इतिहासराजस्थान का इतिहास

राजस्थान का प्रागैतिहासिक काल

राजस्थान का प्रागैतिहासिक काल

पृथ्वी के धरातल पर मानव कहाँ पैदा हुआ, यह प्रश्न जीव शास्रियों, मानव शास्रियों एवं पुरात्ववेताओं के लिये आज भी विवाद का विषय बना हुआ है। प्रत्येक देश के विद्वान यही दावा करते हैं कि मानव की उत्पत्ति सर्वप्रथम उन्हीं के देश में हुई थी। इसी प्रकार भारतीय विद्वान भी यह दावा करते हैं कि मानव की सर्वप्रथम उत्पत्ति भारतवर्ष में ही हुई थी। इस प्रश्न पर चाहे तीव्र मतभेद हों, लेकिन यह तथ्य तो निर्विवाद है कि भारतवर्ष उन प्राचीनतम देशों में है, जहाँ मानव ने सर्प्रथम अपनी जीवनलीला आरंभ की थी। प्रमाणों एवं साक्ष्यों से ज्ञात होता है कि राजस्थान का आदिम मानव, भारत के अन्य आदि मानवों की भाँति पूर्व-पाषाण युगीन मानव था। किन्तु यहाँ एक प्रश्न पुनः स्वाभाविक रूप से उत्पन्न होता है कि राजस्थान की इस धरा पर मानव जाति के अवतरित होने से पूर्व यहाँ क्या था ? वैज्ञानिक खोजों द्वारा इस प्रश्न का उत्तर दिया गया है कि इस पृथ्वी पर जीव-जन्तुओं का विकास बहुत धीरे-धीरे हुआ है। विद्वानों का अनुमान है कि लगभग 80 करोङ वर्ष पूर्व इस धरा पर जीवन के चिह्न प्रकट होने लगे थे। और उसके विकास की क्रमिक प्रक्रिया में करोङों वर्ष लग गये। उनकी मान्यता है कि मानव जाति की उत्पत्ति वानर जाति के एक प्राणी से विकसित हुई थी। वानर जाति से मानव जाति में विकसित होने में संभवतया कुछ लाख वर्ष ही हुए होंगे। मानव को पशु धरातल से ऊपर उठकर एक सभ्य मानव बनने में सहस्रों वर्ष लग गये । किन्तु इस विकास यात्रा का कोई लिखित इतिहास उपलब्ध नहीं है। इतिहासकारों ने इस विकास यात्रा का चित्र, जीवन शास्र, मानव शास्र और पुरातत्व के आधार पर खींचने का प्रयास किया है। इस दीर्घकालीन वकास यात्रा का काल-विभाजन उन पदार्थों के नाम पर किया गया है जिनसे औजार और हथियार बनाकर मानव अपनी रक्षा और जीवन निर्वाह करता था। ये पदार्थ पाषाण और धातुएँ हैं। इसलिए प्रागैतिहासिक राजस्थान के काल को दो भागों में बाँटा गया है – पूर्व पाषाण काल और उत्तर पाषाण काल।

प्रागैतिहासिक काल

सभ्यता के केन्द्र

पूर्व-पाषाण युगीन एवं उत्तर पाषाण युगीन मानव जीवन के केन्द्र राजस्थान के अनेक स्थानों पर पाये गये हैं। डॉ. विजय कुमार के अनुसार पाषाण युगीन संस्कृति का प्रसार राजस्थान की अनेक प्रमुख तथा सहायक नदियों के किनारे, जैसे – जोधपुर, बीकानेर, जैसलमेर, अजमेर, अलवर, भीलवाङा, चित्तौङगढ, जयपुर, झालावाङ, जालौर, पाली, टोंक आदि जिलों में हो चुका था। विद्वानों की मान्यता है, कि राजस्थान के रेगिस्तानी क्षेत्र में सहस्रों वर्ष पूर्व समुद्र था और सरस्वती तथा दृष्द्वती नदियाँ इसमें आकर मिलती थी। इन नदियों के काँठे मानव जीवन की गतिविधियों के केन्द्र थे। राजस्थान का अरावली पर्वत हिमालय से भी प्राचीन है। समुद्र के संकुचन से यहाँ मरुस्थल बन गया। समयोपरांत ये नदियाँ सूख गई और अब यहाँ केवल बरसाती नदी के रूप में घग्घर नदी बहती हुई दिखाई देती है। सरस्वती, चंबल, बेङच, बनास, गंभीरी, आहङ तथा लूनी नदियाँ और अरवाली की श्रेणियों के किनारों और गड्ढों में जमी हुई परतें तथा उनके आस-पास के क्षेत्रों में मिलने वाले पत्थरों के औजार इस बात को प्रमाणित करते हैं कि राजस्थान मानव उद्मम वाले विश्व के प्राचीन भू-भागों में एक अति प्राचीन भू-भाग है। अभी हाल ही में राजस्थान विद्यापीठ के इंस्टीट्यूट ऑफ राजस्थान स्टडीज के निदेशख डॉ. देव कोठरी और डेकन कॉलेज, पुणे के निदेशख डॉ.वी.एन.मिश्र के संयुक्त निर्देशक में उदयपुर संभाग का सर्वेक्षण किया गया। यह सर्वेक्षण 19 मार्च, से 30 मार्च, 1993 की अवधि में किया गया। सर्वेक्षण के क्षेत्र उदयपुर संभाग के चित्तौङगढ, राजसमंद, भीलवाङा जिलों की कपासन, वल्लभनगर, रेलमगरा, राशमी और सुवाणा तहसीलें थी। सर्वेक्षण से इस तथ्य की पुष्टि हुई है कि मेवाङ क्षेत्र में इतिहास का प्रवाह सतत् रहा है। तथा इसका क्रम कभी भंग नहीं हुआ है। इन क्षेत्रों से प्रागैतिहासिक काल से लेकर गुप्त कालीन संस्कृति के अवशेष प्राप्त हुए हैं। उत्खनन से प्राप्त अवशेषों से यह भी प्रमाणित हुआ है कि वर्तमान बाँसवाङा, डूँगरपुर, बून्दी, कोटा, इन्द्रगढ आदि जिलों तथा तहसीलों में पाषाण युगीन मानव रहता था।

