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फ्रांस की राज्य क्रांति के कारण

फ्रांस की राज्य क्रांति के कारण

जे.ई.स्वेन का विचार है कि – 1789 ई. की फ्रांस की महान क्रांति वहां की निरंकुश शासन व्यवस्था, दोषपूर्ण सामाजिक व्यवस्था, विशेषाधिकारों और नौकरशाही के विरुद्ध थी। यद्यपि तत्कालीन यूरोप के सभी देशों में सामंतवादी व्यवस्था, आर्थिक शोषण, असमानता और धार्मिक रूढिवादिता प्रचलित थी लेकिन जागृति का सूत्रपात फ्रांस से ही हुआ। फ्रांस में यह क्रांति सुनियोजित नहीं थी, तात्कालिक परिस्थितियों का विस्फोट थी।

क्रांति पूर्व फ्रांस की स्थिति

बूब्रों राजवंश के स्वेच्छाचारी एवं निरंकुश राजाओं का शासन था। लुई चौदहवां (1643-1715 ई.) के समय फ्रांस ने सांस्कृतिक व आर्थिक प्रगति की। औपनिवेशिक विस्तार हेतु युद्ध लङे गए, जिससे आर्थिक स्थिति दयनीय हुई। प्रजा में असंतोष व्याप्त हुआ। लुई पन्द्रहवां (1715-1774 ई.) विलासी, आलसी एवं अयोग्य शासक था। उसके शासन काल में फ्रांस की स्थिति अत्यन्त दयनीय हो गयी। लुई सोलहवां (1774-1793 ई.) के शासन में अमेरिकी स्वातंत्र्य युद्ध में सहयोग कर फ्रांस को 1763 ई. की पराजय का प्रतिशोध लेने में सफलता मिली, लेकिन फ्रांस की आर्थिक स्थिति अधिक खराब हो गयी। राजा अपनी रानी मेरी आंतानेत के प्रभाव में रहा। वह अनुभवहीन, जिद्दी, व्ययशील, चाटुकारों के हाथों की कठपुतली थी। शासन में उसका अनुचित हस्तक्षेप था।

राजा वास्तविकता से बेखबर था। निरंतर बिगङती अर्थ व्यवस्था, भारी करारोपण, असंतुलित वसूली ने फ्रांस की जनता को निर्धनता के निम्नतम बिन्दु तक पहुंचा दिया। व्यापार और उद्योग राजकीय हस्तक्षेप के कारण प्रगति नहीं कर पा रहे थे। श्रमिक व कृषक दुःखी एवं नारकीय जीवन जी रहे थे। समाज में भारी विषमताएं व्याप्त थी। मध्यम व निम्न वर्ग भूखे रहकर भी कर्त्तव्यपालन को बाध्य थे। फ्रांस में एस्टेट्स जनरल नामक व्यवस्थापिका भी थी, जिसमें तीन सदन थे जिनमें कुलीन वर्ग, पादरी वर्ग और साधारण वर्ग का अलग अपना प्रतिनिधित्व था। प्रत्येक सदन का एक वोट होने से प्रथम दो सदन बहुसंख्यक वर्ग का शोषण करते थे। इसका अस्तित्व राजा की इच्छा पर्यन्त ही था।

1614 ई. के बाद इसका अधिवेशन नहीं बुलाया गया था। पार्लमां फ्रांस की न्यायपालिका थी, सामंत, सैनिक एवं चर्च के न्यायालयों के समक्ष यह अप्रभावी थी। सेना भी अव्यवस्थित थी, योग्य व्यक्ति को स्थान नहीं था। प्रशिक्षण व अनुशासन का अभाव था। इस प्रकार विशेषाधिकार प्राप्त उच्चवर्ग विलासी जीवन बिताते थे और बहुसंख्यक वर्ग सर्वाधिक कर बोझ से दबा, बेगार व अत्याचार सहन करने को ही अपनी नियती समझता था। भारी असमानता, असंतुलन और अराजकता में फ्रांस की क्रांति अवश्यंभावी हो गयी।

