इतिहासमध्यकालीन भारत

मंगोल समस्या क्या थी?

मंगोल समस्या – मंगोल राज्य की उत्तर पश्चिम सीमा का इलाका एक भली-भाँति निर्धारित और सुपरिभाषित क्षेत्र है, जिसका एक लंबा इतिहास है। उत्तर में हिंदूकुश के पहाङों तक है तथा दक्षिण में बलूचिस्तान और थार के रेगिस्तान तक, जबकि पूर्व में यह कश्मीर और पंजाब के प्रदेशों तथा पश्चिम में अफगानिस्तान से घिरा हुआ है। मध्य भाग खैबर दर्रे से लेकर बोलन दर्रे तक के इलाके में अनेक रास्ते मुहैया कराता है। दिल्ली सल्तनत की राजनीतिक स्थिरता बनाए रखने के लिये काबुल गर्जनी कंधार क्षेत्र पर, जो कि हिंदूकुश श्रृंखला के पहाङों से विभाजित था, नियंत्रण रखना जरुरी होता था। इस क्षेत्र को अंग्रेज विद्वानों ने वैज्ञानिक सीमा कहा है, क्योंकि यह पंजाब की पाँचों नदियों से सिंचित उपजाऊ घाटियों के प्रदेश मार्गों को अपने नियंत्रण में रखता है। दिल्ली सुल्तानों के लिये इस क्षेत्र को अपने नियंत्रण में रखना इसलिए भी आवश्यक था ताकि उनके मध्य एशिया के साथ संचार संबंध बने रहें। आर्थिक दृृष्टि से यह क्षेत्र भारत को प्रसिद्ध प्रसिद्ध रेशम मार्ग से भी जोङता था जो कि चीन से ईरान की ओर जाता था। बलूचिस्तान से कश्मीर तक के पर्वतीय क्षेत्र के विस्तार में खोखर और अवंड आदि जन जातियों के लोग निवास करते थे, जो अपने ऊपर किसी भी तरह के राजनीतिक प्रभुत्व का प्रतिरोध विरोध करते थे। ऐसी कठिन परिस्थितियों में, दिल्ली के सुल्तानों के लिये यह आवश्यक था कि वे इस क्षेत्र को अपने कठोर नियंत्रण में रखें। लेकिन साथ ही मध्य एशिया और पश्चिमी क्षेत्रों में मंगोलों के अचानक और प्रभावशाली उत्थान ने दिल्ली के सुल्तानों को अपनी सीमा चिनाब और सतलुज नदियों तक सीमित करने को भी मजबूर कर दिया था। यही मुद्दा अनेक लङाइयों का केंद्र बना। इस प्रक्रिया में सिंध नदी दिल्ली सल्तनत की सांस्कृतिक सीमा बन गयी।

शिहाबुद्दीन मुहम्मद गोरी की मृत्यु के बाद सीमा का प्रश्न एक वास्तविक तथ्य बन गया जब गोर साम्राज्य कई टुकङों में खंडित हो गया और दिल्ली सल्तनत तुर्कों का एक स्वतंत्र साम्राज्य बन गयी। गोरी की मृत्यु से पहले मध्य एशिया के साथ संचार संपर्क बनाए रखने के लिए काबुल, गजनी और कंधार पर नियंत्रण बनाए रखना आवश्यक था। जितने समय तक गोर साम्राज्य अफगानिस्तान पर अपना नियंत्रण बरकरार रखने में सक्षम रहा, दिल्ली भी तब तक सुरक्षित रही। दिल्ली सल्तनत स्थापित होने के साथ ही सीमा की वास्तविक समस्या उठ खङी हुई, क्योंकि दिल्ली मध्य एशिया के लगातार बदलते राजनीतिक शक्ति संतुलन के सामने अनाश्रित हो गयी थी। कुतुबुद्दीन ऐबक ने दिल्ली को मध्य एशियाई उलझनों से अलग रखने की निर्भीक कोशिश की, लेकिन ख्वारिज्म शाह द्वारा गजनी पर विजय पाने से अब सल्तनत की सीमा सिंध नदी पर ही सिमट कर रह गयी थी।

