इतिहासप्राचीन भारत

भारत तथा तिब्बत के संबंध

भारत तथा तिब्बत के संबंध

पामीर के पठार से आच्छादित तिब्बत एक दुर्गम एवं हिम मंडित पहाङी प्रदेश है। यह तीन बङे क्षेत्रों में विभक्त हैं, जिन्हें छोलखा कहा जाता है। महाभारत एवं कालिदास के रघुवंश महाकाव्य में तिब्बत का उल्लेख त्रिविष्टप नाम से मिलता है, लेकिन इसके साथ भारत का संपर्क वस्तुतः बौद्ध धर्म के माध्यम से ही हुआ।

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तिब्बत का प्रचीन इतिहास अंधकारपूर्ण है। सर्वप्रथम सातवीं शताब्दी में इसके विषय में संसार को कुछ ज्ञान हुआ। इस समय तिब्बत में सांग सनगम्पो नामक एक अत्यन्त शक्तिशाली राजा हुआ, जिसने मध्य एशिया पर आक्रमण कर वहाँ अपना अधिकार स्थापित कर लिया। नेपाल पर भी उसका अधिकार था।

उसने चीन तथा नेपाल की राजकुमारियों के साथ अपना विवाह किया। उसी के समय में तिब्बत में बौद्ध धर्म का प्रचार – प्रसार हुआ। कहा जाता था,कि ये राजकुमारियां अपने साथ बुद्ध की प्रतिमायें लेकर गयी थी। इससे गम्पो के मन में इस धर्म के प्रति आस्था उत्पन्न हुई।

और उसने थोनमि संभोट नामक विद्वान को अभिलेख, भाषा विज्ञान तथा व्याकरण के अध्ययन के लिये भारत भोजा। अध्ययनोपरांत वापस लौटकर उसने तिब्बती भाषा के लिये एक वर्णमाला तथा व्याकरण का आविष्कार किया। थंभोटि को तिब्बती साहित्य का जनक कहा जाता है।

सांगम्पो का उद्देश्य भारतीय बौद्ध ग्रंथों का तिब्बती में अनुवाद तैयार कराकर उसे लोकप्रिय बनाना था। इसके पूर्व तिब्बत के लोग बौद्ध धर्म को मानते थे तथा जादू-टोना, भूत-प्रेत सहित अनेक प्राकृतिक शक्तियों की पूजा करते थे, एवं नाना प्रकार के अंधविश्वासों से ग्रसित थे। बौद्ध धर्म को देशव्यापी बनाने के उद्देश्य से राजा ने नालंदा एवं औदंतपुरी विश्वविद्यालयों से क्रमशः शांतरक्षित एवं पद्मसंभव को तिब्बत आमंत्रित किया।

इन विद्वानों ने नालंदा एवं औदंतपुरी विश्वविद्यालयों से क्रमशः शांतरक्षित एवं पद्मसंभव को तिब्बत आमंत्रित किया। इन विद्वानों ने वहाँ जाकर बौद्ध धर्म को साथ-साथ शिक्षा, साहित्य, लिपि, कला, विज्ञान, औषधि, तंत्र विज्ञान आदि के विकास का मार्ग प्रशस्त कर दिया। इनके निर्देशन में वहाँ विहार का निर्माण हुआ। तिब्बत में बौद्ध धर्म की नींव को सुदृढ करने का काम पद्मसंभव ने ही किया, जो तंत्र विद्या में निष्णात थे।

यहाँ बौद्ध मत की वज्रयान शाखा का प्रचार-प्रसार हुआ। यद्यपि प्राचीन तिब्बती समाज में तंत्र-मंत्र प्रथायें थी, लेकिन बौद्ध धर्मानुयायी आज भी पद्मसंभव को अपना गुरु मानते हैं। ग्यारहवीं शती में विक्रमशिला के महान आचार्य अतीश दीपंकर यहाँ पहुंचे तथा सत्रह वर्षों तक निवास कर बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार का महान कार्य किया। इस प्रकार सातवीं से पन्द्रहवीं शती तक तिब्बत के प्रत्येक भाग में बौद्ध धर्म व्यापक रूप से फैल गया। तिब्बती लोग आज भी गर्व से अपने धर्म को बुद्ध का धर्म कहते हैं।

धर्म के साथ-साथ कुछ अन्य क्षेत्रों में भी भारतीय प्रभाव दिखाई देता है। तिब्बती लिपि का अविष्कार नालंदा विश्वविद्यालय में हुआ। भारतीय शिक्षा प्रणाली को भी तिब्बत में अपनाया गया। वहां के मठों एवं विहारों का निर्माण भारतीय विहारों के अनुकरण पर किया गया। समय – विहार के वास्तु पर नालंदा एवं ओदंतपुरी की वास्तुकला की छाप है।

तिब्बत में विद्यमान विशाल मंदिर एवं मूर्तियां स्पष्टतः भारतीय हैं। बौद्ध मूर्तियों के साथ-साथ नवग्रह, शिव, इन्द्र, गणेश, सरस्वती, काली आदि की मूर्तियां भी भारतीय परंपरा एवं प्रभाव की देन है। मठों, मंदिरों की दीवारों एवं वस्त्रों पर जल मिश्रित रंगों से जो चित्रकारियां की गयी हैं, वे भी भारतीय हैं।

विक्रमशिला के आदर्श पर निर्मित साक्या विहार लंबे समय तक राजनीति एवं धर्म का केन्द्र बना रहा। अन्य तिब्बती मठों एवं विहारों में बौद्ध धर्म के प्रचार के लिये भारतीय विश्वविद्यालयों की व्यवस्था को ही अपनाया गया। औषधि विज्ञान में भी यह कहा गया है, कि शरीर के साथ-साथ मन, इन्द्रियों तथा आत्मा के प्रसन्न होने पर ही व्यक्ति पूर्ण स्वस्थ होता है।

इस प्रकार तिब्बती संस्कृति के विविध पक्षों पर भारतीय प्रभाव स्पष्टतः परिलक्षित होता है। तिब्बतियों ने बौद्ध की वज्रयान शाखा के मूल संस्कृत ग्रंथों का अनुवाद आज भी सुरक्षित रखा है, जो भारत में प्राप्त नहीं है। इन्हीं के माध्यम से आज विश्व को इस सम्प्रदाय के विषय में जानकारी हो सकती है।

आज तिब्बत चीन के अधीन है। वहाँ के शासक चौदहवें दलाई लामा अपने अनुयायियों के साथ हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला में निर्वासित जीवन व्यतीत करते हुये विश्व शांति एवं सद्भाव के लिये बौद्ध धर्म की ज्योति जगाते हुये हैं।

References :
1. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, लेखक- के.सी.श्रीवास्तव 

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