फ्रांस की राज्य क्रांति के कारण

राजनीतिक कारण

फ्रांस के राजा का पद निरंकुश एवं दैवीय अधिकारों से विभूषित था। राजा की इच्छा ही कानून था, जिसका उल्लंघन दंडनीय अपराध था। राजा की आज्ञा ही करारोपण एवं राजकोष के व्यय का आधार था। राजा के कृपापात्र, विशेषाधिकार युक्त, राजा के नाम पर अपने अधिकारों का दुरुपयोग करते थे। लेटर डी केचेट राजमुद्रा युक्त अधिकार पत्र से किसी भी व्यक्ति को अकारण असीमित समयाविधि तक, बंदी बना सकते थे, कोई भी दंड दे सकते थे। आम व्यक्ति सहमा हुआ भयभीत सामंतों व राजपुरुषों की नजर से बचता था। व्यक्ति की स्वतंत्रता सुरक्षित नहीं थी। 175 वर्षों तक एस्टेट्स जनरल की बैठक नहीं बुलाई गई। त्रिदसनात्मक व्यवस्थापिका को भुलाया जा चुका था।

पार्लमां के न्यायाधीश, खरीदे हुए वंशानुगत पदों पर आसीन स्वार्थपूर्ति में संलग्न थे। सामान्य प्रजाजन के जीवन का कोई मूल्य नहीं था। तत्कालीन राजा लुई सोलहवां अपनी पत्नी एवं चाटुकारों के प्रभाव में फ्रांस के लोगों की दयनीय स्थिति से बेखबर था। 18 हजार सेवक वर्साय के महलों में राजपरिवार की सेवा में संलग्न थे। वहीं मानव जीवन का दूसरा पक्ष फ्रांस के 90 प्रतिशत लोग निर्धन से निर्धनतम हो रहे कृषक एवं श्रमिक थे, जो पेट की भूख शांत करने में संघर्षरत, पशुतुल्य जीवन जीने को बाध्य थे। राजा एवं राजपरिवार का ऐश्वर्यशाली जीवन चरित्र एवं राजनीतिक अराजकता राजा को जन समर्थन न मिल पाने का कारण थे।

अव्यवस्थित, व्ययशील एवं आराजकता से परिपूर्ण शासन 5 समितियों पर आधारित था। प्रांतीय शासन गवर्नमेन्ट और जनरेलिटी दो प्रकार के प्रांतों में बंटा था । 40 गवर्नमेन्ट प्रांतों के गवर्नर कुलीन वर्ग के लोग उच्च वेतन प्राप्त राजा की सेवा में उच्च जीवन यापन करते थे। शासन में उनका कोई भाग नहीं था। 36 जनरेलिटी के प्रांतीय अधिकारी राजा द्वारा नियुक्त इण्टेन्डेण्ट कहलाते थे। ये राजाज्ञा के दास थे। सरकारी पदों पर सामंतों व चाटुकारों के खरीदे हुए लोग नियुक्त किए जाते थे। स्थानीय स्वशासन नहीं था। जन कल्याण से इनका कोई संबंध नहीं था।

कानून व प्रशासन जैसी कोई एक रूप प्रणाली नहीं थी। जहां जो बन गया वही कानून था। कानून क्रूर व न्याय रहित थे। दंड प्रणाली कठोरतम थी। कोई न्यायिक पद्धति भी नहीं थी। न्याय धन का क्रेतादास था। अधिकार अथवा दया की भीख मांगना अपराध था, मनुष्य अपना शीश झुकाये रखने को बाध्य था, उठते ही कुचल दिया जाता था। ऐसी राजनीतिक अव्यवस्था के परिदृश्य में फ्रांस का मनुष्य कैसे और कब तक नीची गर्दन किए रह सकता थआ। अतः इस व्यवस्था के विरुद्ध विद्रोह अवश्यंभावी हो गया।

