इतिहासराजस्थान का इतिहास

मीरादासी संप्रदाय के बारे में जानकारी

मीरादासी संप्रदाय – एनसाइक्लोपीडिया ऑफ रिलीजन एण्ड इथिक्स में मीरा संप्रदाय का उल्लेख मिलता है। विशेषकर स्रियों में कृष्ण के बाल स्वरूप की आराधना पद्धति व्यापक रूप से प्रचलित है। एच.एच. विल्सन और डॉ. गोपीनाथ शर्मा ने भी इस संप्रदाय का उल्लेख किया है किन्तु वास्तविकता यह है

कि प्रेम रस में डूबी मीरा को इतना अवकाश ही नहीं मिला कि कोई संप्रदाय स्थापित करती या शिष्य मंडली बनाकर भक्ति और साधना का उपदेश देती। यदि मीरा संप्रदाय कोई होता तो उसके दर्शन की अब तक अनेक व्याख्याएँ और टीकाएँ भी हो गयी होती।

मीरादासी संप्रदाय

लेकिन ऐसा नहीं हुआ। हाँ, यह अवश्य कहा जा सकता है कि मीरा ने राजस्थान में अनेक राजकुमारों और राजकुमारियों को भक्ति मार्ग पर चलने की प्रेरणा दी थी। इनमें ईडर के अखैराज, बीकानेर के पृथ्वीराज, जयपुर के जयसिंह और प्रतापसिंह, किशनगढ के सावंतसिंह (नागरीदास) और राजकुमारियों में पृथ्वीराज, की पत्नी रानावती, सावंतसिंह की प्रेयसी रसिक बिहारी (बनी-ठनी) व उसकी बहिन सुन्दरकंवरी, मारवाङ की किचनी आदि प्रमुख हैं।

मीरा की भक्ति का विधवा स्रियों पर विशेष प्रभाव पङा था, जो मीरा से प्रेरणा ग्रहण करते हुए कृष्ण के प्रति वैसी ही श्रद्धा रखती है। जैसा कि डॉ. गोपीनाथ शर्मा ने लिखा है, मीरा को पथ-प्रदर्शिका स्वीकार करते हुए, मीरा जैसे ही वस्र धारण करते हुए कृष्ण के प्रति वैसा ही माधुर्य संबंध रखने वाली ब्राह्मण एवं अन्य जातियों की विधवा स्रियाँ मेवाङ में आज भी विद्यमान हैं

जो जनसाधारण द्वारा प्रदत्त दान तथा दैनिक भोजन सामग्री पर, जो कि उन्हें मेवाङ राज्य के दान कोष से दी जाती थी, अपना जीवन निर्वाह करती हैं। मीरा ने अनेक पदों की रचना की थी। उसके द्वारा रचित अनेक ग्रन्थ भी बताये जाते हैं, लेकिन वे ग्रन्थ मीरा द्वारा रचित हैं अथवा नहीं, इस संबंध में विद्वानों में मतभेद हैं। महादेवी वर्मा के अनुसार, मीरा के पद विश्व के भक्ति साहित्य के रत्न हैं।

References :
1. पुस्तक - राजस्थान का इतिहास, लेखक- शर्मा व्यास

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