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आंग्ल- मराठा संघर्ष (युद्ध)(Anglo-Maratha struggle ) के कारण

आंग्ल-मराठा संघर्ष

आंग्ल- मराठा संघर्ष

आंग्ल- मराठा संघर्ष

आंग्ल- मराठा संघर्ष – भूमिका-

भारत में तीन आंग्ल-मराठा संघर्ष हुए हैं। ये तीनों युद्ध 1775 ई. से 1818 ई. तक चले। ये युद्ध ब्रिटिश सेनाओं और मराठों के बीच हुए थे। इन युद्धों का परिणाम यह हुआ कि मराठाओं का पूरी तरह से पतन हो गया। मराठों में पहले से ही आपस में भेदभाव थे, जिस कारण वह अंग्रेजों के विरुद्ध नहीं लङ सके।

प्रथम आंग्ल-मराठा संघर्ष(First Anglo-Maratha War)1775-1782ई.

प्रथम आंग्ल-मराठा युद्ध के कारण-

  • प्रथम आंग्ल-मराठा युद्ध (pratham aangl-maraatha yuddh) का प्रमुख कारण मराठों के आपसी झगङे तथा अंग्रेजों की महत्त्वाकाक्षाएं थी।
  • मुगलों के पतन के समय भारत में मराठा शक्ति उदित हो रही थी।अतः जो शक्ति भारत में प्रमुख स्थान प्राप्त कर रही थी, उसका अंग्रेजोंं से संघर्ष होना स्वाभाविक था।

प्रथम आंग्ल-मराठा संघर्ष की भूमिका- कंपनी सदैव इस बात का ध्यान रखने लगी कि वह ऐसा कोई कार्य न करे, जिससे मराठों के साथ संघर्ष करना पङे।फिर भी कंपनी अपनी नीतियों को कार्यान्वित करने का प्रयास करती रही। 1758 ई. में अंग्रेजों व मराठों के बीच एक समझौता हुआ, जिसके अनुसार अंग्रेजों ने मराठों से दस गाँव प्राप्त किये तथा मराठा क्षेत्र में कुछ व्यापारिक सुविधाएं भी प्राप्त की।

1759 ई. में ब्रिटिश अधिकारी प्राइस ( prais ) व थामस वॉट्सन(Watson) पूना गये।इन दोनों का उद्देश्य मराठों से सालसेट व बसीन प्राप्त करना था।इस बार भी सालसेट व बसीन के संबंध में कोई समझौता नहीं हो सका।

क्योंकि पेशवा माधवराव, मैसूर के शासक हैदरअली के विरुद्ध अंग्रेजों की सहायता चाहता था,किन्तु कंपनी ने इस प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया। फिर भी मॉटसन ने पेशवा को आश्वासन दिया कि कंपनी मराठों से कभी युद्ध नहीं करेगी और यदि कोई तीसरी शक्ति मराठों से युद्ध करती है तो कंपनी मराठों के विरुद्ध सहायता नहीं देगी।

18नवंबर,1772 ई. को पेशवा माधवराव की निःसंतान मृत्यु हो गयी।अतः उसका भाई नारायणराव पेशवा की मनसब पर बैठा। परंतु उसका चाचा राघोबा (रघुनाथ राव) स्वयं पेशवा बनना चाहता था।अतः राघोबा ने अपनी पत्नी आनंन्दीबाई के सहयोग से 13 अगस्त,1773को नारायणराव की हत्या करवा दी और अपने आपको पेशवा घोषित कर दिया।परंतु मराठों में एक ऐसा व्यक्ति भी था, जिसके नेतृत्व में मराठा सरदारों ने उसका विरोध किया।

वह व्यक्ति था बालाजी जनार्दन, जो नाना फङनवीस के नाम से प्रसिद्ध था। नाना फङनवीस के नेतृत्व में मराठों ने बाराबाई संसद का निर्माण किया और शासन -प्रबंध अपने हाथ में ले लिया। किन्तु उनके सामने समस्या यह थी कि पेशवा किसे बनाया जाये। जिस समय नारायणराव की मृत्यु हुई थी, उस समय उसकी पत्नी गंगाबाई गर्भवती थी। 18अप्रैल,1774 ई. को उसने एक बालक को जन्म दिया, जिसका नाम माधवराव द्वितीय रखा गया।

बाराबाई संसद ने माधवराव द्वितीय को पेशवा घोषित कर दिया तथा नाना फङनवीस को उसका संरक्षक नियुक्त किया। बाराबाई संसद ने राघोबा को गिरफ्तार करने का आदेश दे दिया। इस पर राघोबा ने दिसंबर,1774 ई. में थाना पर आक्रमण कर दिया, किन्तु वह पराजित होकर भाग खङा हुआ।

सूरत की संधि

राघोबा भागकर बंबई गया और कौंसिल के अध्यक्ष हॉर्नबाई से बातचीत की। तत्पश्चात कंपनी की बंबई शाखा और राघोबा के बीच 6 मार्च,1775 को संधि हो गई, जिसे सूरत की संधि कहते हैं।इस संधि की शर्तें निम्नलिखित थी-

