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हर्ष के समय में आर्थिक दशा

हर्षकालीन भारत की आर्थिक दशा के विषय में हमें बाण के ग्रंथों, चीनी स्रोतों तथा तत्कालीन लेखों से जानकारी मिलती है। सभी स्रोतों से स्पष्ट हो जाता है, कि उस समय देश की आर्थिक दशा उन्नत थी। कृषि जनता की जीविका का मुख्य आधार थी। हुएनसांग लिखता है, कि उस समय देश की आर्थिक दशा उन्नत थी। कृषि जनता की जीविका का मुख्य आधार थी।

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ह्वेनसांग लिखता है, कि अन्न तथा फलों का उत्पादन प्रभूत मात्रा में होता था। हर्षचरित के अनुसार श्रीकंठ जनपद में चावल, गेहूँ, ईख आदि के अलावा सेब, अंगूर, अनार आदि भी उगाये जाते थे। भूमि का अधिकांश भाग सामंतों के हाथ में था। कुछ भूमि ब्राह्मणों को दान के रूप में दी जाती थी। इसे ब्रह्मदेय कहा जाता। इस प्रकार की भूमि से संबंधित सभी प्रकार के अधिकार दानग्राही को मिल जाते थे। मधुबन तथा बंसखेङा के लेखों में हर्ष द्वारा ग्राम दान में दिये जाने का विवरण मिलता है।

वर्धन वंश की जानकारी प्रदान करने वाले साहित्यिक एवं पुरातात्विक साधन

भूमि के विविध प्रकारों का उल्लेख किया गया है, जो निम्नलिखित हैं –

  • अप्रदा (न रहने योग्य),
  • अप्रहता (जिसमें खेती न हो सके),
  • खिल(बंजर)

कृषि के लिये सिंचाई की उत्तम व्यवस्था थी। हर्षचरित में सिंचाई के साधन के रूप में तुलायंत्र (जलपंप) का उल्लेख मिलता है।

कृषि के अतिरिक्त वाणिज्य, व्यवसाय, उद्योग-धंधे तथा व्यापार भी उन्नति पर थे। देश में कई प्रमुख व्यापारिक नगर थे। व्यापार – व्यवसाय का कार्य श्रेणियों द्वारा होता था। विभिन्न व्यवसायियों की अलग-2 श्रेणियाँ होती थी। वे अपने सदस्यों को व्यवसाय की भी शिक्षा देती थी, ताकि वे उनमें निपुणता प्राप्त कर सकें। हर्षचरित में उल्लेख मिलता है, कि राज्यश्री के विवाह के समय निपुण कलाकारों की श्रेणियाँ राजमहल को सजाने के निमित्त बुलायी गयी थी। प्रमुख स्थानों पर बाजारें लगती थी तथा वस्तुओं का क्रय-विक्रय होता था। समकालीन लेखों में शौल्किक, तारिक, हट्टमति आदि पदाधिकारियों का उल्लेख मिलता है, जो बाजार व्यवस्था से संबंधित थे।

इन सभी करों का विवरण निम्नलिखित है-

  • शौल्किक कर – चुंगी वसूलने वाला,
  • तारिक कर – नदी के घाट पर कर वसूलने वाला तथा
  • हट्टमति कर- बाजार में क्रय-विक्रय होने वाली वस्तुओं पर वसूलने वाला अधिकारी था।

कुछ नगर अपने व्यापार के कारण काफी प्रसिद्ध हो गये थे। ह्वेनसांग बताता है, कि थानेश्वर देश की समृद्धि का प्रधान कारण वहाँ का व्यापार ही था। बाण ने थानेश्वर नगरी को अतिथियों के लिये चिंतामणि भूमि तथा व्यापारियों के लिये लालभूमि बताया है। यहाँ के निवासी अधिकांशतः व्यापारी थे, जो विभिन्न वस्तुओं का व्यापार करते थे।

मथुरा सूती वस्रों के निर्माण के लिये प्रसिद्ध था। उज्जयिनी तथा कन्नौज भी आर्थिक दृष्टि से अत्यंत समृद्ध थे। बाण ने उज्जयिनी के निवासियों को करोङपति (कोट्याधीश) बताया है। वहाँ के बाजारों में बहुमूल्य हीरे-जवाहरात एवं मणियाँ बिक्री के लिये सजी रहती थी। कन्नौज दुर्लभ वस्तुओं के लिये प्रसिद्ध था, जो दूर-दूर देशों के व्यापारियों से खरीदी जाती थी। अयोध्या के लोग विविध शिल्पों में अग्रणी थे। देश में सोने तथा चाँदी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध थे। सिक्के विनिमय के माध्यम थे। किन्तु इस काल के बहुत कम सिक्के मिलते हैं, जो पतन व्यापार-वाणिज्य की पतनोन्मुख दशा का सूचक है।

देश में आंतरिक तथा बाह्य दोनों ही प्रकार का व्यापार होता था। इसके लिये थल तथा जल-मार्गों का उपयोग किया जाता था। कपिशा का वर्णन करते हुए ह्वेनसांग लिखता है, कि वहाँ भारत के प्रत्येक कोने से व्यापारिक सामग्रियाँ पहुँचायी जाती थी। यहाँ से भारतीय व्यापारी पश्चिमी देशों को जाते थे। कश्मीर से होकर मध्य एशिया तथा चीन तक पहुँचा जाता था। पूर्वी भारत में ताम्रलिप्ति तथा पश्चिमी भारत में भङौंच सुप्रसिद्ध व्यापारिक बंदरगाह थे। चीन तथा पूर्वी द्वीप समूहों के साथ भारत का घनिष्ठ व्यापारिक संबंध था। ताम्रलिप्ति से जहाज मलय प्रायद्वीप तक जाते थे।यहाँ से एक मार्ग पश्चिम की ओर जाता था। इत्सिंग लिखता है, कि जब वह यहाँ से पश्चिम की ओर चला तो कई सौ व्यापारी उसके साथ बोधगया तक गये थे। अयोध्या तथा ताम्रलिप्ति के बीच भी एक व्यापारिक मार्ग था।

बोधगया कहाँ स्थित है ?

इस प्रकार यद्यपि साहित्य में हर्षकालीन भारत की समृद्धि का चित्रण है, तथापि भौतिक प्रमाणों से इस बात की सूचना मिलती है, कि आर्थिक दृष्टि से यह पतन का काल था। अहिच्छत्र तथा कौशांबी जैसे नगरों की खुदाइयों के उत्तरगुप्तकालीन स्तर उनके पतन की सूचना देते हैं।

चीनी यात्री ह्वेनसांग के विवरण से भी इस बात का पता चलता है, कि सातवीं शता.तक कई नगर तथा शहर निर्जन हो चुके थे। इस काल में मुद्राओं तथा व्यापारि-व्यवसायिक श्रेणियों की मुहरों का घोर अभाव देखने को मिलता है। इन सभी प्रमाणों से सिद्ध होता है, कि यह काल व्यापार-वाणिज्य के पतन का काल था, और समाज उत्तरोत्तर कृषि-मूलक होता जा रहा था।

References :
1. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, लेखक- के.सी.श्रीवास्तव 

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