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मराठों एवं अंग्रेजों के मध्य हुए संघर्षों का विवरण

मराठों एवं अंग्रेजों के मध्य हुए संघर्ष

मराठों एवं अंग्रेजों के मध्य हुए संघर्ष (maraathon evan angrejon ke madhy hue sangharsh)-

मराठों एवं अंग्रेजों के मध्य हुए युद्ध – प्रथम आंग्ल-मराठा युद्ध (first Anglo-Maratha war) –

मुगल साम्राज्य के पतन के बाद भारत में मराठा शक्ति का प्रभुत्व स्थापित हो गया। 18 वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में भारत में मराठों के अलावा अन्य कोई शक्ति नहीं थी। अंग्रेज इस तथ्य से भली भांति परिचित थे कि भारत में उस समय केवल मराठों द्वारा ही अंग्रेजों को चुनौती दी जा सकती थी।

अतः मराठों एवं अंग्रेजों के मध्य संघर्ष होना स्वाभाविक था। 1772 ई. में पेशवा माधवराव प्रथम की मृत्यु हो गयी तथा मराठा-संघ में फूट पङ गयी। इससे अंग्रेजों को मराठों के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करने का अवसर मिल गयी। इसके परिणामस्वरूप 1775 ई. में मराठों तथा अंग्रेजों के बीच युद्ध छिङ गया…अधिक जानकारी

वेलेजली और मराठे

अंग्रेजों एवं मराठों के मध्य

वेलेजली एक साम्राज्यवादी गवर्नर-जनरल था। मराठे ही अंग्रेजों के सबसे शक्तिशाली शत्रु थे। वेलेजली ने मराठों के पतन के लिए उनकी राजनीति में हस्तक्षेप करने की योजना बनाई। शीघ्र ही उसे इसका मौका भी मिल गया।

1800 ई. में नाना फङनवीस की मृत्यु हो गयी । वह एक प्रतिभाशाली सरदार था और वह जब तक जीवित रहा मराठों के आंतरिक झगङों को अपने प्रभाव से दबाता रहा। उसके मरते ही मराठा सरदार खुलकर एक दूसरे का विरोध करने लगे। होल्कर, पेशवा व सिन्धिया में शक्ति हेतु प्रतिद्विन्द्विता शुरू हो गयी।

इस संघर्ष में पेशवा व सिन्धिया ने मिलकर होल्कर का विरोध करना आरंभ किया। होल्कर ने 1802 ई. में सिन्धिया व पेशवा की सम्मिलित सेनाओं को बुरी तरह पराजित किया और पूना पर अधिकार कर लिया। होल्कर ने राघोबा के दत्तक पुत्र के बेटे विनायक राव को पेशवा बना दिया, पेशवा भाग कर अंग्रेजों की शरण में पहुँच गया। लार्ड वेलेजली ने उपयुक्त अवसर देखकर पेशवा को सहायता देना स्वीकार किया। 1802 ई. में पेशवा व अंग्रेजों के मध्य बेसीन की संधि हुई।

बेसीन की संधि एवं उसका महत्त्व

वेलेजली ने पेशवा को सहायता देने का आश्वासन देकर उसे सहायक संधि मानने को मजबूर किया। इस संधि के अनुसार यह निश्चित हुआ कि मौका पङने पर अंग्रेज व पेशवा एक दूसरे की मदद करेंगे। पेशवा एक अंग्रेज सेना रखेगा, जिसके खर्चे के लिए वह कुछ जिले अंग्रेजों को देगा। पेशवा अंग्रेजों के अलावा किसी विदेशी को अपने यहाँ नौकर नहीं रखेगा। पेशवा अंग्रेजों की अनुमति के बिना किसी भी राज्य के साथ युद्ध या संधि नहीं करेगा।

इस संधि का इतिहास में बङा महत्त्व है क्योंकि पेशवा मराठा संघ का प्रधान था। उसके अंग्रेजों के संरक्षण में आने से सारी मराठा शक्ति ही सैद्धांतिक रूप से अंग्रेजों के संरक्षण में आ गयी। इसके साथ ही सिंधिया जो कि मराठा सरदारों में एक बङा सरदार था उसके द्वारा भी अंग्रेजों के प्रभुत्व को स्वीकार करना एक महत्त्वपूर्ण घटना थी।

इस संधि से मराठों की प्रतिष्ठा को बङा धक्का लगा। इसी संधि के फलस्वरूप अंग्रेजों को पश्चिम की ओर बढने का मौका मिल गया। डीन हट्टन के शब्दों में यह निःसंदेह एक ऐसा कदम था, जिसने पश्चिम भारत में अंग्रेजी राज्य के आधार को बिल्कुल बदल दिया। इसने एक ही क्षण में अंग्रेजों की जिम्मेदारियाँ भी तिगुनी बढा दी।

