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कुशल अकर्मण्यता की नीति क्या थी

कुशल अकर्मण्यता की नीति

कुशल अकर्मण्यता की नीति क्या थी (kushal akarmanyata kee neeti)

कुशल अकर्मण्यता की नीति का अर्थ यह है कि अफगानिस्तान के आंतरिक मामले में हस्तक्षेप न किया जाय और न उस पर किसी प्रकार का प्रभाव स्थापित करने का प्रयास किया जाय। अफगानिस्तान के मामले में हस्तक्षेप किये बिना वहाँ के शासक को शक्तिशाली बनाया जाय, भारत और रूस के बीच अफगानिस्तान को एक मित्र देश माना जाय और भारत और रूस के प्रभाव की मध्य एशिया में स्पष्ट सीमा रेखा खींच दी जाय। रूस को यह बता दिया जाय कि अपने प्रभाव क्षेत्र में उसे जहाँ कुछ भी करने का अधिकार है, वहाँ उसे अफगानिस्तान के मामले में हस्तक्षेप करने का कोई अधिकार नहीं है। ब्रिटिश सरकार अफगानिस्तान के साथ आक्रामक या सुरक्षात्मक संधि करने के पक्ष में नहीं है, किन्तु इसका अर्थ यह भी नहीं है कि उसे अफगानिस्तान की सुरक्षा में रुचि नहीं है।

कुशल अकर्मण्यता की नीति प्रथम अफगान युद्ध की विफलता और सर्वनाश की प्रतिक्रिया थी। लार्ड नार्थब्रुक तक, विशेषकर सर जॉन लॉरेन्स के समय में इस नीति का अवलंबन किया गया। अफगान गद्दी पर दोस्त मोहम्मद के पुनर्स्थापित होने के बाद दस वर्षों तक अंग्रेजों ने 1855 और 1857 में दोस्त मोहम्मद से मैत्री संधियाँ की। 1855 की संधि के अनुसार अंग्रेजों ने अफगानिस्तान के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप न करने का आश्वासन दिया जबकि दोस्त मोहम्मद से मैत्री संधियाँ की।

1855 की संधि के अनुसार अंग्रेजों ने अफगानिस्तान के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप न करने का आश्वासन दिया, जबकि दोस्त मोहम्मद ने यह स्वीकार किया कि वह अंग्रेजों के मित्रों को अपना मित्र और शत्रुओं को अपना शत्रु समझेगा। 1856 ई. में जब फारस ने पुनः हेरात का घेरा डाला तब अँग्रेजों ने दोस्त मोहम्मद की सहायता की। इससे दोस्त मोहम्मद और अंग्रेजों के बीच मैत्री गाढी हो गयी और इसीलिए 1857 ई. में एक नई संधि की गयी । किन्तु जब 1862 ई. में दोस्त मोहम्मद ने अंग्रेजों की इच्छा के विरुद्ध हेरात पर आक्रमण कर 1863 ई. में उस पर अधिकार कर लिया तब दोनों के बीच मनमुटाव आरंभ हो गया। इसके थोङे दिनों बाद ही दोस्त मोहम्मद की मृत्यु हो गयी।

जनवरी, 1864 ई. में सर जॉन लॉरेन्स को भारत के वायसराय और गवर्नर-जनरल के पद पर नियुक्त किया गया। जॉन लॉरेन्स द्वारा पद ग्रहण करने के समय दोस्त मोहम्मद की मृत्यु हो जाने से अफगानिस्तान में कठिनाइयाँ प्रारंभ हो गयी थी। दोस्त मोहम्मद के 16 पुत्र थे जिनमें सत्ता के लिए संघर्ष होना अनिवार्य था। उसके उत्तराधिकार के प्रश्न से जुङे कुछ लोग थे। पहला तो शेरअली था, जो दोस्त मोहम्मद का तीसरा लङका था और जिसे उसके पिता ने अपना उत्तराधिकारी मनोनीत किया था तथा अँग्रेजों को उसने सहायता करने हेतु निवेदन किया था। इसके अलावा शेरअली के दो सौतेले भाई थे, एक अफजल, जो तुर्किस्तान का गवर्नर था और दूसरा अजीम, जो कोरम का गवर्नर था। इनसे उसके उत्तराधिकार को चुनौती मिलने की संभावना थी। शेरअली का छोटा विपितृज भाई अमीन, जो कंधार का गवर्नर था, कम महत्त्वपूर्ण नहीं था और न ही अफजल के पुत्र अब्दुर रहमान को अनदेखा किया जा सकता था।

