इतिहासतुर्क आक्रमणमध्यकालीन भारत

भारत में तुर्क आगमन कब हुआ?

भारत में तुर्क आगमन – तुर्की आक्रमण भारत के इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण घटना थी। इस आक्रमण ने अपने व्यापक प्रभाव से सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक एवं धार्मिक क्षेत्रों में उल्लेखनीय परिवर्तनों को जन्म दिया। परिणामतः अनेक क्षेत्रों में भारतीय समाज का उत्थान तथा समृद्धि हुई। इससे पहले भारत में जितने भी आक्रमण हुए (उदाहरण के लिए शकों, कुषाणों, हूणों आदि के आक्रमण) उनमें से कोई भी आक्रमण इतना प्रभावशाली सिद्ध नहीं हुआ था।

भारत में तुर्क आक्रमणों का इतिहास

हजरत मुहम्मद के बाद मुस्लिम राजशासन का स्वरूप

भारत में तुर्क आगमन कब हुआ?

इससे पहले कि हम तुर्कों के आक्रमणों का अध्ययन करें, इस विषय में यह जानना आवश्यक है कि हजरत मुहम्मद की मृत्यु के बाद मुस्लिम राजशासन का स्वरूप क्या था। तुर्की शासन व्यवस्था जनजातीय संगठन पर आधारित थी। इस व्यवस्था में कुल का एक प्रधान होता था, जो अपने सभी संबंधियों की राय के अनुसार कार्य करता था। जहाँ तक हजरत मुहम्मद साहब के कार्यों का प्रश्न है, यही कहना उचित होगा कि उसने जीवनकाल में (570-632 ई.) सभी प्रकार के कार्य किए, जैसे पैगंबर के कार्य, कानूनी कार्य, न्याय संबंधी कार्य, सेनापति के कार्य आदि-आदि। मदीना के शहरी राज्य में मुहम्मद ने मुस्लिम समाज को एक राजनीतिक संगठन का रूप दिया। पुराने कबीलों की इकाई को समाप्त करने के बाद मुहम्मद ने वर्ग भेद की वंश भेद परंपरा को भी समाप्त किया। अनेक कबीलों के प्रधानों ने मुहम्मद को अपना मुखिया बना लिया। धीरे-धीरे मदीना के लोगों ने इस्लाम को व्यापक रूप प्रदान कर दिया। इनका सामाजिक संगठन वंश संबंधों पर नहीं, धार्मिक आदर्शवाद पर निर्भर था। मुहम्मद ने ईश्वर को केंद्र में रखते हुए राज्य स्थापित किया, जिसमें राजनीतिक प्राधिकार ईश्वरीय कानून या शरईया में निहित थे। शरईया या दैवी कानून कुरान में स्पष्ट किए गए हैं और इनका समर्थन सुन्ना अर्थात् पैगंबर द्वारा बनाए गए सिद्धांत में किया गया है जो कि पैगंबर के उपदेश हैं। कुरान के अधिनियमों में कोई विशेष प्रकार का राज्य नहीं बताया गया है और न ही कोई ऐसा निर्देश दिया गया है। वहाँ किसी भी व्यवस्थित राजनीतिक निर्देश को न अपनाकर सरकारी कार्यों को समय की आवश्यकता के अनुसार रहने दिया गया है।

कुरान में केवल तीन सामान्य सिद्धांत संकेत रूप में दिए गए हैं, जिन पर विश्वास करना सभी मुस्लिम धर्मावलंबियों के लिए आवश्यक हैं :

  • जब जनता पर शासन किया जाए, न्यायसंगत शासन करो।
  • अपने कार्यों को सलाह या मशवरा लेकर पूरा करो।
  • अल्लाह की आज्ञा को पूरा करो, पैगंबर की आज्ञा मानो और अपने से अधिकार में बङे लोगों की आज्ञा का पालन करो।

