इतिहासदक्षिण भारतप्राचीन भारतबादामी का चालुक्य वंश

चालुक्य वंश का शासक विक्रमादित्य प्रथम (655-681 ईस्वी)

विक्रमादित्य प्रथम पुलकेशिन द्वितीय का पुत्र था, तथा पिता की मृत्यु के बाद राज्य का वास्तविक उत्तराधिकारी था। पुलकेशिन द्वितीय की मृत्यु के बाद बादामी सहित कुछ अन्य दक्षिणी प्रान्तों की कमान पल्लवों के हाथों में रही। इस दौरान 642 से 655 ई. तक चालुक्यों की राजगद्दी ख़ाली रही। 655 में विक्रमादित्य प्रथम राजगद्दी पर विराजित होने में कामयाब हुआ। उसने बादामी को पुन: हासिल किया और शत्रुओं द्वारा विजित कई अन्य क्षेत्रों को भी पुन: अपने साम्राज्य में जोड़ा। उसने 681 ई. तक शासन किया था।

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पुलकेशिन द्वितीय(Pulakeshin II) की पराजय तथा मृत्यु के फलस्वरूप चालुक्य राज्य में पुनः अव्यवस्था की स्थिति उत्पन्न हो गयी। स्वतंत्र होने वालों में सर्वप्रथम उल्लेख लाट प्रदेश के सामंत शासक विजयराज का किया जा सकता है। वह चालुक्य वंश का ही था तथा पुलकेशिन द्वारा लाट का शासक नियुक्त किया गया था।

उसने 643 ई. में कैरा दानपत्र जारी किया। इस लेख में चालुक्य सम्राट का कोई उल्लेख नहीं मिलता तथा कलचुरि संवत् का प्रयोग हुआ है। इसी प्रकार सेन्द्रक राजकुमार पृथ्वीवल्लभ निकुंभल्लशक्ति ने भी अपनी स्वतंत्रता घोषित कर दी।सेन्द्रक, कीर्त्तिवर्मा के समय से ही चालुक्यों के स्वामिभक्त थे। किन्तु बदली हुई परिस्थिति का लाभ उन्होंने भी उठाया। बादामी पर पल्लवों का अधिकार हो गया तथा सामंतों ने अपनी स्वतंत्रता घोषित कर दी। स्वयं पुलकेशिन के दो पुत्रों, आदित्यवर्मा तथा चंद्रादित्य, जो वायसराय के रूप में शासन कर रहे थे,ने अपने लिये स्वतंत्र राज्य स्थापित करने का प्रयास किया। कर्लूर से आदित्यवर्मा का लेख मिलता है, जिसमें उसकी स्वतंत्र उपाधियाँ-महाराजाधिराज, परमेश्वर आदि मिलती हैं। वह अपने को पुलकेशिन का प्रिय पुत्र कहता है तथा यह दावा करता है, कि उसने अपने बाहुबल से समस्त पृथ्वी पर अधिकार कर लिया था। इसी प्रकार चंद्रादित्य के विषय में नेरुर ताम्रपत्र से सूचना मिलती है। इसमें उसे पृथ्वीवल्लभ तथा महाराज कहा गया है। यह अव्यवस्था की स्थिति 642-43 से 655 ई. तक बनी रही।

655 ई. में पुलकेशिन के एक शक्तिशाली पुत्र विक्रमादित्य प्रथम ने अपने नाना गंगनरेश दुर्विनीत की सहायता से अपने पैतृक राज्य पर पुनः अधिकार कर शांति और व्यवस्था स्थापित करने में सफलता प्राप्त की। उसने पल्लवनरेश नरसिंहवर्मन को हराकर अपनी राजधानी बाहर भगा दिया। इसके बाद उसने अपने विद्रोही भाइयों एवं सामंतों को पराजित कर अपने नियंत्रण में किया। विक्रमादित्य की इस प्रारंभिक सफलता का संकेत उसके शासन काल के तीसरे वर्ष में अंकित कर्नूल लेख में मिलता है, जिसके अनुसार उसके अपने पिता की उस राजलक्ष्मी को पुनः प्राप्त किया, जिसे तीन राजाओं ने छिपा लिया था। इन तीनों राजाओं से तात्पर्य उसके दो भाइयों आदित्यवर्मा तथा चंद्रादित्य एवं पल्लव नरेश नरसिंहवर्मन से लगता है, जिनके कारण चालुक्य राज्य की स्थिति संकटग्रस्त कर दी गयी थी।

यह भी बताया गया है, कि उसने मंदिरों तथा ब्राह्मणों को पहले से मिले हुए दानों,जिन्हें तीन राजाओं के समय में निरस्त कर दिया गया था, पुनः प्रतिष्ठित किया और प्रत्येक जिले के राजाओं को जीतकर पुनः अपने वंशलक्ष्मी को प्राप्त करलिया तथा परमेश्वर की उपाधि ग्रहण की। यद्यपि उसकी विजयों का क्रमबद्ध विवरण तो नहीं मिलता तथापि उसके लेखों की प्राप्ति-स्थानों से स्पष्ट हो जाता है, कि उसने नेल्लोर, बेलारी,अनन्तपुर तथा कडप्पा जिलों के ऊपर, जो अराजकता के दौर में चालुक्य साम्राज्य से बाहर निकल गये थे, पुनः अपना अधिकार सुदृढ कर लिया।इन सभी स्थानों से विक्रमादित्य के लेख मिलते हैं। इस प्रकार अपने संपूर्ण राज्य में एकता स्थापित करने के बाद उसने अपने को सम्राट घोषित किया। उसके इस कार्य में छोटे भाई जयसिंहवर्मन ने उसकी सहायता की थी। अतः शासक होने के बाद उसने उसे लाट प्रदेश (दक्षिणी गुजरात) का वायसराय बना दिया।

पल्लव – चालुक्य संघर्ष

राजधानी में अपनी स्थिति सुदृढ कर लेने के बाद विक्रमादित्य ने पल्लव राज्य पर आक्रमण किया। इस संघर्ष का विवरण कई लेखों में मिलता है। गुजरात के चालुक्य शासक धराश्रय जयसिंहवर्मन के नौसारी ताम्रपत्रों में कहा गया है, कि विक्रमादित्य ने अपने पराक्रम से पल्लव राजवंश को जीता था। विक्रमादित्य की पल्लवों के ऊपर विजय का अपेक्षाकृत स्पष्ट विवरण उरैयूर विजय स्कंधावार से निर्गत किये गये गङवाल ताम्रपत्रों से प्राप्त होता है। इनमें चार श्लोंकों के अंतर्गत पल्लवों के विरुद्ध उसकी सफलता का उल्लेख मिलता है। प्रथम श्लोक के अनुसार उसने नरसिंह की सेनाओं का मानमर्दन किया, महेन्द्र के शौर्य का विनाश किया तथा ईश्वर को अपने अधीन कर लिया। इससे सूचित होता है,कि विक्रमादित्य का तीन पल्लव राजाओं नरसिंहवर्मन प्रथम, महेन्द्रवर्मन द्वितीय तथा परमेश्वरवर्मन प्रथम के साथ संघर्ष हुआ था…अधिक जानकारी

References :
1. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, लेखक- के.सी.श्रीवास्तव 

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