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राष्ट्रकूट शासकों का इतिहास में योगदान

राष्ट्रकूट शासकों की उत्पत्ति – राष्ट्रकूट शब्द का अर्थ है – राष्ट्र नामक क्षेत्रीय इकाई के अधिकार वाला अधिकारी। 7 वी. तथा 8वी. शता. के भूमि अनुदानों में राष्ट्रकूटों से यह प्रार्थना की गई है, कि वे अनुदानित क्षेत्र की शांति भंग न करें। राष्ट्रकूट मूलतः महाराष्ट्र के लात्रालुर, आधुनिक लातूर के थे। वे कन्नङ मूल के थे तथा कन्नङ उनकी मातृ भाषा थी।

राष्ट्रकूट राजवंश के शासक –

दांतिदुर्ग(Dantidurga)-

दांतिदुर्ग ने अपना जीवन चालुक्यों के सामंत के रूप में प्रारंभ किया था। उसने एक दीर्घकालीन राज्य की नींव रखी। दांतिदुर्ग के विजय अभियानों के बारे में हमें दो स्रोतों से पता चलता है – प्रथम, समागद पत्र तथा द्वितीय, एलोरा का दशावतार गुफा अभिलेख। दांतिदुर्ग की विजय का इरादा पूर्व तथा पश्चिम का क्षेत्र था, तथा वह चालुक्यों के गढ कर्नाटक को नहीं छोङना चाहता था। उसने मालवा पर आक्रमण किया, जो उस समय गुर्जर प्रतिहारों के अधीन था, तथा इसे अधिकार में कर लिया। मालवा पर अपनी विजय के उल्लास में उसने उज्जैन में हिरण्यगर्भदान उत्सव किया। उसके कुछ दिनों के बाद वह मध्य प्रदेश के महाकोशल या छतीसगढ क्षेत्र में गया। उसके बाद उसने अपने स्वामी चालुक्य राजा कीर्तिवर्मन-II पर आक्रमण किया तथा अपने आप को पूरे दक्षिण का स्वामी घोषित कर दिया। परंतु इस विजय के बाद वह ज्यादा दिनों तक जिन्दा नहीं रहा।

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कृष्ण-I(Krishna-I)

दांतिदुर्ग के कोई संतान नहीं थी। उसके बाद गद्दी पर उसके चाचा कृष्णा-I आए। महाराष्ट्र एवं कर्नाटक में अपनी स्थिति मजबूत करने के बाद कृष्णा-I दक्षिण की तरफ बढे। उन्होंने गंगावङी (आधुनिक मैसूर) पर आक्रमण किया, जो उस समय गंगा राजा श्रीपुरुष को अपने अधीनस्थ के रूप में शासन की अनुमति देकर वे वापस लौट गये। पूर्व में कृष्ण-I का मुकाबला वेंगी के चालुक्यों से हुआ। उन्होंने राज कुमार गोविंद को वेंगी भेजा, जहां के शासक विजयादित्य-I ने बिना किसी संघर्ष के समर्पण कर दिया। एक महान विजेता के साथ-2 कृष्णा एक महान निर्माता भी था। उन्होंने एलोरा में एक भव्य विशाल एकल शिलाखंडीय पत्थरों को काटकर बनाए गए मंदिर का निर्माण करवाया, जिसे अब कैलाश के नाम से जाना जाता है।

गोविंद-II(Govind-II)

कृष्णा-I के बाद उसका ज्येष्ठ पुत्र गोविंद-II गद्दी पर बैठा। उसने वस्तुतः सारा प्रशासन अपने छोटे भाई ध्रुव के भरोसे छोङ दिया। ध्रुव महत्त्वाकांक्षी था, उसने स्वयं गद्दी पर कब्जा कर लिया।

ध्रुव( dhruv )

गद्दी पर आने के तुरंत बाद ध्रव ने उन राजाओं को दंडित करना प्रारंभ किया, जिन्होंने उसके भाई का साथ दिया था। उसके बाद ध्रुव ने उत्तर भारत की राजनीति पर नियंत्रण स्थापित करने का साहसिक प्रयास किया, जिसे सातवाहनों के बाद कोई भी दक्षिण भारतीय शक्ति नहीं कर पाई थी। उस समय उत्तर भारत में श्रेष्ठता के लिये वत्सराज प्रतिहार तथा बंगाल के पाल शासक धर्मपाल के बीच संघर्ष चल रहा था।