  • राघोवा ने अंग्रेज़ों को बम्बई के समीप स्थित सालसेत द्वीप ,थाना,जंबूसर का प्रदेश तथा बसीन को देने का वचन दिया।
  • अंग्रेज राघोबा को पेशवा बनाने में मदद करेंगे।
  • सूरत की संधि के अनुसार बम्बई सरकार राघोवा से डेढ़ लाख रुपये मासिक ख़र्च लेकर उसे 2500 सैनिकों की सहायता देगी।
  • अपनी सुरक्षा के बदले राघोबा कंपनी की बंबई शाखा को छः लाख रुपये देगा।
  • यदि राघोबा पूना से कोई शांति समझौता करेगा तो उसमें अंग्रेजों को भी शामिल करेगा।

कंपनी की बंबई शाखा ने यह संधि गवर्नर-जनरल को बिना पूछे की थी तथा रेगुलेटिंग एक्ट के द्वारा कंपनी की बंबई शाखा इसके लिए अधिकृत नहीं थी।

संधि के बाद हॉर्नबाई ने केवल पत्र लिखकर इसकी सूचना गवर्नर-जनरल को भेज दी। इस संधि के कारण ही अंग्रेज व मराठों के संघर्षों का सूत्रपात हुआ तथा मॉटसन ने मराठों को जो आश्वासन दिया था, उसे इस संधि द्वारा तोङ दिया गया।राघोबा ने अपने व्यक्तिगत स्वार्थ के कारण संपूर्ण मराठा जाति की प्रतिष्ठा का बलिदान कर दिया।

प्रथम आंग्ल-मराठा संघर्ष की शुरुआत- सूरत की संधि के बाद बंबई सरकार ने राघोबा की सहायता हेतु एक सेना भेजी। अंग्रेजी सेनाएं पूना की ओर बढी। 18मई, 1775 को अंग्रेजों व मराठों के बीच अरास नामक स्थान पर युद्ध हुआ, जिसमें मराठे पराजित हुए। अंग्रेजों ने सालसेट पर अधिकार कर लिया।

किन्तु इसी समय बंगाल कौंसिल ने हस्तक्षेप किया, क्योंकि बंबई सरकार ने यह समझौता बिना बंगाल कौंसिल की स्वीकृति से किया था।बंगाल कौंसिल ने सूरत की संधि को अस्वीकार कर युद्ध बंद करने का आदेश दिया,क्योंकि-

  • यह संधि राघोबा द्वारा हस्ताक्षरित है और अब वह पेशवा नहीं है
  • सूरत की संधि से कंपनी को अनावश्यक युद्ध में भाग लेना पङा है
  • मराठा शक्ति से अंग्रेजों को कोई क्षति नहीं हुई है, अतः उनके आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करने का कोई औचित्य नहीं है
  • यह संधि रेग्युलेटिंग एक्ट के विरुद्ध है।

बंगाल कौंसिल ने युद्ध बंद करने का आदेश दिया था, फिर भी युद्ध बंद नहीं हुआ। तब बंगाल कौंसिल ने कर्नल अप्टन(Upton) को मराठों से बातचीत करने पूना भेजा। अप्टन के पूना पहुँचते पर युद्ध बंद हो गया। पूना में अप्टन और मराठों के बाच मतभेद उत्पन्न हो गये, क्योंकि अप्टन ने राघोबा को सौंपने से इन्कार कर दिया तथा वह सालसेट और बसीन पर अधिकार बनाये रखना चाहता था।

अतः वार्ता असफल हुई। और युद्ध पुनः शुरु हो गया।मराठों ने बङी वीरता का प्रदर्शन किया किन्तु दुर्भाग्य से पेशवा का विद्रोही मराठा सरदार सदाशिव एक दूसरे मोर्चे पर मराठों के विरुद्ध आ धमका।मराठे दो मोर्चों पर युद्ध नहीं कर सके और उन्होंने अंग्रेजों से 1मार्च,1776 को पुरंदर की संधि कर ली।

पुरंदर की संधि

  • अंग्रेजों ने राघोबा के लिए जो रकम खर्च की है, उसके लिए मराठा अंग्रेजों को 12 लाख रुपये देंगे।
  • सूरत की संधि को रद्द कर दिया गया।मराठों ने राघोबा को 3लाख 15हजार रुपये वार्षिक पेंशन देना स्वीकार कर लिया।
  • राघोबा अब कोई सेना नहीं रखेगा तथा गुजरात में कोपरगाँव में जाकर बस जायेगा।
  • युद्ध में अंग्रेजों ने जो क्षेत्र प्राप्त किये हैं वे अंग्रेजों के पास ही रहेंगे।

इस संधि पर मराठों की ओर से सूखराम बापू ने तथा अंग्रेजों की तरफ से कर्नल अप्टन ने हस्ताक्षर किये। किन्तु बंबई सरकार तथा वॉरेन हेस्टिंग्ज इस संधि को स्वीकार करने को तैयार नहीं थे। इसी बीच मराठों ने विद्रोही सदाशिव को पकङ लिया तथा उसकी हत्या कर दी।

अब मराठे अंग्रेजों से निपटने के लिए तैयार थे। स्थिति उस समय और भी अधिक जटिल हो गई, जब 1778 में एक फ्रांसीसी राजदूत सैण्ट लुबिन फ्रांस के सम्राट का पत्र लेकर मराठा दरबार में पहुँचा,मराठों ने उसका शानदार स्वागत किया, किन्तु जब अंग्रेज राजदूत मॉटसन पूना पहुँचा तो उसका कोई विशेष स्वागत नहीं किया गया ।अतः यह अफवाह फैलने लगी कि मराठों व फ्रांसीसियों में संधि हो गई।

