1911 की चीनी क्रांतिइतिहासविश्व का इतिहास

सन-यात-सेन कौन थे

सन-यात-सेन कौन थे

 सन-यात-सेन(12 नवम्बर 1866 – 12 मार्च 1925) चीन के क्रांतिकारी नेता तथा चीनी गणतंत्र के प्रथम राष्ट्रपति एवं जन्मदाता थे। सन-यात-सेन पेशे से वे चिकित्सक था। चीनी गणतंत्र में इसको ‘राष्ट्रपिता’ कहा जाता है, जबकि चीनी जनवादी गणतंत्र में इसे ‘लोकतांत्रिक क्रांति का अग्रदूत’ कहा जाता है।

सन-यात-सेन के विचार

सन-यात-सेन

19वीं शताब्दी के अंतिम चरण में चीन के क्रांतिकारी भावना का संगठित रूप से विकास करने में डॉ.सन-यात-सेन का महत्त्वपूर्ण योगदान था। डॉ.सेन आरंभ से ही क्रांतिकारी विचारों वाला व्यक्ति था और देश के हित में मंचू शासन का अंत अनिवार्य मानता था।

मंचू विरोधी गतिविधियों के कारण डॉ.सेन को चीन छोङकर भागना पङा था और विदेशों में निर्वासित जीवन व्यतीत करना पङा था। चीन में क्रांति लाने के उद्देश्य से 1905 ई. में टोकियो में डॉ. सेन ने अपने थुंग-मेंग-हुई नामक गुप्त दल का संगठन किया और अपने परिश्रम तथा कुशलता से इस दल को शीघ्र एक शक्तिशाली दल बना दिया।

चूँकि 1911 ई. की चीनी क्रांति से पूर्व चीन में राजनीतिक संगठन स्थापित करने की स्वतंत्रता नहीं थी, अतः थुंग-मेंग-हुई को गुप्त रूप से ही काम करना पङा। अक्टूबर, 1911 ई. में जब चीन में क्रांति का विस्फोट हुआ, उस समय डॉ.सेन अमेरिका में था। दिसंबर में वह कैप्टन पहुँचा तथा क्रांतिकारी सरकार का अध्यक्ष चुन लिया।

अब थुंग-मेंग-हुई ने खुले रूप से काम करना शुरू कर दिया। इसी दल के प्रस्ताव पर डॉ.सेन ने नानकिंग में गणतंत्रीय सरकार का गठन किया था, किन्तु युआन-शीह-काई से समझौता हो जाने पर इस सरकार को भंग कर दिया गया।

किन्तु जब युआन ने मंचू राजाओं की तरफ अपना निरंकुश शासन स्थापित करने का प्रयास किया तब क्रांतिकारी दलों के साथ संघर्ष अवश्यम्भावी हो गया। नई परिस्थितियों से मुकाबला करने के लिये अगस्त, 1912 ई. में डॉ.सेन और उसके साथियों ने थुंग-में-हुई को अन्य गणतंत्रीय दलों से मिलाकर एक नए राष्ट्रवादी दल कुओमिनतांग की स्थापना की।

1913 ई. के चुनावों में इस दल को भारी सफलता मिली। युआन-शीह-काई इस दल को अपना प्रबल विरोधी मानने लगा और उसने इस दल को भारी सफलता मिली। 1913 ई. में चीन के नए संविधान के अनुसार युआन-शीह-काई चीन का अधिनायक बन गया तथ नवम्बर, 1913 ई. में उसने कुओमिनतांग को कगैर कानूनी घोषित कर दिया।

इसके अनेक सदस्यों को बंदी बना लिया गया और किसी तरह बच गया। किन्तु चीन में युआन का निरंकुश शासन अधिक दिनों तक कायम नहीं कह सका। 1916 ई. में युआन की मृत्यु हो गयी।

सन-यात-सेन

युआन की मृत्यु के बाद चीन में पुनः अराजकता फैल गई। प्रांतों पर केन्द्रीय सरकार का प्रभाव समाप्त हो जाने से प्रान्तपति अपने-अपने क्षेत्र में स्वतंत्र शासकों की भाँति कार्य करने लगे। उस स्थिति का लाभ उठाते हुये डॉ.सेन ने दक्षिण चीन में पुनः अपनी शक्ति की स्थापना कर, कैण्टन को अपनी राजधानी बनाकर पुनः कुओमिनतांग दल की सरकार का गठन किया। इस प्रकार चीन में पुनः दो सरकारें स्थापित हो गयी, कैण्टन में डॉ.सेन की सरकार और पिकिंग में तुआन-शी-जुई का शासन।