पूर्व पाषाण काल(Paiaeolithic Age)

पूर्व पाषाण कालीन सभ्यता के स्वरूप का अनुमान लगाने वाले इतिहासकारों ने इस युग का आरंभ आज से लगभग छः लाख वर्ष पूर्व का माना है। राजस्थान में इस युग से संबंधित प्राप्त सामग्री का अध्ययन करने पर यह निर्षकर्ष निकाला गया है कि प्रायः सभी देशों के प्रारंभिक इतिहास का स्वरूप एक सा था, जहाँ राजस्थान के पूर्व-पाषाण युग के समान ही सामग्री प्राप्त हुई है। राजस्थान के पाषाण युगीन सभ्यता के केन्द्रों से पत्थर के बेडौल व सौन्दर्यविहीन औजार मिले हैं, जिनका उपयोग पूर्व पाषाण कालीन मानव करता था। इंग्लैण्ड के दक्षिणी भाग, फ्रांस के उत्तर-पश्चिमी भागों, भारत के विभिन्न स्थानों और राजस्थान में प्राप्त हुए औजारों में पारस्परिक समानता पाई गई है। यह तथ्य इस बात का प्रमाण है कि पूर्व पाषाण कालीन मानव और उसकी सभ्यता पृथ्वी के सभी भागों में एक समान थी तथा उस सभ्यता का क्रमिक विकास भी सभी भागों में समान ढंग से हुआ था। मानवशास्रियों का अनुमान है कि आज से लगभग छः लाख वर्ष पूर्व पुरातन पाषाण युग आरंभ हुआ तथा तथा तब से लेकर आज से लगभग दस हजार वर्ष पूर्व तक पाषाण युग के अवशेष स्थिर रहे।

आदिम मानव और उसके औजार

राजस्थान की पूर्व पाषाण युगीन सभ्यता पर शोध कार्य अभी बहुत कम हुआ है। अतः इस क्षेत्र में जब तक पर्याप्त खोज न कर ली जाय, तब तक राजस्थान में आदिम मानव के जीवन तथा संस्कृति का क्रमबद्ध अध्ययन अथवा विस्तृत वर्णन नहीं है । फिर भी अब तक हुई खोजों के आधार पर कहा जाता है कि राजस्थान के ये आदिम निवासी संभवतः श्याम वर्ण, छोटे कद, चपटी नाक तथा घुँघराले वालों वाले थे। इस युग का आदिम मानव अत्यन्त बर्बर था, उसका जीवन प्रायः पशु तुल्य था तथा पशुओं के साथ संघर्ष करके ही उसे अपना बिताना पङता था।

हिंसक पशुओं के कारण उसका जीवन सदा खतरे में रहता था। अतः अपनी रक्षा और जीविका दोनो के लिये उसे हथियारों और औजारों की आवश्यकता थी। आदिम मानव को, इनको बनाने की सबसे सुलभ सामग्री उसके रास्ते में इधर उधर पङे हुए पत्थर के टुकङों में मिली। इन्हीं पत्थरों को तोङ-फोङ कर और कुछ पैना करके उसने कुल्हाङी, तीर के फल, भाले और काटने, खोदने, फेंकने, छेद करने, कूटने तथा छीलने के औजार बनाये। साथ ही वह जानवरों की हड्डियों और पेङ की टहनियों का प्रयोग भी करता था। उसके सभी हथियार और औजार भद्दे और सौन्दर्यरहित होते थे। उसके पत्थर के औजार तथा हथियार दो प्रकार के होते थे – प्रथम वे औजार जो पूरे पत्थरों को काट-छाँटकर अथवा गढ-गढाकर उनके किनारे काम में लाये जाते थे। ऐसे औजार दक्षिणी-पूर्वी तथा उत्तर – पूर्वी राजस्थान की नदियों के तटवर्ती क्षेत्रों में पाये गये हैं। आदिम मानव को धातुओं का प्रयोग अथवा मिट्टी के बर्तन बनाना नहीं आता था। वह आग जलाने की क्रिया से भी अनभिज्ञ था। ये स्वभावतः भ्रमणशील होते थे तथा अपने भोजन के लिये इधर-उधर घूमते रहते थे। कभी-कभी वे थोङे समय के लिये अपना अस्थायी घर भी बना लेते थे, लेकिन शिकार और भोजन के लिये उन्हें इधर-उधर घूमना ही पङता था।