उधर मॉटसन ने मराठा दरबार के एक मंत्री मोरोबा को अपनी ओर मिलाकर नाना फङनवीस और सुखराम बापू में फूट डलवा दी। सुखराम बापू, जो पुरंदर की संधि का हस्ताक्षरकर्त्ता था, उसने गुप्त रूप से बंबई सरकार को लिखा कि राघोबा को पेशवा बनाने में वह भी मदद देने को तैयार है।

अतः बंबई सरकार ने कहा कि चूँकि पुरंदर की संधि पर हस्ताक्षर करने वाला स्वयं हमारे निकट आ रहा है, इसलिए पुनः युद्ध चालू करने पर संधि का उल्लंघन नहीं माना जा सकता। बंगाल कौंसिल ने इसका विरोध किया, किन्तु वॉरेन हिस्टिंग्ज ने बंबई सरकार का समर्थन किया। यद्यपि मराठों ने स्पष्ट कर दिया कि फ्रांसीसियों के साथ उनकी कोई संधि नहीं हुई है तथा सैंट लुबिन को भी वापिस भेज दिया गया है। किन्तु हेस्टिंग्ज ने मार्च,1778 में बंबई सरकार को युद्ध करने का अधिकार प्रदान कर दिया।

बंबई सरकार ने कर्नल एगटस के नेतृत्व में एक सेना भेजी, किन्तु जब वह मराठों के हाथों पराजित हुआ, तब उसके स्थान पर कर्नल काकबर्क की नियुक्ति की गई। मराठा सेना का नेतृत्व महादजी सिंधिया व मल्हारराव होल्कर कर रहे थे।मराठा सेना धीरे-2पीछे हटती गई और ब्रिटिश सेना आगे बढती हुई पूना से 18 मील दूर तेलगाँव के मैदान तक आ पहुँची।

19 जनवरी,1779 को तेलगाँव पहुँचते ही अंग्रेजों को मालूम हुआ कि मराठों ने उन्हें तीन ओर से घेर लिया है। इस पर मराठों ने आगे बढकर आक्रमण कर दिया।दोनों पक्षों के बीच भीषण युद्ध हुआ, जिसमें अंग्रेज पराजित हुए।इस पराजय के साथ ही बंबई सरकार को एक अपमानजनक समझौता करना पङा। 29जनवरी,1779 को दोनों पक्षों में बङगाँव का समझौता हो गया।

बङगाँव की संधि-

  • अंग्रेज राघोबा को मराठों के हवाले कर देंगे।
  • अब तक अंग्रेजों ने जिन मराठों प्रदेशों पर अधिकार किया है, वे सभी मराठों को सौंप देंगे।
  • जब तक अंग्रेज इन शर्तों को पूरा न करें, तब तक दो अंग्रेज अधिकारी बतौर बंधक,मराठों के पास कैद में रहेंगे।

बङगाँव का समझौता अंग्रेजों के लिए घोर अपमानजनक था। स्वयं हेस्टिंग्ज ने कहा कि जब मैं बङगाँव समझौते की धाराओं को पढता हूँ तो मेरा सिर लज्जा से झुक जाता है। अतः हेस्टिंग्स ने उस समझौते को स्वीकार नहीं किया और उसने मराठों के विरुद्ध दो सेनाएँ भेजी। एक का नेतृत्व कर्नल पोफम कर रहा था और दूसरी का नेतृत्व कर्नल गॉडर्ड कर रहा था।

जब नाना फङनवीस को अंग्रेजों के आक्रमण की सूचना मिली तो उसने नागपुर के शासक भोंसले,हैदराबाद के निजाम तथा मैसूर के शासक हैदरअली को अपनी ओर मिलाया तथा अंग्रेजों पर आक्रमण की योजना तैयार की। किन्तु हेस्टिंग्ज ने कूटनीति से निजाम व भोंसले को मराठों से अलग कर दिया। कर्नल गॉडर्ड अहमदाबाद व बसीन पर अधिकार करके 1780 में बङौदा पहुँच गया।उसने बङौदा के शासक फतेहसिंह गायकवाङ से संधि की और पूना की ओर बढा,तथा 3 अगस्त,1780 को ग्वालियर के किले पर अधिकार कर लिया।

तत्पश्चात सिप्री नामक स्थान पर महादजी सिंधिया व पोफम के बीच भीषण युद्ध हुआ, जिसमें महादजी सिंधिया पराजित हुआ। 13 अक्टूबर 1781 को उसने अंग्रेजों से संधि कर ली। इस संधि में एक महत्त्वपूर्ण धारा यह थी कि महादजी मराठों व अंग्रेजों के बीच संधि करवा देगा तथा उस संधि का पालन करवाने हेतु स्वयं अपनी गारंटी देगा।

