पिट्स इंडिया एक्ट (When did the Pitt’s India Act come into force and who was the Governor General at that time)– 1781-82 ई. में इंग्लैण्ड की संसद ने वारेन हेस्टिंग्ज को वापस बुलाना चाहा, लेकिन प्रोपराइटर्स की सभा ने इसका सफलतापूर्वक विरोध किया। इस प्रकार 1773 के एक्ट द्वारा संसद कलकत्ता कौंसिल पर और कलकत्ता कौंसिल मद्रास तथा बंबई सरकार पर नियंत्रण करने में असमर्थ थी। रेग्युलेटिंग एक्ट में परिवर्तन की आवश्यकता स्पष्ट हो गयी। इसका अवसर भी शीघ्र उपलब्ध हो गया।
1782 ई. में पार्लियामेंट की एक सीक्रेट कमेटी की रिपोर्ट से कंपनी की बाकी नीतियों पर नियंत्रण करने की आवश्यकता पर बल दिया गया। कई प्रस्ताव अस्वीकृत कर देने के बाद प्रधानमंत्री छोटे पिट द्वारा प्रस्तुत नियम 1784 ई. में पास किया गया। यह नियम पिट्स इंडिया एक्ट के नाम से प्रसिद्ध है।
पिट्स इंडिया एक्ट के प्रावधान
- 6 कमिश्नरों का एक बोर्ड (जो बोर्ड ऑफ कंट्रोल के नाम से विख्यात हुआ) स्थापित किया गया जिसे भारत में अंग्रेजी अधिकृत क्षेत्र पर पूरा नियंत्रण का अधिकार दिया गया। संचालकों द्वारा भेजे गये समस्त पत्र इसकी अनुमति एवं आज्ञा के बिना नहीं भेजे जा सकते थे और भारत से आने वाले समस्त पत्र इस बोर्ड के समक्ष रखे जाते थे।
इस बोर्ड ऑफ कंट्रोल को संचालकों की अनुमति के बिना भी आदेश भेजने का अधिकार था। तीन संचालकों की एक गुप्त समिति बनाई गई और बोर्ड के गुप्त आदेश संचालकों की इस गुप्त समिति द्वारा भेजे जा सकते थे। कोर्ट ऑफ प्रोपराइटर्स के अधिकारों को बहुत सीमित कर दिया गया। - भारत में गवर्नर-जनरल की कौंसिल के सदस्यों की संख्या तीन कर दी गयी। गवर्नर तथा गवर्नर जनरल की नियुक्ति संचालक करते थे, किन्तु उन्हें वापस बुलाने का अधिकार सरकारों को पूरी तरह से बंगाल सरकार के अधीन कर दिया गया।
यदि उन्हें कोई आदेश सीधे संचालक समिति से मिले हों तो बंगाल सरकार के आदेशों के विपरीत हों तब भी वे आदेश पहले बंगाल सरकार के पास भेजने होंगे और फिर बंगाल सरकार के अनुसार कार्य करना होगा। - संचालकों अथवा बोर्ड ऑफ कंट्रोल की अनुमति के बिना गवर्नर जनरल को किसी भी भारतीय नरेश के साथ संघर्ष आरंभ करने का अथवा किसी राज्य को अन्य राज्यों के आक्रमण के विरुद्ध सहायता के आश्वासन देने का अधिकार नहीं था। इसी एक्ट में यह घोषणा भी की गयी थी कि भारत में राज्य विस्तार और विजय की नीति का अनुसरण इस राष्ट्र (इंग्लैण्ड) की नीति, प्रतिष्ठा तथा इच्छा के विरुद्ध है।
- भारत में नौकरियों की भर्ती संचालकों के अधिकार में ही रही। बम्बई और मद्रास के गवर्नरों को कलकत्ता अथवा इंग्लैण्ड के अधिकारियों की आज्ञाओं के उल्लंघन करने पर निलंबित किया जा सकता था।
पिट्स इंडिया एक्ट का मूल्यांकन
पिट्स इंडिया एक्ट के मूल्यांकन को निम्नलिखित बिन्दुओं से समझ सकते हैं-
- भारतीय प्रशासन पर इंग्लैण्ड सरकार का निश्चित अधिकार स्थापित हो गया। बोर्ड ऑफ कंट्रोल का अध्यक्ष मंत्रिमंडल का एक सदस्य होता था और इस प्रकार वह प्रणाली स्थापित हुई जो थोङे बहुत परिवर्तन से 1947 ई. तक चलती रही। 1858 ई. में कंपनी के अधिकारों को समाप्त करके बोर्ड ऑफ कंट्रोल के अध्यक्ष को ही भारत सचिव बनाया गया।
- पिट्स इंडिया एक्ट की विशेषता यह थी कि इसने पदों पर नियुक्ति का अधिकार संचालकों के पास छोङ दिया जिससे वे सरकार के नीति नियंत्रण को सहर्ष स्वीकार कर सकें। बोर्ड ऑफ कंट्रोल का वास्तविक कार्य सरकार के दो सदस्यों द्वारा होता था, अन्य चार सदस्य कम रुचि रखते थे। इस प्रकार नीति संचालन पूरी तरह इंग्लैण्ड सरकार के अधीन हो गया। अल्बर्ट का कथन सत्य है कि पिट्स ने कंपनी के संविधान में भारी परिवर्तन किए बिना ही सरकार का नियंत्रण स्थापित कर दिया।
- 1784 ई. के इस नियम से इंग्लैण्ड में कंपनी संचालन का उत्तरदायित्व एक प्रकार से दो संस्थाओं में बंट गया-संचालक समिति और बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल। बहुत बार इन संस्थाओं के परस्पर मतभेद सामान्य नीतियों के निर्माण में बाधाजनक हुए। विभिन्न प्रस्ताव इन संस्थाओं के मध्य निर्णय के लिए लटके होते थे। यह दोहरी प्रणाली 1858 ई. में समाप्त हुई थी। सी.एच.फिलिप्स ने ठीक ही कहा है कि 1784 का एक्ट एक चतुर एवं कुटिल प्रस्ताव था जिसने संचालक समिति की राजनीतिक सत्ता का मंत्रिमंडल के गुप्त एवं प्रभावशाली नियंत्रण में कर दिया था।
इस प्रकार स्पष्ट है कि इस अधिनियम द्वारा कंपनी के कार्यों को दो भागों में विभक्त कर दिया गया – राजनीतिक एवं व्यापारिक। व्यापारिक कार्यों का नियंत्रण कंपनी के हाथों में छोङ दिया गया, लेकिन कंपनी के राजनीतिक, सैनिक और शासन संबंधी कार्यों पर नियंत्रण रखने के लिए ब्रिटिश सरकार द्वारा बोर्ड ऑफ कंट्रोल की स्थापना की गयी।
इस एक्ट में की गई दोहरी शासन व्यवस्था क्लाइव की दोहरी शासन व्यवस्था से सर्वथा भिन्न थी, क्योंकि इसमें शासकीय संस्थाओं का उत्तरदायित्व निश्चित और स्पष्ट था। भारतीय नरेशों के साथ कंपनी के संबंधों तथा निर्हस्तक्षेप का नवीन सिद्धांत का इस अधिनियम द्वारा प्रतिपादन किया गया।