चंगेज खान के उत्थान के साथ स्थिति में बदलाव आया। उसने ख्वारिज्म साम्राज्य का विलय कर लिया था और गजनी, पेशावर घाटी तथा अफगानिस्तान सहित और दूसरे बहुत सारे क्षेत्रों में बङी संख्या में सीमा चौकियाँ स्थापित की थी। सिंध नदी तब दिल्ली सल्तनत की राजनीतिक सीमा नहीं रह गयी थी। अब यह सीमा आजकल के पंजाब तक सिमट आई थी।

दिल्ली के सुल्तानों द्वारा अपनी उत्तरी-पश्चिमी सीमा की रक्षा और मंगोलों को रोकने के लिये अपनाई गई नीतियों को के.खलिक निजामी ने तीन श्रेणियों में विभाजित किया है –

क.) अलगाव की नीति – 1221 से 1240ई. तक
ख.) उदासीनता की नीति – 1240 से 1266 ई. तक
ग.) संघर्ष की नीति – 1266 से 1335 ई. तक।

1221 ई. में ख्वारिज्म शाह की मृत्यु के बाद उसका बेटा और उत्तराधिकारी जलालुद्दीन मकबरनी दिल्ली सल्तनत की ओर भागा। सिंध नदी पार कर उसने लाहौर और सतलज नदी के मध्यवर्ती क्षेत्र में प्रवेश किया। सल्तनत की सीमाओं के पास मंगोल सेनाओं की उपस्थिति ने इल्तुतमिश के लिये अनेक आंतरिक और बाहरी समस्याएँ पैदा कर दी। चूँकि सिंध नदी अब दिल्ली सल्तनत की सीमा नहीं रही थी, ऐसी अवस्था में लाहौर और मुल्तान सीमा की अंतिम सुरक्षा चौकियाँ बन गये थे। इसलिए, इल्तुतमिश, याल्दुज और नसीरुद्दीन कुबाचा के बीच इन दोनों क्षेत्रों पर नियंत्रण के लिये संघर्ष चल रहा था। इल्तुतमिश अभी अपनी राजनीतिक स्थिति सुदृढ करने की प्रक्रिया में ही था कि मंगोल सेनाओं की उपस्थिति और जलालुद्दीन के पंजाब में प्रवेश कर जाने की घटना ने उसकी स्थिति और भी कमजोर कर दी। यही वजह थी कि उसने अलगाव की नीति चुनी, यानी दिल्ली सल्तनत को मध्य एशिया की राजनीति से भरसक दूर ही रखा। इस प्रक्रिया में उसने जलालुद्दीन के संदेशवाहक इयान-ए-मुल्क का वध करवा दिया और ख्वारिज्म के शहजादे की राजनीतिक शरण देने की प्रार्थना को यह कहकर ठुकरा दिया कि दिल्ली का वातावरण उसके अनुकूल नहीं होगा। इल्तुतमिश के दरबार में पनाह पाने की कोशिश नाकाम होने के बाद जलालुद्दीन ने खोखर जातियों द्वारा अधिकृत क्षेत्रों में छोपे मारे। खोखर सरदार के आत्मसमर्पण के बाद उससे विवाह संबंध स्थापित किए। खोखर सरदार ने उससे अपनी पुत्री का विवाह कर दिया था। जलालुद्दीन की स्थिति मजबूत हो रही थी और इल्तुतमिश को भय था कि जलालुद्दीन उसको उखाङ फेंकने के लिये कहीं कुबाचा में संघर्ष छिङ गया तथा इल्तुतमिश के लिये नसीरुद्दीन कुबाचा के क्षेत्रों को अपने अधीन करना आसना हो गया। दिल्ली सल्तनत अब मंगोल सेनाओं के सीधे संपर्क में आ गयी थी जो कि संघ के पश्चिम के क्षेत्र को अधिकृत कर रहे थे। अंततः इल्तुतमिश ने साल्ट रेंज की पहाङी जातियों को अपने नियंत्रण में करने के लिये अपनी सेना भेजी तथा इस तरह अपने साम्राज्य और जलालुद्दीन के बीच सीमा स्थापित कर ली। लेकिन 1224 में जलालुद्दीन ने भारतीय भूमि छोङने का निश्चय कर लिया। दिल्ली सुल्तानों के सम्मुख अब यह प्रश्न प्रमुख हो गया था कि मंगोलों के संभावित आक्रमणों से सीमावर्ती क्षेत्रों की सुरक्षा कैसे की जाए?