सालबाई की संधि-

गुजरात में कर्नल गॉडर्ड व मराठों के बीच युद्ध चल रहा था।ब्रिटिश सेना के दबाव को कम करने के लिए नाना फङनवीस ने हैदरअली को कर्नाटक पर आक्रमण करने को कहा।इस पर हैदरअली ने कर्नाटक पर धावा बोल दिया।इसके बाद तो अंग्रेजों की निरंतर पराजय होने लगी। ब्रिटिश सेना का मनोबल गिरने लगा।अतः हेस्टिंग्ज ने एंडरसन को मराठों से बातचीत करने भेजा,बातचीत के दौरान हेस्टिंग्ज ने एंडरसन को तथा नाना फङनवीस को जो पत्र लिखे,उनसे स्पष्ट होता है कि वह संधि के लिए अत्यधिक व्यग्र हो रहा था। 17 मई,1782 को अंग्रेजों और मराठों के बीच साल्बाई की संधि हो गई।

संधि की शर्तें निम्नानुसार थी-

  • इसके अनुसार सालसेट और थाना दुर्ग अंग्रेजों को मिले।
  • अंग्रेजों ने राघोबा का साथ छोङने का आश्वासन दिया तथा मराठों ने रघुनाथराव (राघोबा) को25,000 रुपये मासिक पेंशन देना स्वीकार कर लिया।
  • अंग्रेजों ने माधवराव द्वितीय को पेशवा तथा फतेहसिंह गायकवाङ को बङौदा का शासक स्वीकार कर लिया। बङौदा के जिन भू-भागों पर अंग्रेजों ने अधिकार कर लिया था, उन्हें पुनः बङौदा के शासक को लौटा दिया।
  • इस संधि की स्वीकृति के छः माह के अंदर हैदरअली जीते हुए प्रदेश लौटा देगा तथा वह पेशवा, कर्नाटक के नवाब और अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध में सम्मिलित नहीं होगा।

साल्बाई की संधि का सबसे महत्त्वपूर्ण महत्त्व यह था कि इसके बाद 20 वर्षों तक अंग्रेजों व मराठों के बीच शांति बनी रही।

द्वितीय आंग्ल-मराठा युद्ध(Second Anglo-Maratha War) 1803-1806 ई

द्वितीय आंग्ल-मराठा युद्ध को पढने से पहले प्रथम आंग्ल-मराठा युद्ध के बारे में जान लेना जरूरी है। हमने प्रथम आंग्ल-मराठा युद्ध का वर्णन विस्तार से इससे पहले वाली पोस्ट में किया है, तो प्रथम आंग्ल-मराठा युद्ध के बारे में जानकारी प्राप्त करना आवश्यक है।

द्वितीय आंग्ल-मराठा युद्ध प्रारंभ होने से पहले वॉरेन हेस्टिंग्ज  1785 ई. में इंग्लैण्ड चला गया। हेस्टिंग्ज के बाद मेकफर्सन ने 1785-86 तक 21 महीने तक कार्यवाहक गवर्नर-जनरल के रूप में कार्य किया। सितंबर,1786 में कार्नवालिस गवर्नर-जनरल बनकर भारत आया।

1784 में ब्रिटिश संसद ने पिट्स इंडिया एक्ट पारित कर दिया था, जिसमें स्पष्ट कर दिया गया था कि भारत में कंपनी देशी रियासतों के प्रति अहस्तक्षेप की नीति का पालन करेगी। कार्नवालिस ने भारत में जहाँ तक संभव हो सका, इस नीति का पालन किया। 1793 में वह वापिस चला गया।

1793 में ही सर जॉन शोर को गवर्नर-जनरल के पद पर नियुक्त किया गया। उसने भी कार्नवालिस की नीति का अनुसरण किया। 1795 में हैदराबाद के निजाम व मराठों के बीच खरदा का युद्ध हुआ। इस अवसर पर निजाम ने अंग्रेजों से सहायता देने की प्रार्थना की, किन्तु सर जॉन शोर ने अहस्तक्षेप की नीति के कारण निजाम को सहायता देने से इन्कार कर दिया। फलस्वरूप निजाम,मराठों से पराजित हुआ और उसे अपमानजनक संधि के लिए विवश होना पङा।1798 में सर जॉन शोर को वापिस इंग्लैण्ड बुला लिया गया।और उसके स्थान पर लार्ड वेलेजली को गवर्नर-जनरल बनाकर भारत भेजा गया।

सालबाई की संधि के बाद 20 वर्ष तक शांति रही। इस अवधि में मराठा अपने अन्य शत्रुओं से निपटते रहे। नाना फङनवीस के नेतृत्व में उत्तऱी व दक्षिण भारत में मराठों का प्रभाव फैलने लगा।इस अवधि में महादजी सिंधिया की शक्ति में वृद्धि हुई तथा पेशवा की शक्ति का हास हुआ। पेशवा माधवराव द्वितीय के काल में नाना फङनवीस मराठा संघ का सर्वेसर्वा बन गया था। 1796 में पेशवा माधवराव द्वितीय की मृत्यु हो गई। बाजीराव द्वितीय पेशवा की मनसब पर बैठा।

मराठों में आपसी संघर्ष –

पेशवा बाजीराव द्वितीय सर्वथा अयोग्य था। 13 मार्च,1800 को नाना फङनवीस की मृत्यु हो गई। जब तक नाना फङनवीस जीवित रहा, उसने मराठों में एकता बनाये रखी।किन्तु उसकी मृत्यु के बाद मराठा सरदारों में आपसी संघर्ष प्रारंभ हो गये। दो मराठा सरदारों-ग्वालियर का शासक दौलतराव सिंधिया तथा इंदौर का शासक जसवंतराव होल्कर के बीच इस बात पर प्रतिस्पर्द्धा उत्पन्न हो गयी कि पेशवा पर किसका प्रभाव रहे।

