आधुनिक भारतइतिहास

प्रतिक्रियावाद का प्रतीक : लार्ड कर्जन

प्रतिक्रियावाद – जनवरी, 1899 ई. में लार्ड एल्गिन द्वितीय के स्थान पर लार्ड कर्जन भारत का गवर्नर-जनरल बनकर भारत आया। लार्ड कर्जन सेलिसबरी की सरकार में विदेश उपमंत्री तथा भारत उपसचिव जैसे महत्त्वपूर्ण पदों पर रह चुका था। गवर्नर-जनरल बनने से पूर्व वह चार बार भारत आ चुका था और एशिया की समस्याओं पर उसकी तीन पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी थी।

@videvmrstoriestv7

इतिहासकार पी.ई.राबर्ट्स ने लिखा है, भारत में किसी अन्य वायसराय को अपना पद संभालने से पूर्व भारत की समस्याओं का इतना ठीक ज्ञान नहीं था, जितना कि लार्ड कर्जन को। अपना पद ग्रहण करने पर उसने अपने एक भाषण में कहा था, मैं भारत को, इसके लोगों को, इसके इतिहास को, इसकी सरकार को, इसकी सभ्यता के रहस्य को और इसके जीवन को प्यार करता हूँ। फिर भी जब वह भारत से विदा हुआ, उस समय वह सबसे अधिक अलोकप्रिय गवर्नर-जनरल था।

लार्ड कर्जन के समक्ष भारत में अनेक समस्याएँ थी। अकाल और प्लेग तो उसे उत्तराधिकार में मिले थे। आय कम होने से सरकार के समक्ष भीषण आर्थिक संकट था। भारत की राजनीतिक स्थिति भी सर्वथा बदल चुकी थी। 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना हो चुकी थी। ऐसी परिस्थितियों में लार्ड कर्जन चाहता था कि वह भारत में ऐसे प्रशासनिक कार्य करे, जिससे ब्रिटिश साम्राज्य की जङे मजबूत हों तथा भारतीयों को गुलामी की बेङियों में दृढता से जकङ दिया जाय। कर्जन अपनी योग्यता में असीमित विश्वास तथा दूसरों पर उतना ही अविश्वास रखता था। इसलिए कई बार उसे ऐसे कार्य भी करने पङते थे, जो साधारण कर्मचारी कर सकता था। उसके प्रशासन की मुख्य विशेषताएँ थी – कार्य-कुशलता, किन्तु उसके प्रशानिक कार्य पूर्णतः प्रतिक्रियावादी थे।

वित्त संबंधी कार्य

लार्ड मेयो के काल में चले आ रहे वित्तीय विकेन्द्रीकरण को लार्ड कर्जन ने यथावत रखा, केवल उसने पंचवर्षीय व्यवस्था के स्थान पर स्थायी व्यवस्था को लागू किया। कर्जन के भारत आने से पूर्व 1898 में लार्ड एल्गिन द्वितीय ने एक वित्त आयोग का गठन किया था। इस वित्त आयोग ने सुझाव दिया कि इंग्लैण्ड के पौंड को भारत की सरकारी मुद्रा घोषित कर दी जाय तथा विनिमय दर 15 रुपये कर दी जाय। लार्ड कर्जन ने सितंबर, 1899 में एक अधिनियम द्वारा इस प्रस्ताव को कानूनी रूप प्रदान कर दिया। चाँदी के सिक्कों से प्राप्त होने वाले लाभ में से सोने का एक रक्षित कोष स्थापित किया गया, ताकि विनिमय दर में स्थायित्व बना रहे। भारत से निर्यात की जाने वाली चाय पर भी उसने आवश्यक कर लगाया तथा नमक कर में भी कमी कर दी। किन्तु कर्जन ने अपने देश के हितों की रक्षार्थ भारत को एक उपनिवेश समझते हुए औद्योगिक विकास नहीं किया, जबकि उस समय भारत में औद्योगिक विकास संभव था।

