इतिहासराजस्थान

शेरशाह सूरी एवं राजपूत राज्य का इतिहास

शेरशाह सूरी एवं राजपूत – चौसा के युद्ध (1539ई.) के बाद दिल्ली की केन्द्रीय सत्ता पर शेरशाह सूरी का अधिकार हो गया। उसके समय में राजस्थान में केवल दो ही शक्तियाँ महत्त्वपूर्ण थी – एक मारवाङ की और दूसरी मेवाङ की। मारवाङ के मालदेव ने मेङता, बीकानेर आदि अनेक राज्यों तथा आसपास के क्षेत्रों को जीतकर अपनी शक्ति को काफी सुदृढ बना लिया था।

उसके द्वारा पराजित मेङता का वीरमदेव और बीकानेर का कल्याणमल शेरशाह की शरण में पहुँच चुके थे। मेवाङ पर इस समय उदयसिंह का शासन था परंतु उसे सिंहासन पर बैठे तीन वर्ष ही हुये थे और मेवाङ की सैनिक शक्ति अपनी केन्द्रीय सत्ता का प्रतिरोध करने की स्थिति में नहीं थी।

आमेर की कच्छवाहों तथा बून्दी कोटा के हाङाओं की क्षमता का भी पूर्ण विकास नहीं हो पाया था। इस प्रकार, शेरशाह के समय में केन्द्रीय सत्ता को किसी से खतरा था, तो वह केवल मालदेव से था।

मालदेव और शेरशाह –

हुमायूँ की पराजय के बाद जिस दिन शेरशाह ने दिल्ली का सिंहासन अधिकृत किया था तभी से मालदेव को उसके साथ संघर्ष की आशंका उत्पन्न हो गयी थी और जब बीकानेर का कल्याणमल और मेङता का वीरमदेव शेरशाह की सेवा में जा पहुँचे तो मालदेव को यह पक्का विश्वास हो गया था कि आने वाले समय में शेरशाह के साथ संघर्ष अवश्यंभावी है।

इसीलिए उसने हुमायूँ को सहायता का संदेश भिजवाया था परंतु हुमायूँ समय एवं अवसर का लाभ न उठा पाया। वह काफी विलम्ब से पहुँचा। मालदेव ने एक निपुण राजनीतिज्ञ का परिचय दिया। उसने शेरशाह के दूत का पूर्ण सम्मान किया और हुमायूँ को भी सहायता देने से मना कर दिया। वह शेरशाह को नाराज करना नहीं चाहता था। फिर भी, दोनों के मध्य संघर्ष होकर रहा।

शेरशाह सूरी एवं राजपूत

शेरशाह द्वारा मालदेव के राज्य पर आक्रमण करने के मुख्य कारणों के बारे में इतिहासकार एकमत नहीं हैं। कुछ के अनुसार मुख्य कारण धार्मिक था तो कुछ के अनुसार राजनैतिक था। तारीखे-शेरशाही ने लिखा है कि रायसीन युद्ध के बाद शेरशाह ने अपने अमीरों की सभा में कहा कि, जब तक मैं देश को अंधविश्वासियों के प्रभाव से रहित नहीं कर दूँगा, तब तक दूसरे किसी देश के लिए नहीं जाऊंगा, पहले मैं अभियुक्त काफिर मालदेव को जङ से उखाडूँगा।

उसके इस कथन के आधार पर उसके आक्रमण का मुख्य कारण धार्मिक माना जाता है। समकालीन मुस्लिम इतिहासकारों ने भी इसे धर्म-युद्ध माना है। परंतु आधुनिक इतिहासकार इस मत को स्वीकार नहीं करते। उनके अनुसार शेरशाह द्वारा मालदेव पर आक्रमण करना, एक राजनीतिक आवश्यकता थी, क्योंकि दोनों ही उत्तरी-भारत में सर्वोच्चता प्राप्त करने के महत्वाकांक्षी थे, दोनों ही विस्तारवादी नीति में विश्वास रखते थे।

अतः शेरशाह के लिये मारवाङ के विस्तृत राज्य को जीतना आवश्यक था। मालदेव के राज्य की सीमाएँ शेरशाह के राज्य की सीमाओं से जा मिली थी। शेरशाह को स्वयं अपने साम्राज्य की सुरक्षा के लिये अपने सीमान्त पर स्थित शक्तिशाली मारवाङ राज्य की शक्ति को नष्ट करना आवश्यक था।