पेशवा,बाजीराव द्वितीय निर्बल व्यक्ति था, अतः वह भी किसी शक्तिशाली मराठा सरदार का संरक्षण चाहता था।अतः वह दौलतराव सिंधिया के संरक्षण में चला गया।अब बाजीराव व सिंधिया ने होल्कर के विरुद्ध संयुक्त मोर्चा बना लिया। होल्कर के लिये यह स्थिति असहनीय थी।

फलस्वरूप  1802 के प्रारंभ में सिंधिया व होल्कर के बीच युद्ध छिङ गया। जब होल्कर मालवा में सिंधिया की सेना के साथ युद्ध में व्यस्त था, पूना में पेशवा ने होल्कर के भाई बिट्ठूजी की हत्या करवा दी।अतः होल्कर अपने भाई का बदला लेने पूना की ओर चल पङा। पूना के पास होल्कर ने पेशवा और सिंधिया की संयुक्त सेना को पराजित किया और एक विजेता की भाँति पूना में प्रवेश किया। होल्कर ने राघोबा के दत्तक पुत्र अमृतराव के बेटे विनायकराव को पेशवा घोषित किया।

पेशवा भयभीत हो गया तथा भागकर बसीन (बंबई के पास अंग्रेजों की बस्ती) चला गया। बसीन में उसने वेलेजली से प्रार्थना की कि वह उसे पुनः पेशवा बनाने में सहायता दे। वेलेजली भारत में कंपनी की सर्वोपरि सत्ता स्थापित करना चाहता था। मैसूर की शक्ति नष्ट करने के बाद अब मराठे ही उसके एकमात्र प्रतिद्वन्द्वी रह गये थे।

अतः वह मराठा राजनीति में हस्तक्षेप करने का अवसर ढूँढ रहा था। पेशवा द्वारा प्रार्थना करने पर वेलेजली को अवसर मिल गया। वेलेजली ने पेशवा के समक्ष शर्त रखी कि यदि वह सहायक संधि स्वीकार करले तो उसे पुनः पेशवा बनाने में सहायता दे सकता है। पेशवा ने वेलेजली की शर्त को स्वीकार कर लिया और 31 दिसंबर,1802 को पेशवा और कंपनी के बीच बसीन की संधि हो गयी।

बसीन की संधि की शर्तें निम्नलिखित हैं-

  • पेशवा अपने राज्य में 6,000 अंग्रेज सैनिकों की एक सेना रखेगा तथा इस सेना के खर्चे के लिए 26 लाख  रुपये वार्षिक आय का भू-भाग अंग्रेजों को देगा।
  • पेशवा ने अंग्रेजी संरक्षण स्वीकार कर भारतीय तथा अंग्रेज पदातियों की सेना को पूना में रखना स्वीकार किया।
  • पेशवा बिना अंग्रेजों की अनुमति के मराठा राज्य में किसी अन्य यूरोपियन को नियुक्ति नहीं देगा और न अपने राज्य में रहने की अनुमति देगा।
  • पेशवा ने सूरत नगर कंपनी को दे दिया।
  • पेशवा ने निजाम से चौथ प्राप्त करने का अधिकार छोङ दिया और अपने विदेशी मामले कंपनी के अधीन कर दिये।
  • पेशवा के जो निजाम और गायकवाह के साथ झगङे हैं, उन झगङों के पंच निपटारे का कार्य कंपनी को सौंप दिया ।
  • भविष्य में किसी राज्य के साथ युद्ध,संधि  अथवा पत्र-व्यवहार बिना अंग्रेजों की अनुमति के नहीं करेगा।

द्वितीय आंग्ल-मराठा युद्ध का वर्णन

बसीन की संधि के बाद मई-जून, 1803 ई. में बाजीराव द्वितीय को अंग्रेजों के संरक्षण में पुनः पेशवा बना दिया गया। किन्तु बसीन की संधि से मराठा सरदारों के आत्मगौरव पर भारी आघात पहुँचा,क्योंकि पेशवा ने मराठों की इज्जत व स्वतंत्रता बेची दी थी।मराठा सरदार इसे सहन नहीं कर सके। अतः उन्होंने  पारंस्परिक वैमनस्य को भुलाकर अंग्रेजों के विरुद्ध एक होने का प्रयत्न किया। सिंधिया और भोंसले तो एक हो गये,किन्तु सिधिंया व होल्कर की शत्रुता  ताजा थी।

अतः उसने भी इस अंग्रेज विरोधी संघ में शामिल होने से इंकार कर दिया।इस प्रकार केवल सिंधिया व भोंसले ने अंग्रेजों के विरुद्ध सैनिक अभियान की तैयारी आरंभ की। जब वेलेजली को इसकी सूचना मिली तो उसने 7 अगस्त,1803 को मराठों के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी और एक सेना अपने भाई आर्थर वेलेजली तथा दूसरी जनरल लेक के नेतृत्व में मराठों के विरुद्ध भेज दी।