निवास स्थान और जीवन निर्वाह

आदिम मानव को अपना घर बनाना नहीं आता था। अतः धूप, वर्षा एवं शीत से बचने के लिय वह पर्वत की कन्दराओं, वृक्षों के नीचे तथा नदियों या झीलों के छोङे हुए कगारों की शरण लेता था। राजस्थान में ऐसे स्थानों पर पूर्व पाषाण कालीन बहुत से अवशेष मिले हैं। ऐसे स्थान आदिम मानव के अस्थायी घर होते थे। यह कहना संभव नहीं है कि ये आदिम मानव राजस्थान या भारत के ही मूल निवासी थे अथवा उत्तरवर्ती आगंतुओं की भाँति ये लोग भी यहाँ बाहर से आये थे। कुछ विद्वानों के अनुसार वे अफ्रीका से अरब, ईरान और मकरान होते हुये भारत आये और भारत के विभिन्न भागों में फैल गये। उत्तरवर्ती आगंतुकों ने या तो उन्हें मार डाला या वे उनसे घुल मिल गये थे। जन विज्ञान की नामावली के अनुसार ये निग्रिटों कहलाते हैं।

इस युग का मानव पूर्णतः प्रकृति जीवी था। यह स्वतः उत्पन्न होने वाले कंद-मूल, फल-फूल, आखेट में मारे गये जानवरों के माँस एवं नदियों या झीलों के तटों पर पकङी गई मछलियों से ही अपनी उदर पूर्ति करता था। इसके लिये उन्हें इधर-उधर घूमना पङता था। वह मुख्य रूप से हिरन, भैंस, सूअर और दूसरे छोटे-छोटे जानवरों का शिकार करता था। इनको आग का ज्ञान नहीं था अतः ये लोग पशुओं की तरह जानवरों का कच्चा मांस या कच्चे कंद-मूल व फल-फूलों का भोजन करते थे। इन तथ्यों से हमें पूर्व पाषाण युगीन मानव मे मौलिक संस्कृति के अंकुर दिखाई देते हैं। आदिम मानव के शिकार करने अथवा कंद मूल बटोरने में अपनी बुद्धि का प्रयोग किया । अपनी सुरक्षा के लिये विभिन्न प्रकार के हथियारों का प्रयोग इस बात का द्योतक है कि बुद्ध के साथ-साथ उसमें विवेक के बीज भी अंकुरित होने लग गये थे। कौनसे पशुओं का शिकार करना, कौनसे कंद-मूल का सेवन करना, एक स्थान से दूसरे स्थान तक कैसे जाना, ये सभी क्रियाएँ उसमें बुद्धि बल के प्रमाण हैं।

आर्थिक जीवन

पूर्व पाषाण युग का मानव जीवन साधन और सुविधाओं से लगभग विहीन ही था। प्रारंभ में, किसी भी आवश्यकता की पूर्ति के लिये उसे स्वयं को प्रयत्न एवं व्यवस्था करनी पङती थी। फिर भी समय के साथ-साथ उसके साधनों में उत्तरोत्तर उन्नति अवश्य होती गई। अपने हथियारों एवं औजारों को फेंककर शिकार करने से, एक कदम आगे बढकर, कालांतर में उसने धनुष और बाण का ज्ञान प्राप्त किया और फिर शिकार में उसने अधिक तेज व सफल औजारों का प्रयोग करना आरंभ कर दिया । वृक्षों की शाखाओं, पर्वत की कन्दराओं या कगारों व गुफाओं को छोङकर उसने तम्बू बनाने के सफल प्रयोग किये। चमङे की खाल से और उसी के धागों का उपयोग करके सींग, हड्डी अथवा दाँत की बनी हुई सुइयों से उसने तम्बू अथवा अपने पहनने और ओढने के लिये खोल बनाना भी सीख लिया। इससे एक बात स्पष्ट रूप से ज्ञात होती है कि भारतवर्ष की भाँति ही राजस्थान का आदिम मानव भी पूर्णतया आत्मनिर्भर था। वह अपनी आवश्यकताओं की वस्तुओं की व्यवस्था स्वयं करता था। किन्तु इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि उस युग में आर्थिक दृष्टि से किसी विनिमय और व्यापार की पद्धति नहीं अपनाई गई थी। खुदाई में उपलब्ध इस युग से संबंधित अन्य वस्तुओं के साथ-साथ शंख और कौङियाँ भी प्राप्त हुई हैं, जब कि शंख और कौङियों का स्वाभाविक रूप से समुद्र तटों पर ही पाया जाना संभव था। इसके अलावा इस युग से संबंधित कुछ ऐसी सामग्री भी मिली है, जो किसी अन्य स्थान से लायी गयी मालूम पङती है। इन तथ्यों से यह अनुमान लगाया जाता है, कि राजस्थआन का आदिम मानव आदान-प्रदान अर्थात् विनिमय-पद्धति से परिचित था और वह अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये इस साधन का भी प्रयोग करता था।