कुरान में किसी भी वर्ग को विशेष अधिकार नहीं दिए गए हैं – न जन्म से कोई वैभवशाली माना गया है और न किसी को पुरोहित के विशेषाधिकार दिए गए हैं। सामाजिक रूप से सबसे महान और सामान्य जन में कोई अंतर नहीं है। सामाजिक रूप से इस्लाम किसी प्रभुत्वसंपन्न राज्य को नहीं मानता और न ही किसी राजा या राजवंश को स्वीकार करता है। शुरू में इस्लाम की राजनीति जनतांत्रिक थी, किंतु धीरे-धीरे इसमें परिवर्तन हुए हैं। शरा में बतलाए गए कानूनों की प्रधानता इस्लाम की राजनीति का आधार है। जैसा भी उसका बाहरी आकार है, कुरान सभी मुसलमानों के लिए अनिवार्य धार्मिक ग्रंथ है, जिसकी अवहेलना नहीं की जा सकती।

यह बात महत्त्वपूर्ण है कि पैगंबर ने अपने उत्तराधिकारी के बारे में कोई नियम नहीं बताए और न ही निर्वाचन के अधिकारों में हस्तक्षेप करना उचित समझा। यहाँ तक कि जब वे अपनी मृत्यु शय्या पर थे, उन्होंने अबू बक्र को प्रार्थना करवाने के सारे अधिकार सौंप दिए। अब्रू बक्र (632-634 ई.) को आम राय से खलीफा भी चुना गया। इस प्रकार जो भी राजनीतिक सत्ता सामने उभरकर आई, वही एक प्रकार का आधार बन गई। खलीफा के अधिकार इस बात पर निर्भर थे कि वह सरकार को कितना सुव्यवस्थित कर सकता था। यदि खलीफा अल्लाह के हुक्म को नहीं मानता है तो लोगों को विरोध और आंदोलन करने का अधिकार है। साथ ही खलीफा को न्याय और समानता के सिद्धांतों के अनुसार शासन करने का अधिकार है।

अंदरूनी मामलों में व्यस्त रहते हुए भी अबू बक्र ने अरब के पङोसी राज्यों को जीतने के लिए प्रयत्न किए। पैगंबर की इच्छानुसार उन्होंने बाइजेंटाइन राज्य के विरुद्ध सेना का नेतृत्व किया और इसके बाद सासानिद के विरुद्ध विजय हासिल की। इन सफलताओं के कारण अरबों को विश्वास और सम्मान मिला। सीरिया का राज्य आगे के विकास के लिये एक प्रकार का आधार बन गया। अबू बक्र ने उमर (634-644 ई.) को अपना उत्तराधिकारी चुना। खलीफा की उपाधि के साथ-साथ उमर ने अमीर उलमुमीनिन (विश्वस्त लोगों का अगुआ) की उपाधि धारण की। उमर के समय में विजय यात्रा का कार्य बहुत सफलता से हुआ। सीरिया को पाने के बाद उमर ने अपना ध्यान सासानिद राज्य की तरफ लगाया जहाँ पर अरब की विजय हुई। इसके बाद मिस्त्र को भी इस्लामी गणराज्य के साथ मिला लिया गया। इस विस्तारवादी नीति से प्रशासन संबंधी समस्याओं का बढना स्वाभाविक था। प्रत्येक देश को प्रांतों में बाँटा गया, जमीन बंदोबस्त और जनगणना की गई। साथ ही पेंशन तथा वजीफे देने के लिये रजिस्टर बनाए गए।

उस्मान (644-656 ई.) इस्लाम के तीसरे खलीफा हुए। इस समय इस्लाम धर्म के अनुयायियों में पक्षपात, ईर्ष्या तथा स्वार्थ की भावनाएँ प्रबल हो गई। किंतु चौथे खलीफा अली के वध के बाद इस्लाम के इतिहास का एक अध्याय समाप्त हो गया।

कुरान में खलीफा शब्द प्रतिनिधि के लिये प्रयुक्त हुआ है। यहाँ खलीफा को पृथ्वी पर खुदा का प्रतिनिधि माना गया है। यही उपाधि पैगंबर के उत्तराधिकारी के लिये भी उपयुक्त मान ली गयी। इस्लामी कानून पादशाह को राजनीतिक संस्था के रूप में स्वीकार नहीं करता और इसी कारण उत्तराधिकारी के कानून को भी स्वीकार नहीं करता। खलीफा द्वारा नामजदगी और निष्ठा की शपथ ही काफी है। इस्लामी राज्य एक धर्मतंत्रात्मक राज्य था जिसमें खुदा ही बादशाह अथवा शासक माना जाता थआ। उसके द्वारा बनाए गए कानून ही संविधान के रूप में माने गए हैं। ऐसी स्थिति में वे पुरोहित प्रपंच के हिस्से नहीं हैं।