आर्थर वेलेजली ने सर्वप्रथम अहमदनगर पर विजय प्राप्त की। उसके बाद अजंता व एलोरा के पास असाई नामक स्थान पर सिंधिया व भोंसले की संयुक्त सेना को पराजित किया। असीरगढ व अरगाँव के युद्धों में मराठा पूर्णरूप से पराजित हुए। अरगाँव में पराजित होने के बाद 17सितंबर,1803 को भोंसले ने अंग्रेजों से देवगढ की संधि कर ली। इस संधि के अंतर्गत भोंसले ने वेलेजली की सहायक संधि की सभी शर्तों को स्वीकार कर लिया।

केवल एक शर्त,राज्य में कंपनी की सेना रखने संबंधी शर्त स्वीकार नहीं की और वेलेजली ने भी इस शर्त को स्वीकार करने के लिए जोर नहीं दिया। इस संधि के अनुसार कटक व वर्धा नदी के आस-पास के क्षेत्र अंग्रेजों को दे दिये गये।

इधर जनरल लेक ने उत्तरी भारत की विजय यात्रा आरंभ की। उसने सर्वप्रथम अलीगढ पर अधिकार किया। तत्पश्चात दिल्ली पर आक्रमण कर उस पर अधिकार कर लिया। फिर जनरल लेक ने भरतपुर पर आक्रमण कर उस पर अधिकार कर लिया। फिर जनरल लेक ने भरतपुर पर आक्रमण किया और भरतपुर के शासक से सहायक संधि की। भरत पुर से वह आगरा की ओर बढा तथा आगरा पर अधिकार किया।

अंत में लासवाङी नामक स्थान पर सिंधिया की सेना पूर्णतः पराजित हुई। अब सिंधिया ने भी अंग्रेजों से संधि करना उचित समझा। फलस्वरूप 30सितंबर,1803 को सुर्जी अर्जुनगाँव की संधि हो गयी। इस संधि के अनुसार सिंधिया ने दिल्ली,आगरा,गंगा-यमुना का दोआब, बुंदेलखंड, भङौंच,अहमदनगर का दुर्ग,गुजरात के कुछ जिले,जयपुर व जोधपुर अंग्रेजों के अधिकार में दे दिये। उसने कंपनी की सेना को भी अपने राज्य में रखना स्वीकार कर लिया। अंग्रजों ने सिंधिया को पूर्ण सुरक्षा का आश्वासन दिया।

सिंधिया व भोंसले ने बसीन की संधि को भी स्वीकार कर लिया था। इन विजयों से वेलेजली खुशी से उछल पङा और “घोषणा की कि, युद्ध के प्रत्येक लक्ष्य को प्राप्त कर लिया गया है और इससे सदैव शांति बनी रहेगी।” किन्तु वेलेजली का उक्त कथन ठीक न निकला,क्योंकि शांति  शीघ्र ही संकटग्रस्त हो गई।

होल्कर से युद्ध- मराठा राज्य का प्रमुख स्तंभ होल्कर, जो अब तक इन घटनाओं के प्रति उदासीन था, सिंधिया वे भोंसले के आत्मसमर्पण  के बाद अंग्रेजों से युद्ध करने का निर्णय लिया और अप्रैल 1804 में संघर्ष छेङ दिया। उसने सर्वप्रथम  राजपूताना में कंपनी के मित्र राज्यों पर आक्रमण किया। वह अंग्रेजों के लिए चुनौती थी। अतः वेलेजली ने कर्नल मॉन्सन के नेतृत्व में एक सेना भेज दी। कर्नल मॉन्सन राजपूताने के भीतर घुस गया।

होल्कर ने कोटा के निकट मुकंदरा के दर्रे के युद्ध में मॉन्सन को पराजित किया तथा उसे आगार की ओर लौटने को विवश कर दिया। उसके बाद होल्कर ने भरतपुर पर आक्रमण करके वहाँ के शासक से संधि करली। यद्यपि भरतपुर के शासक ने अंग्रेजों से संधि करली थी, किन्तु इस समय उसने अंग्रेजों की संधि को ठुकरा दिया। तथा होल्कर का समर्थन किया । यहाँ से होल्कर दिल्ली की ओर गया तथा दिल्ली को चारों ओर से घेर लिया।

लेकिन दिल्ली पर विजय प्राप्त न कर सका।दिल्ली पर होल्कर के दबाव को कम करने के लिए अंग्रेजों ने जनरल मूरे को होल्कर की राजधानी इंदौर पर आक्रमण करने भेजा। मूरे ने इंदौर पर अधिकार कर लिया। जब होल्कर को इंदौर के पतन की सूचना मिली तो वह दिल्ली का घेरा उठाकर इंदौर की ओर रवाना हुआ। रास्ते में डीग नामक स्थान पर ब्रिटिश सेना से उसका भीषण संग्राम हुआ। उसके बाद फर्रुखाबाद में होल्कर पराजित हुआ। और पंजाब की तरफ भाग गया। इस युद्ध में भी होल्कर की शक्ति को पूरी तरह से नहीं कुचला जा सका।

भरतपुर के शासक ने होल्कर का समर्थन किया था, अतः जनरल लेक ने भरतपुर के दुर्ग को घेर लिया। जनरल लेक ने दुर्ग पर अधिकार करने के लिए 6जनवरी, से  21 फरवरी,1805 के बीच चार बार आक्रमण किये, किन्तु उसे कोई सफलता नहीं मिली। अंत में अप्रैल,1805 में उसे भरतपुर के राजा से शांति संधि करनी पङी।