दोस्त मोहम्मद की मृत्यु के बाद शेरअली अफगानिस्तान का अमीर बना, जिसे ब्रिटिश सरकार ने मान्यता प्रदान कर दी। जब जॉन लॉरेन्स गवर्नर जनरल बनकर भारत आया तब शेरअली ने प्रसन्नता व्यक्त करते हुए मार्च, 1864 ई. में अपने एक दूत के साथ उसे मैत्रीपूर्ण पत्र और छः हजार मस्केट भेंट के रूप में भेजे। अपने पत्र में शेरअली ने जॉन लॉरेन्स से उस मैत्री संधि का नवीनीकरण करने का निवेदन किया जो उसके पिता के काल में अंग्रेजों से की गयी थी। उसने यह भी निवेदन किया कि उसके पुत्र मुहम्मद अली को उसका उत्तराधिकारी स्वीकार किया जाय।

जॉन लॉरेन्स ने 4 मई, 1864 को इस पत्र का प्रत्युत्तर देते हुए उसे सूचित किया कि पूर्व में की गयी मैत्री संधि अभी भी बरकरार है तथा मुहम्मद अली को उसका उत्तराधिकारी स्वीकार कर लिया गया। किन्तु भेंट को अस्वीकार करते हुए शेरअली को वापिस लौटा दी।

अभी अफगान दूत वापिस लौटकर भी नहीं आया था कि अफजल और अजीम दोनों ने अपनी स्वतंत्रता की घोषणा कर दी। शेरअली ने अजीम को परास्त कर ब्रिटिश क्षेत्र में शरण लेने को बाध्य कर दिया, लेकिन उत्तर में अफजल अधिक शक्तिशाली सिद्ध हुआ। अफजल ने अपने आपको अमीर घोषित कर बोखारा के शासक से संधि करके शेरअली के लिए गंभीर कठिनाइयाँ पैदा कर दी। दोनों के बीच एक अनिर्णायक युद्ध हुआ। किन्तु शीघ्र ही शेरअली ने कुरान की शपथ लेकर अफजल से मैत्री कर ली, फिर भी शेरअली ने अचानक अफजल को बंदी बना लिया और उसे काबुल ले आया। अफजल का पुत्र अब्दुर रहमान बुखारा भाग गया। शेरअली की इस धोखेबाजी से अफजल के समर्थक उत्तेजित हो उठे, जिससे शेरअली की शक्ति को गहरा आघात लगा।

1865 ई. के आरंभ में अजीम ब्रिटिश क्षेत्र को छोङकर वजीरी की पहाङियों में घूमने लगा तथा शेरअली के लिए कठिनाइयाँ पैदा करने के अवसर तलाश करने लगा। अजीम ने कंधार में स्वतंत्र होने का प्रयास किया तथा ब्रिटिश सरकार से, उसे अमीर के रूप में मान्यता देने का आग्रह किया। इस पर जॉन लॉरेन्स ने यह कहकर उसके आग्रह को ठुकरा दिया कि ब्रिटिश सरकार अफगानिस्तान में एक ही शासक की सत्ता स्वीकार करती है और वह शेरअली ही है। इसकी सूचना शेरअली को भेज दी गयी। उसके बाद मई, 1865 ई. में शेरअली अजीम की शक्ति को कुचलने हेतु आगे बढा। दोनों सेनाओं के बीच कुजबाज नामक स्थान पर भीषण युद्ध हुआ।

किन्तु युद्ध समाप्त होने से पूर्व ही अमीन और मुहम्मद अली अकेले ही आपस में भिङ गये, जिसमें चाचा और भतीजा दोनों मारे गये । यद्यपि 6 जून, 1865 को शेरअली को इस युद्ध में विजय प्राप्त हुई किन्तु इस युद्ध में उसके उत्तराधिकारी पुत्र के मर जाने से वह पागल हो गया। इस स्थिति में वह महीनों पङा रहा, जिसके फलस्वरूप उसकी गद्दी भी उसके हाथ से निकल गयी।