सामाजिक एवं धार्मिक जीवन

मनुष्य का स्वभाव ही छोटे-छोटे झुण्डों में रहता आ रहा है। अतः यह अनुमान लगाया जा सकता है, कि राजस्थान में भी तत्कालीन युग के मानव झुण्डों में एक प्रकार का संगठन अवश्य रहा होगा। टोली की व्यवस्था और उसका संचालन निश्चय ही टोली का सर्वाधिक बलवान, अनुभवी एवं वृद्ध व्यक्ति करता रहा होगा, जिसका आदेश टोली के अन्य सदस्य मानते रहे होंगे। ये टोलियाँ अपने शिकार की तलाश में एक स्थान से दूसरे स्थान पर भ्रमण किया करती थी तथा जंगली जानवरों से अपनी तलाश में एक स्थान से दूसरे स्थान पर भ्रमण किया करती थी तथा जंगली जानवरों से अपनी रक्षा भी सामूहिक ढंग से करती थी। उनका टोलियाँ बनाकर रहना, इस ओर हमारा ध्यान आकर्षित करता है कि इनमें एक प्रकार से संगठन बनाने की क्षमता उत्पन्न हो गयी थी। इस काल में उसे लज्जा की अनुभूति भी उत्पन्न हुई और उसने अपने गुप्त अंगों को ढकना शुरू कर दिया। वृक्षों के पत्ते तथा छोल तथा पशुओं की खाल उनके वस्र बन गये। वृक्षों की छोल को वह कमर में लपेटता था और पत्तों की माला बनाकर कटि प्रदेश के नीचे लटका देता था। पशुओं की खाल भी वह अपनी कमर में लपेतटा था।

यद्यपि धार्मिक भावनाओं का स्पष्ट उदय इस समय तक नहीं हुआ था, फिर भी राजस्थान के तद्युगीन मानव में एक विचार काफी गहराई में प्रवेश कर चुका था कि मनुष्य के व्यवहारिक जीवन का अंत मृत्यु के साथ ही नहीं हो जाता बल्कि उसके पश्चात भी उसे उन सभी वस्तुओं की आवश्यकता पङती है, जो वह अपने जीवन में प्रयोग करता रहा है। इसी धार्मिक विचारधारा का परिणाम था कि जमीन में गाङे गये शवों के साथ औजार, आभूषण, माँस आदि जीवन की उपलब्ध उपयोगी वस्तुओं को भी रख दिया जाता था, जिनके अवशेष, शव के अस्थि-पंजर के साथ मिलते हैं। विद्वानों का अनुमान है कि उस समय का मनुष्य किसी निराखार, अज्ञात शक्ति अथवा देव को प्रसन्न रखने के लिये आखेट करता था। वे अपने मृतकों को खुले मैदान में छोङ देते थे, जिसको या तो जंगली जानवर खा जाते थे या फिर वे स्वयं ही सङ-गल जाते थे।

उत्तर पाषाण काल(Neolithic Age)

विश्व के आदिम मानव की भाँति ही राजस्थान के आदिम मानव के इतिहास के कई हजार वर्ष पूर्व-पाषाण काल में बिताये। किन्तु धीरे-धीरे उसके मस्तिष्क व ग्रहण शक्ति का विकास होता गया। उसने अपनी स्मृति और अनुभव का लाभ उठाकर उत्तर पाषाण काल में प्रवेश किया। यद्यपि इस काल में भी उसके हथियार और औजार पत्थर के ही थे, किन्तु उनके निर्माण में पहले की अपेक्षा कहीं अधिक विविधता, कुशलता और सौन्दर्य पाया जाने लगा। कहा जाता है, कि इनके निर्माण करने वाली एक दूसरी जाति के पुरुष थे जिनको प्रोटो-आस्ट्रालायड का नाम दिया गया है। इनकी संस्कृति निअलिथिक कल्चर के नाम से प्रसिद्ध है। प्रायः यह कहा जाा है,कि ये लोग पूर्व पाषाण युग के उत्तराधिकारी नहीं थे, बल्कि वे बाहर से आये थे। लेकिन यह निश्चित रूप से बताना कठिन है कि वे उत्तर – पश्चिम दिशा से आये थे अथवा उत्तर – पूर्व की ओर से। इस उत्तर-पाषाण-युगीन मानव जीवन में अपने पूर्वाधिकारियों की अपेक्षा उत्कृष्ट संस्कृति के लक्षण दिखाई देते हैं। वास्तव में राजस्थानी मानव सभ्यता की आधार-शिला इसी युग में रखी गयी थी।

