इतिहासप्राचीन भारतमौखरी राजवंश

मौखरि वंश तथा उत्तरगुप्त वंश के बीच संबंध कैसे थे

गुप्त वंश के पतन के बाद उत्तर भारत में जो शक्तियाँ स्वतंत्र हुई, उनमें कन्नौज के मौखरि तथा मगध और मालवा के उत्तर गुप्त विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण थे। इन दोनों राजवंशों का इतिहास बहुत कुछ हद तक दूसरे से समानता रखता है। प्रारंभ में दोनों ही सम्राट गुप्तवंश के सामंत थे, तथा उनके पारस्परिक संबंध मैत्रीपूर्ण रहे। किन्तु जब दोनों ही राजवंश स्वतंत्र हुए तो इन दोनों वंशों का मैत्रीपूर्ण संबंध शत्रुता (युद्ध) में बदल गया, जो 6वी. शता.ईस्वी के उत्तर भारत की प्रमुख घटना है।

इन दोनों राजवंशों(मौखरि तथा गुप्तोत्तर) में दोनों तरह (मैत्री तथा युद्ध) के संबंध थे, जिनका विवरण निम्नलिखित है-

मैत्री-संबंध

शुरुआत में मौखरि तथा उत्तरगुप्त दोनों ही सम्राट गुप्तवंश के अधीन थे। तीन पीढियों तक दोनों के संबंध मैत्रीपूर्ण बने रहे। मौखरिवंश का प्रथम शासक हरिवर्मा था, जो 510 ईस्वी में शासन करता था। उसका समकालीन उत्तरगुप्तवंशी नरेश कृष्णगुप्त हुआ, जो गुप्तोत्तर वंश का संस्थापक था। इस समय गुप्त साम्राज्य पतनोन्मुख था। अतः दोनों ही सम्राटों ने एक दूसरे की शक्ति को बढाने में एक-दूसरे को सहयोग किया।

हर्षगुप्ता, जो उत्तरगुप्त सम्राट कृष्णगुप्त की पुत्री थी, का विवाह मौखरि नरेश हरिवर्मा के बेटे आदित्यवर्मा के साथ हुआ। इस प्रकार ऐसे संबंधों से दोनों नरेशों में मैत्री के संबंध स्थापित हुए।

मौखरिवंश का अगला शासक आदित्यवर्मा था, जो हरिवर्मा का बेटा था। उसका समकालीन उत्तरगुप्त का शासक हर्षगुप्त था, जो कृष्णगुप्त का पुत्र था। हर्षगुप्त की बहन का विवाह आदित्यवर्मा के साथ किया गया।

मौखरिवंश का तीसरा शासक ईश्वरवर्मा था, जो आदित्यवर्मा का पुत्र था। इसका समकालीन उत्तरगुप्त का शासक जीवितगुप्त प्रथम हुआ, जो हर्षगुप्त का पुत्र था। ईश्वरवर्मा का विवाह उत्तरगुप्त वंश के नरेश हर्षगुप्त की पुत्री उपगुप्ता से हुआ। उपगुप्ता जीवितगुप्त प्रथम की बहिन थी।

इस प्रकार हम कह सकते हैं, कि प्रारंभिक 3 मौखरि शासक मौखरिवंश के ऐसे शासक थे, जिनके समय में 550 ईस्वी तक मौखरि तथा उत्तरगुप्त संबंध मैत्रीपूर्ण रहे।

अब हुआ यह कि दोनों ही राजवंश अपनी-2 शक्ति का विस्तार करने में लगे हुए थे । अपने-2 विस्तार के लिये इन दोनों राजवंशों ने एक दूसरे का सहयोग भी किया था। इस समय में ये दोनों राजवंश सामंत स्थिति में थे। इस सामंत स्थिति का पता उनके द्वारा धारण उपाधि से लगता है।

युद्ध या संघर्ष के संबंध

6वीं शता. के मध्य मगध का शक्तिशाली गुप्त वंश छिन्न-भिन्न हो गया। इसके साथ ही उत्तर भारत में घोर अराजकता फैल गयी। अलग-2 भागों में नई-2 शक्तियों ने अपनी स्वाधीनता घोषित कर दी। इन नई शक्तियों में मौखरि तथा उत्तरगुप्त भी सम्मिलित थे।

