कालिदास का परिचय तथा उनके द्वारा लिखित ग्रंथ
कालिदास संस्कृत भाषा के सर्वश्रेष्ठ कवि एवं नाटककार हैं। दुर्भाग्यवश इनकी तिथि के विषय में गहरा मतभेद है।इस संबंध में कुछ प्रमुख मत इस प्रकार हैं –
- डॉ.हार्नले आदि कुछ विद्वान कालिदास को छठी शता. ईस्वी में मालवा के शासक, यशोधर्मन् का राजकवि बताते हैं।
- कीथ, भंडारकर, वी.वी.वामन शिवराम आप्टे, बलदेव उपाध्याय आदि विद्वानों का विचार है, कि कालिदास ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी में हुए। मालवा के राजा विक्रमादित्य के समकालीन थे, जो मालवा अथवा विक्रम संवत् (57ई.पू.) का संस्थापक था।
कालिदास के काल के विषय में जो विभिन्न मत प्रतिपादित किये गये हैं, उनमें गुप्तकाल में कालिदास को रखने का मत सबसे अधिक समीचीन प्रतीत होता है। उनकी रचनाओं में जिस शांति और समृद्धि का चित्रण मिलता है, वह चंद्रगुप्त द्वितीय के समय के विषय में सबसे उपयुक्त लगती है। कालिदास हूणों के आक्रमण से परिचित थे। उनके ग्रंथों में गुप्त सम्राटों के नाम प्रच्छन्न रूप में मिलते हैं तथा उनकी कविता का प्रभाव मंदसोर लेख (473ई.) पर स्पष्टतः दिखायी पङता है। कालिदास द्वारा वर्णित सामाजिक शांति एवं वैभव की पुष्टि गुप्तकाल के चीनी यात्री फाहियान के विवरण से भी हो जाती है। इन सभी बातों को ध्यान में रखते हुये अधिकांश इतिहासकार उन्हें चंद्रगुप्त द्वितीय का ही दरबारी कवि मानते हैं।
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कालिदास द्वारा रचित ग्रंथ-
ऋतुसंहार
यह कालिदास की प्रथम रचना है। इसमें श्रेष्ठ काव्यकला का प्रदर्शन नहीं मिलता, जिसके कारण कुछ विद्वान इसे कालिदास की रचना स्वीकार करने में संदेह करते हैं। किन्तु इस प्रकार की मान्यता उचित नहीं है। वस्तुतः इसकी रचना कालिदास ने अपरिपक्व आयु में की होगी।
मेघदूत
यह कालिदास का दूसरा खंडकाव्य है, जो दो भागों में विभक्त है – पूर्वमेघ तथा उत्तरमेघ। इसमें धनपति कुबेर के शाप से निर्वासित रामगिरि पर्वत पर निवास करने वाले एक यक्ष द्वारा वर्षा के आरंभ में मेघ द्वारा अलकापुरी में निवास करती हुई अपनी विरहविधुरा कान्ता के पास संदेश भेजे जाने का मनोरम वर्णन प्राप्त होता है। यह वियोग ऋंगार की अत्युत्कृष्ट रचना है, जिसमें कालिदास की परिपक्व बुद्धि एवं उच्चतम काव्य प्रतिभा का निर्दशन हुआ है। इस काव्य की करुणा अत्यन्त मर्मस्पर्शी है।
कुमारसंभव
यह 17 सर्गों का महाकाव्य है, जिसमें शिव और पार्वती के पुत्र कुमार (कार्त्तिकेय) के जन्म की कथा वर्णित है। इसमें प्रथम आठ सर्गों को ही कालिदास की रचना माना जाता है। काव्य सौन्दर्य की दृष्टि से ये ही उत्कृष्ट माने जाते हैं। बाद में सर्गों का काव्य-कौशल अपेक्षाकृत हीन है। ये किसी सामान्य कवि द्वारा विरचित प्रेक्षपमात्र प्रतीत होते हैं। इसमें कालिदास की कविता का चमत्कार देखने को मिलता है। पार्वती की कठोर तपश्चर्या, शिव की समाधि, रतिविलाप, आदि वर्णन अतीव सजीवता के साथ किये गये हैं। हिमालय की छटा का वर्णन भी उत्तम कोटि का है।आठवें सर्ग का रतिवर्णन सौन्दर्य प्रेमियों के मन को मोह लेता है। वर्णन शैली अत्यन्त मनोहर है।
रघुवंश
यह कालिदास का सर्वश्रेष्ठ महाकाव्य है, जिसमें 19 सर्ग हैं। इसमें दिलीप से लेकर अग्निवर्ण तक चालीस इक्ष्वाकुवंशी राजाओं का चरित्र-चित्रण अत्यन्त उत्कृष्ठता एवं कुशलता के साथ किया गया है। दसवें से पन्द्रहवें रर्ग तक राम के चरित्र का वर्णन अत्यन्त विस्तारपूर्वक किया गया है। इस महाकाव्य में श्रेष्ठ काव्य की सभी विशेषताएँ अपने सर्वोत्तम रूप में प्रकट हुई हैं। प्रायः सभी रसों का पूर्ण परिपाक इसमें मिलता है। रघुवंश ने केवल कालिदास का अपितु संपूर्ण संस्कृत वाङ्गमय का सर्वोत्कृष्ट महाकाव्य है।