कुरान के नियमों के अनुसार छोटे नगर या राज्य पर शासन करना संभव था, जहाँ जनता की राय सीमित थी और जहाँ गुलामी भी कम थी। उदाहरण के लिये इस प्रकार का राज्य मदीना था। लेकिन मध्य युग के विशाल राज्य पर जिनमें विविध भाषाओं, धर्मों तथा कबीलों के लोग थे, कुरान के नीति वचन को लागू करना कठिन था। फिर भी पैगंबर ने भविष्य में होने वाले परिवर्तनों में सरकार चलाने के लिये कोई प्रतिबंध नहीं लगाए और संपूर्ण मामलों को जातिगत समझौतों पर छोङ दिया। पवित्र खलीफा राज्य जनमत (इजमा-ए-उम्मत) के ऊपर निर्भर था। जब खलीफा के स्थान पर शासक की वंशगत परंपरा शुरू हो गयी, तो उसने सारे अधिकार अपने हाथ में ले लिए। हर सामान्य मुसलमान शासक निरंकुश माना गया है, हालाँकि उन्हें शरियत के कानूनों को स्वीकार करना था और जो लोग राजनीति में नहीं थे, उनके अधिकारों की रक्षा करनी थी।

इस्लाम के उत्थान के समय से एशिया में इस्लामी विजय तक इस्लाम का इतिहास चार भागों में विभाजित किया जा सकता है :

  • विस्तार का समय (622-748ई.) जबकि उमय्या काल में अरब, ईराक, सीरिया, फारस तथा उत्तरी अफ्रीका पर विजय प्राप्त हुई।
  • तुर्की के आधिपत्य का समय (749-900 ई.) या अब्बासी खलीफा का काल, जिसे सबसे अधिक शांति एवं समृद्धि का काल कहा जाता है।
  • छोटे-मोटे वंशों के राज्य का काल (900-1000 ई.) या पुनर्जागरण का समय । इसी काल में खलीफा की शक्ति का हास हुआ और छोटे-छोटे राज्य अस्तित्व में आए।
  • तुर्की-फारसी राज्य का काल, जिसमें, सेल्जुग और ख्वारजमियन वंश के काल सम्मिलित किए जा सकते हैं।

खलीफा उस्मान के समय में मुसलमानों में पक्षपात और विरोध का आरंभ हुआ। यह स्थिति इतनी बढती गयी कि चतुर्थ खलीफा अली के समय में मुबयिआ के विरोध के कारण साम्राज्य का बँटवारा हो गया और 662 ई. में मुबयिआ ने अली की मृत्यु के बाद उसके पुत्र हसन को हटाकर उमय्या के खिलाफत की नींव डाली। उमय्या के समय इस्लाम की राजनीतिक भावना में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुआ। मुबयिआ से खलीफा को एक प्रकार की पादशाहत का रूप दे दिया और उसका धार्मिक नेतृत्व क्षीण होने लगा। मुबयिआ ने अपने बेटे याजिद को अपना उत्तराधिकारी बनाया। इस कारण सभी खलीफाओं और सुल्तानों में यह आम प्रथा हो गयी कि अपना उत्तराधिकारी बनाएँ, और उसका अधिकार स्वीकार करवाएँ। सरकार की राजधानी मदीना से दमिश्क हस्तांतरित कर दी गयी। इस वातावरण में यह आश्चर्य की बात नहीं है कि इस्लाम के कई मूलभूत नियम आचार-भ्रष्ट उलेमाओं द्वारा भंग किए गए। मुबयिआ ने उमय्या वंश को राजनीतिक दल के रूप में संगठित किया। उमय्या खिलाफत वास्तव में एक पादशाहत थी। इस्लामी राष्ट्रमंडल भी संगठित हुआ, परंतु उसके रूप में भारी परिवरत्न हुआ। एक धर्मतंत्र राज्य ने अब एक धर्मनिरपेक्ष राज्य अर्थात् लौकिक राज्य का रूप ग्रहण किया। रूढिवादी लोगों ने उसकी आलोचना की है। उनके अनुसार इस्लाम को राजनीतिक रूप देकर उसके धार्मिक स्वरूप को समाप्त कर दिया गया। वह इतिहास में पहला शासक या मालिक माना जाता है। उमय्या वंश के शासक राजनीति में विश्वास करते थे। उन्होंने सारी समस्याओं का व्यावहारिक समाधान ढूँढने की कोशिश की और एक प्रकार के प्राधिधर्माध्ययन समाज की स्थापना की जिसमें कुलपति मुख्य था। कुलपति कुलीन अरब सैयद था और सभी सरदारों की सलाह द्वारा राज्य करता था। उमय्या वंश के सत्ताशाही राज्य में केवल राजनीतिक समस्याएं हल हो सकती थी, परंतु कई गृहयुद्धों के बाद उनके राज्य का हास शुरू हो गया। सरकार बनाने के लिए शासकों के पास केवल दो रास्ते थे – प्रारंभिक इस्लाम के प्रजातांत्रिक रूप को स्वीकार करना जिसका परिणाम था आंतरिक अव्यवस्था और विद्रोह या सर्वाधिक केंद्रित राज्य बनाना। उन्होंने दूसरी प्रथा को अपनाया और कोई प्रशासन संबंधी उद्देश्य नहीं अपनाए। वर्गीय स्वार्थ और ऐश्वर्य की इच्छा ने उनके आंदोलन को कमजोर कर दिया। परंतु यह राज्य विस्तार का युग भी था। पूर्व में अफगानिस्तान, बलूचिस्तान और मध्य एशिया का काफी भाग मुस्लिम साम्राज्य के अंतर्गत आ गया। इसी वैभव और विस्तार के युग में अरबों ने सिंध-विजय प्राप्त की।