अब्दुल रहमान, जो बुखारा भाग गया था, वहाँ के शासक से सहायता लेकर अपने पिता को मुक्त कराने के लिए काबुल की ओर रवाना हुआ। मार्ग में अजीम भी ससैन्य उससे जा मिला। दोनों की संयुक्त सेना ने 1866 ई. की बसंत ऋतु तक अफगानिस्तान की राजधानी पर अधिकार कर लिया। उनकी सफलता पर काबुल के ब्रिटिश एजेण्ट ने अजीम को बधाई दी, किन्तु इसके लिए भारत सरकार ने उसे फटकारा।

अजीम ने अपनी सफलता की सूचना अँग्रेजों को दी। इस पर जॉन लॉरेन्स ने अपने प्रत्युत्तर में अपनी अफगान नीती की व्याख्या करते हुए लिखा कि ब्रिटिश सरकार यह नहीं समझती कि शेरअली अंतिम रूप से परास्त हो गया है। वह अब भी उसे अफगान शासक मानती है, किन्तु यदि अन्ततः शेरअली पराजित हो जाता है तथा अजीम अपनी सत्ता स्थापित कर लेता है तो उसे उन स्थानों का शासक स्वीकार कर लिया जायेगा, जहाँ पर उसका अधिकार है। उसे यह भी स्पष्ट कर दिया गया कि अंग्रेज, उनके बीच होने वाले संघर्ष में किसी का भी पक्ष नहीं लेंगे और न ही किसी पक्ष की सहायता करेंगे। ब्रिटिश सरकार चाहती है कि अफगान अपनी समस्या का समाधान स्वयं करें। किन्तु ब्रिटिश सरकार उस राष्ट्र के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध बनाये रखने की इच्छुक रहेगी।

इसी बीच शेरअली ने अपने पागलपन से छुटकारा पा लिया तथा अपनी सेना लेकर आगे बढा। 10 मई, 1866 ई. को खेराबाद में एक लङाई हुई, जिसमें शेरअली विजय पाने वाला ही था कि उसकी कंधार रेजीमेण्ट शत्रुओं से मिल गयी शेरअली पराजित होकर कंधार की ओर भाग गया। बंदी अफजल को मुक्त करके उसे अमीर घोषित किया गया। अब शेरअली के अधिकार में केवल कंधार और हेरात ही रह गये। 30 मई, 1866 को अफजल ने जॉन लॉरेन्स को पत्र लिखकर उसे अफगानिस्तान के शासक के रूप में मान्यता प्रदान करने का निवेदन किया तथा दोस्त मोहम्मद के साथ की गई मैत्री-संधि को पुनः दुहराने का आग्रह किया। इस पर जॉन लॉरेन्स ने उसे उत्तर देते हुए लिखा कि उसकी इच्छा है कि अफजल की इच्छा पूरी करे, किन्तु शेरअली से संबंध समाप्त करना ब्रिटिश नीति के विरुद्ध होगा, क्योंकि उसने अँग्रेजों के विरुद्ध कुछ नहीं किया है और जिसके अधिकार में अब भी कंधार और हेरात हैं।

ऐसी परिस्थितियों में यदि अफजल ने काबुल में अपनी स्थिति ठीक कर ली है तो इसी स्थिति में मान्यता प्रदान कर दी जायेगी। उसके बाद शेरअली ने पुनः राजधानी जीतने का प्रयास किया, किन्तु 17 जुलाई, 1867 को वह अजीम और अब्दुर रहमान द्वारा पराजित कर दिया गया। शेरअली भागकर हेरात चला गया तथा अफजल ने कंधार पर अधिकार कर लिया, जिसकी सूचना उसने अँग्रेजों को दी। ब्रिटिश सरकार ने उसे काबुल और कंधार का शासक स्वीकार कर लिया तथा शेरअली को हेरात का शासक स्वीकार किया गया।