निवास स्थान और औजार

उत्तर-पाषाण युगीन मानव ने प्राकृतिक खोहों एं कन्दराओं पर अवलंबित न रहकर उसने अपनी बुद्धि और हाथों से काम करना आरंभ कर दिया। प्राकृतिक खोहों, कन्दराओं व कगारों को त्यागकर उसने नदी तट और पहाङियों की समतल पीठों पर अपने मकान बनाने का प्रयास किया। भवन निर्माण कला का यह प्रथम प्रयोग था। पत्थर के टुकङे और मिट्टी के बङे-बङे ढेले एक दूसरे के ऊपर रखकर मकान की दीवार बनायी गई। फूस, पेङों की टहनियों, लकङी व जानवरों की हड्डियों को जोङकर मकान की छत तैयार की गई। ये मकान झुण्डों में बनते थे, जो मानव की सामाजिकता और संगठनात्मक प्रवृत्ति को प्रकट करते हैं। यही सामूहिक जीवन का श्रगणेश था।

यद्यपि इस युग में भी मानव मुख्य रूप से पाषाण के औजारों पर ही निर्भर था, तथापि इनके औजार पूर्व-पाषाण युग के औजारों से सर्वथा भिन्न थे। ये औजार केवल पत्थर काटकर ही नहीं बनाये जाते थे बल्कि अधिकांश में ये परिष्कृत, सुघङ, पॉलिश किये हुए तथा अन्य कठिन धातु से घिसकर नुकीले व सुन्दर बनाये जाते थे। ये औजार विविध प्रकार के होते थे, जैसे – कुल्हाङियाँ, चाकू, तीर, ओखली, मूसल तथा पीसने के औजार आदि। उनके औजारों में स्क्रेपर तथा पाइण्टर विशेष उल्लेखनीय हैं। स्क्रेपर, खाल या माँस-मज्जा निकालने के काम आते थे। पाइण्टर तीखा नुकीला अस्र होता था, जो शिकार के काम आता था। यह औजार तीर अथवा भाले की नोक का काम भी देते थे। अब औजारों की सुन्दरता और रंग के आकर्षण की रुचि उत्पन्न हुई। लकङी और हड्डी का अधिक उपयोग होने लगा। मिट्टी के बर्तन भी बनने आरंभ हो गये। पहले बर्तन हाथ से बनते थे, फिर चाक पर बनने लगे।यह एक बहुत ही क्रांतिकारी आविष्कार था। मिट्टी के बर्तन सादे और अलंकृत दोनों तरह के उपलब्ध होते हैं। अलंकरण में फूल, पत्ती आदि की आकृतियाँ पायी जाती हैं। मिट्टी के बर्तन बनाने की कला इस काल में बहुत विकसित हुई। उत्तर-पाषाण-युगीन औजार तथा बर्तन बहुसंख्यक मात्रा में चित्तौङ जिले में बेडच व गंभीरी नदियों के किनारे, चंबल और वामनी के तट पर भैंसरोङगढ व नवाघाट, बनास तट पर हमीरगढ, जहाजपुर, देवली व गिलूण्ड, लूनी नदी के तट पर पाली, समदङी, शिकारपुर, सोजत, पीपाङ, खींवसर, बनास नदी के तट पर, टोंक जिले में भरनी आदि अनेक स्थानों में प्राप्त हुए हैं।

उद्योग धंधे

पूर्व पाषाण कालीन व्यवसाय जंगल के कन्द मूल व फल-फू का एकत्र करना तथा शिकार था। उत्तर-पाषाण काल में शिकार तो जारी रहा, लेकिन अब उसने अनुभव किया कि शिकार से उसके जीवन की समस्या का पूर्णतः समाधान नहीं हो सकता। क्योंकि प्रथम तो शिकार अनिश्चित था और दूसरा मारे हुये जानवरों का माँस दो-तीन दिन से अधिक चलता नहीं था। अतः पशुओं को केवल मारने के स्थान पर पशु बंधन, पशु-चारण और पशु पालन का व्यवसाय शुरू किया। गाय, बैल और भैंस के साथ-साथ भेङ, बकरी और पक्षी भी पाले जाने लगे। वे अब नौकाएँ भी बनाने लगे। संभवतः वे नाविक कला से भिज्ञ थे। इस काल में सर्वाधिक क्रांतिकारी आविष्कार खेती का था।राजस्थान के उत्तर-पाषाण-युगीन मानव ने जंगलों में अपने आस-पास की भूमि साफ करके कृषि कार्य करना आरंभ कर दिया। इससे पहले आदिम मानव भ्रमणशील था, लेकिन अब कृषि कार्य करने के कारण इसने एक स्थान पर स्थायी रूप से जमकर रहना सीख लिया। फलस्वरूप मानव जनसंख्या और सभ्यता का विकास तेजी से होने लगा। इस युग में बढई, कुम्हार, बुनकर, रंगरेज आदि के व्यवसाय भी शुरू हो गये थे। विविध व्यवसाय शुरू होने तथा स्थायी रूप से एक स्थान पर बसने से सामूहिक जीवन व्यतीत करने की प्रवृत्ति विकसित होने लगी। गाँव और समाज में संगठन की भावना भी विकसित होने लगी।