अकाल एवं कृषि

कर्जन के आने से पूर्व भारत में भयंकर अकाल पङा था। भारतीय नेताओं का कहना था कि अकाल का प्रकोप इसलिये अधिक था कि किसानों से लगान अधिक लिया जाता है, जिससे संकट का सामना करने के लिए उनके पास कुछ नहीं बचता। 1900 में भारतीय नेताओं ने कर्जन को एक स्मरण-पत्र देकर अनेक सुझाव दिये, किन्तु कर्जन ने उन पर कोई ध्यान नहीं दिया। उसने मेकडोनल्ड की अध्यक्षता में एक अकाल आयोग गठित किया। 1901 में इस आयोग ने गैर-सरकारी सहायता प्राप्त करने का सुझाव दिया तथा रेलों, कृषि एवं सिंचाई के कार्यों में नियुक्त कर्मचारियों की संख्या में वृद्धि करने की सिफारिश की। आयोग की सिफारिशों के आधार पर अकाल संहिता में संशोधन किया गया। अकाल व सूखे के कारण कृषि की भी समस्या खङी हो चुकी थी।

अतः कृषि में सुधार करने हेतु निम्नलिखित कदम उठाये-

1900 ई. में पंजाब भूमि स्वामित्व हस्तान्तरण अधिनियम पास करके इस बात का प्रयत्न किया कि भूमि कृषक जातियों से गैर-कृषक जातियों को हस्तांतरित न की जाय। इस अधिनियम की भावना अच्छी थी, किन्तु कृषक जातियों की सूची मनमाने ढंग से तैयार की गयी तथा उन वर्गों को गैर-कृषक घोषित कर दिया जिनमें राजनैतिक जागृति अधिक दिखाई देती थी।

1902 में एक घोषणा द्वारा किसानों को बहुत सी सुविधाओं का आश्वासन दिया गया, किन्तु ये आश्वासन मात्र कागजों में ही रहे, वास्तविक कार्य कुछ भी नहीं हुआ। जिलाधिकारियों की स्वेच्छा पर छोङ दिया गया, जिससे प्रशासन में भ्रष्टाचार फैल गया।

1904 में सहकारी समितियों की स्थापना कर किसानों को कम ब्याज पर ऋण दिया जाय। किन्तु इस पर ठोस कार्य न हो सका, क्योंकि सहकारी समितियों में भी प्रतिक्रियावादी तत्वों का बहुमत था।

1901 में कृषि महानिरीक्षक की नियुक्ति की गयी तथा 1905 में पूसा कृषि अनुसंधान संस्थान स्थापित की गयी, ताकि कृषि का वैज्ञानिक तरीके से विकास किया जा सके। किन्तु सामान्य जनता तक उसके लाभ नहीं पहुँच सके।

1901 में कर्जन ने एक सिंचाई आयोग गठित किया और इस आयोग की सिफारिशों के आधार पर अनेक नई नहरों का निर्माण किया गया। किन्तु नहरों के निर्माण में क्षेत्रों का चुनाव मनमाने ढंग से किया गया, जिससे सामान्य किसानों को इन सुविधाओं से कोई लाभ प्राप्त न हो सका।

रेल लाइनों का निर्माण

कर्जन के आने से पूर्व भारत में रेल-संचालन की दोहरी व्यवस्था थी कुछ रेलों का प्रबंध निजी कंपनियों के पास था और कुछ का भारत सरकार के पास था। इस दोहरी व्यवस्था पर विचार करने के लिए कर्जन ने सर थॉमस राबर्ट्सन को नियुक्त किया। 1903 में राबर्ट्सन ने अपना प्रतिवेदन प्रस्तुत किया, जिसमें वर्तमान व्यवस्था में आमूल परिवर्तन कर रेलों का संपूर्ण कार्य इस बोर्ड को सौंप दिया। इस बोर्ड ने नई रेल लाइनों के निर्माण का कार्य हाथ में लिया। जिस समय कर्जन भारत से विदा हुआ, उस समय भारत में लगभग 28,150 मील रेल लाइनों का निर्माण हो चुका था तथा लगभग 3,167 मील रेल लाइनों का निर्माण कार्य चल रहा था। कर्जन द्वारा रेलवे बोर्ड की स्थापना, भारतीय रेल इतिहास में एक युगांतकारी घटना थी।