सन-यात-सेन और सोवियत संघ

डॉ. सन-यात-सेन कैण्टन को केन्द्र बनाकर चीन का राष्ट्रीय एकीकरण करना चाहता था तथा अपने कुओमिनतांग दल के माध्यम से देश का आर्थिक पुनर्निर्माण करना चाहता था। किन्तु यह कार्य कुछ मित्र राज्यों की सहायता से ही संभव था। अतः उसने अमेरिका,ब्रिटेन आदि देशों से सहायता की अपील की, किन्तु किसी भी साम्राज्यवादी देश ने डॉ. सेन की सरकार के प्रति सहानुभूति प्रदर्शित नहीं की।

1917ई. में रूस में बोल्शेविक क्रांति हुई तथा वहाँ पर साम्यवादियों की नई सरकार बनी। जुलाई,1919 ई. में चीनी जनता के नाम एक घोषणा-पत्र में रूस की साम्यवादी सरकार ने चीन को वे सारे इलाके वापिस लौटाने का आश्वासन दिया, जिन्हें रूस की पूर्व जार सरकार ने उससे छीन लिया था और चीनी-पूर्वी रेलवे का प्रबंध उसे लौटाने, बॉक्सर विद्रोह के बाद उस पर लगाए गए हर्जाने को छोङने, वहाँ रहने वाले रूसियों को वहाँ के कानूनों से बाहर समझने तथा ऐसे सभी अधिकार जो राष्ट्रों की समानता के प्रतिकूल हों, छोङने का वचन दिया।

रूस की साम्यवादी सरकार ने यह भी आश्वासन दिया कि चीन को औपनिवेशिक शोषण से मुक्ति दिलाने में उसकी हरसंभव सहायता करेगी। रूसी सरकार का यह आश्वासन चीनी जनता का मनोबल उठाने में बङा ही प्रभावकारी सिद्ध हुआ।

चीन के बहुत से लोग समझने लगे कि बोल्शेविक क्रांति साम्राज्यवादी के विरुद्ध एक प्रबल आघात है तथा इसकी साम्यवादी विचारधारा में राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक प्रगति निहित है। अतः चीन के कुछ प्रगतिशील विचारकों ने 1919ई. से कुंग-चान-तांग नामक एक साम्यवादी पार्टी की स्थापना कर ली।

अगस्त, 1921 ई. में चीन की इस साम्यवादी पार्टी का एक अधिवेशन हुआ तथा इसमें भाग लेने के लिये कोमिण्टर्न का प्रतिनिधि मेरिंग चीन पुहँचा।मेरिंग ने सन-यात-सेन से भेंट की तथा रूसी सहायता का आश्वासन दिया। यद्यपि दोनों नेताओं की लंबी बातचीत के बाद कोई समझौता नहीं हा सका, किन्तु डॉ. सेन ने यह अनुभव किया कि उसके विचारों में और रूसी साम्यवाद में काफी समानता है। वस्तुतः रूसी साम्यवाद का उस पर गहरा प्रभाव पङ चुका था।

इसलिये जब 1922 ई. में पूर्वी एशिया की पराधीन जातियों का एक सम्मेलन मास्को में आयोजित हुआ, तब कुओमिनतांग का प्रतिनिधि भी इसमें शामिल हुआ। 16 नवम्बर, 1923 को डॉ. सेन ने एक जापानी राजनीतिज्ञ को लिखा कि सोवियत संघ विश्व की दलित-शोषित-जनता का एकमात्र मददगार है। 1 दिसंबर, 1923 को कुओमिनतांग के अधिवेशन के अधिवेशन के अधिवेशन में उसने सोवियत सरकार की प्रशंसा करते हुये बोल्शेविक क्रांति को मानव जाति की महान आशा बताया।

28 नवम्बर, 1924 को कोबे में, अपने भाषण में उसने यह बात जोर देकर कही कि विश्व के सभी अविकसित देशों के दलित लोगों को सोवियत संघ के उदाहरण पर चलने की आवश्यकता है।