भोजन एवं अग्नि का उपयोग

पूर्व पाषाण काल में राजस्थान का आदिम मानव अत्यन्त ही भद्दे तरीके से कच्चा भोजन करता था। भोजन पकाने की कला की उसे जानकारी नहीं थी। उसने पत्थर टूटने या आपस में रगङ से निकलती हुई चिन्गारियाँ, पेङों की डालों की रगङ से आग लगना और कभी-कभी जंगल की भयानक आग को देखा था। अचानक उसने दावानल से जले-भुने जानवर का माँस खाया, जिसका स्वाद उसे अच्छा लगा। इस अनुभव से उसने पत्थर या लकङी की रगङ से अग्नि पैदा करने और उससे आग जलाना सीख लिया। उसके खाद्य पदार्थों में फल-फूल व माँस के अलावा अपने खेतों में पैदा किया हुआ अन्न भी था। चूँकि उन्होंने पशु-पालन का व्यवसाय शुरू कर दिया तथा गाय, भैंस, भेङ और बकरी पालते थे, अतः उनके पेय पदार्थों में दूध प्रमुख था। दूध से दही बनाने और घी निकालने की कला भी उन्होंने सीख ली थी। दूध के अलावा ताङी और दूसरे पेङ-पौधों के रस भी उनके पेय-पदार्थों में सम्मिलित थे।

वस्र और आभूषण

पूर्व – पाषाण काल में राजस्थान का आदिम मानव पेङों के पत्ते, वृक्षों की छाल और जानवरों की खाल से अपना शरीर ढकता था। लेकिन उत्तर-पाषाण काल में कपास की खेती होने लगी, जिससे सूत कातने और कपङा बुनने का काम आरंभ हुआ। पशुओं की ऊन से भी कपङों की बुनाई प्रारंभ हुई। इस प्रकार राजस्थान में उत्तर – पाषाण कालीन मानव सूती और ऊनी वस्र पहनने लगा। रंगों के प्रति मानव में आकर्षण स्वाभाविक था। अतः वनस्पति से तैयार किये हुए रंगों से लाल, पीले, हरे और नीले कपङे रंगे जाने लगे। वस्र पहनने का ढंग बङा सरल था। एक लंबे कपङे के आधे भाग को कमर में लपेट लिया जाता था और आधे भाग को कंधों पर डाल देते थे। संभवतः पुरुष सिर पर पगङी भी बाँधते थे। स्रियाँ एक प्रकार का अधोवस्र (लहँगे जैसा) धारण करती थी। बाल संवारने की कला भी विकसित हो गयी थी। वैसे स्री और पुरुष दोनों आभूषण पहनते थे, लेकिन स्रियों को पत्थर, कौङी, सीप, हड्डी आदि की बनी हुई मालाएँ, बालियाँ, अँगूठियाँ, कङे व कंकणों से श्रृंगार करने का विशेष शौक था।

समुदाय, जातियाँ एवं वर्ग

उत्तर-पाषाण काल तक आते-आते राजस्थान में मनुष्य अनेक समुदायों, जातियों और वर्गों में बँटने लगे। अलग-अलग स्थानों पर रहने वाले समूहों के अलग-अलग समुदाय बन गये, जैसे – नदियों व झीलों के किनारे, वन, मैदान, पर्वत और रेगिस्तान के लोग एक दूसरे से अलग रहते थे, जिससे उनमें एक दूसरे से अलग रहने की भावना जागृत हुई। उनके रहन-सहन और रीति-रिवाजों में भिन्नता थी। वास्तव में जाति प्रथा का अंकुरण इसी काल में दिखाई देता है, जो वर्ण व्यवस्था से बहुत प्राचीन तथा राजस्थान की आदिम संस्थाओं में से एक है। राजस्थान प्रदेश के निवासियों द्वारा अलग-अलग व्यवसाय अपनाने से, उनके व्यवसाय के आधार पर अनेक वर्ग एवं जातियाँ बनने लगी।

पारिवारिक जीवन

पशु पालन और खेती के व्यवसाय ने मानव को बङे परिवार में रहने के लिये बाध्य कर दिया। फलस्वरूप पति-पत्नी, माता-पिता, भाई-बहन आदि के संबंध प्रगाढ हो गये तथा परिवार के प्रति ममता उत्पन्न हुई। परिवार में सर्वाधिक अनुभवी एवं शक्तिशाली पुरुष परिवार का नेता या मुखिया होता था। अपने – अपने परिवारों के पशुओं को चराने के लिये चरागाहों के संबंध में प्रायः लङाइयाँ हुआ करती थी। इसलिये अनेक परिवारों के समूह के लिये एक नेता की आवश्यकता होती थी। अतः उस परिवार समूह के लिये किसी एक परिवार से नेता चुन लिया जाता था। अनेक समाजशास्रियों की मान्यता है, कि इसी प्रकार के नेता से राज संस्था का विकास हुआ था।

