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स्वामी विवेकानंद का भारतीय पुनर्जागरण में योगदान

स्वामी विवेकानंद का भारतीय पुनर्जागरण में योगदान

स्वामी विवेकानंद का भारतीय पुनर्जागरण में योगदान (svaamee vivekaanand ka bhaarateey punarjaagaran mein yogadaan)

स्वामी विवेकानंद की जीवनी

स्वामी विवेकानंद का जन्म जनवरी, 1863 को एक बंगाली कायस्थ परिवार में हुआ था। उनके बचपन का नाम नरेन्द्रनाथ था। उन्होंने हाई स्कूल की परीक्षा प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण की। उन्होंने बङी योग्यता से बी.ए. की परीक्षा पास की। नरेन्द्रनाथ शुरू में नास्तिक थे परंतु रामकृष्ण परमहंस के संपर्क में आने के बाद वे आस्तिक बन गये।

स्वामी विवेकानंद ने भारतीय पुनर्जागरण में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया था, जिन क्षेत्रों में विवेकानंद का योगदान रहा, वो क्षेत्र निम्नलिखित हैं-

धार्मिक सुधार

विवेकानंद वेदान्त धर्म के महान अनुयायी थे। उनके अनुसार वेदांत धर्म विश्व एकता तथा मानवीय विकास का आधारभूत नियम है। उन्होंने बताया कि वेदांत की आध्यात्मिकता के बल पर भारत सारे विश्व को जीत सकता है। उनकी मान्यता थी कि हिन्दू संस्कृति प्राचीन और श्रेष्ठ है। वह सत्य, शिव और सुन्दर पर आधारित है और हिन्दू राष्ट्र विश्व का शिक्षक रहा है और रहेगा।

स्वामी विवेकानंद ने रूढियों, पाखंडों और कर्मकांडों का विरोध किया। उन्होंने हिन्दू धर्म में प्रचलित छुआछूत की भी निन्दा की। उन्होंने दीन-दुखियों की सेवा पर बल देते हुए कहा कि धर्म का प्रथम कर्त्तव्य गरीबों की सेवा करना तथा उनका उत्थान करना है। उन्होंने स्वयं अपना जीवन दुःखी और पीङित लोगों की सेवा में अर्पित कर दिया था। रामकृष्ण मिशन की स्थापना का उद्देश्य भी दीन-दुःखियों की सेवा और उनका उत्थान करना था। स्वामी विवेकानंद विश्व धर्म के समर्थक थे। उन्होंने धार्मिक सहिष्णुता पर बल दिया।

स्वामी विवेकानंद ने हिन्दू धर्म की रूढिवादिता का विरोध करते हुए कहा हम न तो वेदांती हैं, न पौराणिक हैं और न तान्त्रिक हैं। हम केवल ना छू देने वाले हैं। हमारा धर्म रसोई घर में है। हमारा धर्म है – हमें मत छुओ, हम पवित्र हैं। यदि यह एक शताब्दी तक चलता रहा, तो हममें से प्रत्येक व्यक्ति पागलखाने में होगा।

स्वामी विवेकानंद का कहना था कि धर्म मनुष्य के भीतर निहित देवत्व का विकास है। धर्म न तो पुस्तकों में है और न धार्मिक सिद्धांतों में। वह तो केवल अनुभूति में निवास करता है तथा त्याग, सेवा और प्रेम ईश्वर की अनुभूति के लिए आवश्यक है।

सामाजिक सुधार

स्वामी विवेकानंद ने जाति प्रथा तथा ऊँच-नीच के भेद भाव का विरोध किया और मानव समानता का प्रचार किया। उन्होंने छुआछूत के विचारों का भी विरोध किया। उन्होंने उच्च जातियों के लोगों को उपदेश दिया कि उन्हें निम्न वर्ग के लोगों से घृणा नहीं करनी चाहिए।

स्वामी विवेकानंद गरीबों के शुभचिन्तक थे। उन्होंने दीन-दुःखियों के कष्टों को दूर करने और उनके जीवन स्तर को सुधारने पर बल दिया। उनकी यह मान्यता थी कि जन साधारण के उत्थान के बिना भारत का पुनरुत्थान संभव नहीं हो सकता। स्वामी विवेकानंद ने दलित उद्धार पर बल दिया।