आर्थिक कारण

फ्रांस में आर्थिक दिवालियापन एवं अत्यंत शोचनीय दशा का कारण दूषित कर पद्धति और राजशाही अपव्यय था। असमान एवं पक्षपातपूर्ण कर पद्धति ने कुलीन एवं निर्धन वर्ग में खाई को अत्यधिक चौङा कर दिया था। कुलीन एवं पादरी वर्ग प्रत्यक्ष करों से मुक्त था। फ्रांस की भूमि और आय का अधिकांश भाग इन 5 से 10 प्रतिशत लोगों के पास था, जिसमें राजकोष को न्यूनतम कर प्राप्त होते थे। नमक, शराब व तंबाकू पर परोक्ष कर लिये जाते थे।

नमक कर का एकाधिकार राज्य द्वारा किसी निजी कंपनी को दे दिया गया था। सात वर्ष से अधिक उम्र के प्रत्येक फ्रांसिसी को 7 पौंड वार्षिक नमक कर (गेबेल) देना पङता था। मनमाने मूल्य पर नमक बेचा जाता था। नमक नहीं खरीदना भी दंडनीय अपराध था। नमक का औद्योगिक व्यापार करने वालों को मृत्यु देड या अन्य कठोरतम दंड दिये जाते थे।

कर वसूली की ठेकेदारी प्रथा के तहत मनमाना कर वसूल किया जाता था। राजकीय आय का प्रमुख स्त्रोत किसान ही था, जिसे तीन प्रकार के कर चुकाने होते थे, राजकर, सामन्तकर और चर्च का कर, वह संपत्ति और आय पर भी कर चुकाना पङता था। बेगार भी करता था जिसे कोर्वी कहते थे। किसान सामंतों की भूमि पर कृषि भी करते थे, आटा भी पीसते थे और रोटी भी बनाते थे। सामंतों की भूमि छोङने पर चुंगी देनी पङती थी।

धर्म के नाम पर टाइथ या टिथ नामक वार्षिक कर (आय का दसवां भाग) लिया जाता था। प्रतिवर्ष न्याय कर दलितों सभी प्रकार के करों की अदायगी के बाद कृषक के पास उपज का 20 प्रतिशत ही अपने परिवार को पालने के लिये बच पाता था।

इसी में अकाल, दुर्भिक्ष या प्राकृतिक प्रकोप भी झेलने को वह बाध्य था। व्यापार व वाणिज्य नीति भी दूषित थी। एक ही नगर में कई स्थानों पर चुंगी चुकाई जाती थी, जिसे बचाने के लिये व्यापारी रिश्वत दिया करते थे।

इस दूषित व्यवस्था में राजकोष को प्राप्त न्यूनतम राजस्व आय राजा व राजपरिवार के विलासी जीवन पर ही खर्च हो जाती थी। राजकोष पर कर्ज का भार बढता जा रहा था, जबकि राजा, सामंत, कुलीन व पादरी वर्ग का जीवन अपव्यय से परिपूर्ण था। आरामदायक भवन बनाने, शौक व मनोरंजन, आखेट आदि पर व्यर्थ व्यय किया जा रहा था, बहुसंख्यक फ्रांसिसी भूख से जुझते हुए जीवन यापन कर रहे थे। जन असंतोष स्वाभाविक था।

लुई सोलहवें ने अर्थ व्यवस्था में सुधार हेतु प्रयत्न भी किए, लेकिन वह असफल रहा। तुर्गो (1774-76ई.),नेकर (1776-81ई.), केलोन (1783-87ई.) और ब्रियां (1787-88ई.) को अर्थमंत्री बनाया गया, लेकिन किसी को सफलता नहीं मिली। अंततः ब्रियां ने आर्थिक सुधारों के लिये एस्टेट्स जनरल का अधिवेशन बुलाने की सलाह दी, जिसे न चाहते हुए भी राजा को स्वीकार करना पङा और मई, 1789 ई. में एस्टेट्स जनरल की बैठक बुलाने की घोषणा करनी पङी, जो कि क्रांति के प्रारंभ का कराण बना।