जनरल लेक की यह भयंकर भूल थी कि वह व्यर्थ ही भरतपुर में उलझा रहा। यदि लगे हाथ होल्कर से निपट लिया जाता तो भरतपुर तो स्वतः ही बाद में अंग्रेजों की अधीनता में आ जाता। किन्तु उसकी मूर्खता से न तो होल्कर की शक्ति को ही नष्ट किया  जा सका  और न भरतपुर पर ही अधिकार हो सका। इस असफलता के कारण ब्रिटिश सरकार व बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स बङे चिंतित हुये। इंग्लैण्ड  के प्रधानमंत्री पिट्ट ने भी वेलेजली की कटु आलोचना की। फलस्वरूप वेलेजली को त्यागपत्र देकर जाना पङा।

तृतीय आंग्ल-मराठा युद्ध(Third Anglo-Maratha War)1817-1818ई.

अगस्त, 1805 में वेलेजली भारत से चला गया। उसके स्थान पर लार्ड कार्नवालिस को पुनः भारत भेजा गया। किन्तु यहाँ आने के कुछ ही महीनों बाद गाजीपुर में उसकी मृत्यु हो गयी। अतः जार्ज बार्लो को गवर्नर जनरल नियुक्त किया गया।

कार्नवालिस व जार्ज बार्लो दोनों ने देशी राज्यों के प्रति अहस्तक्षेप की नीति का पालन किया और मराठों के प्रति उदारता की नीति अपनाई। फलस्वरूप 22 नवंबर,1805 को सिंधिया से एक नई संधि की गई, जिसके अनुसार उसे ग्वालियर व गोदह के दुर्ग तथा उसका उत्तरी चंबल का भू-भाग लौटा दिया।

कंपनी ने राजपूत राज्यों को अपने संरक्षण में लेने का विचार त्याग दिया। फलस्वरूप राजपूत राज्यों पर पुनः मराठों का प्रभाव स्थापित हो गया। इसी प्रकार 7जनवरी, 1806 को होल्कर के साथ भी संधि करके उसे उसके अधिकांश क्षेत्र लौटा दिये। तत्पश्चात् 1807 में लार्ड मिण्टो गवर्नर-जनरल बनकर आया। उसने भी अहस्तक्षेप की नीति का अनुसरण किया। इन तीनों की नीतियों के फलस्वरूप मराठों ने अपनी शक्ति पुनः संगठित कर ली।

इधर पिंडारी भी, जो आरंभ में मराठों के सहयोगी थे, अपनी स्वयं की शक्ति बढा रहे थे। ऐसी परिस्थितियों में 1813 में लार्ड हेस्टिंग्ज गवर्नर जनरल बनकर भारत आया। लार्ड हेस्टिंग्ज मराठा शक्ति को पूरी तरह समाप्त कर राजपूत राज्यों पर ब्रिटिश संरक्षण स्थापित करना चाहता था।

लार्ड हेस्टिंग्ज ने सर्वप्रथम पिंडारियों की शक्ति को नष्ट करने की योजना बनायी, क्योंकि उसे भय था कि कहीं पिंडारियों से युद्ध करने से पूर्व 27मई,1816 को भोंसले के साथ तथा 5नवंबर,1817 को सिंधिया के साथ समझौता किया गया। इस समझौते में उन्होंने पिंडारियों को कुचलने के लिए अंग्रेजों को समर्थन देने का वादा किया तथा सिंधिया ने चंबल नदी से दक्षिण पिश्चिम राज्यों पर से अपना प्रभाव हटा दिया।

तृतीय आंग्ल-मराठा युद्ध का वर्णन-

बसीन की संधि द्वारा यद्यपि पेशवा अंग्रेजों की अधीनता स्वीकार कर चुका था, किन्तु वह अब इस अधीनता से मुक्त होना चाहता था। इसके लिए पेशवा ने सिंधिया,होल्कर तथा भौंसले से गुप्त रूप से बातचीत भी आरंभ कर दी। पेशवा ने अपनी सैनिक शक्ति को भी सुदृढ करने का प्रयत्न किया।

इस समय पेशवा तथा गायकवाङ के बीच खिराज के संबंध में झगङा चल रही था। अतः इस संबंध में बातचीत करने के लिए गायकवाङ का एक मंत्री गंगाधर शास्री अंग्रेजों के संरक्षण में पूना आया। पेशवा अंग्रेजों के विरुद्ध गायकवाङ का सहयोग चाहता था, किन्तु गंगाधर अंग्रेजों का घनिष्ठ मित्र था, अतः उसने पेशवा से सहयोग करने से इंकार कर दिया।

ऐसी स्थिति में पेशवा के एक विश्वसनीय मंत्री त्रियंबकजी ने धोखे से गंगाधर शास्री की हत्या करवा दी। पूना दरबार में ब्रिटिश रेजीडेण्ट एलफिन्सटन की त्रियंबकजी से व्यक्तिगत शत्रुता थी, अतः रेजीडेण्ट ने पेशवा से माँग की कि त्रियंबकजी को बंदी बनाकर उसे अंग्रेजों के सुपुर्द कर दिया जाये। पेशवा ने बङी हिचकिचाहट के साथ 11 सितंबर,1815 को त्रियंबकजी को अंग्रेजों के हवाले कर दिया। त्रियंबकजी को बंदी बनाकर थाना भेज दिया गया। किन्तु एक वर्ष बाद त्रियंबकजी थाना से भागने में सफल हो गया। इस पर एलफिन्सटन पेशवा पर आरोप लगाया कि उसने त्रियंबकजी को भागने में सहायता दी है।

