वैदिक काल में हम गणित शास्त्र के विकसित होने का प्रमाण प्राप्त करते हैं। इस दृष्टि से सूत्र-काल (लगभग ई.पू.600-400) महत्त्वपूर्ण हैं। इसमें कल्पसूत्र के अंदर आने वाला शुल्व-सूत्र विशेष महत्त्व का है। शुल्व का शाब्दिक अर्थ नापना होता है।
यज्ञों में वेदियाँ और मंडप बनाये जाते थे। वेदी की आकृति विभिन्न थी – वर्ग, समचतुर्भुज, समबाहु समलंब, आयत, समकोण त्रिभुज आदि।इन्हें तैयार करने के लिये नाप-जोख की आवश्यकता पङती थी। इस कार्य के लिये जो विधि-विधान बनाये गये उन्हें शुल्व सूत्रों में लिखा गया।
वस्तुतः ये सूत्र ही भारत के गणितशास्त्र में प्राचीनतम ग्रंथ कहे जा सकते हैं, जिनमें हम ज्यामिति अथवा रेखागणित संबंधी ज्ञान को अत्यन्त विकसित पाते हैं। गौतम बौधायन, आपस्तम्भ, कात्यायन, मैत्रायण, वाराह, वसिष्ठ आदि प्राचीन सूत्रकार हैं। रेखागणित संबंधी सिद्धांतों के प्रतिपादन तथा विकास का श्रेय बौद्धायन को ही दिया जाता है।उन्होंने ही सबसे पहले √2 जैसी संख्याओं को अपरिमेय मानते हुए उनका अदिकतम शुद्ध मूल्य ज्ञात किया था।
यूनानी दार्शनिक पाइथागोरस (540 ई.पू.) के नाम से प्रचलित प्रमेय जिसके अनुसार समकोण त्रिभुज के कर्ण पर का वर्ग शेष दो भुजाओं पर बने पर बने वर्गों के योग के बराबर होता है। का ज्ञान बौद्धायन ने वृत्त को वर्ग तथा वर्ग को वृत्त में बदलने का नियम प्रस्तुत किया तथा त्रिभुज, आयत,समलंब चतुर्भुज जैसी रेखागणित की आकृतियों से वे पूर्ण परिचित थे।
यजुर्वेद में अग्नि की स्तुति के संबंध में एक (1),दस (10), शत(100), सहस्त्र (1000),अयुत (10,000),नियुत (1,00000), प्रयुत (10,00000),अर्बुद (1,0000000), न्यर्बुद (10,0000000),समुद्र (1,000000000), मध्य (10,000000000),अंत (1,00000000000) तथा परार्ध(1000000000000) जैसी संख्याओं का उल्लेख मिलता है।
विष्णु पुराण में वर्णित है, कि एक स्थान से दूसरे स्थान का मान दस गुना होता है, तथा अठारहवें स्थान की संख्या को परार्ध कहते हैं।
इस प्रकार स्पष्ट है, कि एक से दस तथा दस पर आधारित अन्य संख्याओं के संबंध में दशमिक पद्धति का ज्ञान वैदिककालीन भारतीयों को था। लेकिन अंक चिन्हों के साथ इस पद्धति का प्रयोग सर्वप्रथम बक्षाली पाण्डुलिपि (तीसरी-चौथी शता.ईस्वी) में ही प्राप्त होता है।
बक्षाली, पाकिस्तान के पेशावर के समीप एक ग्राम है। यहीं से 1881 ई. में एक किसान को खुदाई करते समय खंडित अवस्था में यह पाण्डुलिपि प्राप्त हुई थी। समकालीन गणित की स्थिति पर प्रकाश डालने वाला यह एकमात्र ग्रंथ है। इसमें न केवल भाग, वर्गमूल, अंकगणितीय एवं ज्यामितीय श्रेणियों जैसे प्रारंभिक विषयों की व्याख्या है, अपितु यह कुछ विकसित विषयों जैसे सम्मिश्र श्रेणियों के योग, समरेखीय समीकरणों तथा प्रारंभिक द्विघात समीकरणों जैसे विकसित विषयों पर भी प्रकाश डालता है।
सूत्रकाल के बाद ज्यामितीय सिद्धांतों का विकास गुप्तकाल के गणितज्ञ आर्यभट्ट द्वारा किया गया, जिनकी सुप्रसिद्ध रचना आर्यभट्टीयम है। इसमें अंकगणित, ज्यामिति, बीजगणित तथा त्रिकोणमिति के सिद्धांत दिये गये हैं। यह वृत्तों, त्रिभुजों, चतुर्भुजों और ठोसों के कुछ महत्त्वपूर्ण गुणधर्मों का संकेत भी करता है।
