पुलकेशिन द्वितीय एवं पल्लवों के बीच संघर्ष
पुलकेशिन द्वितीय एवं पल्लवों के बीच संघर्ष – आंध्र के दक्षिण में पल्लवों का शक्तिशाली राज्य था। पल्लव वंश का शासन इस समय महेन्द्रवर्मन प्रथम (600-630 ई.) के हाथों में था। पुलकेशिन द्वितीय की विजयिनी सेना पल्लव राज्य में आगे बढती हुई कांची से केवल 15 मील उत्तर में स्थित पुल्ललूर तक चली आयी। उसका महेन्द्रवर्मन प्रथम के साथ भीषण संघर्ष हुआ। यद्यपि महेन्द्रवर्मन अपनी राजधानी कांची को बचाने में सफल रहा तथापि उसके राज्य के उत्तरी प्रांतों पर चालुक्य नरेश का अधिकार हो गया। ऐहोल के लेख में पुलकेशिन की विजय का विवरण इस प्रकार मिलता है- अनेक युद्धों के विजेता उद्धत पुलकेशिन की सेनाओं के कारण उठी हुयी धूल से पल्लवनरेश का प्रताप आच्छादित हो गया तथा वह कांचीपुर की दीवारों के पीछे जा छिपा।
लेख में यह भी कहा गया है, कि पुलकेशिन सूर्य के समान था, जिसके आगे पल्लव सेना ओस के समान सिद्ध हुई। पुलकेशिन की इस विजय से पल्लव – चालुक्य संघर्ष का सूत्रपात हुआ, जो बाद की कई पीढियों तक चलता रहा। पल्लवों के विरुद्ध अपनी सफलता के बाद पुलकेशिन ने कावेरी नदी पार की तथा सुदूर दक्षिण में स्थित चोल, केरल तथा पाण्ड्य राज्यों के साथ मैत्री संबंध स्थापित किये।
पल्लव – चालुक्य संघर्ष का प्रथम चरण
पल्लवों के साथ पुलकेशिन का प्रथम संघर्ष 630 ई. में हुआ था। इस विजय के बाद पुलकेशिन अपनी राजधानी वापस लौट आया। राजधानी आकर पुलकेशिन ने अपने भाई विष्णुवर्धन को आंध्र प्रदेश का वायसराय बनाकर शासन करने के लिये भेजा।वहाँ उसने पूर्वी चालुक्य वंश के शाखा की स्थापना की, जिसने आंध्र प्रदेश पर 1070 ई. तक शासन किया।
पल्लव – चालुक्य संघर्ष का द्वितीय चरण
पल्लवों के विरुद्ध अपनी प्रारंभिक सफलताओं से उत्साहित होकर पुलकेशिन ने पुनः कांची पर आक्रमण करने की योजना बनाई। इसका तात्कालिक कारण संभवतः यह था, कि चालुक्यों के सामंत बाणों को पल्लवों ने अपनी ओर मिला लिया। पुलकेशिन इसे सहन नहीं कर सका। सर्वप्रथम बाणों पर आक्रमण कर उसने उनकी शक्ति का विनाश कर डाला। यहीं से चालुक्य-पल्लव संघर्ष के द्वितीय चरण का प्रारंभ हुआ। पुलकेशिन की सेना ने पुनः पल्लव राज्य में प्रवेश किया तथा वह कांची के निकट जा पहुँचा। इस समय पल्लव वंश में महेन्द्रवर्मन का पुत्र नरसिंहवर्मन प्रथम महामल्ल (630-668ई.) राज्य कर रहा था। वह एक शक्तिशाली राजा था। यह भी बताया गया है, कि नरसिंहवर्मन ने पुलकेशिन की पीठ पर जय शब्द उसी प्रकार अंकित कर दिया, जिस प्रकार से ताम्रपट्टों पर लिखा जाता है। पल्लव नरेश को इस संघर्ष में लंका के राजकुमार मानवर्मन से सहायता मिली। पराजित पुलकेशिन अपनी राजधानी वापस लौट गया।
