गुप्तों की भूमि एवं राजस्व व्यवस्था का इतिहास
गुप्त युग में भूमि पर सम्राट का स्वामित्व होता था। राजकीय भूमि के अतिरिक्त ऐसी भी भूमि थी, जिन पर कृषकों का निजी स्वामित्व होता था। मंदिरों तथा ब्राह्मणों को जो भूमि दान में दी जाती थी, उसे अग्रहार कहा जाता था। इस प्रकार की भूमि सभी करों से मुक्त होती थी तथा इनके ऊपर धारकों का पूर्ण स्वामित्व होता था।
ऐसे भूमिदानों का उद्देश्य एकमात्र शैक्षणिक एवं धार्मिक था। धार्मिक अनुदानों को सम्राट ग्रहीता के आचरण से अप्रसन्न होकर समाप्त कर सकता था तथा उन्हें दूसरे योग्य व्यक्ति को दे सकता था। गुप्त राजाओं ने भूमि के विकास की ओर विशेष ध्यान दिया था।
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भूमिकर संग्रह करने के लिये ध्रुवाधिकरण तथा भूमि आलेखों को सुरक्षित करने के लिये महाक्षपटलिक और करणिक नामक पदाधिकारी थे। न्यायाधिकरण नामक पदाधिकारी भूमि संबंधी विवादों का निपटारा करते थे। सिंचाई की उत्तम व्यवस्था थी। गुप्त शासकों ने कुएँ, तालाब, नहरों आदि का निर्माण करवाया था। सम्राट स्कंदगुप्त के जूनागढ के राज्यपाल पर्णदत्त के पुत्र चक्रपालित ने गिरनार में सुदर्शन झील के बाँध का पुनर्निर्माण करवाया था।
जो लोग राजकीय भूमि पर कृषि करते थे, उन्हें अपनी उपज का एक भाग राजा को कर के रूप में देना होता था, जो सामान्यतः यह छठा भाग होता था। गुप्त अभिलेखों में भूमिकर को उद्रंग तथा भागकर कहा गया है।स्मृति ग्रंथों में इसे राजा की वृत्ति कहा गया है। नारद के अनुसार राजा प्रजा रक्षण के बदले में उपज का षष्ठांश राजस्व के रूप में प्राप्त करने का अधिकारी होता है। कालिदास लिखते हैं, कि तपस्वियों के तप की रक्षा तथा संपत्ति की चोरों से रक्षा करने के बदले में राजा चारों आश्रमों तथा वर्णों से उनके धन के अनुसार छठां भाग प्राप्त करता है।
इस प्रकार स्पष्ट है, कि गुप्तकाल में राजस्व उपज का छठां भाग ही लिया जाता था। भूमिकर नकद तथा अन्न दोनों में दिया जा सकता था। राजस्व का दूसरा प्रमुख स्रोत चुंगी था, जो नगर में आने वाली वस्तुओं के ऊपर लगायी जाती थी।
किसी-2 स्थान पर भूतोपात्तप्रत्याय नामक कर का उल्लेख मिलता है। अल्तेकर के अनुसार यह राज्य में उत्पन्न होने वाली वस्तुओं (भूत) तथा भीतर आयात की जाने वाली वस्तुओं (उपात्त) के ऊपर लगाया जाने वाला कर था। समकालीन लेखों में विष्टि (बेगार) का भी उल्लेख किया गया है।
वात्सायन के कामसूत्र से पता चलता है, कि गाँवों में किसान स्रियों को मुखिया के घर के विविध प्रकार के काम, जैसे- अनाज रखना, घर की सफाई, खेतों पर काम करना आदि करने के लिये बाध्य किया जाता था और इसके बदले में उन्हें कोई मजदूरी नहीं मिलती थी।
इन सबके अलावा व्यापारिक वस्तुओं, चारागाहों, वनों, नमक आदि पर भी कर लगाये जाते थे, जिससे राज्य को प्रभूत आय होती थी। सीमा, बिक्री की वस्तुओं, आदि पर जो कर लगते थे, उसे शुल्क कहा जाता था।
स्कंदगुप्त के बिहार लेख में शौल्किक नामक पदाधिकारी का उल्लेख मिलता है। वह सीमा शुल्क विभाग का अधीक्षक होता था। उसे व्यापारियों तथा सौदागरों के माल पर कर लगाने तथा उसे वसूल करने का अधिकार था। राज्य की आय का एक अन्य महत्त्वपूर्ण स्रोत भूमिरत्न, खानों की खुदाई तथा नमक का उत्पादन था। इन सभी के ऊपर राज्य का एकाधिकार होता था।
अपराधियों के ऊपर जो जुर्माने लगाये जाते थे, उनसे भी पर्याप्त धन राजकोष में जमा होता था। गुप्त युग की कर व्यवस्था उदार सिद्धांतों पर आधारित थी।
इस काल की रचना कामंदकीय नीतिसार में शासक को सलाह दी गयी है, कि जिस प्रकार सूर्य अपनी किरणों से जल ग्रहण करता है, उसी प्रकार से राजा थोङा-2 धन ग्रहण करे। राजा के आचरण की तुलना ग्वाले तथा माली से करते हुए कामंदक लिखते हैं, कि जिस प्रकार ग्वाला पहले गाय का पोषण करता है तथा फिर उसका दूध दुहता है, तथा जिस प्रकार माली पहले पौधों को सींचता है तथा फिर उनका चयन करता है, उसी प्रकार राजा को पहले प्रजा का पोषण करना चाहिए और फिर बाद में उससे कर ग्रहण करना चाहिये।
अतः हम कह सकते हैं, कि गुप्त सम्राटों ने इस आदर्श का अश्वमेव पालन किया था।
Reference : https://www.indiaolddays.com