डॉ. रामगोपाल शर्मा का कथन है कि दलित उद्धार विवेकानंद के राष्ट्र निर्माण कार्यक्रम का प्रमुख अंग था। स्वामी विवेकानंद कहा करते थे कि अपने पीङित देशवासियों के उद्धार के पुनीत कार्य के लिए उन्हें मोक्ष खो कर नरक में जाना स्वीकार है।

स्वामी विवेकानंद नारी स्वतंत्रता के प्रबल समर्थक थे। उनका कहना था कि नारियों का दमन और जाति बंधनों द्वारा गरीबों को कुचलना भारत की दो बङी बुराइयाँ हैं। उनकी मान्यता थी कि जब तक नारियों का उत्थान नहीं होगा, तब तक राष्ट्र की उन्नति संभव नहीं है। उनके अनुसार जिस राष्ट्र में स्त्रियों का सम्मान नहीं होता, वह न तो कभी ऊँचा उठा है और न कभी उठ सकता है। अतः स्वामी विवेकानंद ने नारी उत्थान पर बहुत बल दिया। उन्होंने स्त्री शिक्षा पर भी बल दिया ताकि वे अपनी भलाई और बुराई में अंतर कर सके।

स्वामी विवेकानंद ने जनता को शिक्षित करने पर भी बल दिया। उन्होंने सकारात्मक शिक्षा पर बल दिया। उनका कहना था कि शिक्षा वह है जो मनुष्य के चरित्र और जीवन का निर्माण करे। उन्होंने भारत में प्रचलित दूषित शिक्षा प्रणाली की आलोचना की और गुरुकुल शिक्षा प्रणाली का समर्थन किया। उन्होंने पाश्चात्य अंधानुकरण की भी निन्दा की। उन्होंने भारतीयों को चेतावनी देते हुए कहा कि यदि तुम आध्यात्मिकता का परित्याग करके पश्चिम की भौतिकवादी सभ्यता के पीछे दौङोगे तो परिणाम यह होगा ति तीन पीढियों में तुम्हारी जाति का अंत हो जाएगा।

राजनीतिक क्षेत्र

स्वामी विवेकानंद ने भारतीयों में साहस, उत्साह, निर्भीकता आदि भावों का प्रसार किया। उन्होंने घोषित किया कि देश को ऐसे वीरों की आवश्यकता है जिनमें जबरदस्त साहस, निर्भीकता, शक्ति और उत्साह हो। स्वामी विवेकानंद स्वतंत्रता तथा समानता के प्रबल समर्थक थे। उनके अनुसार मनुष्य की प्रगति के लिए आध्यात्मिक स्वतंत्रता ही नहीं, सामाजिक तथा राजनीतिक स्वतंत्रता भी आवश्यक है। वे जन-कल्याण के समर्थक थे। उन्होंने इस बात पर बल दिया कि राष्ट्रीय जीवन में जन साधारण का प्रमुख स्थान है। उनका कहना था कि जन साधारण की अवहेलना करना एक महान राष्ट्रीय पाप है, वह हमारे राष्ट्र के पतन का कारण है।

उन्होंने घोषित किया कि यदि जन साधारण के जीवन को सुखी न बनाया गया तो किसी भी प्रकार की राजनीति निरर्थक रहेगी। दीन, दरिद्र रोगी तथा अपंग की सेवा को वे ईश्वर की उपासना का सर्वोत्तम रूप समझते थे। विवेकानंद एक सच्चे राष्ट्रवादी थे तथा सदैव भारत के हित का चिन्तन करते रहते थे। भारत की महानता तथा गौरव से उनका ह्रदय ओत-प्रोत था। उन्होंने भारतवासियों से कहा था कि इस बात के ऊपर तुम गर्व करो कि तुम भारतीय हो और अभिमान के साथ यह घोषणा करो कि हम भारतीय हैं, प्रत्येक भारतीय हमारा भाई है।