रूस के प्रभाव और परामर्श के कारण उन दिनों कुओमिनतांग और कुंग-चान-तांग के बीच काफी तालमेल रहा। सोवियत संघ के नेताओं के दिल में चीन के प्रति असीम सहानुभूति थी। उनका विचार था कि चीन जैसे अर्द्ध-औपनिवेशिक देश में क्रांति का प्रथम लक्ष्य सामन्तवाद और साम्राज्यवाद का अंत होना चाहिए, सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व की स्थापना नहीं।

सामन्तवाद और साम्राज्यवाद का अंत बुर्जुआ-लोकतंत्रीय क्रांति द्वारा किया जा सकता है। डॉ.सेन और कुओमिनतांग का लक्ष्य भी यही था। जनवरी, 1923 ई. में सोवियत प्रतिनिधि जोफ्रे ने सन-यात-सेन की तथा दोनों की बातचीत के बाद वे इस बात पर सहमत हो गए कि सोवियत-पद्धति अभी चीन के लिये उपयुक्त नहीं है।

उनकी मान्यता थी कि चीन की प्रमुख तात्कालिक समस्या राष्ट्रीय एकता और पूर्ण स्वतंत्रता है। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिये जोफ्रे ने सोवियत संघ की ओर से चीन को सहायता देने का आश्वासन दिया। जोफ्रे ने सन-यात-सेन को यह समझाया कि चीन में किसी कार्य को पूरा करने के लिये एक सशक्त राजनीतिक दल का संगठन आवश्यक है, क्योंकि कोई भी क्रांतिकारी कार्य राजनीतिक दल के द्वारा ही संभव हो सकता है।

कुओमिनतांग का पुनर्गठन

इस समय कुओमिनतांग में अनेक कमजोरियाँ थी। इसके संगठन का आधार सन-यात-सेन के प्रति इसके सदस्यों की व्यक्तिगत वफादारी थी। 1913 ई. में विद्रोह की असफलता के बाद यह दल पुनः गुप्त क्रांतिकारी दल के रूप में कार्य करने लगा था। तब से इसके प्रत्येक सदस्य को डॉ.सेन के प्रति व्यक्तिगत रूप से निष्ठा रखने की शपथ लेनी पङती थी।

इस कारण, दल की सदस्य संख्या अत्यन्त सीमित रह गई। क्रांतिकारियों में केवल डॉ. सेन के व्यक्तित्व के कारण एकता थी। इससे दल की निर्बलता के लक्षण प्रकट होने लगे थे। अतः 1920 ई. में दल के नियमों में कुछ सुधार किया गया। शपथ लेने की प्रथा समाप्त कर दी गई तथा पूर्व के कुछ अन्य प्रतिबंध भी हटा दिये गए।

इससे दल की सदस्य संख्या में तो वृद्धि हुई, लेकिन दल में स्फूर्ति नहीं आ सकी। क्योंकि आपसी सहयोग के आधार पर कार्यक्रम तैयार करने के लिये दल की बैठकें करे की व्यवस्था नहीं थी। इसके अलावा दल के नेतृत्व तथा राजनीति और सैनिक सत्ता के बीच कोई सीधा संबंध भी नहीं था।

रूसी प्रतिनिधि जोफ्रे और सन-यात-सेन की भेंट से एक महीने बाद डॉ. सेन ने कैण्टन में अपनी सैनिक सरकार स्थापित कर ली। सोवियत संघ ने सन-यात-सेन को सहायता देने के लिये सितंबर, 1923 ई. में अनेक विशेषज्ञ चीन भेजे। इनमें माइकेल बोरोदिन सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण था। बोरोदिन में आते ही नए सिरे से कुओमिनतांग दल का संगठन करना प्रारंभ कर दिया।

उसका विचार था कि अनुशासित व्यक्तियों को, एक संयुक्त कार्यक्रम के सूत्र में आबद्ध करके एक सुसंगठित दल बनाया जाय। इसके लिये सोवियत साम्यवादी दल को आदर्श बनाया गया। दल के पुराने सदस्यों की एक बार फिर नए सिरे से भर्ती की गई। इस प्रक्रिया से अनेक ऐसे लोग दल की सदस्यता से वंचित हो गए जो अब भी 1911 ई. की विचारधारा में विश्वास करते या दल की नई विचारधारा में रूसी सुझाव को पसंद नहीं करते थे।