सामाजिक कारण

अनेक विद्वान फ्रांस के समाज में व्याप्त सामाजिक असमानता को फ्रांस की क्रांति का कारण मानते हैं। कुलीन, पादरी, मध्यम वर्ग और सामान्य वर्ग, समाज के चार वर्ग थे। प्रथम दो वर्ग आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न थे। निम्न वर्ग की स्थिति सर्वाधिक दयनीय थी। कुछ इतिहासकार मानते है कि फ्रांस में कृषकों की दुर्दशा का मूल कारण सामंती अत्याचार थे। इसी प्रकार मध्यम वर्ग के व्यापारी भी कर बोझ के बजाय सामंती हस्तक्षेप से दुःखी थे। अतः सामंतों का अनियंत्रित जीवन, विशेषाधिकार एवं शोषण फ्रांस में बहुसंख्यक वर्गो में असंतोष का कारण था।

मध्यम वर्गीय बौद्धिक आंदोलन में भी राजा का विरोध न होकर प्रशासन में व्याप्त दोषों को दूर करने की मांग की गयी। अतः फ्रांस की क्रांति विशेषाधिकारों के विरुद्ध समानता के लिये आंदोलन था। फ्रांस में मध्यम वर्ग ने असमानता के विरुद्ध आवाज उठाई थी। फ्रांस का ग्रामीण व नगरीय मध्यम वर्ग अन्य राज्यों की अपेक्षा अधिक सजग, जागृत एवं चिन्तनशील था, अतः फ्रांस की क्रांति का नेतृत्व मध्यम वर्ग ने ही किया।

निम्न वर्ग में दास एवं श्रमिक थे जिनकी स्थिति अत्यन्त दयनीय थी। स्वतंत्र किसान व श्रमिक, अपना अनाज जमींदार की चक्की पर पिसवाने और उसी के चूल्हे पर अपनी रोटी सेकने को बाध्य थे। प्रत्येक कार्य के लिये कर चुकाना बाध्यकारी था। सामंत जब आखेट के लिये जाते तो इन किसानों की फसल की हानि हो जाती थी, विरोध करने या बोलने का उन्हें अधिकार नहीं था। ये विशेषाधिकार प्राप्त सामाजिक वर्ग निम्न वर्गों की दयनीय स्थिति का मूल कारण स्वीकार स्वीकार किए गए। जब मध्यम वर्ग ने क्रांति का आह्वान किया तो निम्न वर्ग के लोग स्वतः ही उनके साथ हो गए।

फ्रांस का बहुसंख्यक समाज इन उच्चवर्गीय सामंतों, पूंजीपतियों की दया पर निर्भर था। रोजगार, व्यापार, वेतन, उद्योग, कृषि, छापाखाना आदि कार्यों के लिये उच्च कुलीन वर्गों का मुंह ताकना पङता था। तद्जनित स्वाभाविक असंतोष 1789ई. में एकदम फूट पङा, जिसे रोक पाना असंभव था।

बौद्धिक कारण

18 वीं शताब्दी में फ्रांस में अनेक प्रतिभाशाली चिन्तक, दार्शनिक व लेखक जन्मे, जिन्होंने अपने लेखन से फ्रांस के प्राचीन गौरव और परंपराओं को उजागर कर फ्रांस के समाज को जागृत किया। बौद्धिक क्षेत्र में यह जागृति ही फ्रांस की क्रांति की आत्मा मानी जाती है। यद्यपि इन विचारकों ने क्रांति की कल्पना भी नहीं की थी। यह विवाद का विषय रहा है कि इन बौद्धिक विचारकों का क्रांति पर प्रभाव पङा।

वस्तुतः इन चिन्तकों के उन्नत विचार राजपरिवार में भी लोकप्रिय हुए। अतः यह कहा जाता है कि फ्रांस के दार्शनिक विचारकों ने क्रांति को जन्म ही नहीं दिया बल्कि यथा समय क्रांति से पूर्व इसकी सूचना अप्रत्यक्ष रूप से अपने लेखों में दे दी थी।