मौखरि राजवंश को सामंत स्थिति से स्वतंत्र स्थिति में पहुँचाने वाला प्रथम शासक ईशानवर्मा था, जबकि उत्तरगुप्त ने कुमारगुप्त के नेतृत्व में अपनी स्वतंत्रता घोषित कर दी। दोनों ही शासकों ने महाराजाधिराज की उपाधि ग्रहण की तथा साम्राज्य विस्तार में एक दूसरे के प्रतिद्वन्द्वी हो गये।

अब यह हुआ कि तीन पीढियों से उनका जो मैत्री पूर्ण संबंध चला आ रहा था, वो अब शत्रुता में बदल गया। इन दोनों ही राजवंशों का उद्देश्य अपनी शक्ति को बढाना तथा उत्तर भारत का चक्रवर्ती सम्राट बनना था।

मौखरि तथा उत्तरगुप्तों का प्रथम प्रत्यक्ष संघर्ष

दोनों राजवंशों में प्रथम प्रत्यक्ष संघर्ष ईशानवर्मा तथा कुमारगुप्त के मध्य हुआ।

इस युद्ध में ईशानवर्मा की हार हुई तथा कुमारगुप्त की विजय हुई।

मौखरियों की इस हार से उनकी साम्राज्यवादी आशाओं पर पानी फिर गया।

ईशानवर्मा के बाद उसका पुत्र सर्ववर्मा कन्नौज का शासक बना। तथा इसका समकालीन उत्तरगुप्त का शासक दामोदरगुप्त बना, जो कुमारगुप्त का बेटा था। इन दोनों शासकों में भयंकर युद्ध हुआ। इस युद्ध में दामोदरगुप्त की पराजय हुई। तथा मौखरि शासक सर्ववर्मा ने मगध के ऊपर अपना अधिकार स्थापित कर लिया।

देवबर्नाक के लेख से पता चलता है, कि सर्ववर्मा का अधिकार मगध पर हो गया था। उसने वारुणीक ग्राम जो बिहार में स्थित है, को दान में दिया था। यह स्थान पहले मगध में स्थित था।मगध के मौखरि आधिपत्य में चले जाने के बाद उत्तरगुप्तों का राज्य केवल मालवा क्षेत्र में ही सीमित हो गया। इसी कारण दामोदरगुप्त के पुत्र महानेगुप्त को हर्षचरित में मालवराज कहा गया है।

सर्ववर्मा के बाद उसका पुत्र अवंतिवर्मा मौखरि वंश का शासक बना। उसका प्रतिद्वन्द्वी महासेनगुप्त था, जो दामोदरगुप्त का पुत्र था। विद्वानों के लेखों से पता चलता है, कि महासेनगुप्त मौखरि नरेश अवंतिवर्मा की अधीनता स्वीकार करता था।

मौखरियों के विरुद्ध अपनी स्थिति मजबूत करने के लिये ही महासेनगुप्त ने अपनी बहन महासेनगुप्ता का विवाह थानेश्वर के वर्धननरेश राज्यवर्धन प्रथम के साथ किया था। प्रभाकरवर्धन महासेनगुप्ता का पुत्र था।

मौखरि वंश का राजनैतिक इतिहास

उत्तरगुप्त वंश का राजनैतिक इतिहास

अवंतिवर्मा के बाद उसका पुत्र ग्रहवर्मा कन्नौज के मौखरिवंश का शासक बना। इस समय मालवा में महासेनगुप्त की मृत्यु हो गयी थी। तथा यहाँ का शासक देवगुप्त था। ग्रहवर्मा का विवाह वर्धन वंश के नरेश प्रभाकर की पुत्री राज्यश्री के साथ हुआ, जिससे दोनों राजवंशों में मैत्री पूर्ण संबंध स्थापित हो गये। देवगुप्त ने अपनी स्थिति को मजबूत करने के लिये बंगाल के गौङनरेश के साथ संधि स्थापित कर ली।

प्रभाकरवर्धन की मृत्यु होते ही देवगुप्त ने कन्नौज के ऊपर आक्रमण कर ग्रहवर्मा को मार डाला। ग्रहवर्मा कन्नौज के मौखरिवंश का अंतिम शक्तिशाली राजा था। इसकी मृत्यु के साथ मौखरिवंश की स्वाधीनता का भी अंत हो गया।

References :
1. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, लेखक- के.सी.श्रीवास्तव 

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