शिक्षा संबंधी कार्य

लार्ड रिपन के काल में हंटर आयोग की सिफारिशें लागू कर दी गयी थी और सरकार ने उच्च शिक्षा के दायित्वों से हाथ खींच लिया था। कर्जन उच्च शिक्षा पर सरकारी नियंत्रण चाहता था। कर्जन का मुख्य उद्देश्य भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रभाव को कम करना था। उसका विचार था कि उच्च शिक्षा पर सरकारी नियंत्रण स्थापित हो जाने से कांग्रेस का प्रभाव कम हो जायेगा। अतः सितंबर, 1901 में उसने विभिन्न सरकारी अधिकारियों का शिमला में एक सम्मेलन आयोजित किया, जहाँ उसने कॉलेजों व विश्वविद्यालयों पर सरकारी नियंत्रण बढाने की बात कही। कर्जन की इस नीति की तीव्र आलोचना हुई। अतः जनवरी, 1902 में कर्जन ने सर थॉमस रैले की अध्यक्षता में एक आयोग गठित किया, जिसमें दो भारतीय सदस्य भी थे। जून, 1902 में इस आयोग ने कॉलेजों को सरलता से मान्यता न देने, विश्वविद्यालयों के विभिन्न निकायों में सरकारी प्रतिनिधित्व बढाने तथा विधि शिक्षा को केन्द्रित न करने के सुझाव दिये। लार्ड रिपन उदारवाद का प्रतीक

रैले आयोग की सिफारिशों के आधार पर प्राथमिकताएँ समाप्त कर दी गयी तथा प्राथमिक स्तर के छात्रों का मूल्यांकन परीक्षाफल के आधार पर न होकर वर्ष भर की योग्यता के आधार पर कर दिया। 1904 में उसने भारतीय विश्वविद्यालय अधिनियम पारित किया, जिसमें मुख्य रूप से निम्नलिखित धाराएँ थी-

  • भारत में तीनों पुराने विश्वविद्यालयों के सीनेट के सदस्यों की संख्या कम से कम 50 तथा अधिक से अधिक 100 निर्धारित कर दी गयी। नवस्थापित विश्वविद्यालयों के लिए सदस्य संख्या क्रमशः 40 और 75 निर्धारित की गयी। सिंडिकेट के सदस्यों की संख्या 20 से भी कम कर दी गयी। इन निकायों में सरकार द्वारा मनोनीत सदस्यों की संख्या 80 प्रतिशत कर दी गयी।
  • विश्वविद्यालयों द्वारा कॉलेजों को मान्यता देने का अधिकार सरकार को दिया गया। प्रोफेसरों एवं प्राध्यापकों की नियुक्ति के लिए भी सरकार की स्वीकृति अनिवार्य कर दी गयी। यह भी स्पष्ट कर दिया गया कि नीति संबंधी मामले सरकार की अनुमति से ही तय किये जायेंगे।
  • स्नातकोत्तर शिक्षा का प्रबंध विश्वविद्यालयों को दे दिया गया तथा विश्वविद्यालयों द्वारा कॉलेजों के निरीक्षण की भी व्यवस्था की गयी। इससे विश्वविद्यालयों में शोध की सुविधाएँ कम हो गयी।

भारत के राष्ट्रवादियों ने इस नीति की कटु आलोचना की। वस्तुतः उस समय देश में राष्ट्रीय आंदोलन उत्पन्न हो रहा था, जिसे कर्जन ने भाँप लिया था। अतः कर्जन की नीति का लक्ष्य राष्ट्रीय विचारधारा को कुण्ठित कर राष्ट्रीय आंदोलन को समाप्त करना था। फलस्वरूप कर्जन ने शिक्षा के क्षेत्र में जो कार्य किये, उन्हें प्रतिक्रियावादी तथा भारतीयों को गुलामी की बेङियों में जकङने का प्रयत्न मात्र कहा गया। किन्तु कर्जन के प्रयत्नों से इतना लाभ अवश्य हुआ कि अब विश्वविद्यालय केवल परीक्षा लेने वाली संस्थाएँ न रहकर वास्तविक शिक्षण संस्थाएँ बन गयी, जिससे आगे चलकर शिक्षा का स्तर ऊँचा उठा।

पुलिस विभाग का प्रशासन

पुलिस की योग्यता के संबंध में जनता में संदेह था तथा उसके कार्यों से जन असंतोष था। वस्तुतः उस समय पुलिस विभाग में अधिकांश कर्मचारी भारतीय थे, इसलिये कर्जन की दृष्टि में पुलिस विभाग में कार्यकुशलता का अभाव था। अतः कर्जन ने 1902 में सर एन्ड्रयू फ्रेजर की अध्यक्षता में एक पुलिस आयोग का गठन किया । इस आयोग ने अपनी रिपोर्ट में पुलिस प्रशासन की खूब निन्दा की और सुझाव दिया कि उच्च पदों पर पदोन्नति न करके सीधी भर्ती की जाय, अखिल भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारी यूरोपियन होने चाहिये तथा प्रान्तीय पुलिस सेवा के लिए भर्ती भारत में की जाय।