धार्मिक जीवन

राजस्थान के उत्तर-पाषाण युगीन मानव ने धार्मिक जीवन में भी कुछ कदम आगे बढाये। इस काल में मनुष्य भौतिक पदार्थों में एक प्रकार की जीवन शक्ति का अनुभव करने लगा। यद्यपि वह जीवों का संबंध किसी अभौतिक सत्ता से तो नहीं जोङ सका, किन्तु जीवन मरण के संबंध में उसके विचार अधिक स्थिर हो गये । राजस्थान के उत्तर पाषाण युगीन मनुष्य, पूर्व पाषाण युगीन मनुष्यों की भाँति मृतकों के शव वन्य पशुओं के निमित्त यों ही नहीं छोङ देते थे, वरन् उन्हें या तो सिस्ट (भूगर्भ स्थित कब्र) या घङों में (मिट्टी के बङे पात्रों में शव को काटकर भर देते थे )या सेक्रोफागी (बङे पत्थरों के बने हुए शव आसन) में या पत्थर की कब्रों में, जिन पर एक पत्थर का बना हुआ छत्र लगा लगा हुआ होता था, गाङ दिया करते थे। मृतकों की हड्डियाँ रखने के लिये अस्थि-पात्रों तथा शव के ऊपर बनी समाधियों से पता होता है कि इस समय के लोग जीवन श्रृंखला और पुनर्जन्म में विश्वास करते थे और अपने पितरों की पूजा भी करते थे। उनका अपना एक प्रकार का धर्म भी था। वे काष्ठ खंडों व प्रस्तर खंडों की भी पूजा करते थे। संभवतः लिंग पूजा का विकास इसी युग में हुआ था। पूजा अर्चना में वे दूध, अन्न, माँस आदि पदार्थ अर्पित करते थे। अपने देवता को प्रसन्न करने के लिये संभवतः वे कभी-कभी मनुष्यों का बलिदान भी किया करते थे।

भाषा और कला

राजस्थान में सभ्यता के विकास के साथ-साथ मनुष्य ने अपने भावों को व्यक्त करने की कला में भी उन्नति की। विभिन्न स्थानों में विविध जातियों और समूहों की बोलियाँ स्थिर होने लगी और जीवन के विस्तार के साथ-साथ उनका शब्द-भंडार भी बढने लगा। वर्तमान में राजस्थान की जनसंख्या का काफी बङा अंश उत्तर-पाषाण युगीन प्रोटो-आस्ट्रालायड लोगों का है, जिसमें भील, मीणा तथा मेवाङ और सिरोही की आदिम जातियाँ शामिल हैं। संभवतः वे मुण्डा भाषाएँ बोलते थे, क्योंकि मुण्डा की उपभाषाएँ दक्षिण-पूर्व एशिया तथा प्रशांत क्षेत्र से लेकर आस्ट्रेलिया तक के लोगों की प्राथिमिक बोलियाँ रही हैं। इस युग की कला की व्यंजना विशेषकर मिट्टी के बर्तनों पर मिलती है। रंगों का चुनाव, आकार की सजीवता और भावों का प्रत्यक्षीकरण इन सबका सामंजस्य आदिम रूप में यहाँ मिलता है। उनकी कलात्मक क्षमता का परिचय न केवल मिट्टी के बर्तनों तथा आभिषणों के नमूनों में प्राप्त होता है, बल्कि शिलाओं और पर्वतों की कंदराओं की दीवारों पर आखेट तथा नृत्य के दृश्य भी चित्रित हैं। यद्यपि ये चित्र अत्यन्त ही भद्दे व सौन्दर्यविहीन हैं, फिर भी मनुष्य के कलात्मक प्रयत्न के सबसे पुराने नमूने हैं।

पाषाण काल के अंतिम वर्ष

पाषाण काल के अंतिम वर्षों में धातुओं का आविष्कार और उनका सीमित उपयोग प्रारंभ हो गया था। राजस्थान में पाषाण-युग के मानव को धातुओं का ज्ञान धीरे-धीरे होने लगा। भोजन पकाने के लिये पत्थरों की बनाई हुई भट्टी अथवा चूल्हे का उपयोग तो मनुष्य ने जान ही लिया था। संभवतः भट्टी बनाने के काम में लिये हुए धातु-मिश्रित पत्थरों से भोजन पकाते समय पिघली हुई दशा में जो धातु निकल पङा, उसी से उन्हें धातुओं के अस्तित्व का पता लगा। उस धातु को ठोक-पीटकर उन्होंने कुछ अच्छे औजार और हथियार तैयार किये, जिनका जानवरों के शिकार में उपयोग किया। इस प्रयोग से उसने अनुभव किया कि पाषाणों से निर्मित औजारों की अपेक्षा धातुओं के औजार अधिक उपयोगी हैं। अतः उसने प्रधानतः धातुओं को ही अपनाना आरंभ कर दिया। मनुष्य ने अधिक मात्रा में मिलने वाले उपयोगी धातुओं की खोज की। अतः पाषाण काल के बाद राजस्थान में ताम्र-काल प्रारंभ होता है राजस्थान सहित संपूर्ण उत्तर भारत में अब पाषाण का स्थान ताँबे ने ले लिया तथा औजार एवं हथियार बनाने के लिये ताँबे का ही उपयोग होने लगा। राजस्थान के विभिन्न भागों से ताँबे की वस्तुओं के अवशेष प्राप्त हुए हैं। इन अवशेषों में राजस्थानी सभ्यता की नव अंकुरित सभ्यता के चिह्न स्पष्ट रूप से दिखाई देते हैं। शताब्दियों के बाद लोहा प्रयोग में लाया जाने लगा और धीरे – धीरे इसने ताँबे का स्थान ले लिया। इस प्रकार राजस्थआन में हम ताम्र-युग और प्रारंभिक लौह-युग में भेद कर सकते हैं। संभवतः लोहे का प्रयोग सर्वप्रथम आर्यों ने किया था। सामान्यतः ऐसी धारणा है कि ऋग्वेद की रचना के समय लौह-युग आरंभ हो चुका था। परंतु हमारे समक्ष ताम्र-युगीन सभ्यता के ज्वलन्त उदाहरण मौजूद हैं। यह सभ्यता सिन्धु घाटी में विकसित हुई थी और इसका प्रसार निकटवर्ती भागों में दूर तक पर्याप्त रूप से हुआ था। राजस्थान के पुरात्त्व विभाग ने भारत सरकार के पुरात्त्व विभाग की मदद से राजस्थान के विभिन्न स्थानों – कालीबंगा, आहङ, बागौर, बैराठ, गिलूंड, नोह आदि पर उत्खनन किया। उत्खनन में प्राप्त अवशेषों से हमें सिन्धु सभ्यता से भी प्राची और कहीं-कहीं पर सिन्धु सभ्यता की समकक्ष सभ्यता की जानकारी भी मिलती है।