मालदेव तत्कालीन उत्तरी भारत का सर्वाधिक शक्तिशाली हिन्दू राजा था। वह भी उसकी भाँति महत्त्वाकांक्षी था और किसी भी समय दिल्ली पर आक्रमण कर सकता था। उसके अलावा उसने शेरशाह के कहे अनुसार हुमायूँ को बंदी न बनाकर उसे सकुशल वापिस जाने दिया। इससे शेरशाह उससे रुष्ट था और उसे दंड देना चाहता था। मालदेव द्वारा निष्कासित मेङता का बीरमदेव और बीकानेर का कल्याणमल दोनों ही राठौङ थे।

राठौङों की इस आपसी फूट का लाभ उठाकर मालदेव को परास्त करने का अवसर शेरशाह खोना नहीं चाहता था। इससे स्पष्ट हो जाता है कि शेरशाह के आक्रमण का मुख्य कारण राजनीतिक था।

इन सभी अनुकूल परिस्थितियों के बाद भी शेरशाह मालदेव पर तत्काल आक्रमण करने का साहस नहीं जुटा पाया। इसके लिये उसने पूरी सैनिक तैयारी की। दूसरी तरफ मालदेव भी सतर्क था। परंतु उसके लिये यह अनुमान लगाना कठिन था कि शेरशाह किस मार्ग से आक्रमण करेगा। एक संभावना यह थी कि शेरशाह पहले बीकानेर पर आक्रमण करेगा और फिर बीकानेर को आधार बनाकर मारवाङ पर चढाई करे।

दूसरी संभावना यह थी कि शेरशाह पहले अजमेर पर आक्रमण करेगा। वहाँ से मेङता और फिर जोधपुर पर। परंतु शेरशाह इन दोनों मार्गों से आक्रमण करना नहीं चाहता था। क्योंकि इन मार्गों पर राठौङों के सुदृढ किले थे जिन्हें अधिकृत करने में उसकी शख्ति काफी क्षीण हो सकती थी। वह ऐसे मार्ग से आक्रमण करना चाहता था जिससे उसे सुदृढ किलों का सामना न करना पङे और जिस मार्ग की मालदेव कल्पना न कर सके और वह अचानक उस पर टूट पङे।

धोखाधङी के इस खेल में वह कुशल था और हुमायूँ को इसी नीति द्वारा उसने दोनों बार पराजति किया था। फारसी तवारीखों के अनुसार उसने 80,000 सैनिकों तथा एक शक्तिशाली तोपखाने के साथ आगरा से प्रस्थान किया। उसने जानबूझकर मारवाङ का सीधा मार्ग नही पकङा।

इसके विपरीत वह आगरा से दिल्ली-नारनोल होता हुआ फतेहपुर शेखावाटी पहुँचा और यहाँ से रेतीले मार्ग को पार कर डीडवाना पहुँचा। डीडवाना में मालदेव का सेनानायक कूँपा मोर्चा जमाये हुये था। शेरशाह ने उसे आसानी के साथ परास्त करके खदेङ दिया। कूँपा ने शेरशाह की गतिविधियों से मालदेव को सूचित कर दिया था।

डीडवाना से शेरशाह अजमेर अथवा जोधपुर की तरफ बढ सकता था, परंतु इन दोनों ही स्थानों पर मालदेव ने मजबूत मोर्चाबंदी कर रखी थी। अतः शेरशाह डीडवाना से बाबरा नामक स्थआन पर पहुँचा। यह स्थान अजमेर से 28 मील दूर था। उधर मालदेव भी अपनी सेना सहित गिरि नामक स्थान पर पहुँच गया। यह स्थान शेरशाह के शिविर से केवल 12 मील दूर था।

गिरि-सुमेल का युद्ध

शेरशाह सूरी एवं राजपूत

मालदेव की शक्तिशाली सेना से शेरशाह घबरा गया परंतु उसने अपना मानसिक संतुलन कायम रखा। राजपूतों के संभावित आक्रमण से बचने की दृष्टि से उसने अपने शिविर को मजबूत बनाया। शिविर के चारों तरफ खाइयाँ खोदी गयी और जहाँ खाइयाँ बनाना संभव नहीं था वहाँ रेत के बोरों से रक्षा प्राचीरें बना ली गयी।

