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औरंगजेब एवं राजपूत संबंध कैसे थे

औरंगजेब एवं राजपूत

औरंगजेब एवं राजपूत(Aurangzeb and Rajput)

सितंबर, 1657 ई. में शाहजहाँ की बीमारी व उसकी मृत्यु के झूठे समाचारों के कारण मुगल शाहजादों में उत्तराधिकार का युद्ध छिङ गया। इस उत्तराधिकार के युद्ध में विजयी होकर जुलाई 1658 ई. में औरंगजेब सिंहासनारूढ हुआ। औरंगजेब का मुख्य उद्देश्य भारत को इस्लामिक देश में परिवर्तित करना था।

अतः उसने निश्चय किया कि जब तक उसकी समस्त प्रजा इस्लाम धर्म में दीक्षित नहीं हो जायेगी, तब तक वह गैर मुसलमानों को उनके राजनैतिक एवं आर्थिक अधिकारों से वंचित रखेगा ताकि वे लाचार होकर इस्लाम धर्म को स्वीकार कर लें। अतः औरंगजेब ने अपने पूर्वजों द्वारा प्रतिपादित नीति का अंत कर दिया। अपनी इस धार्मिक कट्टरता के कारण उसने स्वामिभक्त राजपूतों को रुष्ट कर दिया।

औरंगजेब एवं राजपूत

यद्यपि औरंगजेब कट्टर सुन्नी मुसलमान था, लेकिन वह एक कुशल राजनीतिज्ञ भी था। पादसीन होने के बाद उसने साम्राज्य के बङे-बङे सरदारों को अपनी ओर मिलाने का प्रयास किया। सामूगढ के युद्ध में दारा की पराजय का समाचार मिलते ही आमेर के राजा जयसिंह ने आरंगजेब की सेवा में उपस्थित होकर उसकी अधीनता स्वीकार कर ली।

इसके तीसरे दिन रतलाम के राव रतन राठौङ के पुत्र रायसिंह को रतलाम का परगना व उचित मनसब देकर शाही दरबार में उपस्थित होने का आदेश दिया। इसी प्रकार किशनगढ, बून्दी और कोटा के शासकों को भी उचित सम्मान देकर शाही दरबार में बुलवाया गया।

उसने जोधपुर के शासक जसवंतसिंह को भी बुलवाया, लेकिन धरमत के युद्ध में औरंगजेब के विरुद्ध लङने के कारण जसवंतसिंह दरबार में उपस्थित होने से हिचकिचाया । परंतु जयसिंह के बीच-बचाव करने पर अगस्त, 1658 ई. को जसवंतसिंह ने भी शाही दरबार में उपस्थित होकर औरंगजेब की अधीनता स्वीकार कर ली।

उत्तराधिकार के युद्ध में मेवाङ के महाराणा राजसिंह ने औरंगजेब को अपना नैतिक समर्थन दिया था, अतः उसकी मनसब में वृद्धि कर, मेवाङ के दो परगने उसे लौटा दिये। दिसंबर, 1658 ई. के प्रारंभ में जब औरंगजेब अपने भाई शुजा का सामना करने ससैन्य रवाना हुआ तब जसवंतसिंह, बून्दी का भावसिंह, कोटा का जगतसिंह आदि अनेक राजपूत शासक उसके साथ थे।

खजुआ नामक स्थान पर जसवंतसिंह ने शुजा के साथ गुप्त समझौता कर शाही पङाव पर ही आक्रमण कर दिया तथा बहुत सा माल लूटकर जोधपुर की ओर चला गया। लेकिन औरंगजेब ने स्थिति संभाल कर शुजा को पराजित कर दिया। जसवंतसिंह के इस व्यवहार से औरंगजेब ने क्रुद्ध होकर मुहम्मद अमीनखाँ के नेतृत्व में एक सेना जोधपुर की ओर भेजी तथा इस सेना के साथ नागौर के राव अमरसिंह के पुत्र रायसिंह को भेजकर आदेश दिया कि जोधपुर से जसवंतसिंह को निकाल कर रायसिंह को जोधपुर की गद्दी पर बैठा दिया जाय।

शाही सेना के आगमन की सूचना मिलते ही जसवंतसिंह सिवाणा चला गया। उधर दारा भी अजमेर की ओर बढ रहा था। जसवंतसिंह ने दारा से कहलवाया कि उसके अजमेर पहुँचते ही वह अपने राठौङ सैनिकों के साथ दारा से आ मिलेगा। इसकी सूचना मिलते ही कूटनीतिज्ञ औरंगजेब ने जसवंतसिंह के प्रति विरोधी नीति त्याग कर शाही सेना को जोधपुर की ओर बढने से रोक दिया।

औरंगजेब के आदेशानुसार फिर जयसिंह ने बीच-बचाव कर जसवंतसिंह को मनसब व उच्च पद दिलाने का प्रलोभन दिया। फलतः जसवंतसिंह ने दारा की कोई मदद नहीं की और औरंगजेब की सेना ने अजमेर के निकट देवराई नामस स्थान पर मार्च, 1659 ई. में दारा को पराजित कर भगा दिया।

