स्थानीय स्वशासन(Sthaaneey svashaasan) की स्थापना
ब्रिटिश लेखकों ने रिपन को स्थानीय स्वशासन ( Sthaaneey svashaasan )का पिता कहा है, किन्तु ब्रिटिश इतिहासकारों का यह कथन अतिशयोक्तपूर्ण है, क्योंकि भारत में स्थानीय स्वशासन का सदैव महत्त्व रहा है। भारत के प्राचीन एवं मध्ययुगीन इतिहास के अध्ययन से ज्ञात होता है कि प्रत्येक युग में यहाँ स्थानीय संस्थाएँ रही हैं। किन्तु ईस्ट इंडिया कंपनी(East India Company) की सत्ता स्थापित होने के बाद इनकी स्थिति दयनीय हो गयी थी।
ब्रिटिश ताज द्वारा सत्ता ग्रहण करने के बाद इनके विकास की ओर पुनः ध्यान दिया गया और लार्ड मेयो(Lord Mayo) ने इस कार्य में अपना सहयोग दिया। रिपन के आने के पूर्व सभी प्रांतों में स्थानीय संस्थाएँ विद्यमान थी। इन संस्थाओं में सरकारी और गैर-सरकारी सदस्य होते थे।
इन संस्थाओं को कुछ वित्तीय अधिकार प्राप्त थे, किन्तु अधिकांश खर्च की अनुमति सरकार से लेनी पङती थी। इन संस्थाओं में निर्वाचित सदस्यों की भी व्यवस्था थी तथा सरकारी सदस्यों की संख्या यद्यपि कम थी, फिर भी वे अत्यधिक प्रभावशाली होते थे। अतः रिपन ने इन संस्थाओं में नई जान फूँकने का प्रयत्न किया।
डॉ.एस.गोपाल(Dr. S. Gopal) ने लिखा है कि, रिपन की स्थानीय स्वशासन की स्थापना एवं विकास में जो लक्ष्य थे, वे वास्तव में उसकी आदर्शवादी व उदारता के प्रतीक थे। वह चाहता था कि इसके द्वारा भारतीयों को राजनीतिक शिक्षा दी जाय।
रिपन ने भी गृह सरकार को लिखा था, मैं चाहता हूँ कि भारतीय समाज में मेधावी एवं प्रभावशाली मनुष्यों को क्रमिक प्रशिक्षण दिया जाय, जिससे वे अपने स्थानीय मामलों की व्यवस्था में अत्यंत रुचि तथा सक्रिय भाग लें।
रिपन ने इस उद्देश्य को लेकर 1881 में प्रांतीय सरकारों से स्थानीय प्रशासन की स्वायत्तता हेतु सुझाव माँगे। 18 मई,1882 को उसने एक प्रस्ताव पास कर अपना मत प्रकट करते हुए लिखा कि वह स्थानीय प्रशासन में स्वायत्तता केवल प्रशासनिक सुविधा के लिये नहीं, बल्कि राजनीतिक अनुभव और सार्वजनिक शिक्षा के लिए चाहता था। वह जानता था कि आरंभ में इसमें गलतियाँ हो सकती हैं,किन्तु कालांतर में शिक्षित वर्ग इस योग्य बन सकेगा कि प्रशासन का उत्तरदायित्व अच्छी तरह निभा सके तथा शासन में अधिक से अधिक उत्तरदायित्व की भावना बढ सके। इस प्रकार रिपन एक स्वस्थ परंपरा स्थापित करना चाहता था।
1882 में रिपन ने स्थानीय स्वशासन की स्थापना का प्रस्ताव रखा। जिसमें इस बात पर बल दिया कि स्थानीय लोगों में कई योग्य व्यक्ति प्रशासन के कार्यों से दूर हैं, अतः उन्हें प्रशासन में लाने हेतु स्थानीय स्वशासन की स्थापना आवश्यक है। उसने यह चेतावनी भी दी कि यदि सरकारी हस्तक्षेप होता रहा तो इन संस्थाओं के असफल होने की आशंका बनी रहेगी। रिपन के इस प्रस्ताव में निम्नलिखित सुझाव दिये गये-
- जिला अधिकारी की सहायता के लिए जो स्थानीय बोर्ड,सङक और अस्पतालों आदि के लिए स्थापित किये गये हैं, उन्हें समाप्त कर दिया जाय तथा उनके स्थान पर ग्रामीण बोर्ड स्थापित किये जायें।
- स्थानीय ग्रामीण बोर्डों का कार्य तथा हितों की देखरेख के लिए एक अस्थायी जिला-मंडल की व्यवस्था हो, जो समय-2 पर प्रतिनिधि -मंडलों के रूप में कार्य करे।
- इन स्थानीय संस्थाओं में मनोनीत सरकारी सदस्यों की संख्या एक-तिहाई से अधिक नहीं होनी चाहिए तथा शेष सदस्यों को निर्वाचित प्रणाली के आधार पर चुना जाय।इन सदस्यों में बहुमत का निर्णय मान्य होगा।
- इन संस्थाओं द्वारा लिये गये निर्णय पर सरकार पुनः विचार कर सकेगी। यदि किसी संस्था का कोई अधिकारी बार-2 अनुचित कार्य करता है और इस कारण उस अधिकारी को हटाना हो तो केवल केन्द्रीय सरकार की अनुमति से ही ऐसा किया जाएगा।
- प्रत्येक बोर्ड का कार्यक्षेत्र निर्धारित कर उसे निश्चित अधिकार व वित्तीय साधन प्रदान किया जाऐ।
- इन बोर्डों का अध्यक्ष गैर-सरकारी व्यक्ति होगा।
यद्यपि रिपन के इस प्रस्ताव से स्थानीय स्वशासन की स्थापना कर दी गई, किन्तु इससे रिपन के उद्देश्यों की पूर्ति नहीं हुई। डॉडवेल(Dodwell) ने लिखा है कि स्थानीय संस्थाओं में बङा साहब(गवर्नर जनरल)का हस्तक्षेप जारी रहा, क्योंकि बङा साहब अपने अधिकारों में कमी करना नहीं चाहता था और जनमत इतना प्रबल नहीं था कि उसका विरोध कर सके।
फिर भी रिपन यह कार्य सराहनीय था। सभी प्रांतीय सरकारों ने इसका स्वागत किया। भारत की समस्त नौकरशाही तथा जिला अधिकारी रिपन की इस नीति का अनुकरण करते रहे। रिपन के इस कार्य का सर्वाधिक स्वागत भारत के नये शिक्षित वर्ग ने किया।
डॉ.एस.गोपाल ने लिखा है कि, भारतीयों ने अपने नेतृत्व के लिए रिपन की ओर देखना आरंभ कर दिया। रिपन के रचनात्मक कार्यों में स्थानीय स्वशासन की स्थापना सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है जिससे भारतीयों में उसकी लोकप्रियता का बीजारोपण किया।
Reference :https://www.indiaolddays.com/