इसी बीच शेरअली ने अपने भाइयों के विरुद्ध, जॉन लॉरेन्स से सहायता की प्रार्थना की। शेरअली ने यह भी संकेत दिया कि यदि अंग्रेज उसकी सहायता नहीं करते तो वह फारस और रूस से सहायतार्थ निवेदन करेगा। जॉन लॉरेन्स ने इसका तुरंत उत्तर दिया और लिखा कि यदि वह अपने इच्छित कदम की ओर बढता है तो ब्रिटिश सरकार तुरंत काबुल के शासक का पक्ष लेगी और उसे आवश्यक हथियार भी प्रदान करेगी। लॉरेन्स ने लिखा कि, हमारा संबंध वर्तमान असली शासक के साथ होना चाहिये और जब तक वह असली शासक हमारा विरोधी न हो जाय, हमें उसके साथ वही संबंध बनाये रखने चाहिये जैसा कि उसके पूर्व के शासक के साथ हमारे संबंध रहे हैं।

शेरअली ने वैसे तो फारस और रूस से सहायता लेने की ओर संकेत किया था, लेकिन वह अपने इस प्रस्ताव के प्रति गंभी नहीं था, क्योंकि वह जानता था कि इससे अनेक दूसरी समस्याएँ उत्पन्न हो जायेंगी। अतः उसने अपने ही साधनों पर निर्भर करते हुए अपनी शक्ति संगठित की। भाग्य ने भी उसका साथ दिया, क्योंकि इसी बीच 7 अक्टूबर, 1867 ई. को अफजल की मृत्यु हो गयी। उसका उत्तराधिकारी अजीम हुआ। किन्तु न तो अफजल और न ही अजीम, जनता में लोकप्रिय हो सके। अजीम को तो अफजल से भी अधिक घृणा का सामना करना पङा। इसी बीच शेरअली ने अपने तुर्किस्तान के मित्रों की सहायता से शक्ति प्राप्त की और कंधार की ओर बढा, काबुल की सेनाओं को पराजित कर राजधानी पर पुनः अधिकार कर लिया। अजीम तुर्किस्तान भाग गया तथा जनवरी, 1869 ई. तक उसकी शक्ति पूर्णतः नष्ट हो गयी।

शेरअली निर्विवाद रूप से अफगान गद्दी पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया जिसकी सूचना उसने गवर्नर जनरल को भेज दी। गवर्नर जनरल जॉन लॉरेन्स ने उससे उसकी सफलता पर बधाई दी। अब जॉन लॉरेन्स ने अपनी अफगानिस्तान के प्रति नीति के दूसरे भाग पर कार्य आरंभ किया, जिसके अन्तर्गत अमीर की सद्भावना प्राप्त करने के लिए उसे शक्तिशाली बनाया जाना था, उसके नष्ट प्रायः राज्य में शांति स्थापित की जानी थी, उसके आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं किया जाना था और न ही उससे आक्रामक या रक्षात्मक समझौता किया जाना था, किन्तु उसके राज्य की सुरक्षा के प्रति जागरुक रहना था ताकि भारत और रूस के बीच एक मित्र-शक्ति को बनाये रखना था।

इस नीति पर अमल करते हुए जॉन लॉरेन्स ने अमीर को 60 हजार पौंड भेंट के रूप में भेजे और पर्याप्त हथियार भी भेजे। शेरअली ने इसके लिए गवर्नर जनरल के प्रति आभार प्रकट किया। वह गवर्नर जनरल से मिलने भारत आ ही रहा था, किन्तु तुर्किस्तान में कुछ कठिनाई पैदा हो जाने से उसे अपनी यात्रा स्थगित करनी पङी।

इसी बीच जॉन लॉरेन्स भारत से पद-मुक्त हो गया। अपना पद छोङने से पूर्व उसने अमीर को एक पत्र लिखा जिसमें 60 हजार पौंड की एक और भेंट देने को कहा तथा उसे आश्वासन दिया कि ब्रिटिश सरकार अफगानिस्तान के प्रति कोई आक्रामक उद्देश्य नहीं रखती। जॉन लॉरेन्स के इंग्लैण्ड चले जाने के बाद महारानी विक्टोरिया ने भी अमीर को पत्र लिखकर आश्वस्त किया कि अफगानिस्तान के प्रति ब्रिटिश नीति में कोई परिवर्तन नहीं होगा।