इन्होंने धार्मिक असहिष्णुता पर प्रहार किया। यूनान के टेलिनक्यूई ने अपनी एक कहानी में लुई चौदहवें के अपव्यय पर प्रहार किया। वाल्तेयर ने अव्यवस्थित एवं कमजोर राजतंत्र को देखकर ही कहा कि इन बदनाम चीजों को नष्ट कर दो सत्ता के अतिशय केन्द्रीकरण और अनुचित कानूनों ने मांटेस्क्यू को संवैधानिक राजतंत्र और शक्तियों के पृथक्करण हेतु अपने विचार व्यक्त करने को बाध्य किया।

रूसो ने अपनी पुस्तक सोशल कॉन्ट्रेक्ट में कहा मनुष्य स्वतंत्र उत्पन्न हुआ है, फिर भी हर कहीं वह बेङियों में जकङा हुआ है।

दिदरो ने सत्रह खंडों में 1772 ई. में प्रकाशित अपने विश्वकोष में सामाजिक व धार्मिक विषयों की गूढ विवेचना की। विश्व में कटुता उत्पन्न करने के लिये उसने निरंकुश राजाओं और पादरियों को दोषी ठहराया। इन विचारकों ने ही सामान्य वर्ग को समाज में व्याप्त राजनीतिक, सामाजिक व आर्थिक बुराईयों से परिचित कराया।

इन्होंने प्राचीन सभ्यता व संस्कृति की अच्छाईयों की तुलना समकालीन व्यवस्था से की जिससे लोगों में जागृति आई और प्रचलित व्यवस्था के प्रति विद्रोह की भावना उत्पन्न हुई। इन प्रगतिशील चिन्तकों ने प्रकृति और मनुष्य को अपने चिन्तन का केन्द्र बनाया। मनुष्य को साध्य स्वीकार कर मानव कल्याण को ही राज्य, चर्च एवं सामाजिक संस्थाओं का प्रमुख लक्ष्य घोषित किया। मानव विरोधी प्रचलित व्यवस्था का इन्होंने विरोध किया। इन प्रबुद्ध लेखकों के विचारों में उस समय के मनुष्य को आशावाद दिखाई दिया।

अतः जन सामान्य में इनके विचार लोकप्रिय हुए। रूसो ने लिखा कि मनुष्य को स्वतंत्रता, समानता व भ्रातृत्व आदिमकाल से ही प्राप्त था।

इस प्रकार फ्रांस के महान विचारकों ने मानव के प्राकृतिक अधिकारों, स्वतंत्रता, समानता, मानवमात्र में भ्रातृत्व, राज्य व मनुष्य के संबंध, धर्म और राज्य के संबंध आदि विषयों पर अपने विचारों से जनजीवन में अप्रत्यक्ष रूप से चेतना को जन्म दिया। अतः क्रांति स्वाभाविक थी।

अमेरिका के स्वतंत्रता संग्राम का प्रभाव

अमेरिका के स्वातंत्र्य संग्राम में सफलता ने फ्रांस पर दोहरा प्रभाव डाला। विपन्न आर्थिक स्थिति में अमेरिका को सैनिक सहायता देने से फ्रांस की आर्थिक स्थिति और दयनीय हो गयी। फ्रांस के राजकोष पर ऋणभार और अधिक बढ गया जो फ्रांस के राजतंत्र हेतु भयानक सिद्ध हुआ।