दल की सदस्य संख्या बढाने क लिये चीन के साम्यवादी दल के सदस्यों को व्यक्तिगत रूप से कुओमिनतांग का सदस्य बनने की अनुमति मिल गई। अक्टूबर, 1923 ई. में कुओमिनतांग की एक अस्थायी कार्यकारिणी समिति बनाई गई, जिसे जनवरी, 1924 ई. में दल का सम्मेलन बुलाने तथा सोवियत साम्यवादी दल के नमूने पर इसका संविधान बनाने का काम सौंपा गया। निश्चित समय पर कुओमिनतांग का पहला सम्मेलन हुआ।

सम्मेलन में सोवियत संघ और चीनी साम्यवादी दल से मेल करने की बात मान ली गयी तथा दल का संविधान भी स्वीकार कर लिया गया। नीति निर्धारण का अंतिम अधिकार द्विवर्षीय सम्मेलन को दिया गया और इसके बीच में काम करने के लिये सम्मेलन द्वारा 24 सदस्यों की एक समिति चुने जाने की व्यवस्था की गयी।

इस समिति का कार्य अगले सम्मेलन में प्रतिनिधियों की संख्या और उनके चुनाव का तरीका तय करना था। लेकिन दूसरा सम्मेलन शुरू होते ही यह समिति अपने आप समाप्त हो जाती थी और सम्मेलन दूसरी समिति चुनता था। केन्द्रीय समिति ने अपने सदस्यों में से एक छोटी उपसमिति बनाई जिसकी बैठक प्रति सप्ताह होती थी। सन-यात-सेन को जीवन भर के लिये दल का अध्यक्ष बनाया गया और उसे सम्मेलन, केन्द्रीय समिति, उप समिति आदि के सभी अंगों के निर्णयों को रद्द करने का अधिकार दिया गया। यह व्यवस्था की गई कि दल के सभी सदस्य अध्यक्ष का निर्देशन मानेंगे और दल के काम को आगे बढाएँगे।

बोरोदिन ने सेना के पुनर्गठन पर भी ध्यान दिया। कैण्टन के निकट होपनाओ में सोवियत विशेषज्ञों की देख-रेख में एक आधुनिक सैनिक विद्यालय की स्थापना की गई। इसके अध्यक्ष पद पर सन-यात-सेन के पुराने सहकर्मी च्यांग-काई-शेक की नियुक्ति की गई। इस विद्यालय से प्रतिवर्ष सुयोग्य सैनिक अफसर निकलने लगे और कुलोमिनतांग की सेना सुसंगठित होती रही। कई प्रांतीय सेनाएँ भी इसके साथ मिल गई और 1925 ई. तक कुओमिनतांग सेना की संख्या लाखों में पुहँच गई।

सन-यात-सेन के तीन सिद्धांत

जिस समय कुओमिनतांग दल और सेना के पुनर्गठन का काम चल रहा था, उसी समय सन-यात-सेन ने उसे एक राजनीतिक दर्शन और कार्यक्रम प्रदान करने का भी काम किया। इसे सान मिन चू (राष्ट्रीय, लोकतंत्र और सामाजिक न्याय)कहते हैं जिसको 1924 ई. के राष्ट्रीय सम्मेलन में दल के घोषणा-पत्र में स्थान दिया गया।

सान मिन चू की विचारधारा डॉ.सेन के कई लेखों में विकसित हुी थी। 1905 ई. में ब्रुसेल्स के विद्यार्थियों की एक सभा में भाषण देते हुए डॉ.सेन ने सर्वप्रथम इसका उल्लेख किया था। लेकिन 1924 ई. में कैण्टन में आकर उसने इस कार्यक्रम को ठोस क्रांतिकारी स्वरूप प्रदान किया। सान मिन चू कुओमिनतांग दल के उद्देश्यों के मुख्य आधार पर गए। 1924 ई. में डॉ.सेन ने अपने दल के सदस्यों के सामने इस सिद्धांतों का विस्तृत रूप पेश किया।