आयोग ने यह भी सुझाव दिया कि पुलिस अधिकारियों के लिए प्रशिक्षण केन्द्र स्थापित किया जाय और प्रत्येक प्रान्त में खुफिया पुलिस विभाग की स्थापना की जाय, जो केन्द्र के अधीन हो। कर्जन ने इस आयोग की शिफारिशों को लागू करके पुलिस विभाग का पुनर्गठन किया। इस पुनर्गठन में अंग्रेज जिला पुलिस अधिकारियों की संख्या बढा दी और उच्च पदों पर केवल अंग्रेजों की सीधी भर्ती की गयी। इस प्रकार कर्जन ने प्रजातीय विभेद को और अधिक बढावा दिया।

कलकत्ता निगम अधिनियम

कर्जन ने 1900 ई. में कलकत्ता निगम अधिनियम पारित करके प्रशासन पर प्रतिक्रियावादी नीति की स्पष्ट छाप अंकित कर दी। इस अधिनियम द्वारा यद्यपि नगर के कार्यों का उत्तरदायित्व कलकत्ता निगम को सौंप दिया गया, किन्तु निगम में यूरोपियन सदस्यों का बहुमत कर दिया गया। निगम के सदस्यों की संख्या 75 से घटाकर 50 कर दी और इनमें भी निर्वाचित सदस्यों की संख्या कम करके मनोनीत सरकारी सदस्यों का बहुमत स्थापित कर दिया गया।

लार्ड कर्जन स्वायत्त निकायों पर सरकारी नियंत्रण स्थापित करने का पक्षपाती था। अतः उसने कलकत्ता निगम अधिनियम पारित करके निगम की स्वायत्तता समाप्त कर दी। उसने निगम के अध्यक्ष पद पर सरकारी अधिकारी को नियुक्त किया। भारत में राष्ट्रवादियों ने इस कार्यवाही की कटु आलोचना की और इसके विरुद्ध कलकत्ता में आंदोलन छिङ गया। लगभग 28 म्युनिसिपल समितियों के निर्वाचित सदस्यों ने त्यागपत्र दे दिया, किन्तु इस जन आंदोलन का कर्जन पर कोई प्रभाव नहीं पङा, वरन वह अत्यधिक प्रतिक्रियावादी होता गया।

बंगाल का विभाजन

19 वीं शताब्दी के अंत में जनसंख्या व क्षेत्रफल की दृष्टि से बंगाल एक बहुत बङा प्रांत था। वर्तमान पश्चिमी बंगाल, बिहार, उङीसा और बांग्लादेश उस समय बंगाल प्रान्त में थे और प्रान्त की जनसंख्या 7 करोङ 80 लाख थी। अतः प्रशासन का भार इतना बढ गया थि कि एक लेफ्टिनेंट गवर्नर द्वारा प्रशासन चलाना कठिन हो रहा था। अतः बंगाल को दो भागों में भाँटने के प्रस्ताव आने लगे। दिसंबर, 1903 में लार्ड कर्जन ने इस प्रश्न पर गंभीरता से विचार कर एक सरकारी निर्णय से जनसाधारण को सूचित किया कि, बंगाल को दो भागों में विभाजित कर दिया जाय तो इन दोनों भागों में निश्चित रूप से प्रशासनिक कुशलता होगी, जिससे जनता अधिकाधिक मात्रा में संतुष्ट होगी।

विभाजन की योजना स्पष्ट करते हुए बताया कि ढाका, मेमनसिंह और चटगाँव को असम में मिला दिया जायेगा और उङिया भाषी क्षेत्रों को बंगाल के अधीन कर दिया जायेगा। इस विभाजन के संबंध में कर्जन के मन में एक बात यह भी थी कि बंगाल-विभाजन से बंगालियों का राष्ट्रीयता में योगदान कम हो जायेगा।

इस घोषणा के तुरंत बाद इसकी आलोचना आरंभ हो गयी। बंगालियों के विचार में यह विभाजन प्रशासनिक सुविधा से नहीं किया जा रहा था, क्योंकि प्रशासनिक सुविधा के कई विकल्प प्रस्तुत किये गये थे, किन्तु कर्जन ने किसी अन्य योजना को स्वीकार नहीं किया था। अतः बंगालियों की दृष्टि में यह विभाजन प्रान्त की राजनीतिक एकता को नष्ट करने के लिये किया जा रहा था तथा हिन्दुओं को मुसलमानों के विरुद्ध भङकाने का प्रयत्न किया जा रहा था। अतः विभाजन के विरुद्ध एक आंदोलन उठ खङा हुआ।