आठवीं शताब्दी के मध्य में खुरासान में आंदोलन शुरू हुआ, जिससे उमय्या वंश का पतन हुआ और अब्बासी वंश की स्थापना हुई। मुहम्मद साहब के चाचा अब्बास के वंशजों ने बङी चतुराई के साथ ईरानियों तथा शियाओं के सहयोग से उमय्या वंश का नाश करके स्वयं खलीफा का पद प्राप्त किया। इनका दावा था कि ये उसी कबीले के सदस्य थे जिस कबीले के मुहम्मद साहब थे और इसी कारण उन्हे भी पवित्र माना जाना चाहिए। अब्बासी खलीफाओं ने दमिश्क को छोङकर बगदाद को अपनी राजधानी बनाया। इसी समय इस्लाम के नए अनुयायी प्रभावशाली और शक्तिशाली हो गए। यद्यपि अब्बासी खलीफे कट्टर मुसलमान थे, तथापि उन्होंने गैर-अरबों, जैसे ईसाई एवं यहूदियों और ईरानियों को भी, प्रशासन में शामिल किया। कहना चाहिए कि इस प्रकार अब्बासी खलीफाओं ने भाईचारा और समानता की भावना को व्यावहारिक रूप दिया।

यह दिखाने के लिये कि राजनीतिक सत्ता धार्मिक आधारों पर निर्भर है, प्रथम अब्बासी खलीफा ने अब्बास पैगंबर का लबादा विशेष उत्सव पर पहना। इस युग के सबसे प्रसिद्ध खलीफे मामून और हारुन-उल-रशीद थे। अब्बासी शासकों ने अब सत्ताधारी राज्य को राजनीतिक परंपरा के रूप में अपनाया किंतु उन्होंने ईरानी सर्वसत्ताधारी परंपरा को भी जारी रखा। हसन के शासनकाल में राजकीय वैभव इतना अधिक था कि उसके राजदरबार और महलों में कोने-कोने से अनेक विद्वान, कवि और कलाकार बगदाद आए। हसन के सयम में इमाम अबू यूसुफ (731-98 ई.) ने, जो कि सर्वोच्च न्यायाधीश था, सरकार के सिद्धांत बनाए। ये सिद्धांत किताब-उल-खिराज नामक पुस्तक में संकलित हैं। यह पुस्तक जमीन और कर के मामले में एक प्रकार की नियमावली है और इसकी भूमिका में इमाम अबू यूसुफ ने लिखा है कि खलीफा को धर्मभीरु होना चाहिए। उसे न्याय और समानता के नियमों के अनुसार शासन करना चाहिए। शासक में ईश्वरीय शक्ति ही है। अब्बासी वंश के प्रारंभिक शासनकाल में फारसी प्रशासक – जिसमें बरमाकीद एक उदाहरण है – शासक वर्ग थे। बाद में बदलती स्थिति के कारण तुर्क प्रशासक बने और उन्होंने एक विशाल साम्राज्य पर शासन किया जो कि पूर्वी भूमध्य सागर से चीन की सीमा रेखा पर फैला हुआ था। मंसूर से मुतवक्कुल के समय तक सभी खलीफा महान थे और उनमें प्रशासनिक शक्ति थी। उन्होंने दृढता और चतुराई से शासन किया तथा एक ऐसा राजय बनाने का प्रयत्न किया जिसमें अरबों और ईरानियों के समान अधिकार हो। 