दूसरी ओर फ्रांस के जो सैनिक व सैन्य अधिकारी अमेरिका के स्वातंत्र्य-युद्ध में इंग्लैण्ड के विरुद्ध लङने गए थे, उन पर अमेरिका के लोगों की स्वच्छंदता, स्वतंत्रता प्रियता और स्वाभिमान पूर्ण जीवन यापन का भारी प्रभाव हुआ। फ्रांस के सैनिकों के मन में भी राष्ट्रभक्ति और स्वतंत्रता की भावना जागृत हुई अमेरिकी लोगों में स्वतंत्रता के प्रति उत्साह को उन्होंने फ्रांस में आकर सुनाया। लफायते अमेरिका से लौटे फ्रांसिसी सैनिकों का नेता था, जिसने फ्रांस के लोगों के मन में स्वतंत्र राष्ट्र के निर्माण का उत्साह भरने का पूर्ण प्रयत्न किया। अतः अमेरिका की क्रांति स्वरूप में भिन्न होते हुए भी, फ्रांस के लिये प्रेरणा दायी सिद्ध हुई।

मध्यम वर्ग का उदय

फ्रांस के 80 प्रतिशत बहुसंख्यक, कष्ट भोग रहे निर्धन कृषकों एवं श्रमिकों में, उच्च वर्ग के कुलीन सामंतों, पादरियों का विरोध करने की क्षमता नहीं थी। फ्रांस के बहुत बङे वर्ग को नेतृत्व की आवश्यकता थी, जिसकी पूर्ति फ्रांसिसी समाज के मध्यम वर्ग ने की। यह मध्यम वर्ग उच्च वर्गों के विकृत रहन-सहन से भी परिचित और निम्न वर्ग से भी निरंतर संपर्क में था। मध्यम वर्ग उच्च वर्गों के विकृत रहन-सहन से भी परिचित और निम्न वर्ग से भी निरंतर संपर्क में था। मध्यम वर्ग सुशिक्षित, प्रगतिशील एवं क्रांतिकारी, लेखक, विचारक, शिक्षक, व्यापारी, वकील, चिकित्सक आदि थे। वे अपनी स्थिति में सुधार चाहते थे। अतः फ्रांस की क्रांति के प्रस्फुटन में मध्यम वर्ग की भूमिका अत्यंत महत्त्वपूर्ण सिद्ध हुई।

धार्मिक असंतोष

फ्रांस में इस समय लगभग एक लाख चालीस हजार धर्म प्रचारक एवं पादरी थे। 25 हजार के लगभग संत पादरी और 60 हजार के लगभग सांसारिक पादरी थे। 37 हजार के लगभग साध्वियां थी और 130 बिशप थे। सबको प्राप्त होने वाली आय असमान थी। कुछ पादरी ऐश्वर्यशाली जीवन जी रहे थे और कुछ दो वक्त का भोजन जुटाने में भी कठिनाई भोग रहे थे। चर्च की आय का साधन कृषि पर लगान और उपहारों से प्राप्त आय थी।

प्रार्थना, सहयोग और सेवा के बदले फ्रांस लोगों ने यह धन चर्च को दिया था। निर्धन व भूखी जनता को चर्च की यह संपत्ति अखरने लगी। टाइथ नामक धार्मिक कर स्वेच्छा से दिया जाता था, जोकि जबरन वसूला जाने लगा। चर्च के इस व्यवहार के प्रति किसानों में घृणा भाव उत्पन्न हो गया। सात्विक एवं सच्चे सेवक, गरीब पादरियों की दशा भी निर्धन कृषकों व श्रमिकों के समान ही थी। अतः फ्रांस का गरीब भूख से बचने के लिये, चर्च की विलासिता का साधन बनी इस अथाह संपत्ति को लूटने की सोचने को बाध्य था।

इंग्लैण्ड का प्रभाव

1779 ई. से 1782 ई. तक आयरलैण्ड के लोगों ने इंग्लैण्ड के विरुद्ध संघर्ष करके अनेक सुविधायें प्राप्त कर ली थी, जिससे उनके कष्ट काफी कम हो गए थे। अतः फ्रांस की निर्धन जनता के समक्ष संघर्ष एवं सफलता का एक उदाहरण आयरलैण्ड भी था। इंग्लैण्ड के निरंतर संवैधानिक एवं संसदीय विकास ने भी फ्रांस के लोगों को प्रभावित किया। इंग्लैण्ड में 1688 के बाद संसदीय सर्वोच्चता और शासन में जन प्रतिनिधित्व के क्षेत्र में बहुत विकास हो चुका था, जिसकी तुलना फ्रांस के निरंकुशतंत्र से की जाने लगी। अतः फ्रांस के लोग भी स्वतंत्रता, समानता व जन प्रतिनिधित्व से परिपूर्ण शासन की अपने देश में अपेक्षा करने लगे थे।