सीमावर्ती क्षेत्र में रहने वाली जातियों में खोखर इस लिहाज से महत्त्वपूर्ण थे कि उनका फैलाव साल्ट रेंज में पंजाब, जम्मू, रावल-पिंडी, मुल्तान, सिंध का निचला भाग और गुजरात तक ता। यह क्षेत्र कृषि के लिये उपयुक्त नहीं था और कोई आंतरिक साधन भी यहाँ नहीं थे। इसीलिए खोखर लोगों में से अधिकांश लुटेरे बन गए और अपने क्षेत्र से होकर जाने वाले सभी व्यापार मार्गों को उन्होंने अपने नियंत्रण में कर लिया। ख्वारिज्म के शहजादे के साथ विवाह संबंध से उनकी स्थिति और भी सुदृढ हो गयी। परिणामतः सिंध के शासक नासिरुद्दीन कुबाचा की पराजय हुई तथा उसे उच्छ से मुल्तान भाग जाने को मजबूर किया गया। दिल्ली सल्तनत के शासकों के लिये खोखरों का यह उत्थान एक गंभीर राजनीतिक समस्या बन गया था। उसे रोकने के लिये सल्तनत को कई आवश्यक कदम उठाने पङे।कुबाचा की पराजय हुई तथा उसे उच्छ से मुल्तान भाग जाने को मजबूर किया गया। दिल्ली सल्तनत के शासकों के लिये खोखरों का यह उत्थान एक गंभीर राजनीतिक समस्या बन गया था। उसे रोकने के लिये सल्तनत को कई आवश्यक कदम उठाने पङे।

जलालुद्दीन मकबरनी के अनुसार रवाना होने के बाद उसके नायब मलिक सैजुद्दीन हसन करलुग को जीते हुए क्षेत्रों, गजनी और बनियान का प्रभारी बनाया गया। दिल्ली सल्तनत की सीमाएँ अब लाहौर और मुल्तान तक बढ गई थी। सल्तनत और मंगोलों के बीच किसी भी शक्तिशाली मध्यस्थ राज्य के अभाव के कारण टकराव की आशंका वास्तविक बन रही थी। मंगोलों के निरंतर हमलों के कारण सैफुद्दीन को इनका अधिराजत्व स्वीकार करने के लिये मजबूर होना पङा। अंत में 1239-40 में सेनापति ताइर बहादुर के नेतृत्व में मंगोल सेनाओं ने गजनी, किरमन और बनियान को अपने अधिकार क्षेत्र में कर लिया। सैफुद्दीन को मजबूरन मुल्तान और सिंध की ओर भागना पङा और सुल्तान रजिया से मंगोलों के विरुद्ध एक संधि करने का प्रस्ताव किया। रजिया ने अलग-थलग रहने की नीति अपनाने का फैसला किया। मंगोलों की स्थिति भी कमजोर हो रही थी। मंगोल साम्राज्य औपचारिक रूप से चार भागों में विभाजित हो गया था। वे अपनी सीमाएँ पूर्वी यूरोप, साम और मिस्त्र में बढाने में ज्यादा व्यस्त थे।

