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समुद्रगुप्त का साम्राज्य तथा शासन-व्यवस्था

समुद्रगुप्त ने अपनी विजयों के परिणामस्वरूप एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की जो उत्तर में हिमाचल से लेकर दक्षिण में विन्ध्यपर्वत तक तथा पूर्व में बंगाल की खाङी से लेकर पश्चिम में पूर्वी मालवा तक विस्तृत था। कश्मीर, पश्चिमी पंजाब, पश्चिमी राजपूताना, सिंध तथा गुजरात को छोङकर समस्त उत्तर भारत इसमें शामिल था।

दक्षिणापथ के शासक तथा पश्चिमोत्तर भारत की विदेशी शक्तियाँ उसकी अधीनता स्वीकार करती थी। इस प्रकार समुद्रगुप्त ने अपने पिता से जो राज्य उत्तराधिकार में प्राप्त किया था, उसे एक विस्तृत साम्राज्य में ढाल दिया। प्रयाग प्रशस्ति के शब्दों में उसने अपने बाहुबल के प्रसार द्वारा भूमंडल को बांध लिया। पाटलिपुत्र इस विशाल साम्राज्य की राजधानी थी।

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समुद्रगुप्त ने अत्यंत नीति-निपुणता के साथ शासन का संचालन किया। केन्द्रीय भाग का शासन उसके प्रत्यक्ष नियंत्रण में था। प्रशस्ति में उसके कुछ प्रशासनिक पदाधिकारियों के नाम मिलते हैं जो इस प्रकार हैं –

सांधिविग्रहिक-

यह संधि तथा युद्ध का मंत्री होता था। इसके अधीन वैदेशिक विभाग होता था। समुद्रगुप्त का सांधिविग्रहिक हरिषेण था, जिसने प्रयाग प्रशस्ति की रचना की।

खाद्यटपाकिक-

यह राजकीय भोजनालय का अध्यक्ष था। इस पद पर ध्रुवभूति नामक पदाधिकारी कार्य करता था।

कमुारामात्य-

अल्टेकर के अनुसार आधुनिक भारतीय प्रशासनिक सेवा के पदाधिकारियों की भाँति ही कुमारामात्य उच्च श्रेणी के पदाधिकारी होते थे। वे अपनी योग्यता के बल पर उच्च से उच्च पद पर पहुँच सकते थे । यही कारण है, कि गुप्त लेखों में विषयपति, राज्यपाल, सेनापति, मंत्री आदि सभी को कुमारामात्य कहा गया है। गुप्त प्रशासन का यह पद अति महत्त्वपूर्ण था।

महादंडनायक-

यह एक पुलिस विभाग का प्रधान अधिकारी तथा फौजदारी का न्यायाधीश था। यह सेना का उच्च पदाधिकारी होता था। संभवतः प्रयाग प्रशस्ति में इस पदाधिकारी का उल्लेख महासेनापति के अर्थ में किया गया है। यह पद हरिषेण के अधिकार में था।

समुद्रगुप्त की शासन-व्यवस्था के विषय में ज्यादा जानकारी प्राप्त नहीं होती है।

प्रयाग प्रशस्ति में उल्लेखित भुक्ति तथा विषय शब्दों से हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं, कि उसने अपने साम्राज्य का विभाजन प्रांतों तथा जिलों में किया था।

Reference : https://www.indiaolddays.com/

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