तात्कालिक कारण

वित्त मंत्री ब्रियां के परामर्श पर 5 मई, 1789 ई. को 175 वर्षों बाद एस्टेट्स जनरल का अधिवेशन आयोजित करना निश्चित हुआ था। इस विधायी संस्था के स्वरूप, संगठन, कार्य प्रणाली और चुनाव आदि के बारे में किसी को कोई जानकारी नहीं थी। अप्रेल, 1789 ई. में एस्टेट्स जनरल का चुनाव हुआ। सामान्य लोगों के तृतीय सदन की सदस्य संख्या राजा ने दोगुनी कर दी। इस अवसर पर मतदाताओं को अपनी शिकायतें, कठिनाइयां एवं सुझावों के बारे में स्मृति पत्र देने का अवसर मिला, इन स्मृति पत्रों की संख्या पचास हजार थी।

25 वर्ष की उम्र के करदाता को मतदान का अधिकार दिया गया था। चुनाव में 285 कुलीन वर्ग के, 308 पादरी और 621 निम्न वर्गों के सदस्य चुने गए।

ये कुल सदस्य 1214 थे। वैकल्पिक सदस्यों को मिलाकर कुल संख्या 1600 से भी अधिक हो गयी। तीनों सदनों के मांग पत्र अलग अलग थे। मानव अधिकारों की घोषणा की मांग समान थी। अधिवेशन का उद्घाटन राजा ने 5 मई, 1789 ई. को वर्साय में किया। अपने भाषणों में सुधारों का उल्लेख तो किया लेकिन सुधार कार्यक्रम एवं अधिवेशन की कार्य प्रणाली के संबंध में कोई जिक्र नहीं किया गया।

तृतीय सदन के सदस्य तीनों सदनों की संयुक्त बैठक की मांग कर रहे थे लेकिन प्रथम व द्वितीय सदन के कुछ पादरियों को छोङकर कोई नहीं आया। 17 जून को तृतीय सदन ने स्वयं को नेशनल असेम्बली घोषित कर दिया। 19 जून को द्वितीय सदन (पादरी) ने भी तृतीय सदन के साथ बैठक करना स्वीकार कर लिया। 20 जून को जब तृतीय सदन के सदस्य बैठक हेतु आये तो राजा ने सभा भवन को बंद करवा दिया। स्पष्ट हो गया कि राजा सदन की कार्यवाही चलने देने के विरुद्ध था।

फ्रांस की बहुसंख्यक जनता की अपेक्षाएं और असेम्बली की तरफ निगाहें निराशा में बदलती नजर आने लगी। अतः तृतीय सदन के सदस्यों ने सभा भवन के बाहर स्थित टेनिस कोर्ट में शपथ ली कि फ्रांस को संविधान दिये बगैर सभा विसर्जित नहीं की जायेगी। राजा ने नेशनल असेम्बली को मान्यता प्रदान कर दी। टेनिस कोर्ट की शपथ क्या थी?

12 जुलाई, को एक युवा वकील कैमेली-डिमैलो ने पेरिस में उत्तेजना पूर्ण भाषण दिया, जिससे पेरिस की भीङ अनियंत्रित हो गयी। 14 जुलाई को क्रुद्ध भीङ ने बास्तील के जेल को तोङकर कैदियों को मुक्त करा लिया। सुरक्षा सैनिकों को मार डाला गया। 14 जुलाई की यह घटना क्रांति का प्रारंभ एवं प्रमुख सफलता थी।

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