दूसरे दिन आरंगजेब ने जसवंतसिंह के सारे अपराध क्षमा कर, जोधपुर के राज्य सहित पहले वाला मनसब और गुजरात की सूबेदारी भी दे दी। बाद में जीवन भर जसवंतसिंह स्वामिभक्त रहा, किन्तु औरंगजेब ने उस पर कभी विश्वास नहीं किया।

बीकानेर के राव ने निरंतर विद्रोही रवैया अपनाया, जिससे औरंगजेब रुष्ट होकर राव कर्ण के पुत्र अनूपसिंह को, जिसकी अपने पिता से अनबन थी, बीकानेर की गद्दी पर बैठा दिया (27 सितंबर, 1667ई.)। आमेर के मिर्जा राजा जयसिंह ने साम्राज्य की पूर्ण निष्ठा से सेवा की तथा जून, 1665 ई. में छत्रपति शिवाजी को पुरंदर की संधि करने के लिये विवश किया,

फलस्वरूप उसके मनसब में वृद्धि की गयी, लेकिन उसके पुत्र रामसिंह की देखरेख में बंदी बनाकर रखे गये शिवाजी का वहाँ से भाग निकलने पर औरंगजेब ने जयसिंह से दक्षिण की सूबेदारी भी छीन ली। जयसिंह इस अपमान को सहन नहीं कर सका और इस सदमें में उसकी 28 अगस्त, 1667 ई. को मृत्यु हो गयी। मुगल दरबार में अब आमेर के राजघराने का महत्त्व घट गया।

जोधपुर के राजा जसवंतसिंह के प्रति संदेह एवं दुर्भावना के कारण जसवंतसिंह की मृत्यु के बाद उसके पुत्र एवं उत्तराधिकारी अजीतसिंह को जोधपुर का राज्य न देकर स्वयं ने हस्तगत करने के लिये सैनिक कार्यवाही की। फलस्वरूप राठौङों से मुगलों का सशस्र संघर्ष आरंभ हो गया। मेवाङ के महाराणा राजसिंह ने अजीतसिंह को आश्रय दिया, जिसके फलस्वरूप मुगलों का सिसोदियाओं से भी सशस्र संघर्ष आरंभ हो गया।

इन घटनाओं से राजपूतों के मन में मुगलों के प्रति घृणा उत्पन्न हो गयी। औरंगजेब के शासनकाल का अध्ययन करने से स्पष्ट हो जाता है कि इस काल में राजपूत-मुगल सहयोग की नींवें हिलने लग गयी थी। इस काल को राजपूत-मुगल सहयोग का अवसान काल कहा जा सकता है।

औरंगजेब ने राजपूत शक्ति को नष्ट करने का प्रयास किया था, लेकिन उसे अपने प्रयासों में सफलता नहीं मिली। मुगलों व राजपूतों के मध्य खाई चौङी हो गयी। औरंगजेब की मृत्यु के बाद मुगल साम्राज्य पतनोन्मुख होने लगा, क्योंकि औरंगजेब के बाद ऐसा कोई उत्तराधिकारी नहीं हुआ जो मुगल साम्राज्य को पुनर्जीवित कर सके।

राजपूत शासकों में सम्राट के प्रति आदर तथा विश्वास की भावना का तो पहले ही अंत हो चुका था, अब साम्राज्य की सत्ता का भय भी समाप्त हो गया। एकमात्र जोधपुर राजघराने की लङकी अंतिम बार मुगल सम्राट के साथ ब्याही गयी।

लेकिन अब राजपूत शासक मुगल साम्राज्य के आधार स्तंभ थे, वे ही अब साम्राज्य के विध्वंसक बन गये। यही कारण है कि 1739 ई. में जब भारत पर नादिरशाह का आक्रमण हुआ तब मुगल सम्राट मुहम्मदशाह ने, यद्यपि राजपूत शासकों को सहायता के लिये बुलाया, लेकिन राजपूत शासकों ने न तो इस निमंत्रण का उत्तर दिया और न साम्राज्य की रक्षा के लिये सहायता ही दी। फिर भी अभी तक राजपूत राजाओं ने मुगल सम्राट के साथ खुले रूप में राजनैतिक संबंध नहीं तोङे थे।

उन्होंने अब मुगल दरबार की गुटबंदी में शामिल होकर मुगल सम्राट की अपेक्षा अधिक प्रभावशाली अमीरों का साथ देना आरंभ किया, ताकि वे न केवल अपने स्वार्थ सिद्ध कर सकें बल्कि अपना व्यक्तिगत प्रभुत्व भी बढा सकें। डॉ. सतीशचंद्र ने उचित ही लिखा है कि, सामान्यतः राजपूत राजा मुगल साम्राज्य के विरुद्ध नहीं हुए थे।

उन्होंने मुगलों के प्रति अलगाव की नीति अपना ली थी। मुगलों की सर्वोच्च सत्ता विदा हो रही थी और मराठों का प्रभुत्व बढता जा रहा था। शक्तिशाली केन्द्रीय सत्ता के अभाव में राजपूत राज्यों में गृह युद्ध आरंभ हो गये। फलस्वरूप मराठों को राजपूतों के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करने का अवसर मिला और धीरे-धीरे संपूर्ण राजस्थान पर मराठों का प्रभुत्व स्थापित हो गया।

References :
1. पुस्तक - राजस्थान का इतिहास, लेखक- शर्मा व्यास
Online References
wikipedia : राजपूत-मुगल संबंध

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