वृत्त के क्षेत्रफल के विषय में उनका कहना है, कि यह परिधि तथा व्यास के आधे का गुणनफल (1/2 परिधि ×1/2व्यास )होता है। त्रिभुज के क्षेत्रफल के विषय में उनका कहना है, कि यह आधार तथा समन कोटी के गुणनफल का आधा है। उन्होंने पाई का आसन्न मान 22/7 अर्थात् 3.1416 बताया है, जो इस समय भी शुद्धतम है।
आर्यभट्ट ने अंकसंख्याओं का उल्लेख करते हुये उसमें गणना की दशमिक पद्धति का प्रयोग किया है। यह प्रथम नौ संख्याओं के स्थानीय मान तथा शून्य के प्रयोग पर आधारित था। वस्तुतः शून्य तथा दशमिक पद्धति की खोज जो अब समस्त विश्व में स्वीकृत है, भारतीयों की गणित क्षेत्र में महानतम् उपलब्धि है।
बहुत समय तक यह माना जाता रहा कि संख्याओं के दशमलव सिद्धांत का आविष्कार अरबवासियों ने किया था, किन्तु तथ्य यह नहीं है। अरबवासी स्वयं गणित को हिन्दसा अथवा हिन्दिस्त (भारतीय विद्या) कहते थे। अब यह स्पष्ट हो चुका है, कि दशमलव अंकन प्रणाली तथा अन्य गणितशास्त्र मुसलिम जगत ने या तो पश्चिमी भारत के समुद्री व्यापारियों से अथवा सिन्ध विजेता अरबों (712ई.) के माध्यम से सीखा था।
इस संबंध में पश्चिमी संसार भारत का चिरऋणी है। वह अज्ञान व्यक्ति जो इस नवीन सिद्धांत का जन्मदाता था, संसार के मतानुसार महात्मा बुद्ध के पश्चात हुआ था, प्रथम श्रेणी के विश्लेषणात्मक मस्तिष्क की उपज थी और जितना सम्मान उसे आज तक प्राप्त हुआ है उससे कहीं अधिक का वह अधिकारी था। इब्नवशिया (9 वीं शती), अलमसूदी (दशमी शती) तथा अलबरूनी (12वीं शती)जैसे अरब लेखक इस पद्धति के आविष्कार का श्रेय हिन्दुओं को ही देते हैं।
आर्यभट्ट के बाद ब्रह्मगुप्त (सातवीं शती)का नाम आता है। वे भिनमल निवासी विण्णु के पुत्र थे। उनकी प्रसिद्ध कृति ब्रह्मस्फुट सिद्धांत 628 ई. में लिखी गयी। इसमें वित्तीय चतुर्भुजों, वर्गों, आयतों, आदि की परिभाषा तथा व्याख्या के लिये अनेक सूत्र दिये गये हैं।वृत्तीय चतुर्भुजों के क्षेत्रफल को 21 वें श्लोक में, टालमी प्रमेय को 28 वें श्लोक में, सूची स्तंभ और छिन्नक के आयतन को 45 वें एवं 46 वें श्लोक में उन्होंने वर्णित किया है।
ब्रह्मगुप्त के बाद महावीर (नवीं शती) तथा भास्कर अथवा भास्कराचार्य (12 वीं शती) जैसे प्रसिद्ध गणितज्ञों का नाम आता है। इन्होंने जो अनुसंधान किये उनके विषय में पश्चिमी जगत पुनर्जागरण काल अथवा उसके बाद तक नहीं जानता था। महावीर ने अत्यन्त सुबोध शैली में विविध प्रकार के वृत्तों का क्षेत्रफल निकालने की ठोस प्रणाली का प्रवर्त्तन किया तथा वर्ग समीकरण एवं अन्य प्रकार के अनिश्चित समीकरणों का हल निकालने में वे निपुण थे।
गणितज्ञ भास्कर खानदेश (महाराष्ट्र) के निवासी थे, जिनका सुप्रसिद्ध ग्रंथ सिद्धांत शिरोमणि है। इसके चार भाग हैं – लीलावती, बीजगणित, ग्रहगणित तथा गोला। अंतिम में मुख्यतः खगोल का वर्णन है। कुछ विद्वान लीलावती तथा बीजगणित को स्वतंत्र ग्रंथ मानते हैं। भास्कराचार्य ने लीलावती के क्षेत्र व्यवहार नामक अध्याय में निम्न प्रकरणों पर लिखा है – समकोण त्रिभुजों पर प्रश्न, त्रिभुजों, चतुर्भुजों के क्षेत्रफल, वृत्तों के क्षेत्रफल और पाई का मान, गोलों के तत्त्व और आयतन।
भास्कर ने शुल्व प्रमेय (पाइथागोरस प्रमेय)की उपपत्ति दी है। लीलावती अंकगणित और महत्वमानव (क्षेत्रफल, घनफल)का स्वतंत्र ग्रंथ है, जिसमें पूर्णांक और भिन्न, त्रैराशिक, ब्याज, व्यापार गणित, मिश्रण, श्रेणियां, क्रमचय, मापिकी और थोङी बीजगणित भी है। लीलावती को पाटी गणित भी कहते हैं।