शेरशाह ने मालदेव को गुमराह करने की दृष्टि से आगरा से कुछ सैनिक दस्ते और बुला लिये और उन्हें आदेश दिया कि वे अजमेर पर आक्रमण करने का दिखावा करें। शायद शेरशाह ने सोचा हो कि वे अजमेर पर आक्रमण करने की सूचना मिलने पर मालदेव या तो अजमेर की तरफ बढेगा अथवा उस पर सीधा आक्रमण करेगा। इससे स्पष्ट है कि शेरशाह अपनी तरफ से पहले आक्रमण नहीं करना चाहता था। दूसरी तरफ मालदेव भी पहले आक्रमण करना नहीं चाहता था।

अतः वह भी अपने स्थान पर डटा रहा और अपने शिविर की सुरक्षा को मजबूत बनाने के लिये आवश्यक कदम उठाये। तारीखे-शेरशाही से पता चलता है कि लगभग एक मास तक दोनों सेनाएँ एक-दूसरे के सामने खङी रही।

इस स्थिति में मालदेव को विशेष कठिनाई न थी, क्योंकि वह अपने ही राज्य की सीमा में शिविर लगाये हुए था और सेना के लिये रसद और पानी जुटाना उसके लिए मुश्किल नहीं था। इसके विपरीत शेरशाह के लिये इस स्थिति में अधिक दिनों तक बने रहना संकटप्रद था।

अनजान शत्रु और स्थान पर सेना के लिये रसद जुटाना तथा अन्य बातों की व्यवस्था करना सरल काम न था। सुमेल से दिल्ली काफी दूर थी और अब यहाँ से हटना अथवा कोई अन्य सुरक्षा स्थल ढूँढना भी खतरे से खाली न था। मालदेव के विरुद्ध सफलता मिल जायेगी इसकी निश्चित संभावना भी न थी। ऐसी स्थिति में शेरशाह ने कुटिल युक्ति से राजपूतों में फूट डालने का निश्चय किया। नैणसी लिखता है कि शेरशाह के आदेशानुसार मेङता के वीरमदेव ने मालदेव के सरदार कूँपा तथा जेता दोनों के पास 20-20 हजार रुपये भिजवाये।

कूँपा से कंबल खरीदने का और जेता से सिरोही की तलवारें खरीदने का अनुरोध किया गया। उसी के साथ मालदेव को सूचित किया गया कि उसके सरदारों ने शेरशाह से घूस लेकर युद्ध के समय उसका साथ देने का आश्वासन दिया है। एक अन्य साक्ष्य से पता चलता है, कि शेरशाह ने मालदेव के सरदारों की तरफ से अपने नाम के कुछ जाली पत्र तैयार करवाये जिनका आशय यह था कि शेरशाह को किसी प्रकार की शंका नहीं करनी चाहिये और युद्ध के दौरान हम लोग मालदेव को पकङकर आपकी सेवा में उपस्थित कर देंगे।

इन पत्रों को मालदेव के डेरे के पास रखवा दिया गया, जो थोङे समय बाद ही मालदेव के हाथों में पहुँच गये। शेरशाह ने चाहे जिस युक्ति से काम किया हो, मालदेव अपना मानसिक संतुलन खो बैठा। उसका अपने सरदारों पर से विश्वास उठ गया और वह अपने प्रमुख सरदारों से सलाह लिये बिना ही अचानक रात्रि के अँधेरे में अपनी मुख्य सेना सहित युद्ध क्षेत्र से भाग निकला। परंतु कूँपा और जेता जिन पर विश्वास किया गया था, अपने सैनिक दस्तों के साथ वहीं डटे रहे।

शेरशाह की इस कुटिल चाल के बारे में तत्कालीन स्रोत एकमत नहीं हैं। राजस्थानी स्रोतों के अनुसार इस प्रकार की संपूर्ण योजना का श्रेय मेङता के वीरमदेव को है, जबकि फारसी तवारीखों में इसका श्रेय शेरशाह को दिया गया।

मालदेव के भाग जाने के बाद बचे हुये राजपूत सरदारों ने अपने सैनिकों के साथ शेरशाह की सेना पर जोरदार आक्रमण किया। शेरशाह को अपने गुप्तचरों के माध्यम से राजपूतों की आपसी फूट तथा मालदेव के पलायन की सूचना मिल चुकी थी और वह अपने शिविर को उखाङ कर सात मील पीछे हट गया था। राठौङ राजपूतों का आक्रमण इतना जबरदस्त रहा कि शेरशाह की सेना के पैर उखङने लगे।