द्वितीय अंग्रेज-मराठा युद्ध

पेशवा द्वारा अंग्रेजों के प्रभुत्व को स्वीकार करने के समाचार से सारी मराठा जाति क्षुब्ध हो गयी तथा मराठा सरदार बहुत क्रुद्ध हुए। उनकी राष्ट्रीय भावना को इस संधि से बङी ठेस लगी। उनका कहना था कि पेशवा ने किस प्रकार उनकी सलाह किये बिना मराठों की स्वतंत्रता व देश को अंग्रेजों के हाथ में बेच दिया।

वे अंग्रेजों से बदला लेने की तैयारियाँ करने लगे। भारत के इतिहास की दुर्भाग्यपूर्ण बात यह थी कि भारतवासी संकट की घङी में भी कभी संगठित नहीं हो सके। इसलिए सदा ही विदेशी शक्तियों से पराजित होते रहे। इस बार भी सारे मराठा सरदार संगठित न हो सके। होल्कर ने मराठा संघ में शामिल होने से इनकार कर दिया।

उधर वेलेजली भी बेसीन की संधि के अनुसार पेशवा को पूना में पुनः स्थापित करने के लिए चिन्तित था। उसने 13 मई, 1803 ई. को आर्थर वेलेजली (अपने छोटे भाई) के नेतृत्व में एक सेना पूना की ओर भेज दी, जिसने बाजी राव द्वितीय को पुनः पेशवा की गद्दी पर बिठा दिया। अंग्रेजों ने अहमदाबाद पर अधिकार कर लिया।

कुछ समय बाद सिन्धिया व भौंसले की सम्मिलित सेनायें असाई नाम स्थान पर पराजित हुई। उसके बाद अंग्रेजों ने भौंसले को अरगाँव में पुनः पराजित किया। जनरल लेक ने उत्तरी भारत में अलीगढ, दिल्ली व आगरे को सिंधिया के चंगुल से मुक्त कर लिया। लासवाङी नामक स्थान पर सिंधिया भी दुबारा पराजित हुआ।

मजबूर होकर 1803 ई. में भौसलें ने अंग्रेजों से देवगाँव की संधि कर ली जिसके द्वारा भौंसले ने कटक का सूबा अंग्रेजों को दे दिया और वर्धा के पश्चिम का सारा प्रदेश भी अंग्रेजों को सौंप दिया। संधि में यह भी निश्चित हुआ कि यदि भौंसले का निजाम या पेशवा से झगङा हो तो उसे अंग्रेजों का निर्णय स्वीकार करना पङेगा। भौंसले ने इस संधि द्वारा सहायक संधि की सभी शर्तों को स्वीकार किया। एलफिंस्टन को उनके दरबार में रेजीडेंट बना कर भेजा गया।

सुर्जी अर्जुन गाँव की संधि

दिसंबर, 1803 ई. में सिन्धिया ने भी अंग्रेजों से संधि कर ली जिसे सुर्जी अर्जुन गाँव की संधि कहते हैं। इस संधि के द्वारा जयपुर, जोधपुर, भङौंच, गंगा व यमुना के मध्य प्रदेश उसे अंग्रेजों को सौंपने पङे। उसने अंग्रेजी सेना भी रखना स्वीकार किया तथा अंग्रेजी रेजीडेंट भी। उसने फ्रांसीसी अधिकारियों को अपने दरबार से निकाल दिया।

इन संधियों का महत्त्व

द्वितीय मराठा युद्ध में दो महत्त्वपूर्ण शक्तिशाली मराठा सरदार अंग्रेजों के चँगुल में आ फँसे। मराठों की शक्ति को बहुत नुकसान हुआ और अंग्रेजों को भारत में अपना साम्राज्य बढाने का अच्छा अवसर प्राप्त हुआ। उन्होंने मराठों के एक बहुत बङे भू-भाग पर अधिकार कर लिया। सबसे महत्त्वपूर्ण परिणाम यह निकला कि मुगल सम्राट शाह आलम जो बहुत समय से मराठों के संरक्षण में था, अब पुनः अंग्रेजों के संरक्षण में आया।

डॉ. ईश्वरी प्रसाद का कथन है कि इन संधियों से अंग्रेजों को कई महान लाभ हुए। उनका भारत में राज्य विस्तार हो गया तथा वे भारत में एक सर्वोच्च शक्ति बन गए। वे भारत की प्रमुख रियासतों के नियंत्रक बन गए।