चूंकि प्राचीनकाल में गणना पाटी पर धूल बिछाकर उंगली या लकङी से की जाती थी। यद्यपि अनिर्णीत समीकरणों का अध्ययन आर्यभट्ट प्रथम के समय से ही आरंभ हो गया था, लेकिन भास्कर ने उसे चरम तक पहुँचाया। अपने महत्त्वपूर्ण ग्रंथ बीजगणित में भास्कर ने 213 पद्य लिखे हैं।
वर्णित विषय हैं – धनर्ण (धनात्मक) संख्याओं का योग, करणी संख्याओं का योग, कुट्टक (भाजक और भाज्य) की प्रक्रिया, वर्ग प्रकृति, एक-वर्ग समीकरण, अनेक – वर्ग समीकरण आदि। भास्कर ने अनिर्णित वर्ग समीकरण के हल की जो विधि दी है, उसे चक्रवात विधि की संज्ञा दी गयी और यह खोज जो भास्कर ने 12 वीं शती में की, उसे 16 वीं शतीमें पाश्चात्य गणितज्ञों ने खोजा। सिद्धांत शिरोमणि में सबसे महत्त्वपूर्ण निरंतर गति का विचार है।
यह अरबों द्वारा बारहवीं शताब्दी में यूरोप में फैलाया गया। इसी से कालांतर में शक्ति तकनीक का विकास हुआ। न्यूटन से शताब्दियों पूर्व भास्कर ने पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण सिद्धांत का पता लगा लिया था। भासक्र ने बताया कि पृथ्वी का कोई आधार नहीं है और यह केवल अपनी शक्ति से स्थिर है।
गुरुत्वाकर्षण को स्पष्ट करते हुये वे लिखते हैं- पृथ्वी में आकर्षण शक्ति है, जिसके द्वारा बलपूर्वक वह सभी वस्तुओं को अपनी ओर खींचती है। वह जिसे खींचती है, वह वस्तु भूमि पर गिरती हुई प्रतीत होती है। वे शून्य तथा अनन्त का निहितार्थ भलीभांति समझते थे। गणित द्वारा उन्होंने यह सिद्ध किया कि शून्य वस्तुतः अनन्त है, जो कभी भी विभाजित नहीं होता।
इसे किसी राशि में जाङने अथवा इसमें कोई राशि जोङने या फिर किसी राशि में से घटाने से राशि चिह्न में कोई परिवर्तन नहीं होता। शून्य को किसी राशि से गुणा करने पर गुणनफल शून्य ही रहेगा किन्तु राशि को शून्य से भाग देने से फल खहर अथवा खछेद होता है।
यही खहर आज का अनंत (∞) है। इस प्रकार शून्य का कितना भी विभाजन किया जाय वह अनंत ही रहेगा । भास्कर ने इसे इस समीकरण द्वारा स्पष्ट किया ∞/x = ∞ । भारत में इस अनन्तता की अनुभूति ब्रह्म अथवा आत्मा के संबंध में वेदान्तियों द्वारा शताब्दियों पूर्व की जा चुकी थी, जहाँ बताया गया है, कि पूर्ण से पूर्ण निकालने पर पूर्ण ही शेष रहता है।
इस प्रकार की स्पष्ट अवधारणा क्लासिकल गणितज्ञों की कभी नहीं रही। वस्तुतः शून्य तथा अनंत ही आधुनिक गणित के आधार हैं। इस प्रकार नवीन अंकन पद्धति, शून्य तथा दाशमिक पद्धति का आविष्कार गणित क्षेत्र में प्राचीन भारतीयों की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण उपलब्धियां हैं।
अपनी जिन महत्त्वपूर्ण खोजों तथा आविष्कारों के ऊपर यूरोप के लोग इतना गर्व करते हैं, उनमें से अधिकांश विकसित गणितीय पद्धति के बिना संभव नहीं थे और यदि उन्होंने रोम की भारी भरकम अंक पद्धति को अपनाया होता तो और भी असंभव होते। भास्कर के बाद भारत में गणित शास्त्र का कोई मौलिक लेखक नहीं हुआ। मुगल काल में शेख फैजी (1587 ई.)ने लीलावती का फारसी अनुवाद प्रस्तुत किया। तत्पश्चात उनकी कृतियों का अंग्रेजी अनुवाद भी हुआ।
References : 1. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, लेखक- के.सी.श्रीवास्तव
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