पुलकेशिन द्वितीय संभवतः युद्ध में लङता हुआ मारा गया तथा नरसिंहवर्मन ने वातापीकोण्ड की उपाधि धारण की। बादामी में मल्लिकार्जुनदेव मंदिर के पीछे एक शिला पर उत्कीर्ण उसके शासन काल के तेरहवें वर्ष का लेख मिलता है, जो वहाँ उसके अधिकार की पुष्टि करता है। कुछ अन्य पल्लव लेखों में इस घटना का विवरण देते हुये बताया गया है, कि जिस प्रकार अगस्त्य ऋषि ने वातापि (राक्षस) का संहार किया था, उसी प्रकार नरसिंहवर्मा ने वातापी को नष्ट कर दिया। पल्लव सेना अपने साथ वह विजयस्तंभ भी उखाङ कर लेती गयी, जिसे पुलकेशिन ने अपनी राजधानी के मध्य में स्थापित करवाया था। इस प्रकार इस महान चालुक्य सम्राट का अंत दुखद रहा।
पुलकेशिन द्वितीय ने 610-11ई. से लेकर 642 ई. तक शासन किया। पुलकेशिन द्वितीय चालुक्य वंश का सर्वाधिक शक्तिशाली और योग्य शासक था।
पुलकेशिन द्वितीय की उपलब्धियाँ और विजय
ह्वेनसांग द्वारा पुलकेशिन द्वितीय की प्रशंसा
641 ई. के लगभग चीनी यात्री ह्वेनसांग पुलकेशिन द्वितीय के राज्य में आया था। उसने पुलकेशिन द्वितीय की शक्ति और शासन की बङी प्रशंसा की है। ह्वेनसांग के अनुसार पुलकेशिन की उदारता और प्रभुता दूर-दूर तक फैली थी तथा उसके अधीनस्थ शासक पूरी निष्ठा से उसकी सेवा किया करते थे। राज्य की भूमि बङी उपजाऊ थी, जलवायु गरम की थी तथा लोग सीधे और ईमानदार थे। वे विद्या के प्रेमी थे तथा अपने हितैषियों के प्रति कृतज्ञ परंतु शत्रुओं के प्रति क्रूर थे। वह स्वयं एक विद्वान था।
नेरूर दानपत्र से पता चलता है, कि उसे मनुस्मृति, रामायण, महाभारत आदि का अच्छा ज्ञान था और वह दंडनीति में दक्ष था। इस प्रकार पुलकेशिन का शासन काल अत्यन्त गौरवशाली रहा।
अरब लेखक ताबरी के विवरण से पता चलता है, कि उसने अपने शासन के 36 वें वर्ष में परसिया के शासक खुस्रु द्वितीय के दरबार में एक दूत-मंडल भेजा था। यह दूतमंडल अपने साथ हाथी, एक पत्र तथा बहुमूल्य उपहार लेकर गया था। फारसी शासक ने इसके उत्तर में अपना भी एक दूत-मंडल चालुक्य शासक के दरबार में प्रेषित किया। ताबरी भारत के राजा का नाम फरमिश या प्रमेश बताता है, जो परमेश्वर का फारसी रूपान्तर है। चालुक्य लेखों में पुलकेशिन का दूसरा नाम परमेश्वर बताया गया गै।
फर्ग्युसन के अनुसार अजंता की पहली गुफा के भित्ति-चित्रों में इन दूतमंडलों का चित्रण किया गया है। गुफा की छत पर अंकित एक चित्र में खुस्रु एवं उसकी पत्नी शीरी तथा दूसरे में पुलकेशिन को फारसी राजदूत का स्वागत करते हुये चित्रित किया गया है। अजंता के एक गुहा-चित्र में चालुक्य नरेश को फारसी दूत मंडल का स्वागत करते हुये चित्रित किया गया है।
References : 1. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, लेखक- के.सी.श्रीवास्तव
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