परिणाम –

  1. द्वितीय मराठा युद्ध के परिणामस्वरूप अंग्रेजों की शक्ति तथा प्रतिष्ठा में वृद्धि हुई। अंग्रेजी साम्राज्य का विस्तार हुआ और मराठों के अनेक प्रदेश ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिए गए।
  2. इस युद्ध ने मराठों की शक्ति तथा प्रतिष्ठा को प्रबल आघात पहुँचाया। पेशवा अंग्रेजों के संरक्षण में चला गया तथा दो शक्तिशाली मराठा सरदारों सिन्धिया तथा भौंसले की शक्ति का दमन कर दिया गया।
  3. इस विजय के फलस्वरूप अन्य भारतीय प्रदेशों पर भी अंग्रेजों का प्रभुत्व स्थापित हो गया।
  4. मुगल सम्राट भी अंग्रेजों के संरक्षण में चला गया जिससे अंग्रेजी कंपनी के प्रभाव में वृद्धि हुई।

मराठों का तीसरा युद्ध

अब तक प्रायः सभी मराठा सरदार अंग्रेजों का प्रभुत्व स्वीकार कर चुके थे। केवल होल्कर ही वेलेजली के चँगुल से मुक्त था। अब भौंसले व सिन्धिया को पराजित करने के बाद वेलेजली ने होल्कर की ओर ध्यान दिया। इसका बहाना भी शीघ्र ही मिल गया।

होल्कर ने जयपुर राज्य पर आक्रमण किया जो अंग्रेजों की अधीनता को स्वीकार कर उनका मित्र बन चुका थआ। वेलेजली ने जयपुर की सहायता का बहाना लेकर 1804 में होल्कर पर आक्रमण कर दिया। होल्कर व अंग्रेजों के मध्य कई युद्ध हुए। अंत में पराजित होकर होल्कर भरतपुर भाग गया।

जनरल लेक ने चार बार भरतपुर के दुर्ग पर आक्रमण किया, परंतु वह उसे जीतने में सफल न हो सका। इसी बीच कंपनी के संचालकों ने वेलेजली की आक्रामक नीति से नाराज होकर उसे वापस बुला लिया और युद्ध बीच में ही समाप्त हो गया।

मराठों का चतुर्थ युद्ध

मराठों एवं अंग्रेजों के मध्य चौथा युद्ध लार्ड हेस्टिंग्ज के समय में हुआ। वेलेजली ने मराठों का काफी नुकसान किया था, परंतु वे पूर्णतया नष्ट न हो सके थे। वेलेजली के भारत से चले जाने के बाद मराठों की शक्ति पुनः बढने लगी थी। हेस्टिंग्ज ने मराठों की पारस्परिक शत्रुता से लाभ उठाकर, उन्हें पूर्णतया कुचलने की ठान ली।

वैसे तो होल्कर के अलावा सारे मराठे सरदार अंग्रेजों की अधीनता स्वीकार कर चुके थे, परंतु केवल गायकवाङ ही संधि का पूर्णतया पालन कर रहा था, अन्य सरदारों ने संधि ठुकरा दी थी। अब हेस्टिंग्ज को जिन चार मराठा सरदारों से निपटना था, वे पेशवा, होल्कर, सिन्धिया तथा भौंसले थे।

पेशवा के साथ युद्ध

पेशवा अंग्रेजों के प्रभुत्व से निकलने की चेष्टा कर रहा था। 1814 ई. में गायकवाङ व पेशवा के मध्य सीमा संबंधी झगङा चल रहा था। उसे सुलझाने के लिए गायकवाङ ने गंगाधर नामक अपने दूत को पेशवा के दरबार में भेजा। पेशवा के मंत्री त्रिम्बक ने उसकी हत्या करवा दी।

इस घटना से पेशवा व अंग्रेजों के संबंध बहुत कटु हो गये। पेशवा ने पूना की ब्रिटिश रेजीडेन्सी में आग लगवा दी। उसने पूना के निकट किर्की नामक स्थान पर अंग्रेजों पर आक्रमण भी किया। इस युद्ध में पेशवा पराजित हुआ और मई, 1818 में उसे आत्म-समर्पण करना पङा।

हेस्टिंग्ज ने पेशवा के साथ बहुत कठोर व्यवहार किया। उसे आठ लाख रुपया वार्षिक पेंशन देकर उसके अधिकांश राज्य पर कब्जा कर लिया। बचे हुए थोङे भाग पर शिवाजी के एक वंशज को शासक बना दिया गया। इस राज्य की राजधानी सतारा बनाई गई। त्रिम्बक को आजीवन कारावास की सजा दी गयी। इस प्रकार पेशवा पद व राज्य समाप्त कर दिया गया।