राष्ट्रीयता

डॉ.सेन का कहना था कि चीन की दशा सुधारने के लिये यह आवश्यक है कि लोगों में राष्ट्रीयता के सिद्धांत का समुचित विकास हो। राष्ट्रीयता के आधार पर ही चीन उन्नति कर सकता है। चीन पर विदेशियों का प्रभुत्व छाया हुआ था, जिसके कारण चीन का राष्ट्रीय विकास अवरुद्ध हो गया था। विदेशी साम्राज्यवाद के रहते चीनी राष्ट्रीयता का विकास असंभव है।

विदेशी राज्य चीन को ऐसी स्थिति में लाते जा रहे थे कि उसकी स्थिति औपनिवेशिक राज्य की तरह होती जा रही थी। ऐसी स्थिति में विदेशी साम्राज्यवाद से देश की रक्षा करने का प्रश्न सर्वोपरि था। किन्तु चीन को विदेशी साम्राज्यवाद का शिकार बनने से तभी बचाया जा सकता है, जबकि चीन के लोग अपने देश से प्रेम करना सीखें और उनमें देशभक्ति की भावना जागृत हो। साम्राज्यवाद का विरोध-मात्र राष्ट्रीयता का पूर्ण सिद्धांत नहीं था, बल्कि चीनी जनता की अपने प्रति भावना और सोचने के ढँग को बदलना था।

इसका तात्पर्य यह था कि चीनी जनता छोटे-छोटे गुटों के अधार पर नहीं बल्कि पूरे राज्य के आधार पर सोचे। प्रजातीय समानता के सिद्धांत को देश के भीतर और बाहर दोनों जगह लागू करना था। राष्ट्रीयता का उद्देश्य चीन के रेत की तरह बिखरे हुए कणों को एक सुदृढ शिला का रूप देना था।

लोकतंत्र

चीन के विकास के लिये लोकतंत्रीय व्यवस्था को डॉ.सेन परम आवश्यक मानते थे। उनका कहना था कि लोकतंत्र का वाहन समानता के सिद्धांत पर आधारित गणराज्य है, जो लोगों द्वारा निर्वाचित विधानसभा और अध्यक्ष द्वारा संचालित हो। इसकी स्थापना तीन चरणों में हो सकती है – सैनिक शासन, संक्रान्तिकालीन राज्य और संवैधानिक सरकार।

प्रथम चरण की अवधि तीन वर्ष की होगी। इसमें एकतंत्रीय राज्य का अन्मूलन, भ्रष्ठाचार, कठोर दंड-विधान और भारी करों का निवारण तथा चोटी रखने, स्त्रियों के पैर बाँधने, अफीम और चण्डू पीने, दास रखने और देवी-देवताओं के अंधविश्वास करने की प्रथाओं का निराकरण होगा।

इसमें समस्त शासन सेना के हाथ में होगा, किन्तु इसकी अंतिम अवधि में जिला स्तर पर स्वायत्तता संभव हो सकेगी। दूसरे चरण में कामचलाऊ संविधान या राजनीति संरक्षता रहेगी। इसकी अवधि छः वर्ष की होगी। इसमें जिला स्तर पर स्वयात्त शासन होगा। स्थानीय सभाएँ और प्रशासनिक कर्मचारी जनता द्वारा निर्वाचित होंगे। जिले का प्रशासन और केन्द्रीय सैनिक प्रशासन के प्रशासनिक कर्मचारी जनता द्वारा निर्वाचित होंगे।

जिले का प्रशासन और केन्द्रीय सैनिक प्रशासन के पारस्परिक संबंध एक आचार-संहिता द्वारा निर्वाचित राष्ट्रीय सभा एक संविधान तैयार करेगी। इस संविधान के अनुसार राज्य का गठन होगा और सैनिक शासन समाप्त हो जाएगा।

सन-यात-सेन जनमत को सर्वोपरि स्थान देते हुये चाहते थे कि जनता शासन के कार्यों में अधिकाधिक हिस्सा ले। किन्तु उनका यह भी कहना था कि चीन की विशेष परिस्थितयों को देखते हुये यहाँ की सरकार भी काफी शक्तिशाली होनी चाहिये। सरकार पर जनता का नियंत्रण अवश्य रहना चाहिए, किन्तु सरकार को इतनी शक्ति तो अवश्य ही मिलनी चाहिये कि वह देश में शांति और व्यवस्था बनाए रख सके। डॉ.सेन की मान्यता थी कि केन्द्रीय प्रशासन को लोकतंत्रीय बनाने से पूर्व प्रांतीय प्रशासन का लोकतंत्रीकरण होना चाहिए ताकि केन्द्र में इस प्रकार की व्यवस्था स्थापित करने में आसानी हो सके।