परंतु उसके भाग्य से उसका एक सेनानायक जलालखाँ जुलानी ठीक समय पर नई सेना के साथ आ पहुँचा जिससे थके हुये राजपूत सैनिक चारों तरफ से घिर गये और उनमें से अधिकांश लङते हुये वीरगति को प्राप्त हुए। शेरशाह ने शुरू में तो युद्ध जीतने की आशा ही छोङ दी थी। वह युद्ध के दौरान ही नमाज पढने लगा और ईश्वर से अपनी सफलता के लिये दुआ माँगने लगा।

इससे उसका तथा उसके सैनिकों का नैतिक बल बढा। राठौङ सैनिकों के पराक्रम और त्याग को देखकर युद्ध के बाद शेरशाह के मुँह से अनायास ही ये शब्द निकल पङे – मैंने एक मुठ्ठी भर बाजरा के लिये करीब-करीब दिल्ली का राज्य खो दिया होता। वास्तव में यदि उसे मालदेव की संपूर्ण सेना से लङना पङा होता तो युद्ध के निर्णय के बारे में कहना कठिन होता। वह जीत भी जाता तो भी उसे प्राणघातक धक्का लग सकता था।

गिरि सुमेल का युद्ध जनवरी, 1544 ई. में लङा गया। इस युद्ध में राजपूतों की पराजय का मुख्य कारण तो मालदेव का अपनी मुख्य सेना सहित युद्ध के पूर्व ही पलायन कर जाना था। बचे हुए 12,000 अथवा 20,000 सैनिकों के लिये शेरशाह जैसे सुयोग्य सेनानायक के नेतृत्व में लङ रहे 80,000 सैनिकों को परास्त करना दुष्कर काम था।

इसके अलावा, राजपूतों के पास अफगानों के शक्तिशाली तोपखाने का कोई जबाव नहीं था। अफगानों की अश्वारोही सेना भी राजपूत घुङसवारों से श्रेष्ठ थी और राजपूतों ने घोङों से उतरकर पैदल युद्ध लङा था। इस पर भी उन्होंने अपने जोरदार आक्रमण से शेरशाह की सेना में खलबली मचा दी थी।

यदि शेरशाह को ठीक समय पर जलालखाँ जुलानी की सहायता न मिली होती तो युद्ध का निर्णय बदल भी सकता था। डॉ.कानूनगो ने इस युद्ध को मारवाङ के भाग्य के लिये एक निर्णायक युद्ध माना है। उनके अनुसार यह युद्ध मालदेव को बहुत महँगा पङा।

जेता और कूँपा जैसे सुयोग्य एवं पराक्रमी सेनानायकों के साथ लगभग आठ-दस हजार राजपूत सैनिकों को खो देने से मालदेव की सैनिक शक्ति काफी कमजोर हो गयी। डॉ.गोपीनाथ शर्मा के शब्दों में, इस युद्ध के बाद राजपूतों के वैभव और स्वतंत्रता का अध्याय समाप्त हो जाता है, जिसके पात्र पृथ्वीराज चौहान, हम्मीर चौहान, महाराणा कुम्भा, महाराणा साँगा और मालदेव थे। यहाँ से एक आश्रितों के इतिहास का आरंभ होता है, जिसके पात्र वीरमदेव, कल्याणमल, मानसिंह, मिर्जा राजा जयसिंह, अजीतसिंह आदि थे।

गिरि-सुमेल-युद्ध की सफलता के बाद, शेरशाह ने अपनी एक सेना मालदेव का पीछा करने के लिये भेज दी। वह स्वयं अजमेर की तरफ बढा और उस पर अपना अधिकार कायम करने के बाद मेङता आया और वीरमदेव को मेङता सौंप दिया। इसके बाद शेरशाह नागौर की तरफ बढा और वहाँ से बीकानेर गया।

कल्याणमल को बीकानेर का राज्य सौंपकर वह नागौर होता हुआ जोधपुर की तरफ बढा। उसके पूर्व मालदेव स्थिति को प्रतिकूल समझकर सिवाना के पर्वतीय भाग में चला गया। मामूली संघर्ष के बाद जोधपुर पर शेरशाह का अधिकार हो गया। शेरशाह ने जोधपुर राज्य का प्रबंध ख्वाजाखाँ और ईसाखाँ नियाजी को सौंपा और स्वयं चित्तौङ की तरफ बढ गया। उसके चित्तौङ पहुँचने के पूर्व ही चित्तौङ के राणा की तरफ से दुर्ग की चाबियाँ तथा अधीनता स्वीकार करने का संदेश शेरशाह को मिला। इससे संतुष्ट होकर शेरशाह वापिस लौट गया।