भौंसले के साथ युद्ध

अब भौंसले की बारी आई। 1816 ई. में राघोजी भौंसले की मृत्यु हो गयी और गद्दी के लिए गृह युद्ध आरंभ हो गया। इसका लाभ उठा कर लार्ड हेस्टिंग्ज ने एक उत्तराधिकारी अप्पा जी का पक्ष लेकर उससे सहायक संधि कर ली। अप्पा जी ने परसोजी की हत्या कराकर नागपुर की गद्दी पर अधिकार कर लिया।

1817 ई. में उसने अंग्रेजों पर आक्रमण कर दिया, परंतु पराजित हुआ। नागपुर में सीता बल्डी नामक स्थान पर पुनः पराजित हुआ। अप्पा जी पराजित होकर पंजाब की ओर भाग गया और भौंसले राज्य पर भी अंग्रेजों का राज्य स्थापित हो गया। नर्मदा नदी के उत्तर के भाग कंपनी राज्य में मिला लिये गये और दक्षिण के भाग राघोजी भौंसले के पौत्र को सौंप दिये गये।

होल्कर के साथ संघर्ष

अब हेस्टिंग्ज ने अपना ध्यान होल्कर की ओर दिया। अब तक होल्कर की शक्ति काफी कम हो चुकी थी। 1817 ई. में अंग्रेजों ने होल्कर को महीदपुर नामक स्थान पर बुरी तरह से पराजित किया।

1818 ई. में होल्कर को मजबूर होकर अंग्रेजों से संधि करनी पङी, जिसके द्वारा होल्कर का प्रभुत्व राजपूत राज्यों व अमीर खाँ पठना के राज्य से समाप्त हो गया। उसने सतपुङा के दक्षिण का सारा भाग अंग्रेजों को सौंप दिया। उसने अंग्रेजी सेना व अंग्रेजी रेजीडेंट भी अपने राज्य में रखना स्वीकार कर लिया। होल्कर की विदेश नीति पर भी अंग्रेजों का प्रभुत्व हो गया।

सिन्धिया व गायकवाङ के साथ नई संधियाँ

मराठों के चौथे युद्ध में सिंधिया व गायकवाङ ने अंग्रेजों का न तो कोई विरोध किया था और न ही मराठा सरदार की मदद की थी, लेकिन फिर भी हेस्टिंग्ज ने उन्हें भी अछूता न छोङा। उसने यह बहाना लगाया कि वे दोनों सरदार पिंडारियों को सहायता कर रहे थे। अतः उनके साथ नई संधियाँ लागू करना आवश्यक है। इन दोनों राज्यों के बङे भू-भाग पर भी अंग्रेजों का कब्जा हो गया और सिंधिया व गायकवाङ पूर्णतया अंग्रेजों के चँगुल में आ गये।

इस प्रकार अंग्रेजों ने सारे मराठा संघ को छिन्न-भिन्न कर दिया तथा मराठों की शक्ति को पूर्ण रूप से कुचल दिया। यह अंतिम युद्ध था। इसके बाद मराठे इतने शक्तिहीन हो गये कि वे कभी भी अंग्रेजों का विरोध न कर सके।

परिणाम

मराठों की शक्ति क्षीण हो गयी। अंग्रेजों के प्रबल शत्रु मराठे पूर्णतया कुचल दिए गए और अब भारत में कोई भी शक्ति अंग्रेजों को चुनौती देने के लिए नहीं रही।
अंग्रेजी कंपनी की शक्ति तथा प्रतिष्ठा में अत्यधिक वृद्धि हुई। अब वह भारत की सर्वोच्च प्रभुता संपन्न शक्ति बन गई।
चतुर्थ मराठा युद्ध के परिणामस्वरूप अंग्रेजी कंपनी के साम्राज्य का पर्याप्त विस्तार हुआ। सुन्दर लाल के अनुसार अंग्रेजी कंपनी के राज्य में 50 हजार वर्ग मील से अधिक की वृद्धि हुई।

डाडवेल का कथन है कि 1818 की संधि से भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी की सर्वोच्चता का आरंभ होता है। कोई राज्य नहीं रहा जो इसकी सर्वोच्चता को चुनौती दे। कोई राज्य नहीं रहा जो उसकी संधियों का बहिष्कार करे।

इस युद्ध के परिणामस्वरूप पिण्डारियों और पठानों की शक्ति भी नष्ट हो गयी।

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