पाषाण युग की देन

राजस्थान का आदि निवासी भारत के अन्य आदि निवासियों की भाँति नितान्त जंगली था। वह पशुओं से, जिनका वह शिकार करता था, एक सीढी ही ऊपर था अर्थात् वह पशुओं से कुछ ही अधिक सभ्य था। राजस्थान में उत्तर-पाषाण युग के आधुनिक प्रतिनिधि आज भी बहुत पिछङे हुए हैं, जिन्हें हम आदिवासी कहते हैं। फिर भी, राजस्थानी सभ्यता के विकास की प्रक्रिया में उनके योगदान की महत्ता की अवहेलना नहीं की जा सकती। राजस्थान में पाषाण कालीन लोगों ने धनुष-बाण का प्रयोग आरंभ किया, जो 14 वीं सदी तक युद्ध में एक आयुध के रूप में चलता रहा। इन्हीं लोगों ने नावों और जहाजों के आदि रूप अनगढ डोंगियों का प्रयोग शुरू किया। खेती-बाङी का व्यवसाय, विविध प्रकार की फसलों की उपज, पशु-पालन, अग्नि और धातुओं का प्रयोग, प्रदेश के आंतरिक भागों में यातायात के सुगम मार्गों की खोज, पशु, भूत-प्रेत, वृक्षों आदि की पूजा, वनस्पति विज्ञान, जङी-बूँटी की पहचान, ऋतु परिवर्तन का ज्ञान, आखेट की कलाएँ आदि न जाने कितनी ही बातें हमें इन्हीं लोगों से प्राप्त हुई हैं। प्राचीन संस्कृति का चामल शब्द व जोम शब्द जिससे जीमना निकला, मुण्डा भाषा के माध्यम से हमें प्राप्त हुए हैं। इसके अलावा वृक्षों तथा पशुओं के अनेक नाम इन्हीं लोगों की देन हैं। उदाहरण के लिये केला, पान, बैंगन, काशीफल, चूना तथा रुई के संस्कृत नाम तथा पशुओँ में पालतू चिङिया, मोर, हाथी, टट्टू आदि के नाम हमें इन्हीं से प्राप्त हुए हैं। ऊँचे स्थलों में धान की खेती, कपास की धुनाई, सूत और ऊन के कातने बुनने की कला, चाक पर मिट्टी के बर्तन बनाने की कला, मृत्यु के बाद जीवन संबंधी विचार, प्रकृति पूजा आदि अनेक क्रियाएँ हमें इन्हीं से मिली हैं। आर्य लोग प्रोटो – आस्ट्रालायड लोगों को सामूहिक रूप से निषाद कहते थे। भीलों और कुछ अन्य आदिवासियों को आज भी निषाद कहा जाता है।

महत्त्वपूर्ण प्रश्न एवं उत्तर

प्रश्न इतिहासकारों ने प्रागैतिहासिक काल का विभाजन जिनके नाम के आधार पर किया है, वे हैं

उत्तर पाषाण एवं धातुएँ

प्रश्न राजस्थान में पाषाण युगीन संस्कृति का प्रसार हुआ था

उत्तर प्रमख नदियों तथा सहायक नदियों के किनारे।

प्रश्न राजस्थान के पाषाण युगीन सभ्यता के केन्द्रों से जो सामग्री प्राप्त हुई है, वह है

उत्तर बेडोल व सौन्दर्यविहीन औजार

प्रश्न आदिम मानव को हथियारों की आवश्यकता हुई, क्योंकि

उत्तर अपनी रक्षा और जीविका के लिये ।

प्रश्न आर्य लोग प्रोटो आस्ट्रालायड लोगों को कहते थे

उत्तर निषाद

References :
1. पुस्तक - राजस्थान का इतिहास, लेखक- शर्मा व्यास
Online References
wikipedia : प्रागैतिहासिक काल

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