जॉन लॉरेन्स के जाने के कुछ समय बाद शेरअली ने भारत की यात्रा की और 27 मार्च, 1869 को अम्बाला में लॉरेन्स के उत्तराधिकारी लार्ड मेयो (1869-72) से मिला। इस अवसर पर शेरअली ने लार्ड मेयो से निवेदन किया कि उसे एक संधि द्वारा उसकी आवश्यकतानुसार शस्त्र एवं सैनिकों की सहायता देने के लिए आश्वस्त किया जाय, निश्चित वार्षिक आर्थिक सहायता दी जाय, अफगान गद्दी पर केवल उसी के वंशज को उत्तराधिकारी स्वीकार किया जाय उसके बङे लङके याकूबखाँ के स्थान पर उसके छोटे लङके अब्दुल जान को उसका उत्तराधिकारी स्वीकार किया जाय।

शेरअली की इन माँगों को स्वीकार करना लॉर्ड मेयो के लिये उत्यन्त कठिन था, लेकिन वह शेरअली की मैत्री को भी बनाये रखना चाहता था। अतः उसने शेरअली को समझाया कि ब्रिटिश सरकार अफगानिस्तान में किसी एक वंश से प्रतिबद्ध नहीं हो सकती, क्योंकि वहाँ की राजनीति में सदैव परिवर्तन होता रहता है। किन्तु लार्ड मेयो ने शेरअली को लिखित आश्वासन दिया कि ब्रिटिश सरकार उसे अपना नैतिक समर्थन देती रहेगी और आर्थिक सहायता भी देती रहेगी। लेकिन यह सब ब्रिटिश सरकार जब उचित समझेगी तभी अपना स्वयं का निर्णय लेकर करेगी। अमीर शेरअली पूर्णतया संतुष्ट होकर वापिस लौटा। कुछ समय बाद लार्ड मेयो ने अमीर को तोपखाने की दो बैटरियाँ और कुछ छोटे हथियार भेजे।

इससे अमीर इतना प्रभावित हुआ कि उसने वायसराय को लिखा कि, यदि खुदा ने चाहा तो, जब तक मैं जिन्दा हूँ या जब तक मेरी सरकार का अस्तित्व है, तब तक हमारी और शक्तिशाली ब्रिटिश सरकार के बीच मैत्री और सद्भावना की आधारशिला कभी कमजोर नहीं होगी।

इस प्रकार जॉन लॉरेन्स के उत्तराधिकारी लार्ड मेयो ने उसकी सतर्कतापूर्ण अहस्तक्षेप की नीति को जारी रखा। किन्तु थोङे ही दिनों बाद लार्ड मेयो की अफगान नीति की परीक्षा की घङी आ पहुँची। शेरअली के पुत्र याकूबखाँ ने विद्रोह करके हेरात पर अधिकार कर लिया। कुछ अधिकारियों ने मेयो को सलाह दी कि शेरअली की सहायतार्थ सेना भेजी जाय। किन्तु गृह सरकार के अनुमोदन से उसने ऐसा नहीं किया, क्योंकि शेरअली की सहायतार्थ सेना भेजने से याकूब अँग्रेजों से नाराज हो जायेगा, जिसकी आने वाले दिनों में अफगानिस्तान में महत्ता बढने वाली है।

फिर, यदि भेजे गये सैनिकों को पराजय का सामना करना पङा तो ब्रिटिश प्रतिष्ठा को आघात लगेगा और प्रथम अफगान युद्ध की स्थिति पैदा हो जायेगी। भाग्य से याकूब ने अपने पिता से क्षमा-याचना कर ली। लार्ड मेयो ने अवसर का लाभ उठाते हुए शेरअली को अपने पुत्र से समझौता करने की सलाह दी। अमीर ने उसकी सलाह को स्वीकार कर लिया। इससे वायसराय को प्रसन्नता हुई कि अँग्रेजों से की गयी मैत्री संधि के प्रति सावधान था। उसने अनुभव किया कि अँग्रेज केवल अपने हितों का ध्यान रखते हैं। उसे यह भी स्पष्ट हो गया कि आंतरिक संघर्ष में उसे स्वयं ही अकेले ही सब कुछ करना होगा।

अफगान नीति के मामले में लार्ड नार्थब्रुक (1872-76) ने जॉन लॉरेन्स से भी अधिक कुशल अकर्मण्यता की नीति का समर्थन किया और उसने इस नीति को दृढता से लागू किया।

