इतिहासदक्षिण भारतप्राचीन भारतबादामी का चालुक्य वंश

विक्रमादित्य के समय में पल्लव – चालुक्य संघर्ष का विवरण

राजधानी में अपनी स्थिति सुदृढ कर लेने के बाद विक्रमादित्य ने पल्लव राज्य पर आक्रमण किया। इस संघर्ष का विवरण कई लेखों में मिलता है। गुजरात के चालुक्य शासक धराश्रय जयसिंहवर्मन के नौसारी ताम्रपत्रों में कहा गया है, कि विक्रमादित्य ने अपने पराक्रम से पल्लव राजवंश को जीता था। विक्रमादित्य की पल्लवों के ऊपर विजय का अपेक्षाकृत स्पष्ट विवरण उरैयूर विजय स्कंधावार से निर्गत किये गये गङवाल ताम्रपत्रों से प्राप्त होता है। इनमें चार श्लोंकों के अंतर्गत पल्लवों के विरुद्ध उसकी सफलता का उल्लेख मिलता है। प्रथम श्लोक के अनुसार उसने नरसिंह की सेनाओं का मानमर्दन किया, महेन्द्र के शौर्य का विनाश किया तथा ईश्वर को अपने अधीन कर लिया। इससे सूचित होता है,कि विक्रमादित्य का तीन पल्लव राजाओं नरसिंहवर्मन प्रथम, महेन्द्रवर्मन द्वितीय तथा परमेश्वरवर्मन प्रथम के साथ संघर्ष हुआ था। दूसरे श्लोक के अनुसार लक्ष्मी के श्रीवल्लभ ने दक्षिण की देवी के बलपूर्वक ग्रहण तथा कांची पर अधिकार करके अपना नाम और सार्थक कर दिया। यह नगरी देवी की मेखला के समान थी। तीसरे श्लोक में कहा गया है, कि इस रणरसिक ने राजमल्ल की उपाधि उचित ही धारण की थी, क्योंकि उसने महामल्ल अर्थात नरसिंहवर्मन के वंश को समाप्त कर दिया था। चौथे श्लोक में वर्णित है, कि उसने परिखा और प्राकार से सुरक्षित तथा दुर्लघ्य कांची पर अपना अधिकार कर लिया था।

चालुक्य शासक विक्रमादित्य प्रथम का इतिहास

ऐसा प्रतीत होता है, कि विक्रमादित्य को नरसिंहवर्मन के विरुद्ध जो सफलता मिली वह उस समय की है, जब वह राजा नहीं बना था। राजा होने के बाद पल्लव राज्य पर उसका पहला आक्रमण महेन्द्रवर्मन द्वितीय के काल में ही हुआ था। उसने पल्लव नरेश महेन्द्रवर्मन द्वितीय को मैसूर में पराजित किया, जिसके फलस्वरूप संभवतः पल्लव शासक की मृत्यु हो गयी। उसका उत्तराधिकारी परमेश्वरवर्मन हुआ। उसके शासन के प्रारंभिक वर्षों में विक्रमादित्य ने पल्लवराज्य पर चढाई की तथा वह विजय करता हुआ कांची के समीप जा पहुँचा। गङवाल लेख से पता चलता है,कि उसने चोलों के साथ-साथ पाण्ड्य तथा केरल के राजाओं को भी जीत लिया था।

