पर भी उस स्थिति में कानून बना सकती थी, जब ऐसा करने के बाद उसका केन्द्र सरकार से कोई टकराव होता है तो गवर्नर जनरल को यह अधिकार है कि वह केन्द्रीय कानून के ऊपर राज्य द्वारा बनाये गये कानून को विधिमान्य घोषित कर सकता है।

प्रांतीय स्वायत्तता की कार्य प्रणाली

ब्रिटिश भारत की ग्यारह प्रांतीय सरकारें

1937 में 11 प्रांतों में गठित सभी मंत्रालयों की अपनी अलग कहानी थी। ये सुचारू रूप से कार्य नहीं कर सकी। बंगाल, सिंध और पंजाब में यह नई व्यवस्था दस वर्षों तक चली। दूसरे प्रांतों में तथाकथित जिम्मेदार समझी जाने वाली सरकार सिर्फ दो वर्षों तक चली।

अक्टूबर, 1939 में आठ प्रांतों के कांग्रेसी मंत्रीमंडल ने विश्व युद्ध के मुद्दे पर त्यागपत्र दे दिया। इन प्रांतों के सभी गवर्नरों ने आपात स्थिति की घोषणा कर सभी कार्यकारी व विधायी शक्तियां अपने हाथों में ले ली। 1946 में जब तक दोबारा सभी प्रांतों में लोकप्रिय सरकार नहीं बनी, तब तक इनका शासन गवर्नरों द्वारा चलता रहा।

References :
1. पुस्तक- भारत का इतिहास, लेखक- के.कृष्ण रेड्डी

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