जब वत्सराज दोआब में धर्मपाल के साथ युद्धरत था, ध्रुव ने नर्मदा पार कर मालवा पर बिना ज्यादा प्रतिरोध का सामना किए, अधिकार कर लिया। उसके बाद वह कन्नौज की तरफ बढा तथा वत्सराज को इतनी बुरी तरह पराजित किया, कि उसे राजस्थान के रिगिस्तान में शरण लेनी पङी। उत्तर की ओर बढते हुए ध्रुव ने गंगा-यमुना दोआब क्षेत्र में धर्मपाल को पारजित किया। शाही शहर कन्नौज की तरफ न जाकर ध्रुव लूट के बङे भंडार के साथ वापस लौट गया।

उनके चार पुत्र थे – कारक, स्तंभ, गोविंद तथा इंद्र। कारक की मृत्यु पिता से पहले ही हो गयी थी। बाकी बचे तीनों बेटों में से राजा ने सबसे योग्य गोविंद को अपना उत्तराधिकारी चुना तथा युवराज बना दिया।

गोविंद-III(Govind-III)

यद्यपि गोविंद शांते के साथ पद पर आया था, लेकिन शीघ्र ही उसे अपने बङे भाई स्तंभ के विरोध का सामना करना पङा, जिसने गद्दी के दावे को निरस्त कर उसे राजा बनाया गया था। स्तंभ को पराजित करने तथा दक्षिण में अपनी स्थिति मजबूत करने के बाद गोविंद ने भी अपना ध्यान उत्तर भारत की राजनीतिक स्थिति की तरफ मोङा। गोविंद ने उत्तर भारत की तरफ रुख किया तथा नागभट्ट-II को पराजित किया। नागभट्ट दोआब को आक्रमणकारियों की दया पर छोङ कर राजपूताना भाग गया। कन्नौज के कठपुतली शासक चक्रायुद्ध तथा धर्मपाल ने बिना शर्त समर्पण कर दिया। शक्तिशाली गुर्जर प्रतिहार तथा पाल राजाओं के अलावा उत्तर भारत के दूसरे राजाओं को भी गोविंद – III ने पराजित किया।

अमोघवर्ष-I (Amoghavarsh-I)

गोविंद-III के बाद गद्दी पर उसका पुत्र सार्व आया, जिसे अमोघवर्ष के नाम से जाना जाता है। उसे अपने 64 वर्ष के लंबे शासन काल में शांति नसीब नहीं हुई। उसे अपने शासन काल में अपने सामंतों के अनेक विद्रोहों का सामना करना पङा तथा अपने शक्तिशाली पङोसियों से युद्ध करना पङा। अमोघवर्ष में अपने पिता की विलक्षणताओं का अभाव था। मालवा तथा गंगावङी उसके राज्य से छीन लिये गये।

युद्ध के स्थान पर उन्हें शांति, धर्म तथा साहित्य में ज्यादा रुचि थी। अपने जीवन के पूर्वार्द्ध में उनका झुकाव जैन धर्म की ओर हो गया तथा आदिपुराण के लेखक जिनसेन उनके मुख्य शिक्षक हुए। अमोघवर्ष खुद भी एक लेखक थे तथा उन्होंने साहित्यकारों को काफी प्रोत्साहन दिया। कन्नङ भाषा में कविता पर पहली पुस्तक कविराजमार्ग के लेखक वे खुद ही थे। उन्होंने मान्यखेत नगर का निर्माण करवाया तथा वहां एक वैभवशाली महल भी बनवाया। उनके बाद उनका पुत्र कृष्ण-II गद्दी पर आया।

कृष्ण-III

वह न तो एक अच्छा शासक था, न कुशल सेना अध्यक्ष। उसकी एकमात्र उपलब्धि गुजरात शाखा की समाप्ति थी। वह सिर्फ अपने आपको भोज-I के विरुद्ध खङा कर पाया तथा वेंगी और चोलों के साथ उसके युद्ध काफी विनाशकारी सिद्ध हुये। अपने पिता अमोघवर्ष की तरह कृष्ण भी जैन था।

इंद्र-III(Indra-III)

कृष्ण-II के बाद उसका पोता इंद्र III आया। अपने महान पूर्वजों का गौरव बढाते हुये इंद्र ने गुर्जर प्रतिहार राजा महिपाल के साथ युद्ध छेङ दिया। उसने कन्नौज पर अधिकार कर लिया। वेंगी के शासकों के लिये समस्याएं उत्पन्न कर उसने अपने प्रतिनिधि को वहां की गद्दी पर बैठा दिया।

