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1773 का रेग्युलेटिंग एक्ट क्या था

रेग्युलेटिंग एक्ट

1773 का रेग्युलेटिंग एक्ट (What was the Regulating Act of 1773)- सन 1600 ई. में इंग्लैण्ड के कुछ व्यापारियों ने महारानी एलिजाबेथ से भारत के साथ व्यापार करने का एकाधिकार प्राप्त कर ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना की। प्रारंभ में अंग्रेजों को पुर्तगालियों, डच, फ्रांस की कंपनियों से व्यापारिक प्रतिस्पर्धा करनी पङी तथा बाद में फ्रांसीसियों से अंग्रेजों की भारत में साम्राज्य स्थापित करने के लिए प्रतिस्पर्धा हुई। 1760 में वेण्डीवाश के युद्ध में फ्रांसीसियों की पराजय हुई और भारत में साम्राज्य स्थापित करने के उनके स्वप्न का सदा के लिए अंत हो गया।

1773 का रेग्युलेटिंग एक्ट

इसके पूर्व 1757 की प्लासी युद्ध की विजय से भारत में क्लाइव द्वारा अंग्रेजी शासन की नींव रखी गयी थी। 1765 की इलाहाबाद की संधि द्वारा ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी को बंगाल, बिहार और उङीसा की दीवानी प्राप्त हो गयी और वहाँ दोहरे शासन का प्रारंभ हुआ, जो 1772 तक चलता रहा।

रेग्युलेटिंग एक्ट (1773 ई.)

कंपनी के शासन की बुराइयों को दूर करने के लिए 1773 में ब्रिटिश संसद ने रेग्युलेटिंग एक्ट पारित किया, जिसके द्वारा परिवर्तन निम्न प्रकार किए गए-

गवर्नर जनरल की शक्तियों में वृद्धि

बंगाल की प्रेसीडेन्सी को बम्बई एवं मद्रास की प्रेसीडेन्सियों से उच्चतर कर दिया गया। बंगाल के गवर्नर को गवर्नर जनरल बना दिया गया, जिसकी मदद के लिए चार सदस्यों की परिषद बनाई गई। गवर्नर-जनरल एवं परिषद को यह अधिकार दिया गया कि वह कंपनी के क्षेत्रों एवं अधीनस्थ राज्यों की शासन-व्यवस्था के लिए नियम बनावे व अध्यादेश जारी करें, जो सर्वोच्च न्यायालय में पंजीकृत होने के उपरांत लागू हों, किन्तु दो वर्ष के अंदर ब्रिटिश सम्राट उन नियमों को रद्द भी कर सकता था।

सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना

इस एक्ट के अन्तर्गत एक सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना कलकत्ता में की गयी, जिसको फौजदारी दीवानी तथा धार्मिक क्षेत्रों में ब्रिटिश प्रजा, नाविक एवं कंपनी के कर्मचारियों पर पूर्ण न्यायिक दायित्व सौंपा गया । यह न्यायालय भारतीय ब्रिटिश प्रथा के अनुबंधों से संबंधित मुकदमे भी सुन सकता था और यहीं से सम्राट को अपीलें भेजी जा सकती थी।

वित्तीय मामलों में सुधार

रेग्यूलेटिंग एक्ट द्वारा यह प्रावधान रखा गया कि भारत के राजस्व से संबंधित सारे मामले कंपनी के संचालकों द्वारा ब्रिटिश वित्त विभाग के समक्ष रखे जाएंगे तथा सैनिक एवं गैर-सैनिक मामले राज्य सचिव के सम्मुख रखे जायेंगे। गवर्नर जनरल की एवं न्यायाधीशों की वेतन वृद्धि, कर, रिश्वत, भेंट आदि पर रोक लगाई गयी। कंपनी के व्यापारियों पर निजी व्यापार के संबंध में अंकुश लगाए गए। ब्रिटिश प्रजाजनों द्वारा 12 प्रतिशत से अधिक ब्याज न लेने का भी प्रावधान रखा गया।

कार्यकाल में परिवर्तन

कंपनी के संचालकों का कार्यकाल एक वर्ष से बढाकर चार वर्ष कर दिया गया। संचालक मंडल के 24 सदस्यों में से 6 को प्रतिवर्ष सेवा निवृत्त करने की व्यवस्था की गयी।