1240-1266 ई. की अवधि में, तीन सुल्तानों, मुइज्जुद्दीन बहराम शाह, अलाउद्दीन मसूद शाह और नासिरुद्दीन महमूद ने निरंतर थोङे-थोङे समय के लिये राज्य किया। ताइर बहादुर ने 1241 में लाहौर तथा 1245 में मुल्तान पर आक्रमण किया जिसके परिणामस्वरूप सल्तनत की सीमा झेलम से घट कर व्यास नदी तक ही रह गयी। ईरान के इलखान (मंगोल शासक) हलाकू और दिल्ली सुल्तानों के बीच कुछ राजनयिक पहल चल रही थी, लेकिन इस पहल के मुद्दे पर इतिहासकार अभी तक बहुत ज्यादा स्पष्ट नहीं हैं। इस स्थिति में दिल्ली सुल्तानों ने भी उदासीनता की नीति अपना रखी थी। संभवतः दिल्ली में चल रही राजनीतिक अस्थिरता भी इस नीति का एक कारण थी। फलस्वरूप, मंगोल आक्रमणों के विरुद्ध तब तक कोई ठोस नीति नहीं बन पाई थी।

दिल्ली सल्तनत की गद्दी पर सुल्तान बलबन के आसीन होने के समय (1266) तक, व्यास नदी ही सल्तनत की सीमा मान ली गयी थी और इस नदी के पार कोई भी कदम मंगोलों द्वारा प्रभावकारी ढंग से रोक दिया जाता था। यही कारण था कि बलबन ने सेना और नागरिक प्रशासन में अत्यधिक परिवर्तन किए जिससे वह अपनी आंतरिक स्थिति दृढ कर सके और मंगोलों के होने वाले हमलों को नियमित रूप से रोक सके। इस उद्देश्य के लिये उसने शक्ति और कूटनीति का प्रयोग किया। शक्ति के लिये उसने अपनी सैनिक क्षमता को बढाया तथा कूटनीति के तौर पर ईरान के इलखानों के साथ राजनयिक संबंध कायम किए, ताकि ट्रांस-ऑक्सियाना के चगताई के विरुद्ध मोर्चा खङा किया जा सके। मंगोल धावों को खदेङने के लिए बलबन ने शेर खान को पंजाब की सीमा पर तैनात किया। उसको सुनाम, भटिंडा, लाहौर और दीपालपुर का कार्यभार सौंप दिया गया। शेर खान ने भाटनेर के किले का पुनः निर्माण किया और ए सुसज्जित सेना की मदद से जाटों, खोखरों और उत्तर-पश्चिम सीमा क्षेत्र की दूसरी कबाइली जातियों को दबाया तथा इस प्रकार मंगोलों के प्रवेश पर प्रभावी रोक लगाई। मुल्तान और उच्छ के क्षेत्र दिल्ली सल्तनत के नियंत्रण में लाए गए। 1241 में मंगोलों द्वारा विध्वंस किए गए वहाँ के किले का पुनः निर्माण कराने के लिए बलबन ने 1270 में लाहौर का दौरा किया। शेर खान की मृत्यु के बाद मुल्तान को शहजादा मुहम्मद के नियंत्रण में रखा गया और सुमाना तथा सुनाम को तमार खान के अधीन रखा गया। पंजाब की सीमा पर बढते हुए दबाव के नाम पर बलबन शहजादे बुगरा खाँ को सुनाम और सुमाना जैसी महत्त्वपूर्ण चौकियाँ देकर सीमा का संरक्षक नियुक्त करने के लिये बाध्य हुआ। पश्चिमी सीमा का पूर्ण उत्तरदायित्व उत्तराधिकारी शहजादे मुहम्मद के हाथों में था। यह सैनिक व्यवस्था महत्वपूर्ण युद्धनीति खी, क्योंकि व्यास नदी के पास कोई भी मंगोल आक्रमण अब तीन दिशाओं से रोका जा सकता था — सुमाना से शहजादा बुगरा खाँ, मुल्तान से शहजादा मुहम्मद और दिल्ली से मलिक बारबक बेकतर। 1285 में मंगोलों के साथ लङाई में शहजादे मुहम्मद की मृत्यु हो गयी, जिसके बाद मुल्तान सहित सिंध का कार्यभार खुसरो को दे दिया गया। 1295 तक मंगोल दिल्ली पर आक्रमण करने के इच्छुक नहीं थे। लेकिन सीमा क्षेत्रों पर उनके नियमित आक्रमणों के फलस्वरूप सुल्तानों को अपनी आंतरिक राजनीतिक और आर्थिक शक्तियों को संचित करने तथा बाहरी मंगोलों से प्रत्यक्ष संघर्ष करने की नीति अपनाने के लिये बाध्य होना पङा।