मालदेव का पुनः सत्तारूढ होना

वापिस लौटने से पूर्व शेरशाह मारवाङ राज्य के प्रमुख स्थानों – फलौदी, पोकरण, पाली, जालौर, नागौर आदि पर अपने थाने बिठाता गया ताकि मालदेव इन स्थानों को सरलता के साथ अधिकृत न कर सके। 524 दिन तक शेरशाह का मारवाङ पर अधिकार बना रहा। शेरशाह की मृत्यु की सूचना मिलते ही मालदेव ने अफगानों को मारवाङ से खदेङने की तैयारी कर ली। 1546 ई. में मालदेव ने अफगानों के मांगेसेर नामक सैनिक थाने पर आक्रमण किया।

इस आक्रमण में बहुत से अफगान सैनिक मारे गये और मालदेव विजयी रहा। इसके बाद मालदेव ने अपनी राजधानी जोधपुर पर आक्रमण कर उसे जीत लिया। इस संघर्ष में भी संकङों सैनिक मारे गये। जोधपुर पर अधिकार कर लेने के बाद मालदेव ने अपने खोये हुए क्षेत्रों पर पुनः अधिकार जमाने का प्रयास शुरू किया। सुमेल के युद्ध में फलौदी के सरदार राम ने मालदेव का साथ नहीं दिया था।

मालदेव ने छल-कपट से डूँगरसी को बंदी बना लिया और उसे भी रिहा किया गया जबकि उसके अधिकारियों ने फलौदी का दुर्ग मालदेव के अधिकारियों को सौंप दिया।

इसके बाद मालदेव ने पोकरण-सातलमेर पर आक्रमण किया, क्योंकि सातलमेर के महाजनों ने वहाँ के शासक जैतमल तथा उसके अधिकारियों के अत्याचारों से तंग आकर मालदेव से सहायता की याचना की थी। मालदेव की सेना ने सातलमेर के दुर्ग को चारों तरफ से घेर लिया।

जब दुर्ग में और अधिक रहना संभव न रहा तो जैतमल दुर्ग मालदेव को सौंप दिया और वह स्वयं अपनी ससुराल जैसलमेर चला गया। मालदेव ने सातलमेर के दुर्ग को ध्वंस कर दिया और पोकरण में एक सुदृढ दुर्ग का निर्माण करवाया। इस बीच जैतमल जैसलमेर के भाटियों के साथ आ धमका। परंतु मालदेव के हाथों पराजित होकर उसे वहाँ से भागना पङा। इसके बाद मालदेव ने बाङमेर तथा कोटङा पर भी अपना अधिकार कर लिया।

जैसलमेर के राजा ने पोकरण, बाङमेर तथा कोटङा के सरदारों को मालदेव के विरुद्ध सैनिक सहायता दी थी। अब मालदेव ने जैसलमेर पर आक्रमण किया। 1552-53 ई. के मध्य दोनों पक्षों में संघर्ष चलता रहा। अंत में जैसलमेर के भाटी शासक मालदेव ने मारवाङ के मालदेव की अधीनता स्वीकार कर ली।सुमेल के युद्ध के बाद शेरशाह ने मेङता वीरमदेव को सौंप दिया। कुछ दिनों बाद उसकी मृत्यु हो गयी और उसका लङका जयमल मेङता का शासक बना।

मालदेव मेङतिया राठौङों को अपना शत्रु समझता था और मेङता पर पुनः अपना अधिकार जमाना चाहता था। फलौदी, पोकरण, जैसलमेर आदि से निपटने के बाद 1553 ई. में उसने मेङता पर आक्रमण कर दिया। परंतु जयमल ने उसके आक्रमण को विफल कर दिया। पुनः सतारूढ होने के बाद मालदेव को पहली असफलता का सामना करना पङा।

गिरि-सुमेल युद्ध के बाद अजमेर पर भी शेरशाह का अधिकार हो गया था। इस समय वहाँ हाजीखाँ नामक अमीर नियुक्त था। शेरशाह की मृत्यु के बाद जब हुमायूँ ने पुनः दिल्ली-आगरा पर अधिकार कर लिया तो परिस्थितियों का लाभ उठाते हुए मेवाङ के महाराणा उदयसिंह ने अजमेर को जीत लिया।