सामाजिक न्याय

सन-यात-सेन के अनुसार लोकतंत्र की स्थापना के बाद सामाजिक न्याय का सिद्धांत कार्यान्वित किया जाएगा। इसके लिये देश का आर्थिक विकास करना आवश्यक था। डॉ.सेन के कार्यक्रम के अनुसार सामाजिक विकास द्वारा भूमि में लगी पूँजी, सरकार से लेकर भूमि का बराबर-बराबर बँटवारा करना था। यद्यपि डॉ.सेन के इस विचार में समाजवाद का आभास होता है, तथापि यह मार्क्सवाद से काफी दूर था।

मोटे तौर पर डॉ. सेन का कार्यक्रम सामाजिक व्याख्या पर आधारित था। डॉ. सेन ने मार्क्स के भौतिकवादी सिद्धांत की कटु आलोचना की थी और यह निष्कर्ष निकाला कि वर्ग-संघर्ष और भौतिकवाद दोनों ही चीन की परिस्थितियों में लागू नहीं हो सकते। उनका कहना था कि चीन की समस्या उत्पादन की है, वितरण की नहीं। चीन की जनता निर्धनता से पीङित है, धन के असमान वितरण का प्रश्न बाद में आता है।

इसलिये डॉ.सेन ने विदेशी पूँजीपतियों के जाल को काटने का प्रयास किया तथा साम्राज्यवाद का जबरदस्त विरोध किया। इस प्रकार डॉ. सेन ने अपने भाषणों में जीविका के सिद्धांत को व्यापवहारिक रूप से लागू करने के लिये जो सुझाव दिए उनसे यह एक उग्र बुर्जुआ-समाज-सुधारक के रूप में प्रकट होते हैं, साम्यवादी के रूप में नहीं। इसीलिए डॉ.सेन की विचारधारा को साम्यावदी विचारधारा कहना भूल होगी, हालाँकि उन पर साम्यवादी विचारधारा का प्रभाव अवश्य था।

सन-यात-सेन का मूल्यांकन

डॉ.सन-यात-सेन को आधुनिक चीन का निर्माता माना जाता है। उसकी गणना विश्व के महानतम व्यक्तियों में की जाती है। उसमें संगठन की अपूर्व क्षमता थी। उसने एक निद्रा-ग्रस्त राष्ट्र को जागृत करने और उसमें राष्ट्रीयता और देशभक्ति की भावना भरने का अथक प्रयास किया। वह एक ऐसा महापुरुष था जिसने अपना सारा जीवन ही देश सेवा में समर्पित कर दिया। उसने अपने जीवन के उषाकाल में चीन की मुक्ति का स्वप्न देखा था और उसके लिये उसने जीवनपर्यंत संघर्ष किया।

देश सेवा के मार्ग पर चलते हुये उसे निर्वासित जीवन व्यतीत करना पङा, शारीरिक यंत्रणाएँ भोगनी पङी और व्यक्तिगत नुकसान भी उठाने पङे, फिर भी वह अपने मार्ग से कभी विचलित नहीं हुआ। चीन की एकता के लिये उसने अपूर्व बलिदान किया। देशभक्ति तथा निस्वार्थ भावना इतनी अधिक थी कि स्वयं कैण्टन सरकार का अध्यक्ष होते हुए, देश की एकता तथा गणतंत्र की सफलता के लिये उसने अपनी पृथक सरकार को भंग करके युआन-शीह-काी जैसे प्रतिक्रियावादी को राष्ट्रपति स्वीकार कर लिया।

यह उसकी निस्वार्थ देसभक्ति का उदाहरण है। लेकिन जब युआन-शीह-राई ने गणराज्य को समाप्त करने का प्रयास किया तो वह पुनः उसका मुकाबला करने के लिये आ डटा।