कर्जन ने फरवरी, 1904 में पूर्वी बंगाल का दौरा किया। इस दौरे के बाद उसने दृढ निश्चय कर लिया कि बंगाली एकता को निश्चित रूप से भंग कर दिया जाय। अतः इन आंदोलनों के समक्ष झुकना तो दूर रहा, कर्जन इनके प्रति और दृढ हो गया। उसने विभाजन की योजना तैयार करके 16 अक्टूबर, 1905 में बंगाल को दो भागों में विभाजित कर दिया। विभाजन के अनुसार राजशाही, दीनाजपुर, मालदा व कूचबिहार भी असम के साथ मिलाकर एक नया प्रान्त बनाया गया, जिसकी राजधानी ढाका रखी गयी। इस नये प्रान्त में विधानसभा तथा राजस्व-मंडल की स्थापना की गयी। शेष प्रान्त को पश्चिमी बंगाल के नाम से पृथक कर दिया गया। बंगाल विभाजन में कर्जन का राजनीतिक लक्ष्य बंगला भाषी हिन्दुओं को दोनों प्रान्तों में अल्पमत में रख देना था और पूर्वी बंगाल के मुसलमानों का सहयोग प्राप्त करना था।

बंगाल विभाजन ने ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध संगठित विरोध उत्पन्न कर दिया। भारतीयों के विचार से इस विभाजन में साम्प्रदायिक तत्व छिपे हुए थे। वस्तुतः उनका विचार सही भी था, क्योंकि स्वयं कर्जन ने पूर्वी बंगाल की एक सभा में भाषण देते हुए कहा था कि विभाजन का उद्देश्य एक मुस्लिम प्रान्त की रचना करना था, जहाँ केवल इस्लाम का प्रभुत्व हो। इससे जन आंदोलन और अधिक भङक उठा। किन्तु कर्जन के समर्थकों ने इसे उचित ठहराया। इतिहासकार पी.ई.राबर्ट्स के अनुसार कर्जन ने यह कदम प्रशासन की श्रेष्ठता के लिए उठाया था। उसकी दृष्टि में यह परिवर्तन प्रशासकीय सीमाओं का पुनर्गठन मात्र था, जनभावना को ठेस पहुँचाना उसका लक्ष्य नहीं था। इस निर्णय को लेने से पूर्व कर्जन को क्या मालूम था कि उसके विरुद्ध इतना भयंकर आंदोलन उठ खङा होगा और एक बार निर्णय करके पीछे हटना उसकी नीति के विरुद्ध था…….दृढता के अभाव में प्रशासन का चक्र नहीं चलता। झुकने वाले प्रशासकों की साख खत्म हो जाती है और उन्हें जनसेवा से मुक्ति लेनी पङती है।

राबर्ट्स का यह कथन इतिहास का कोई भी विद्यार्थी स्वीकार नहीं कर सकता। यदि कर्जन जनभावना को ठेस पहुँचाना नहीं चाहता था तो पूर्वी बंगाल की सभा में दिया गया उसका भाषण जनभावना को ठेस पहुँचाना नहीं चाहता था तो पूर्वी बंगाल की सभा में दिया गया उसका भाषण जनभावना को ठेस पहुँचाना नहीं चाहता था तो पूर्वी बंगाल की सभा में दिया गया उसका भाषण जनभावना का आदर करने वाला कदापि नहीं था। राबर्ट्स का यह कथन कि, झुकने वाले प्रशासकों की साख खत्म हो जाती है। सर्वथा मिथ्या है। 1883 में इल्बर्ट बिल विवाद के समय रिपन को झुकना पङा था। इससे रिपन की साथ खत्म क्यों नहीं हुई? क्या इसलिए कि वह यूरोपियनों के समक्ष झुकना पङा था। इससे रिपन की साख खत्म क्यों नहीं हुई? क्या इसलिए कि वह यूरोपियनों के समक्ष झुका था? सत्य तो यह है कि जन-भावनाओं का सम्मान करते हुए यदि किसी प्रशासक को अपना निर्णय बदलना भी पङे तो जनता उसका सम्मान कर सकती है।

