दक्षिण भारत में महापाषाण काल
नवपाषाणकालीन संस्कृति के बाद सुदूर दक्षिण के इतिहास में जिस संस्कृति का प्रारंभ हुआ, उसे महापाषाणयुगीन (Megalithic culture) संस्कृति कहा जाता है। इस संस्कृति के लोग अपने मृतकों के अवशेषों को सुरक्षित रखने के लिये बङे-बङे पत्थरों का प्रयोग करते थे। इनके निर्माता प्रायः प्राग्साक्षर लोग थे। इन रचनाओं के उद्देश्य अथवा उनके उपयोग के विषय में निश्चित रूप से कुछ भी कह सकना कठिन है। गार्डन चाइल्ड का अनुमान है, कि महापाषाण किसी अंधविश्वास संबंधी अनुष्ठानिक अथवा धार्मिक उद्देश्य से बनाये जाते थे। दक्षिण के आंध्र, कर्नाटक, तमिलनाडु, केरल के विभिन्न पुरास्थलों जैसे ब्रह्मगिरि, मास्की, पुदुकोट्टै,चिंगलपुत्त, शानूर आदि से वृहत्पाषाणिक समाधियों के अवशेष मिले हैं। इनकी कुछ सामान्य विशषतायें हैं। प्रायः सभी महापाषाणों का निर्माण ऊँची पहाङी स्थलों पर किया गया है तथा इनके नीचे एक या अधिक तालाब पाये गये हैं।
इसका कारण संभवतः निर्माण सामग्रियों की सुलभता एवं कृषि के लिये सिंचाई की सुविधा रहा होगा। इससे यह भी सूचित होता है, कि महापाषाण रहने की बस्ती के समीप ही बनाये जाते थे। इन स्मारकों के निर्माता कृषि कर्म से भलीभाँति परिचित थे तथा इनके द्वारा उत्पादित प्रमुख अनाज चावल, जौ, चना, रागी आदि थे। वे लोहे का उपयोग जानते थे। समाधियों की खुदाई में विविध प्रकार के लौह उपकरण जैसे तलवार, कटारें, त्रिशूल, चिपटी कुल्हाङियां, फावङे, छेनी, बसूली, हंसिया, चाकू, भाले आदि मिले हैं। सभी समाधियों में एक विशिष्ट प्रकार के मृदभाण्ड काले और लाल (Black and red ware) प्राप्त होते हैं।ये चाक पर बनाये गये हैं। तथा इनके ऊपर पालिश भी मिलती है। इन्हें उल्टे मुंह आग पर पकाया जाता था। इनका भितरी तथा मुँह के पास वाला भाग काला हो गया है, जबकि शेष लाल है। प्रमुख बर्तन घङे, मटके, कटोरे, थाली आदि हैं। मिट्टी के अलावा ताँबे तथा काँसे के बर्तनों का उपयोग भी ये लोग जानते थे। प्रायः सभी समाधियों से आंशिक समाधीकरण के उदाहरण भी मिलते हैं। शवों को जंगली जानवरों के खाने के लिये छोङ दिया जाता था। उसके बाद बची हुयी अस्थियों को ही चुन कर समाधिस्थ करने की प्रथा थी। विद्वानों ने इस संस्कृति का काल ईसा पूर्व एक हजार से लेकर पहली शताब्दी ईस्वी तक निर्धारित किया है।
References : 1. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, लेखक- के.सी.श्रीवास्तव
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