एलफिन्सटन ने पेशवा की शक्ति को सीमित करने के उद्देश्य से पेशवा पर एक नई संधि करने हेतु दबाव डाला और उसे धमकी दी कि यदि वह नई संधि करने पर सहमत नहीं होगा तो उसे पेशवा की मनसब से हटा लिया जायेगा।अतः भयभीत होकर 13 जून,1817 को पेशवा ने अंग्रेजों से नई संधि (पूना की संधि) कर ली।

इस संधि के अंतर्गत पेशवा ने मराठा संघ के अध्यक्ष पद को त्याग दिया, सहायक सेना के खर्च के लिए 33लाख रुपये वार्षिक आय के भू-भाग उसे अंग्रेजों को सौंपने पङे और नर्मदा नदी के उत्तर में स्थित अपने राज्य के सभी भू-भाग उसे अंग्रेजों को सौंपने का वादा किया और जब तक त्रियंबकजी को अंग्रेजों के सुपुर्द ने कर दिया जाये, उस समय तक त्रियंबकजी के परिवार को अंग्रेजों के पास बंधक के रूप में रखना स्वीकार किया। पेशवा के बिना अंग्रेजों की अनुमति के किसी अन्य राज्य से पत्र-व्यवहार ने करने का वादा किया।

यद्यपि सभी मराठा सरदार अंग्रेजों से अपमानजनक संधियाँ कर चुके थे, किन्तु उन्होंने ये संधियाँ विवशता के कारण की थी। और वे उनसे मुक्त होना चाहते थे। पेशवा भी पूना की संधि के अपमान की आग में जल रहा था।

अतः जिस दिन सिंधिया ने अंग्रेजों के साथ संधि की (5नवंबर,1817), उसी दिन पेशवा ने पूना में स्थित ब्रिटिश रेजीडेन्सी पर आक्रमण कर दिया। एलफिंसटन किसी प्रकार जान बचाकर भागा तथा पूना से चार मील दूर किर्की नामक स्थान पर ब्रिटिश सैनिक छावनी में शरण ली। पेशवा की सेना ने किर्की पर धावा बोल दिया, किन्तु पेशवा पराजित हुआ तथा वह सतारा की ओर भाग गया। नवंबर,1817में पूना पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया।

पेशवा द्वारा युद्ध आरंभ कर दिये जाने पर कुछ मराठा सरदारों ने भी युद्ध करने का निश्चय किया। नवंबर,1817 में ही अप्पा साहब भोंसले ने नागपुर के पास सीताबंदी नामक स्थान पर अंग्रेजों से युद्ध किया, किन्तु पराजित हुआ। तत्पश्चात् दिसंबर,1817 में नागपुर के युद्ध में वह पुनः पराजित हुआ। और भागकर पंजाब चला गया। पंजाब से भागकर वह शरण के लिए जोधपुर आया। जोधपुर के राजा मानसिंह ने, जो स्वयं अंग्रेजों का विरोधी था, अप्पा साहब को शरण दी तथा 1840 में अप्पा साहब की जोधपुर में ही मृत्यु हो गयी।

इसी प्रकार होल्कर की सेना व अंग्रेजों के बीच 21 दिसंबर, 1817 को महीदपुर के मैदान में भीषण युद्ध हुआ। युद्ध में होल्कर की सेना पराजित हुई तथा जनवरी, 1818 में दोनों के बीच मंदसौर की संधि हो गयी। इस संधि के अनुसार होल्कर ने सहायक संधि स्वीकार कर ली, राजपूत राज्यों से अपने अधिकार त्याग दिये तथा बूंदी की पहाङियों व उसके उत्तर के सभी प्रदेश कंपनी को हस्तांतरित कर दिये। इस प्रकार होल्कर भी कंपनी की अधीनता में आ गया।

अब अंग्रेजों ने पेशवा की ओर ध्यान दिया। अंग्रेजों ने पेशवा के विरुद्ध एक सेना भेजी। जनवरी, 1818 में कोरगांव के युद्ध में तथा अंत में फरवरी, 1818 में अष्टी के युद्ध में पेशवा बुरी तरह पराजित हुआ। अतः मई, 1818 में उसने अंग्रेजों के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया।

अंग्रेजों ने पेशवा के पद को समाप्त कर पेशवा को 8 लाख रुपये वार्षिक पेंशन देकर कानपुर के पास बिठुर भेज दिया। पेशवा का राज्य ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया गया। सतारा का छोटा सा राज्य शिवाजी के वंशज प्रतापसिंह को दे दिया गया। पेशवा के मंत्री त्रियंबकजी को आजीवन कारावास की सजा देकर चुनार के किले में भेज दिय गया। इस प्रकार लार्ड हेस्टिंग्ज ने मराठा शक्ति को नष्ट करने में सफलता प्राप्त की।

Reference : https://www.indiaolddays.com/

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