यद्यपि कैण्टन में नया पुनर्गठित कुओमिनतांग और सैनिक शासन पूर्णतः शक्तिसम्पन्न था, फिर भी चीन के एकीकरण के लिये वह पीकिंग के साथ समझौता करने के लिये प्रयत्नशील रहा। 1924 ई. के उत्तरार्द्ध में पीकिंग में सैनिक सरदार को राष्ट्रपति पद से हटा दिया गया और उसके स्थान पर त्वान ची जुई अस्थायी रूप से कार्य करने लगा।

त्वान ची जुई ने कुओमिनतांग की शक्ति को पहचानते हुये सन-यात-सेन को बातचीत के लिये पीकिंग बुलाया ताकि चीन के राजनीतिक एकीकरण की योजना बनाई जा सके। कैण्टन में शक्तिसम्पन्न होते हुए भी चीन के एकीकरण के लिये एक पीकिंग के त्वान ची जुई से बातचीत करने गया, हालाँकि कुओमिनतांग के उग्रवादी और साम्यवादी सदस्यों ने पीकिंग से समझौते की बातचीत भी का विरोध किया था।

डॉ.सन-यात-सेन और पिकिंग सरकार के प्रतिनिधियों में बातचीत भी हुई, किन्तु इसी दौरान वह बीमार हो गया और 12 मार्च, 1925 को उसकी मृत्यु हो गयी। मरते समय उसने अपने अनुसायियों के लिये क्रांति को जारी रखने का संदश छोङा। इस प्रकार सन-यात-सेन ने मरते दम तक चीन के राजनीतिक एकीकरण का प्रयास किया।

डॉ.सन-यात-सेन में संगठन की अपूर्व क्षमता थी। प्रवासी जीवन व्यतीत करते हुये उसने थुंग-मेंग-हुई की स्थापना की, जो चीन का एक मुख्य राजनीतिक दल बन गया। बाद में युआन-शीह-काई के निरंकुश शासन का मुकाबला करने के लिये अगस्त, 1912 ई. में एक नए राष्ट्रवादी दल कुओमिनतांग की स्थापनी की।

डॉ. सेन के नेतृत्व में कुओमिनतांग की शक्ति उत्तरोत्तर बढती गयी। यह उसके प्रयासों का ही फल था कि उसकी मृत्यु के दो वर्षों के अंदर ही कुओमिनतांग की सेना से सैनिक सामंतों का दमन कर काफी अंशों में देश की एकता स्थापित कर ली। अपनी मृत्यु के बाद भी वह चीन की राजनीति को प्रभावित करता रहा।

वह चीन का लोकनायक बन गया। उसके विवेक के संबंध में जो भी संशय थे वे समाप्त हो गए। अब वह समस्त ज्ञान और विवेक का स्त्रोत बन गया। सनयातसेनवाद, सन-यात-सेन से अधिक महत्त्वपूर्ण शक्ति बन गया। उसके तीन सिद्धांत राष्ट्रवादियों के मूल मंत्र बन गए। वह चीन के राष्ट्रपिता की श्रेणी में आ गया। चीन की स्कूलों और कॉलेजों में उसके दर्शन की शिक्षा दी जाने लगी और चीन की जनता उसके प्रति श्रद्धा एवं सम्मान प्रदर्शित करने लगी।

महत्त्वपूर्ण प्रश्न एवं उत्तर

प्रश्न : मंचू शासन के विघटन का सिलसिला किस महत्त्वपूर्ण घटना से शूरू हो जाता है

उत्तर : साम्राज्ञी त्जुशी की मृत्यु से।

प्रश्न : डॉ. सन-यात-सेन ने सर्वप्रथम किस संगठन की स्थापना की थी

उत्तर : शिंग-चुंग-हुई

प्रश्न : 1911 की क्रांति का तात्कालिक कारण क्या था

उत्तर : हांको बम काण्ड

प्रश्न : डॉ. सन-यात-सेन को नांनकिन सरकार का अध्यक्ष पद क्यों छोङना पङा

उत्तर : चीन की राजनैतिक एकता के वास्ते

प्रश्न : डॉ. सन-यात-सेन की सरकार को किस देश से सहयोग मिला था

उत्तर : रूस

1. पुस्तक- आधुनिक विश्व का इतिहास (1500-1945ई.), लेखक - कालूराम शर्मा

Online References
wisdomras : सन-यात-सेन

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