9 वीं शताब्दी के अंत में अब्बासी खलीफाओं का पतन आरंभ हो गया। दसवीं शताब्दी में अजाम में कई वंश शक्तिशाली थे। औपचारिक रूप से इन्होंने खलीफा की सत्ता को स्वीकार किया परंतु वास्तव में वे स्वतंत्र राज्य थे। इनमें से सबसे महत्त्वपूर्ण 1.) ताहिरिद 2.) सफाविद 3.) समानिद 4.) बूईद थे। इन वंशों ने अपनी स्वतंत्र राजनीतिक संस्थाएँ प्रारंभ की और ऐसी सरकार बनाई जो शांति कायम रख सके तथा वाणिज्य और व्यवसाय को बढावा दे सके। इसके बाद तर्क-फारसी साम्राज्य एवं तुर्क-अब्बासी साम्राज्य शुरू हुआ। तुर्क अब्बासी साम्राज्य में महलरक्षकों और पेशेवर सैनिकों के रूप में आए थे। धीरे-धीरे जब केंद्रित सरकार की शक्ति का हास हुआ, प्रांतीय शासक अपनी स्वतंत्रता की घोषणा करने लगे। नवीं शताब्दी के अंत में ट्रांस-ओक्सियाना, खुरासान तथा ईरान के कुछ भागों पर सामानी शासकों का राज्य था जिनको अपनी उत्तरी और पूर्वी सीमाओं पर तुर्कों से हमेशा संघर्ष करना पङता था। इसी संघर्ष के कारण एक नए प्रकार के सैनिक गाजी का उदय हुआ।

सामानी साम्राज्य के प्रशासकों में तुर्क गुलाम अलप्तगीन था जो चौंतीस वर्ष की आयु में खुरासान का सेनापति हुआ। सामानी साम्राज्य के पतन के बाद उसने मध्य एशिया में अपना राज्य स्थापित किया। उसकी राजधानी गजनी थी। गजनी वंश का जन्मदाता अलप्तगीन ही था। इस काल को प्रबुद्ध तानाशाही का काल कहा जाता है। निजामुल-उल-मुल्क-तासी के अनुसार अलप्तगीन बुद्धिमान था, वह अपने दल के लिये वफादार था तथा साथ ही धर्मभीरु भी था। उसने 1700 तुर्क गुलामों को चुना, जिनमें से एक सुबुक्तगीन भी था। जब सुबुक्तगीन ने हिम्मत और हौसला दिखाया, तब उसे अलप्तगीन के सब तौर तरीकों को अपनाया जैसे खान-पान, शिकार, चौगान तीरंदाजी आदि। अपने संरक्षक की मृत्यु के बाद सुबुक्तगीन ने अपना स्वतंत्र राज्य गजनी में स्थापित किया। गजनी के शासक अबू बक्र लायक को निकालकर उसने अपने को नए स्थापित राज्य का शासक घोषित किया। शक्ति ग्रहण करने के बाद उसने उत्तर भारत की ओर कदम उठाया। सन 986 में सुबुक्तगीन ने जयपाल के विरुद्ध सेना भेजी जिसमें जयपाल की सेना को भारी क्षति उठानी पङी और जयपाल संधि करने के लिए बाध्य हो गया। अपनी मृत्यु से पहले सुबुक्तगीन ने अपने राज्य में सारा अफगानिस्तान, खुरासान, बल्ख तथा भारत की पश्चिमोत्तर सीमा को सम्मिलित कर लिया था।