इस विभाजन ने भारतीयों को संगठित कर दिया तथा भारतीयों के इस संगठित विरोध को शांत करने के लिए भारत सरकार को विवश होकर 1911 में बंगाल विभाजन रद्द करना पङा, जिसके दूसरगामी परिणाम हुए।

कर्जन – किचनर विवाद

उस समय व्यवस्था यह थी कि सेना का प्रधान सेनापति गवर्नर-जनरल की परिषद का भी सदस्य होता था। किन्तु वह सैनिक कार्यों में व्यस्त होने के कारण परिषद की बैठकों में अधिक समय नहीं दे सकता था। अतः एक प्रशासकीय विभाग की स्थापना की गयी जिसका अध्यक्ष, गवर्नर-जनरल की परिषद का सदस्य होता था, जिसे मिलट्री मेम्बर कहते थे। वह सेना की किसी कमान को नहीं संभालता था। उसका मुख्य कार्य प्रधान सेनापति के प्रस्तावों पर अपना मत व्यक्त करते हुए गवर्नर जनरल को उन प्रस्तावों के औचित्य व अनौचित्य को बताना था।

1902 में लार्ड किचनर प्रधान सेनापति नियुक्त होकर भारत आया। किचनर ने इस प्रचलित व्यवस्था को अवांछनीय बताया तथा इसका विरोध किया। उसने सेना के कार्यों व प्रशासन को एक करने की सलाह दी। अतः 1905 में भारत सचिव ने इस प्रश्न पर विचार करने हेतु मामला कर्जन के पास भेज दिया।

कर्जन ने इस प्रश्न को परिषद के समक्ष रखा। किचनर ने प्रचलित व्यवस्था का कङा विरोध किया और कहा कि व्यवस्था में मिलट्री मेम्बर को प्रधान सेनापति से अधिक शक्तियाँ प्राप्त हैं, जबकि वह प्रधान सेनापति से निम्न पद का व्यक्ति है। किचनर ने यह भी कहा कि मिलट्री मेम्बर द्वारा परिषद में बैठकर प्रधान सेनापति के कार्यों की आलोचना करना हमेशा अनुचित है, क्योंकि उसे सैनिक मामलों का कोई अनुभव नहीं है।

किन्तु कर्जन का कहना था कि सेना के कार्यों के अंग व प्रशासन को एक कर देने से सेना की पूर्ण सत्ता एक व्यक्ति के हाथ में केन्द्रित हो जायेगी। परिषद के सभी सदस्यों ने कर्जन का समर्थन किया तथा भारत सचिव को परिषद की संपत्ति भेजते समय किचनर का विरोध-पत्र भी उसके साथ लगा दिया गया। भारत सचिव ने दोनों पक्षों में मेल करवाना उचित समझा तथा निर्णय दिया गया कि प्रशासन अधिकार केवल प्रधान सेनापति का हो। अन्य सहायक विभाग, परिषद के अन्य सदस्य की देखरेख में कार्य करें और इस सदस्य को सैनिक पूर्ति सदस्य कहा जाय। यह भी सुझाव दिया कि पुरानी व्यवस्था के अन्तर्गत इस पद पर कार्य कर रहे एडमण्ड एलिस को सेवानिवृत्ति कर उसके स्थान पर किसी अन्य व्यक्ति को नियुक्त किया जाय।

यह प्रस्ताव कर्जन को स्वीकार नहीं था, अतः वह त्यागपत्र देने के लिए तैयार हो गया किन्तु डान्जिल इबेट्सन द्वारा समझौता करा दिया गया। डान्जिन ने प्रस्ताव किया कि सैनिक पूर्ति सदस्य वायसराय को सैनिक प्रश्नों पर परामर्श देने के लिए उपलब्ध रहेगा। कर्जन और किचनर ने प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया। कर्जन ने इस पद पर सर एडमण्ड बैरी का नाम प्रस्तावित किया, किन्तु भारत सचिव ने इसे स्वीकार नहीं किया और कहा कि किसी व्यक्ति को नामजद करने से पूर्व किचनर से परामर्श ले लिया जाय। भारत मंत्री के इस निर्देश को कर्जन ने अपने आत्मसम्मान पर प्रहार समझा। अतः अगस्त, 1905 में उसने त्यागपत्र दे दिया।

Related Articles

error: Content is protected !!