कुशल अकर्मण्यता की नीति का मूल्यांकन

कुशल अकर्मण्यता की नीति की अनेक विद्वानों ने आलोचना की है। डॉडवेल ने लिखा है कि लॉरेन्स की नीति घटनाओं की प्रतीक्षा करने के अलावा कुछ नहीं थी। डॉडवेल ने लिखा है कि उसकी नीति उस पुराने सिद्धांत पर आधारित थी जिसके अन्तर्गत भारतीय राज्यों के प्रति अहस्तक्षेप की नीति अपनाई थी। लेकिन लॉरेन्स को यह मालूम नहीं था कि इन भारतीय राज्यों की सहायता की पुकार सुनने वाला कोई नहीं था, जबकि अफगानिस्तान के मामले में रूस और फारस थे जो अफगानिस्तान के किसी शासक की सहायता की अपील का स्वागत करने तथा परिस्थिति का लाभ उठाने को तत्पर थे।

डॉडवेल के अनुसार लॉरेन्स ने अनपी नीति की भ्रामकता को समझते हुए अंत में अपनी नीति में परिवर्तन कर अमीर शेरअली को आर्थिक एवं अस्त्रों की सहायता दी। परंतु डॉडवेल के अनुसार तब तक काफी देर हो चुकी थी। अब्दुर रहमान अफगानिस्तान से बाहर खदेङ दिया गया और उसने अँग्रेजों से अविश्वास करते हुए रूस में शरण ली। डॉ. मजूमदार तथा कुछ अन्य विद्वानों का कहना हा कि लॉरेन्स की नीति अँग्रेजों के लिए अलाभकारी थी। शेरअली, अपनी कठिनाई के समय अपने मित्रों से सहायता की आशा करता था, किन्तु अँग्रेजों ने उससे सच्ची मैत्री का परिचय नहीं दिया। इन लेखकों का कहना है कि इस समय लॉरेन्स को अग्रगामी नीति अपनाकर अफगानिस्तान में अँग्रेजों की शक्ति स्थापित कर लेनी चाहिये थी और इस क्षेत्र में बढने वाले रूसी प्रभाव पर हमेशा के लिए रोक लगा देनी थी।

इन सभी आलोचनाओं के बावजूद भी इस नीति का महत्त्व भी था। लॉरेन्स की घटनाओं की प्रतीक्षा करने की नीति निश्चित ही उसमें कूद पङने से अच्छी थी, क्योंकि उसमें कूद पङने से सर भी फूट सकता था और पछतावा भी हो सकता था। जहाँ तक अफगानिस्तान का रूस और फारस की ओर झुकने का प्रश्न था, उसके लिए अफगानिस्तान में हस्तक्षेप न करने की नीति से बेहतर नीति कोई हो भी नहीं सकती थी।

वास्तव में लॉरेन्स की नीति यह थी कि अफगानिस्तान में सबसे समर्थ व्यक्ति को सहायता दी जाय। वह लार्ड ऑकलैण्ड की तरह शाहशुजा जैसे कमजोर व्यक्ति का समर्थन कर वहाँ कठिन परिस्थितियाँ पैदा कर रूस और फारस को अफगानिस्तान में हस्तक्षेप करने का अवसर प्रदान करना नहीं चाहता था। जब तक अफगानिस्तान में सबसे योग्य व्यक्ति अपनी स्थिति ठीक न कर पाये, तब तक वहाँ के प्रत्येक शासक को स्वीकृति प्रदान करने में कोई हर्ज नहीं था, क्योंकि इससे हर एक संतुष्ट रहेगा और कोई भी रूस या फारस से सहायता नहीं माँगेगा। लॉरेन्स की नीति प्रारंभ से ही यह थी कि अफगानिस्तान के असली शासक को सहायता प्रदान की जाय और इस तरह जो धन और शक्ति लगाई जाय वह बेकार न जाय। लेकिन साथ ही वहाँ स्थिति इतनी खराब भी न होने दी जाय कि रूस या फारस को वहाँ हस्तक्षेप करना पङे।

रॉबर्ट्स ने ठीक ही लिखा है कि, इसमें कोई संदेह नहीं कि संपूर्ण रूप से लार्ड लॉरेन्स की नीति बुद्धिमतापूर्ण और दूरदर्शितापूर्ण थी।

उसकी अकर्मण्यता चाहे वह कुशल रही हो न रही हो, वैसे वह परिपक्व और समझ-बूझ वाली थी।

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