पुलकेशिन द्वितीय तथा पल्लवों के बीच हुये संघर्ष का विवरण

केन्दूर ताम्रपत्र में कहा गया है, कि विक्रमादित्य ने उस कांचीपति का मस्तक अपने चरण कमलों में झुकाया, जिसने कभी किसी के आगे अपना मस्तक नहीं झुकाया था और जो तीनों समुद्रों से घिरी हुई पृथ्वी का स्वामी था। कांची के अलावा उसे पाण्ड्य, चोल, केरल, कलभ्र आदि की विजय का भी श्रेय प्रदान किया गया है। इस प्रकार यह स्पष्ट है, कि विक्रमादित्य ने कुछ समय के लिये पल्लवों की राजधानी कांची के ऊपर अपना अधिकार कर लिया था। पल्लव नरेश अपनी राजधानी छोङकर भागा तथा विक्रमादित्य ने कावेरी नदी के तट तक उसका पीछा किया। कांची के ऊपर चालुक्यों का थोङे समय के लिये अधिकार हो गया। एक ओर जहाँ चालुक्य लेखों में विक्रमादित्य के कांची पर अधिकार का विवरण दिया गया है, वहीं दूसरी ओर पल्लव लेख परमेश्वरवर्मन की सेनाओं द्वारा विक्रमादित्य को पराजित किये जाने तथा उसकी राजधानी को लूटने का दावा करते हैं।

ऐसा प्रतीत होता है, कि प्रारंभिक युद्धों में परमेश्वरवर्मन को पराजय उठानी पङी।किन्तु वह निराश नहीं हुआ। राजधानी से बाहर रहते हुए उसने अपनी सैनिक शक्ति मजबूत की तथा चालुक्यों के विरुद्ध दोरफा कार्यवाही की। विक्रमादित्य का ध्यान हटाने के उद्देश्य से उसने एक सेना उसकी राजधानी वातापी नगर पर आक्रमण करने के लिये भेजी। इस सेना का नेतृत्व उसके सेनापति शिरुतोण्डर ने किया।

पल्लव राजवंश का इतिहास

पल्लव सेना ने वातापी नगर में अव्यवस्था फैला दी। यद्यपि विक्रमादित्य के पुत्र विनयादित्य तथा पौत्र विजयादित्य अपनी राजधानी को बचाने में सफल हुए तथापि पल्लव सैनिक अपने साथ अपने साथ लूट का बहुत अधिक धन लेकर लौटे। इधर परमेश्वरवर्मन ने भी विक्रमादित्य को पेरूवलनल्लूर (त्रिचनापल्ली जिला) में पराजित कर दिया। पल्लव लेख उसकी सफलता का उल्लेख करते हैं। कूरम दानपत्र के अनुसार परमेश्वरवर्मा ने विक्रमादित्य को, जिसके साथ लाखों सैनिक थे, मात्र अकेले एक जर्जर वस्त्र पहने युद्धक्षेत्र से भागने को विवश कर दिया।

उत्तरकालीन लेखों में भी परमेश्वरवर्मा की विक्रमादित्य के विरुद्ध सफलता तथा वातापी को लूटे जाने का विवरण दिया गया है। लेखों के अलावा 12वीं शता. की तमिल रचना पेरियपुराणम में भी पल्लव सेना द्वारा वातापी पर किये गये आक्रमण तथा उसकी लूट का उल्लेख है। इससे निष्कर्ष निकलता है, कि परमेश्वरवर्मन की प्रतिशोधात्मक कार्यवाही से विक्रमादित्यकी स्थिति संकटपूर्ण हो गई तथा वह पल्लव-राज्य को छोङकर अपनी राजधानी वातापी वापस लौटने को बाध्य हुआ। इस पल्लव – चालुक्य संघर्ष से किसी भी पक्ष को कोई लाभ नहीं हुआ। यदि विक्रमादित्य तमिल प्रदेश पर अधिकार करने में असफल रहा तो परमेश्ववर्मा को भी वातापी में कोई सफलता नहीं मिल पाई। इसके बाद पचास वर्षों तक पल्लव – चालुक्य संघर्ष रुका रहा।

इस प्रकार विक्रमादित्य भी एक शक्तिशाली राजा था। लेखों में उसे सत्याश्रय, महाराजाधिराज, परमेश्वर, श्रीपृथ्वीबल्लभ, अनिवारित, राजमल्ल जैसी उपाधियाँ प्रदान की गयी हैं। इनसे उसकी महानता सूचित होती है।

References :
1. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, लेखक- के.सी.श्रीवास्तव 

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