सुल्तान जलालुद्दीन फिरोज खलजी के गद्दी पर बैठने के बाद सुनाम-दिपालपुर-मुल्तान सीमा उसके पुत्र अरकली खाँ के अधीन सौंपी गयी। 1292 में हलाकू (फारसी का इल खान) के पौत्र अब्दुल्ला ने सीमा क्षेत्र पर आक्रमण किया। लेकिन उसे बलबन की बनाई हुई सीमा रेखा पर भटिंडा और सुनाम के पास जलालुद्दीन खलजी द्वारा परास्त कर दिया गया। अंततः दोनों सेनाओं के बीच एक संधि हुई और बहुत से मंगोलों को दिल्ली में बसने की अनुमति दी गयी। इन लोगों ने इस्लाम धर्म को अपना लिया।

अलाउद्दीन खलजी के शासनकाल में मंगोलों का पहला आक्रमण 1297-98 में हुआ। मंगोल सेनाओं का नेतृत्व ट्रांस-आक्सियाना के शासक दावा के सेनापति कादिर खाँ ने किया। अलाउद्दीन ने मंगोलों को रोकने के लिये अपने दो सेनापतियों उलूग खाँ और जफर खाँ के अधीन फौजें भेजी। पर रोके जाने से पहले ही मंगोल सेनाओं ने व्यास, झेलम और सतलज नदियाँ पार कर ली। दोनों सेनाओं में जूरन-मंजौर (पंजाब के दो पुराने जिले — लाहौर और अमृतसर के बीच का क्षेत्र) के आस-पास भिङंत हुई। मंगोलों को हार का सामना करना पङा।

दूसरा आक्रमण 1299 में हुआ जब उलूग खाँ और नुसरत खाँ गुजरात में व्यस्त थे। सल्दी के नेतृत्व में मंगोल सिंध के उत्तर-पश्चिमी भाग तक आ गए और उन्होंने सिविस्तान का किला अपने नियंत्रण में ले लिया। जफर खाँ को आक्रमणकारियों का सामना करने के लिये भेजा गया और उसने उनको हरा भी दिया। 1299 के अंत में ट्रांस-आक्सियाना के खान ने अपने पुत्र कुल्लुग ख्वाजा को हिजलाक, तमार बूगा और तारगी के साथ 10,000 सैनिकों की मदद से घात लगाकर आक्रमण करने भेजा। अलाउद्दीन के पास इस आक्रमण की कोई पूर्व सूचना नहीं थी। परिणामस्वरूप मंगोल लोग खलजी की राजधानी सिरी के पङौस में कीली तक पहुँचने में सफल हो गए। दिल्ली के कोतवाल अला-उल-मुल्क ने सुल्तान को कुछ समय हासिल करने के लिये कूटनीति और समझौतों का उपयोग करने की सलाह दी। लेकिन अलाउद्दीन ने अपने विश्वासपात्र सेनानायकों नुसरत खाँ, उलूग खाँ, जफर खाँ और अकत खाँ को साथ लेकर मंगोल सेना का मुकाबला करने का फैसला किया। अलाउद्दीन ने तुरंत लङाई शुरू करने का आदेश नहीं दिया, क्योंकि वह और ज्यादा कुमुक आने का इंतजार कर रहा था। इस दौरान जफर खाँ ने सुल्तान की आज्ञा लिए बिना हिजलाक की सेना पर आक्रमण कर दिया और वह तारगी द्वारा बिछाए गए जाल में फँस गया तथा घात लगाकर मार डाला गया। इस हानि के बाद भी अलाउद्दीन ने आक्रमण करने की आज्ञा नहीं दी। अंततः कूतलुग ख्वाजा ने वापस लौटने का फैसला किया। अलाउद्दीन ने दुश्मन को वापस जाने देने में ही बुद्धिमानी समझी और खुद दिल्ली लौट गया।