अमोघवर्ष-II(Amoghavarsh-II)

इंद्र-II के बाद उसका पुत्र अमोघवर्ष II आया, परंतु गद्दी पर आने के एक वर्ष के अंदर उसकी मृत्यु हो गयी तथा उसकी जगह उसके छोटे भाई गोविंद ने ली।

गोविंद – IV (Govind – IV)

गोविंद एक क्रूर शासक था, जिसके विरुद्ध व्यापक असंतोष था। उसके एक सरदार ने गोविंद IV के शासन को समाप्त करने में व्यापक सहयोग दिया तथा सत्ता अमोघवर्ष III के पास स्थानांतरित हो गयी।

अमोघवर्ष-III(Amoghavarsh-III)

प्रशासन के बदले धर्म में इनकी ज्यादा रुचि थी। शासन का कार्य युवराज कृष्ण-III के हाथों में था।

कृष्ण-III(Krishna-III)

गद्दी पर आने के बाद कृष्ण ने कुछ वर्ष प्रशासन को सुधारने में बिताया। कृष्ण ने चोल राज्य पर अचानक हमला कर कांची तथा तंजौर पर अधिकार कर लिया। चोलों को इससे उबरने में कुछ वर्ष लग गये तथा 949 ई.पू. में उत्तरी आरकोट में ताक्कोलम का निर्णायक युद्ध लङा गया। कृष्ण ने दक्षिण की ओर बढते हुये केरल तथा पांड्या शासकों को भी पराजित किया तथा कुछ समय तक रामेश्वरम् पर उसका अधिकार रहा। उनसे जीते हुये प्रदेश में अनेक मंदिरों का निर्माण करवाया, जिसमें रामेश्वरम् के कृष्णवेश्वर तथा गंदमातंड्य मंदिर मशहूर हैं। अपने लंबे शासन काल में कृष्ण-III का तोंडइमंडलम् पर पूरा अधिकार रहा, जिसमें आरकोट, चिंगलेपुट तथा वेल्लोर जिले थे।

अपने अधिकांश पूर्वजों की तरह कृष्ण III ने भी वेंगी के मामले में रुचि ली, परंतु वेंगी में राष्ट्रकूट शासन ज्यादा लंबा नहीं चला। अपने शासन के अंतिम दिनों में कृष्ण ने मालवा के परमार शासक हर्ष सियाक पर आक्रमण किया तथा उज्जैन पर अधिकार कर लिया।

कृष्ण के समय से राष्ट्रकूट शासन का पतन प्रारंभ हो गया। वह राज्य के उन सामंती गतिविधियों से अनभिज्ञ था, जो राज्य के बीचों-बीच स्थित तारदावङी को जागीर केरूप में तैलाप के देने से उत्पन्न हुई थी, तथा जिससे राज्य की स्थिरता को खतरा था। कृष्ण की मृत्यु के कुछ वर्षों में ही तैलाप इतना शक्तिशाली हो गया कि उसने राष्ट्रकूटों को उखाङ फैंका तथा कल्याणी के पश्चिमी चालुक्य वंश की स्थापना की।

खोट्टिगा (Khotiga)

कृष्ण III के बाद उसका भाई खोट्टिगा आया। उसके शासन काल में राष्ट्रकूट राज्य को गहरा झटका लगा, जिससे उसकी प्रतिष्ठा नष्ट हुई। परमार राजा सियाक कृष्ण III के हाथों अपनी पराजय को भूल नहीं पाया था तथा बदले की ताक में लगा था। सियाक ने राष्ट्रकूट राजधानी मालखेद पर आक्रमण किया तथा खोट्टिगा इस अपमान के साथ ज्यादा दिनों तक जिंदा नहीं रह पाया। उसके बाद उसका भतीजा करक-II आया।

करक-II(Karak-II)

जब करक गद्दी पर आया उस समय तक राज्य की प्रतिष्ठा को काफी नुकसान हो चुका था। नए राजा के कुशासन के कारण स्थिति और भी खराब हो गयी। सामंत स्वाभाविक रूप से केन्द्रीय शक्ति को चुनौती देने लगे तथा उनमें से एक ने गद्दी पर आने के 18 महीनों के अंदर करक से उसका दक्षिण का राज्य छीन लिया। वह था, चालुक्य वंश का तेल-II (तैलाप)।

References :
1. पुस्तक- भारत का इतिहास, लेखक- के.कृष्ण रेड्डी

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