इतिहासप्राचीन भारतराजपूत काल

गुजरात तथा राजस्थान के प्रसिद्ध मंदिर

गुर्जर-प्रतिहास्थापत्य कला के नमूने को गुजरात तथा राजस्थान के मंदिरों में देखा जा सकता है। प्रतिहार शासकों के निर्माण कार्यों के बारे में जानकारी उनके द्वारा लिखे गये लेखों से प्राप्त की जा सकती है।

वाउक की जोधपुर प्रशस्ति से पता चलता है, कि उसने वहाँ सिद्धेश्वर महादेव का मंदिर बनवाया था। इसी प्रकार मिहिरभोज की ग्वालियर प्रशस्ति से सूचित होता है, कि उसने अपने अंतःपुर में भगवान विष्णु के मंदिर का निर्माण करवाया था।

इन उल्लेखों से प्रकट होता है, कि प्रतिहार शासकों की निर्माण कार्यों में गहरी रुचि थी।

गुप्तोत्तर काल (8 वीं शता.में राजस्थान) वास्तुकला की दृष्टि से अत्यंत समृद्ध रहा। मंदिरों तथा भवनों के अवशेष जोधपुर के उत्तर-पश्चिम में 56 किलोमीटर दूरी पर स्थित ओसिया नामक स्थान से प्राप्त होते हैं। प्राचीन मंदिरों में शिव, विष्णु, सूर्य, ब्रह्मा, अर्धनारीश्वर, हरिहर, नवग्रह, कृष्ण तथा महिषमर्दिनी दुर्गा के मंदिर उल्लेखनीय हैं। इन पर गुप्त स्थापत्य का प्रभाव है।

गुप्तकालीन स्थापत्य कला का इतिहास

ओसिया के मंदिरों की दो कोटियाँ दिखाई देती हैं। प्रथम कोटि के मंदिर जिनकी संख्या लगभग बारह है, दूसरी कोटि के मंदिरों में स्थानीय विशेषतायें मुखर हो गयी हैं। प्रत्येक का आकार एक दूसरे से अलग है। अर्थात् किन्हीं दो मंदिरों में समानता नहीं दिखाई देती है। इसके निर्माण में मोलिकता है। तीन हरिहर मंदिर आकार तथा अलंकरण की दृष्टि से सुंदर हैं। दो पंचायतन शैली में बने हैं। इनके शीर्ष पर आमलक बना हुआ है। नागभट्ट द्वितीय केसमय झालरपाटन मंदिर का निर्माण हुआ। इसी प्रकार ओसिया ग्राम के भीतर तीर्थंकर महावीर का एक सुंदर मंदिर है, जिसे वत्सराज के समय (770-800ई.) में बनवाया गया था। यह परकोटे के भीतर स्थित है। इसमें भव्य तोरण लगे हैं। तथा स्तंभों पर तीर्थंकरों की प्रतिमायें खुदी हुई हैं।

ओसिया के मंदिर छोटे हैं, परंतु उनकी बनावट की स्पष्टता एवं अनुपात में आदर्श है। उनके शिखर उङीसा के प्रारंभिक मंदिरों के शिखर जैसे हैं। स्तंभों के निचले भाग पर ढलुआँ पीठासन हैं तथा इनके प्रत्येक भाग पर बारीक एवं सुंदर नक्काशी की गयी है। गर्भगृह के प्रवेश द्वार पर की गयी संकतराशी में सरलता एवं नवीनता दिखाई देती है।

उङीसा के मंदिरों का इतिहास

ओसिया के मंदिरों में सूर्य मंदिर सर्वाधिक उल्लेखनीय है। इस मंदिर की प्रमुख विशेषता इसके अग्रभाग में है। यह भी पंचायतन प्रकार का है। मुख्य मंदिर के चारों ओर छोटे मंदिर हैं, जिन्हें जोङते हुए अंतराल बनाये गये हैं। शिखर का आकार तथा अलंकरण प्रशंसनीय है। स्तंभों के आधार तथा शीर्ष पर मंगलकलश स्थापित है। यह ओसिया के मंदिरों का सिरमौर कहा जाता है। तथा अपनी भव्यता के लिए प्रसिद्ध है। ऐसा प्रतीत होता है, कि यह शिव को समर्पित था, क्योंकि इसका ललाट बिम्ब उमामाहेश्वर के रूप में है।

ओसिया के बाद के मंदिरों में सचिय माता तथा पिपला माता के मंदिरों का उल्लेख किया जा सकता है। जिनमें राजपूताना शैली का क्रमिक विकास दिखाई देता है। सचिय माता को ही लेखों में सच्चिका देवी कहा जाता है, जो महिषमर्दिनी देवी का एक रूप है मंदिर के केन्द्रीय मंडप में अष्ठकोणीय स्तंभ है, जो गुंबदाकार छत का भार वहन करते हैं। पिपला माता मंदिर में तीस स्तंभ हैं। ओसिया मंदिरों का प्रवेश द्वार सीधे गर्भगृह में खुलता है।

अतः कलाकारों ने उसकी नक्काशी पर विशेष ध्यान दिया। गर्भगृह के द्वार पर प्रतीक मूर्तियाँ तथा पौराणिक कथायें उत्कीर्ण हैं। द्वार के ऊपरी चौखट पर नवग्रह(रवि, चंद्र, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि, राहु, केतु) की आकृतियाँ खुदी हुई हैं। दोनों पार्श्व चोखटों के ऊपरी कोने में गंगा-यमुना की आकृतियाँ बनायी गयी हैं, जो गुप्तकाल से किंचित भिन्न हैं। ऐसा लगता है, कि उत्तर गुप्तकाल से देवी प्रतिमाओं को चौखट के निचले भाग से ऊपरी कोने में उत्कीर्ण करने की पद्धति अपनाई गयी है।

ओसिया के मंदिर मूर्तिकारी के लिये भी प्रसिद्ध हैं।सूर्य मंदिर के बाहर अर्धनारीश्वर शिव, सभामंडप की छत में बंशी बजाते हुये तथा गोवर्धन धारण किये हुए कृष्ण की मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं। गोवर्धन – लीला की यह मूर्ति राजस्थानी कला की अनुपम कृति मानी जा सकती है। इसके अलावा विभिन्न मंदिरों में त्रिविक्रम विष्णु, नृसिंह तथा हरिहर की मूर्तियाँ भी मिलती हैं।

References :
1. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, लेखक- के.सी.श्रीवास्तव 

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