अलाउद्दीन ने 1303 में चित्तौङ पर घेरा डाला हुआ था। इसका फायदा उठाकर मंगोलों ने 1303 में तारगी के नेतृत्व में पुनः आक्रमण किया। हालाँकि अलाउद्दीन तारगी से पहले ही दिल्ली पहुँचने में सफल हो गया था, लेकिन उसको इससे कोई वास्तविक मदद नहीं मिली क्योंकि चित्तौङ की दीर्घकालीन घेराबंदी के बाद उसके सैनिक और उपकरण मंगोलों का सामना करने की स्थिति में नहीं थे। सुल्तान की सेना के एक बङे भाग को कोल (अलीगढ) और बदायूँ में रुकना पङ गया था, क्योंकि मंगोल उसी रास्ते में अटके हुए थे। मुल्तान, दीपालपुर और समाना में तैनात सेनाएँ मंगोलों को आगे बढने से रोकने या वपास लौट कर सुल्तान की दिल्ली में मदद करने के लिये पर्याप्त शक्तिशाली नहीं थी। अलाउद्दीन शहर से बाहर निकल आया और उसने शाही डेरा सिरी में लगा लिया। दोनों सेनाओं के बीच दो या तीन लङाइयाँ हुई, लेकिन अंततः तारगी ने वापिस लौटने का ही फैसला किया।

सामान्यतः ऐसा माना जाता है कि मंगोल समस्या का स्थायी हल ढूँढने की वजह से ही अलाउद्दीन ने सेना बढाने, प्रशासन को व्यवस्थित करने और आर्थिक विनियम को लागू करने की अपनी नीतियों का फैसला किया था। उसने सीमावर्ती किलों की मरम्मत करवाई और उन्हें मंजनिकों, अरदस तथा चरख – जैसे युद्ध उपकरणों से सज्जित किया। किलों की मरम्मत के लिए कुशल श्रमिक तैनाति किए गए। अनाज और चारे के भंडारों की व्यवस्था की गयी। दीपालपुर और समाना में शक्तिशाली और चुनी हुई रक्षक सेनाएँ रखी गयी। मंगोलों के मार्गों पर बसे हुए अनुभवी अमीरों और फौजी सरदारों की अक्ताओं में भी सेना की टुकङियाँ तैनात की गयी।

1305 में अली बेग, तारताक और तारगी ने तुर्किस्तान से सिंध की ओर कूच किया। तारगी तो रास्ते से ही लौट गया, लेकिन अली बेग और तारताक सिबालिक पहाङियों के नीचे से व्यास नदियों के तटवर्ती क्षेत्रों को लूटते हुए आगे बढते गए। उनकी सेना का एक भाग नागौर की ओर मुङ गया और मुख्य सेना ने गंगा और यमुना के दोआब की ओर कूच किया। अलाउद्दीन ने उनसे मुकाबले के लिये मलिक नायक को नियुक्त किया, जिसने मंगोलों को अमरोहा के निकट परास्त किया तथा अली बेग और तारताक को बंदी बना लिया गया।