1901 में उन्होंने बंगाली नवयुवकों को उपदेश देते हुए कहा था कि, बंकिम चंद्र चटर्जी को पढो तथा उससे देशभक्ति को ग्रहण करने की चेष्टा करो। तुम्हारा कर्त्तव्य जन्मभूमि की सेवा करना होना चाहिए। उन्होंने भारत के अतीत पर गर्व प्रकट किया और अपनी शिक्षाओं द्वारा भारतीयों को राष्ट्र की सेवा के लिए तैयार रहने का उपदेश दिया।

हिन्दू धर्म एवं संस्कृति की श्रेष्ठता पर बल देना

स्वामी विवेकानंद ने हिन्दू धर्म तथा संस्कृति की श्रेष्ठता प्रतिपादित थी। उन्होंने पश्चिमी देशों में हिन्दू धर्म तथा संस्कृति का प्रसार किया। उन्होंने देशवासियों में हिन्दू धर्म तथा संस्कृति के प्रति गर्व तथा श्रद्धा की भावना उत्पन्न की। डॉ. जगन्नाथ मिश्र का कथन है कि केवल भारत में ही नहीं, अपितु समूचे विश्व में वे हिन्दुत्व का संदेश फैलाना चाहते थे। वे हिन्दुत्व की श्रेष्ठता का प्रतिपादन करते रहे।

पाश्चात्य तथा भारतीय दृष्टिकोण में समन्वय

स्वामी विवेकानंद पाश्चात्य तथा भारतीय दृष्टिकोण में समन्वय करना चाहते थे। उन्होंने इस बात पर बल दिया कि पश्चिमी देशों को भारत से आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करना चाहिए तथा भारत को बदले में पश्चिम से ज्ञान, तकनीकी कौशल, कर्मठता तथा परस्पर सहयोग से कार्य करने की कला ग्रहण करनी चाहिए।

स्वामी विवेकानंद का मूल्यांकन

स्वामी विवेकानंद एक महान दार्शनिक तथा धर्मोपदेशक थे। उन्होंने केवल भारत में ही नहीं, अपितु समस्त विश्व में हिन्दू धर्म का महत्त्व प्रतिपादित किया और हिन्दू धर्म तथा संस्कृति के गौरव को चरम सीमा पर पहुँचा दिया। उन्होंने पूर्व तथा पश्चिम की संस्कृतियों में समन्वय करने का प्रयत्न किया।

इस प्रकार स्वामी विवेकानंद ने भारतीयों को ही नहीं, अपितु विदेशियों को भी अपनी शिक्षाओं से प्रभावित किया है।

रवीन्द्रनाथ टैगोर का कथन है कि यदि कोई भारत को समझना चाहे तो उसे विवेकानंद पढना चाहिए।

एस. एन. नटराजन के अनुसार विवेकानंद ने अपना जीवन भारत के करोङों पीङित लोगों की सेवा के लिए समर्पित कर दिया। वह राष्ट्र का पुनर्निर्माण करना चाहते थे।

स्वामी विवेकानंद के आदर्श कार्य

श्री रामधारी सिंह दिनकर का कथन है कि, स्वामी विवेकानंद ने अपनी वाणी तथा कर्म से भारतीयों में यह अभिमान जताया कि हम अत्यंत प्राचीन सभ्यता के उत्तराधिकारी हैं। हमारे धार्मिक ग्रंथ सबसे उन्नत तथा इतिहास सबसे प्राचीन है, महान हैं। हमारा धर्म ऐसा है जो विज्ञान की कसौटी पर खरा उतरा है और विश्व के सभी धर्मों का सार होते हुए भी उन सबसे कुछ और अधिक है। स्वामीजी के प्रचार से हिन्दुओं में यह विश्वास उत्पन्न हुआ कि उन्हें किसी के भी सामने सिर झुकाने की आवश्यकता नहीं है। भारत में सांस्कृतिक राष्ट्रीयता पहले उत्पन्न हुई, राजनीतिक राष्ट्रीयता बाद में जन्मी है और इस सांस्कृतिक राष्ट्रीयता के पिता विवेकानंद थे।

डॉ. मथुरालाल शर्मा के अनुसार स्वामीजी संन्यासी थे, धुरंधर वक्ता थे, वेदांत के प्रकांड पंडित थे, राष्ट्रीय नेता थे तथा सच्चरित्रता से दैदीप्यमान थे।

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