मालविकाग्निमित्र
यह कालिदास का प्रथम नाटक है, जिसमें पाँच अंकों में पुरुरवा तथा उर्वशी के प्रणय कथा का वर्णन मिलता है। यह आख्यान ऋग्वेद तथा शतपथ ब्राह्मण में उल्लेखित मिलता है। इस प्राचीन वैदिक आख्यान में कुछ परिवर्तन कर इसका रमणीय नाटकीय चित्रण प्रस्तुत कर लिया है। पुरुरवा एक उपकारी शासक है। वह राक्षस से उर्वशी नामक एक अप्सरा का उद्धार करता है। उर्वशी उसके अलौकिक रूप पर मुग्ध होकर कई शर्तों के साथ उससे विवाह करना स्वीकार करती है। पुरुरवा उसके वियोग में पागल बनकर जंगलों में मारा-मारा फिरता है। पुरुरवा के प्रेम एवं उसकी भावनाओं का चित्रण मार्मिकता के साथ प्रस्तुत किया है।
अभिज्ञानशांकुतल
यह महाकवि की सर्वोत्कृष्ट रचना है, जिसे ने केवल भारतीय अपितु पूरे विश्व साहित्य में अत्यन्त गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त है। भारतीय आलोचकों के मतानुसार काव्यों में नाटक सुन्दर होता है तथा नाटकों में शाकुन्तल सुन्दर हैं – काव्येषु नाटकं रम्यं तत्र रम्या शकुन्तला।
अभिज्ञानशांकुतल में कुल सात अंक हैं, जिनमें हस्तिनापुर के राजा दुष्यंत तथा कण्व ऋषि की पालिता कन्या शंकुतला के मिलन, वियोग तथा पुनर्मिलन की कथा का नाटकीय चित्रण अत्यन्त सजीवता एवं कमनीयता के साथ किया गया है। इसका कथानक महाभारत के आदिपर्व से लिया गया है। किन्तु कालिदास ने मूलकथा में कुछ महत्त्वपूर्ण परिवर्तन कर उसे अत्यन्त रोचक बना दिया है। कथानक का सारांश इस प्रकार है –
हस्तिनापुर के राजा दुष्यंत आखेट करेत हुये कण्व ऋषि के आश्रम में जाते हैं, जहां शंकुतला से उनका मिलन होता है। वह वहाँ कुछ समय रुक जाते हैं। राजा तथा शंकुतला का समागन होता है। उसे अपनी अँगूठी देकर वह अपनी राजधानी वापस लौट आते हैं। शंकुतला उनके वियोग में खिन्न बैठी रहती है। एक दिन दुर्वासा ऋषि आश्रम में जाते हैं, किन्तु शंकुतला दुष्यन्त के विषय में निरंतर चिन्तशील होने के कारण उनका अतिथि – सत्कार नहीं करती। क्रोध युक्त दुर्वासा उसे शाप देते हैं, कि दुष्यंत के विषय में निरंतर चिन्तनशील होने के कारण उनका अतिथि-सत्कार नहीं करती। क्रोध युक्त दुर्वासा उसे शाप देते हैं, कि दुष्यंत उसे भूल जायेगा। कण्व ऋषि तीर्थयात्रा से वापस आने के बाद सारा वृत्तांत जानकर हर्षित होते हैं। वे शंकुतला को गौतमी तथा अपने दो शिष्यों शारद्वत और शार्ङ्गरव के साथ हस्तिनापुर भेजते हैं। मार्ग में अंगूठी गिर जाती है। उसके बाद एक दिव्य ज्योति उसे स्वर्ग लोक उठा ले जाती है,जहाँ वह अपनी माता मेनका के साथ मारीच ऋषि के आश्रम में रहने लगती है। वहीं उसे भरत तथा शुकुन्तला को प्राप्त करता है, जहाँ उसे विजयश्री मिलती है। लौटते समय वह मारीच के आश्रम में जाकर भरत तथा शुन्तला को प्राप्त करता है। तथा दोनों के साथ अपनी राजधानी वापस आता है। मिलन तथा मारीच के आशीर्वाद से नाटक की समाप्ति होती है।
शाकुन्तल में कालिदास ने प्रेम तथा करुणा का अपूर्व सम्मिलन प्रस्तुत किया है। नाटक का चतुर्थ अंक जिसमें काव्य ऋषि अपने शिष्यों के साथ शकुन्तला को आश्रम से विदा करते हैं, अत्यन्त प्रभावपूर्ण एवं करुणोत्पादक है। इसमें काम, धर्म, वासना, कर्त्तव्य आदि विरोधी गुणों का समन्वय दिखाया गया है। काव्य की मनोदशा तथा शकुन्तला को दी गयी शिक्षाओं का वर्णन कवि ने अत्यन्त मार्मिकता एवं कुशलता से किया है। चतुर्थ अंक के चार श्लोक जिनमें उनका वर्णन है, सर्वश्रेष्ठ माने जाते हैं। यहाँ शुन्तला के पतिगृह गमन पर कवि ने जैसा करुण चित्र अंकित किया है, वह अन्यत्र दुर्लभ है।
References : 1. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, लेखक- के.सी.श्रीवास्तव
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