रेग्युलेटिंग एक्ट के दोष – रेग्युलेटिंग एक्ट में कुछ दोष मौलिक थे तथा कुछ व्यावहारिक। इनमें से मुख्य निम्न प्रकार से थे-

  • संचालकों के निर्वाचन के लिए मतदाताओं की संख्या घटाकर तथा बङे हिस्सेदारों को एक से अधिक मत देकर भ्रष्टाचार को प्रोत्साहन दिया गया। संचालक समिति अब व्यावहारिक रूप से 30 सदस्यों की समिति हो गयी जिनमें से 6 वर्ष का अवकाश प्राप्त किए हुए रहते थे।
  • बंगाल के गवर्नर जनरल का बम्बई और मद्रास सरकार पर नियंत्रण अधूरा था। न केवल बम्बई और मद्रास को संचालकों से सीधे संपर्क तथा आदेश प्राप्त करने का अधिकार था, बल्कि उन्हें सामान्य नीति संचालन की भी पूरी स्वतंत्रता थी। केवल भारतीय नरेशों से युद्ध और संधि करने में पूर्व अनुमति की आवश्यकता थी। इससे कालांतर में कठिनई पैदा हुई जबकि बंगाल को बंबई सरकार की नीति के फलस्वरूप मराठों से युद्ध में फंसना पङा।
  • सुप्रीम कोर्ट की स्थापना से एक नई कठिनाई पैदा हो गयी क्योंकि इसे सर्वोच्च न्यायिक अधिकार दिए गए थे और गवर्नर जनरल की कौंसिल के कार्यकारिणी और व्यवस्थापिका से संबंधित सर्वोच्च अधिकार प्राप्त थे। इन दोनों में कौन सर्वोपरि था? यह निश्चित हनीं था।
  • इंग्लैण्ड सरकार ने गवर्नर जनरल की कौंसिल के सदस्यों को नियुक्त करके कंपनी की नीति पर नियंत्रण करने का प्रयत्न किया। यह प्रयत्न असफल तथा अधूरा रहा।

रेग्युलेटिंग एक्ट का महत्त्व

पार्लियामेंट में एक्ट पास करते समय इसकी बङी आलोचना हुई। प्रसिद्ध वक्ता एडमंड बर्क ने इस नियम को राष्ट्रीय न्याय, विश्वास और अधिकार का उल्लंघन कहा। हाउस ऑफ लार्ड्स के कुछ सदस्यों ने इस नियम को इंग्लैण्ड के संविधान का उल्लंघन कहा। उपरोक्त दोनों आलोचनाओं का अभिप्राय यह था कि कंपनी की स्वायत्तता तथा अधिकार पहले पार्लियामेंट और सम्राट द्वारा दिए हुए थे उनको वापस लेकर संशोधन करना अनुचित था।

यह युग जार्ज तृतीय की बढती हुई निरंकुशता का समय था। बहुत से सांसद इस प्रवृत्ति के समर्थक नहीं थे। यह एक्ट कंपनी की व्यवस्था सुधारने का पहला प्रयत्न था और इस दृष्टि से कुछ दोष रह जाने स्वाभाविक थे। कुछ दिशाओं में यह अधिनियम अत्यधिक अस्पष्ट तथा अनिश्चित था। भारत में कंपनी की तीनों प्रेसिडेंसियों को एक केन्द्र के अधीन करने का यह पहला प्रयास था। पार्लियामेंट का नियंत्रण भी निश्चित रूप से स्थापित नहीं हुआ था। इस एक्ट के द्वारा कंपनी के राजनीतिक लक्ष्य तथा अस्तित्व को स्पष्ट रूप से स्वीकार कर लिया गया था।

1774-83 ई. के मध्य विभिन्न घटनाओं ने इस एक्ट के व्यावहारिक दोषों को स्पष्ट किया। कौंसिल के बहुमत मात्र के आधार पर नीति संचालन से गवर्नर जनरल को विभिन्न अवसरों पर कठिनाई का सामना करना पङा था। बंबई और मद्रास सरकार को निश्चित रूप से बंगाल सरकार के अधीन करना अधिक आवश्यक हो गया था। सुप्रीम कोर्ट के संदर्भ में दोषों को 1781 ई. के एक नियम द्वारा दूर कर दिया गया और उसके कार्य क्षेत्र की भी अधिक स्पष्ट रूप से व्याख्या कर दी गयी।

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