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प्राचीन इतिहास तथा संस्कृति के प्रमुख स्थल अतरंजीखेड़ा

उत्तर प्रदेश में एटा जिले से दस मील की दूरी पर काली नदी के तट पर यह स्थान स्थित है। अनुश्रुति के अनुसार इस स्थान की नींव राजा बेन ने डाली थी। यहाँ स्थित टीले की खोज 1861- 62 ई. में कनिंघम ने की थी। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के तत्वाधान में सर्वप्रथम 1962 ई. में यहाँ पर उत्खनन कार्य प्रारम्भ किया गया। इसके परिणामस्वरूप यहाँ से ईसा पूर्व 2130 से लेकर 600 तक चार प्रमुख सांस्कृतिक स्तरों के प्रमाण प्राप्त होते हैं-

  1. गैरिक पात्र परम्परा,
  2. काली लाल पात्र परम्परा,
  3. चित्रित धूसर पात्र परम्परा तथा
  4. उत्तर की काली चमकीली पात्र परम्परा।

टीले की खुदाई से पुरातात्विक महत्व की कई वस्तुयें प्राप्त की गयी हैं।

ताम्रपाषाण बस्तीयाँ

प्रथम संस्कृति

प्रथम सांस्कृतिक स्तर से गेरूये रंग के मृद्भाण्ड (Ochre-coloured Pottery) मिलते हैं। कुछ पात्रों के ऊपर खोद कर चित्रकारियाँ की गयी है। इनमें घड़े, कटोरे, तसले, नाँद, मटके, छोटी तश्तरियाँ, कलश, प्याले आदि है। कुछ पात्र मोटी तथा कुछ पतली गढ़न के है। इस काल के निवासी कृषि करते थे तथा जौ, धान तथा दालों की पैदावार होती थी। इस संस्कृति का समय 2000-1500 ई. पू. के मध्य निर्धारित किया गया है।

द्वितीय संस्कृति

अतरंजीखेड़ा की द्वितीय संस्कृति के लोग काले तथा लाल रंग के बर्तन (Black and Red Ware) बनाते थे। इन बर्तनों पर किसी प्रकार की चित्रकारी नहीं है। इन मृद्भाण्ड़ों के साथ 2 इस संस्कृतिक स्तर से मानव आवास के भी प्रमाण मिलते है। चूल्हे के अवशेष तथा बड़ी संख्या में कोर और फ्लेक उपकरण मिलते हैं। इस संस्कृति का समय 1450 – 1200 ई. पू. निर्धारित किया गया है।

तृतीय संस्कृति

तृतीय संस्कृति के निवासी भूरे रंग के चित्रित मृद्भाण्ड बनाते थे। इसी आधार पर इसे चित्रित धूसर परम्परा (Painted Grey Ware) कहा जाता है। इन्हें खूब गूँथी हुई मिट्टी से चाक पर बनाया जाता था। कुछ बर्तन हस्तनिर्मित भी हैं। इनमें थालियाँ, कटोरे आदि है। इन पर विविध चित्रकारियाँ मिलती है। इस स्तर से लोहे के अनेक उपकरण जैसे भआला, बाण, चिमटा, संड़ासी, कुल्हाड़ी, छेनी, चाकू, बरमा आदि भी मिलते है। धातु गलाने के काम आने वाली भट्टियाँ भी मिलती है जिसमेंं सूचित होता है कि यहाँ के निवासी लौह धातु को गलाकर उपकरण तैयार करते थे। धान तथा जौ के दाने मिलते है जो कृषि कर्म के प्रचलन को प्रमाणित करते है।

विद्वानों ने इनका समय ईसा पूर्व प्रथम सहस्त्राब्दि निर्धारित किया है। इससे सिद्ध होता है कि उत्तरी भारत में 1000 ई.पू. के लगभग लौह उपकरणों का प्रयोग होने लगा था।

इस संस्कृति के लोग कृषि कर्म तथा पशुपालन से परिचित थे। गेहूँ, जौ, चावल आदि की पैदावर होती थी। गाय, बैल, भेड़, बकरी उनके पालतू पशु थे। खुदाई में चूल्हे के भी अवशेष मिलते है। अतरंजीखेड़ा की तृतीय संस्कृति का समय 1000 – 600 ई. पू. के मध्य निर्धारित किया गया हैं।

चतुर्थ संस्कृति

अतरंजीखेड़ा की चतुर्थ संस्कृति को उत्तरी काली चमकीली पात्र परम्परा (Northern Black Polished Ware) कहा जाता है। इन बर्तनों पर एक विशेष प्रकार की ओपदार पालिस की गई है। इन्हें चाक पर तैयार किया गया है। थाली, कटोरे, छोटे कलश आदि प्रमुख बर्तन है। मानव आवास के भी साक्ष्य मिलते है। मकान अधिकतर मिट्टी, गोबर, घास-फूस, लकड़ी आदि की सहायता से ही बनते थे, लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि ईंटों का भी प्रयोग किया जाने लगा था। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि इस काल के लोगों का जीवन खानाबदोश अथवा घुमक्कड़ न होकर सुव्यवस्थित था। इसके अतिरिक्त मनुष्यों, पशुओं आदि की मृण्मूर्तियाँ, मिट्टी तथा माणिक्य के मनके, हड्डी, हाथी-दाँत, लोहे तथा ताँबे की विविध वस्तुयें भी इस स्तर से प्राप्त की गयी है।

इस संस्कृति का समय ईसा पूर्व छठीं शताब्दी से प्रथम शताब्दी के बीच निर्धारित किया जाता है। अतरंजीखेड़ा से एक मन्दिर का भी अवशेष मिलता है जिसमें पाँच शिवलिंग हैं।

References :
1. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, लेखक- के.सी.श्रीवास्तव 

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