इतिहासप्रमुख स्थलप्राचीन भारत

प्राचीन इतिहास तथा संस्कृति के प्रमुख स्थल जखेड़ा

जखेङा नामक स्थान उत्तर प्रदेश के एटा जिले में कालिन्दी नदी के बायें तट पर अतरंजीखेड़ा से सोलह किलोमीटर की दूरी पर यह पुरास्थल स्थित है। स्थानीय लोग इसे ‘कुसक’ (Kusak)कहते है। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग की ओर से के. एन. निज़ामी की रेखदेख तथा एम. डी. साही के निर्देशन में यहाँ खुदाई की गयी थी। इसके दो उद्देश्य थे-

  1. काले-लाल तथा चित्रित धूसर मृद्भाण्ड, जो यहाँ की सतह पर बहुतायत में मिले है, के स्तर विन्यास संबंध (Stratigraphical relationship) का निर्धारण।
  2. चित्रित धूसर संस्कृति के लोगों की बस्ती के सही स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करना।

ताम्रपाषाण कालीन संस्कृति

खुदाई के परिणामस्वरूप बिना किसी व्यवधान के तीन क्रमिक एवं अविच्छिन्न सांस्कृतिक काल प्रकाश में आयें हैं जिनका विवरण इस प्रकार है-

प्रथम काल

इसमें सादे काले एवं लाल-काले पुते तथा अपरिष्कृत मृद्भाण्ड मिले है। कुछ चमकीले धूसर भाण्ड भी है। मिट्टी के फर्श पर जलाने के निशान मिलते है। बांस तथा नरकुल की सहायता से घर बनाते थे। मिट्टी के ढेलों पर इनकी छाप मिलती है। इस स्तर की अन्य पुरानिधियां हैं- मृद्भाण्डों के छल्ले, गोमेद के कोड(Coregagate), जैस्मर के नालीदार मनके, अस्थियों के दो नोंक वाले बाणाग्र जिन पर अंगूठी के चिह्र बने है, खोखले नोंक आदि। मृद्भाण्डों की अतरंजीखेड़ा के द्वितीय स्तर के भाण्डों से समानता दिखाई देती है।

द्वितीय काल

यह दो भागों में विभाजित है- A तथा B


A. स्तर काले-लाल से चित्रित धूसर संस्कृति में संक्रमण को द्योतित करता है। बर्तनों की लाल सतह पर काले रंग में चित्रकारी की गयी है। चित्रित धूसर भाण्डों के कुछ ठीकरे भी मिलते है। कुछ पर सूक्ष्म एवं चमकीली चित्रकारी है। आंशिक रूप से खुली हुई फर्शों से ऐसा आभास मिलता है कि टट्टर तथा गारे से वर्गाकार मकान बनाये जाते थे। प्रमुख पुरानिधियां हैं- ताँबे की चूड़ी का एक टुकड़ा, पत्थर की गोलियां, मिट्टी के मनके तथा गोलियां, दो कंघे, हड्डी के बाणाग्र एवं नोकें, मृद्भाण्डों के छल्ले आदि। मिट्टी की बनी तीन ज्यामितीय वस्तुयें प्रमुख हैं – दो पर तिकोने वृत्ताकार कर्ण बने हैं तथा तीसरी वर्गाकार है जिस पर एक ओर वृत्त है।

B. स्तर से बड़ी संख्या में चित्रित धूसर भाण्ड मिलते है। साथ-2 काले-लाल, काले पुते, खुरदरे तथा लाल भाण्ड भी मिलते है। सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि मिट्टी का बांध है जिसका आधार 4.80 मीटर एवं ऊँचाई 80 सेमी है। मिट्टी की अधखुली फर्शों तथा स्तम्भगतों से पता चलता है कि मकान वृत्ताकार एवं आयाताकार बनाये जाते थे। लोग ईंटों के प्रयोग से परिचित थे किन्तु केवल कर्मकाण्डों में वेदी आदि बनाने के लिए ही इनका प्रयोग होता था। इस काल की अन्य पुरानिधियां हैं – ताम्र वस्तुयें विशेषकर चूड़ियाँ, लोहे की कुदाल, हंसिया, फाल, राड, भाले तथा बाणाग्र, हड्डी के उपकरण, मिट्टी के मनके, चक्र(discs), जाल-निमज्जक, गेंद, लटकन तथा पहिए, सेलखड़ी, कार्नीलियन एवं गोमेद के मनके तथा मूसल, ओखली तथा चक्की के टुकड़े आदि।

तृतीय काल

यह उत्तरी काली मार्जित पात्र परम्परा (एन. बी. पी.) के प्रयोग का काल है। मृद्भाण्डों की चित्रकारियों में सजावट दिखाई देती है। अन्य पुरावशेष हैं- मिट्टी के चक्र, गेंद, मनके , जम्बुमणि, चक्की तथा मूसल, लौह निर्मित साकेट, बाणाग्र, ताँबे की अंजन शलाकायें आदि। अस्थि-निर्मित बाणाग्र, नोंक तथा अन्य उपकरणों से पता चलता है कि अस्थि उद्योग (Bone Industry) अत्यत विकसित अवस्था में था। इस प्रकार जखेड़ा चित्रित धूसर मृद्भाण्डकालीन प्रमुख स्थल है। लौह-निर्मित फाल की प्राप्ति से सूचित होता है कि अस्थि उद्योग प्रथम सहस्त्राब्दी ईसा पूर्व के मध्य भाग तक भूमि जुताई के फालों का प्रयोग किया जाने लगा था। इससे उत्पादन में वृद्धि हुई तथा स्थायी जीवनयापन संभव हो सका। बांध, परिखा, चौड़ी सड़क के अवशेष समृद्ध जीवन की ओर संकेत करते हैं।

References :
1. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, लेखक- के.सी.श्रीवास्तव 

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