इस अवसर पर हाजीखाँ अलवर-मेवात में था। हुमायूँ की मृत्यु के बाद सम्राट अकबर ने मेवात के लिये मुगल सेना भेज दी। हाजीखाँ वहाँ से भागकर महाराणा की शरण में उदयपुर चला गया और महाराणा ने उसे अपनी अधीनता में अजमेर रहने की आज्ञा दे दी। इसी समय मालदेव ने अजमेर को जीतने के लिये अपनी सेना भेज दी। हाजी खाँ की प्रार्थना पर महाराणा उदयसिंह और बीकानेर के कल्याणमल ने मालदेव के विरुद्ध उसकी सहायता के लिये सैनिक दस्ते भेज दिये। अतः मालदेव की सेना बिना युद्ध किये ही वापस लौट गई। उसके कुछ दिनों बाद ही रंगराय नामक वेश्या को लेकर महाराणा उदयसिंह और हाजीखाँ के आपसी संबंध बिगङ गये और महाराणा ने हाजीखाँ को दंड देने का निश्चय किया।

अब हाजीखाँ ने मालदेव से सहायता की याचना की। मालदेव तो पहले ही महाराणा से खिन्न था और वह मेवाङ की बढती हुई शक्ति को भी नियंत्रित करना चाहता था, अतः उसने तत्काल हाजीखाँ की सहायता के लिये सेना भेज दी। उधर मेवाङ की सेना भी हरमाङे नामक स्थान पर जा पहुँची। हाजीखाँ और मालदेव की सेना ने भी हरमाङे में मोर्चा जमा लिया। हरमाङे के इस युद्ध में मेवाङ की सेना बुरी तरह से पराजित हुई। इससे राजस्थान में मालदेव की प्रतिष्ठा पुनः स्थापित हो गयी।

मेङता की विजय

अब मालदेव ने पुनः मेङता की तरफ ध्यान दिया। वह जयमल के हाथों अपनी पिछली पराजय का बदला लेना चाहता था। हरमाङे के युद्ध के बाद मालदेव ने अचानक मेङता पर आक्रमण कर दिया। इस बार जयमल बिना किसी प्रतिरोध के मेङता से भाग खङा हुआ और मेङता पर मालदेव का अधिकार हो गया। यह घटना जनवरी, 1557 ई. की है। जयमल के इस तरह से भागने का मुख्य कारण यह था कि हरमाङे के युद्ध में उसके काफी सैनिक मारे जा चुके थे और युद्ध के बाद उसके बचे हुये सैनिक अपने घरों को लौट गये थे।

मेङता पर अधिकार कर लेने के बाद मालदेव ने आधा मेङता वीरमदेव के लङके जयमल को सौंप दिया। मालदेव ने मेङता की सुरक्षा के लिये एक सुदृढ किले का निर्माण करवाया। इस प्रकार मालदेव ने अपने अधिकांश खोये हुये क्षेत्रों पर पुनः अधिकार जमा लिया।

शेरशाह के समय में केन्द्रीय सत्ता के प्रति राजपूतों की नीति एक समान न थी। बीकानेर और मेङता के शासकों ने केन्द्रीय सत्ता के साथ सहयोग करते हुए अपने खोये हुए राज्यों को प्राप्त करने का प्रयास किया तो दूसरी तरफ मालदेव ने केन्द्रीय सत्ता का प्रतिरोध किया और शेरशाह के राजस्थान से लौटते ही अपने खोये हुए क्षेत्रों पर पुनः अधिकार करना शुरू कर दिया।

शेरशाह के उत्तराधिकारियों को अपनी ही समस्याओं से समय नहीं मिल पाया और वे राजपूत राज्यों के विरुद्ध कोई कदम न उठा पाये। तीसरी तरफ मेवाङ का उदयसिंह था जिसने मौजूदा स्थिति में मेवाङ को सर्वनाश से बचाने के लिये बिना लङे ही केन्द्रीय सत्ता के सम्मुख आत्म समर्पण कर दिया परंतु शेरशाह की मृत्यु के बाद अपनी शक्ति को बढाने का पूरा-पूरा प्रयास किया।

References :
1. पुस्तक - राजस्थान का इतिहास, लेखक- शर्मा व्यास
Online References
wikipedia : शेरशाह सूरी

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