मंगोलों ने अली बेग और तारताक की हार का बदला लेने के इरादे से 1306 ई. में तीन सेनापतियों के नेतृत्व में तीस सैन्य दल भेजे। पहले का नेतृत्व काबुक ने किया। इकबाल और ताई के नेतृत्व में दूसरी सेनाएँ उसके पीछे-पीछे चली। उन्होंने सिंध पर अधिकार कर लिया। और फिर वे नागौर की ओर मुङ गए। लेकिन अलाउद्दीन के एक विश्वासपात्र गुलाम अफसर मलिक इज्जुद्दीन काफर सुल्तानी ने आसानी से इन मंगोल टुकङियों को रोक दिया तथा उन्हें परास्त कर दिया। मंगोलों की हार का मुख्य कारण दावा खाँ की मृत्यु और उसकी वजह से चगताई राज्य में गृह युद्ध का आरंभ हुआ। सुल्तान गयासुद्दीन तुगलक के समय में शिर मुगल के नेतृत्व में मंगोल सेना ने 1325 में एक बार सिंध को पार किया। लेकिन उसे समाना के सूबेदार मलिक शादी ने हरा दिया।

मंगोलों का आखिरी आक्रमण मुहम्मद बिन तुगलक के शासनकाल में ट्रांस-ओक्सियाना के शासक अलाउद्दीन तारमशिरीन खाँ द्वारा 1327 में हुआ। इस आक्रमण के स्वरूप के बारे में भारतीय इतिहासकारों के बीच असहमति है। तत्कालीन स्त्रोतों में विद्यमान भिन्न-भिन्न विचारों से यह समस्या और भी जटिल हो गयी है। बरनी इस आक्रमण का कोई उल्लेख नहीं करता मानो यह हुआ ही नहीं। इब्नबतूता के अनुसार तारमशिरीन वास्तव में तुगलक दरबार में शरण लेने की कोशिश कर रहा था। इसामी के अनुसार सुल्तान की सेवा द्वारा मंगोल परास्त किए गए थे, लेकिन फिर भी सुल्तान ने उन्हें कीमती तोहफे दिए और इस तरह के रिश्वत देकर उनको वापिस भेज दिया गया। इतिहासकार आगा मेहंदी हुसैन दावा करते हैं कि तारमशिरीन गजनी के पास 1326 में परास्त किा गया था। भारत में वह एक शरणार्थी के रूप में आया था। सुल्तान ने उसको 5,000 दीनार मदद के रूप में दिए और वह वापिस लौट गया। ईश्वरी प्रसाद ने फरिश्ता द्वारा दिए गए तथ्यों के आधार पर विश्लेषण किया है कि मंगोलों को सुल्तान द्वारा रिश्वत दी गयी थी। भिन्न-भिन्न विचारों के बावजूद इन तथ्यों से सुल्तान की सीमा को अपने नियंत्रण में रखने की असमर्थता और एक संगत सीमा नीति बनाने की अयोग्यता का तो साफ पता चलता ही है। मंगोलों के रवाना हो जाने के पश्चात अवश्य मुहम्मद तुगलक ने कुछ निवारक उपाए किए थे। उसने पेशावर और कालानोर को अपने अधिकारों में लेकर उनकी सुरक्षा के प्रबंध किए थे।

इस प्रकार इल्बरी वंश के शासनकाल के दौरान, इल्तुतमिश के संक्षिप्त काल को छोङकर, उत्तर-पश्चिमी सीमा प्रायः रावी और व्यास नदियों के बीच ही रही। समाना, सुनाम, दीपालपुर और लाहौर सीमा की महत्त्वपूर्ण इकाइयों के रूप में स्थापित हुए। तुगलक वंश के दौरान मुलतान, दीपालपुर, लाहौर और समाना के लिये मजबूत चौकियों की तरह काम कर रहे थे। लेकिन फिर भी नियमित मंगोल आक्रमणों को प्रभावी ढंग से रोकने के लिये कोई उपयुक्त सीमा नियंत्रण नीति नहीं बन सकी थी।

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