अपने पिता की मृत्यु के बाद महमूद ने गजनी पर अधिकार कर लिया। सुल्तान महमूद के साथ ही इस्लाम के इतिहास में एक नया अध्याय शुरू हुआ। वह अजाम का प्रथम सुल्तान माना जाता है। तारीख-ए-गुजीदा के अनुसार सीस्तान के राजा खलफ बिन अहमद को हराने के बाद ही महमूद ने सुल्तान की पदवी ग्रहण की। इतिहासकार मानते हैं, कि महमूद सुल्तान की उपाधि प्राप्त करने वाला पहला शासक था। साथ ही यह भी सत्य है, कि खलीफा ने इस उपाधि को स्वीकार नहीं किया था, क्योंकि खलीफा ने पहले यह उपाधि सल्जुक शासक तुगरिल को उस समय दी थी जब उसने 1400 ई. में महमूद के बेटे मसूद पर दंडक नामक स्थान पर विजय प्राप्त की थी। खुतबा में तुगरिल का उल्लेख सुल्तान-अल-मुअज्जम किया गया है।

दसवीं और ग्यारहवीं शताब्दी में अजाम के इतिहास में दो परिवर्तन महत्त्वपूर्ण हैं, प्रथम, सेना और प्रशासन में तुर्कों की प्रधानता। दूसरे इस समय सल्तनत, अजाम का प्रशासनिक केंद्र बन गया, और खलीफा अब केवल एक प्रतीक मात्र रह गया।

बारबोल्ड के अनुसार गजनीकाल में, विशेष रूप से महमूद के समय में, साम्राज्य का सर्वोत्तम रूप प्रकट हुआ। अपने पिता का उत्तराधिकारी होने के बाद महमूद ने खलीफा कादिर के पास प्रार्थनापत्र भेजा कि नए स्थापित किए हुए राज्यों को विधि द्वारा प्रतिष्ठा मिले और उनके अधिकार न्यायोचित माने जाएँ। खलीफा कादिर ने उसको नियुक्ति पत्र द्वारा राजसत्ता का अधिकारी बनाया और यमीनुद्दौला (साम्राज्य का दाहिना हाथ) की उपाधि दी। इसके अलावा उसको अमीन-उल-मिल्लत (मुसलमानों का संरक्षक) का खिताब भी दिया। महमूद ने आदेश दिया कि खलीफा का नाम उसके समस्त राज्य के खुतबा में शामिल किया जाए। महमूद ने आदेश दिया कि खलीफा का नाम उसके समस्त राज्य के खुतबा में शामिल किया जाए। इस प्रकार खलीफा का प्रभाव तब तक प्रतीक के रूप में बना ही रहा जब तक कि इस प्रथा को 1258 ई. में हलाकू खान ने समाप्त नहीं कर दिया।

गजनी राज्य के उत्थान के समय भारत की उत्तर-पश्चिमी सीमा पर तुर्कों का प्रभाव बढ गया। मध्य एशिया में गजनवी राज्य एक नए साम्राज्यवादी आंदोलन का केन्द्र बन गया जिसका उद्देश्य था तुर्क एवं फारस पर अधिकार। गजनी और लाहौर गजनी साम्राज्य के महत्त्वपूर्ण प्रशासन केन्द्र बन गए।

सन् 1000 और 1026 ई. के बीच महमूद ने भारत पर 17 बार आक्रमण किए। महमूद के कुछ प्रमुख आक्रमण पंजाब के हिंदू शाही राजाओं में जयपाल और आनंदपाल, मुल्तान, भटिंडा (1004 ई.), नारायणपुर (1009ई.), थानेश्वर (1014 ई.), कन्नौज और मथुरा (1018, 1029 ई.), कालिंजर (1019 ई. तथा 1022-23ई.), सोमनाथ (1024-26 ई.) तथा जाटों (1027 ई.) के विरुद्ध हुए हैं। इनमें से सबसे महत्त्वपूर्ण सोमनाथ मंदिर वाला आक्रमण (1024-26 ई.) था । उन दिनों सोमनाथ का मंदिर अपनी अपार संपत्ति के लिये प्रसिद्ध था। भारत में पंजाब के बाहर यह उसका अंतिम अभियान था। 1030 ई. में गजनी में महमूद की मृत्यु हो गयी।

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