गुप्त कालइतिहासप्राचीन भारतवाकाटक वंश

वाकाटक-गुप्त संबंध कैसे थे

जिस समय उत्तरी भारत में गुप्तवंश सार्वभौम स्थिति प्राप्त करने में लगा हुआ था, उसी समय दक्षिणापथ की राजनीति में एक प्रबल शक्ति के रूप में वाकाटक वंश का उदय हुआ। वाकाटकों की गणना दक्षिणापथ की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण एवं सबल शक्ति के रूप में की जाती थी।

वाकाटकों एवं गुप्तों की सम्मिलित शक्ति के कारण ही शकों का विनाश संभव हो पाया था।

गुप्त एवं वाकाटक संबंधों के बारे में अलग-२ विद्वानों के अलग-२ मत थे, जिनका विवरण निन्मनानुसार है-

गुप्तों एवं वाकाटकों के बीट शत्रुतापूर्ण संबंध थे-

वाकाटकों तथा गुप्तों के प्रारंभिक संबंधों के विषय में विद्वानों में मतभेद है। इतिहासकार एस.के.आयंगर तथा के.पी.जायसवाल की धारणा है, कि दोनों राजवंशों के प्रारंभिक संबंध शत्रुतापूर्ण थे। गुप्त शासक समुद्रगुप्त ने वाकाटकों के निकट संबंधी पद्मावती के भारशिवनाग शासक नागसेन का उन्मूलन किया था। मध्य भारत के कई भागों में वाकाटकों के सामंत शासन कर रहे थे। जिनका समुद्रगुप्त ने विनाश कर डाला था। ऐसी स्थिति में वाकाटकों का शांत बैठे रहना संभव नहीं था। तथा उन्होंने गुप्तों के विरुद्ध अवश्य ही अस्र ग्रहण किया होगा।

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प्रवरसेन प्रथम (275-335 ईस्वी) के काल में वाकाटक सार्वभौम स्थिति में थे। यही कारण है कि उसने सम्राट की उपाधि ग्रहण की थी। किन्तु प्रवरसेन का पुत्र तथा उत्तराधिकारी रुद्रसेन प्रथम सार्वभौम स्थिति से घटकर सामंत स्थिति को प्राप्त हुआ, जैसा कि उसकी महाराज उपाधि से सूचित होता है। गुप्तों के इतिहास के संदर्भ में हम यह पाते हैं, कि इसी समय चंद्रगुप्त प्रथम ने सामंत स्थिति से ऊपर उठकर सार्वभौम स्थिति को प्राप्त किया तथा महाराजाधिराज की उपाधि धारण की।

चंद्रगुप्त ने वाकाटकों को परास्त किया, तथा अपनी राजनीतिक स्थिति को मजबूत किया।

जायसवाल कौमुदीमहोत्सव के आधार पर यह सिद्ध करने का प्रयास करते हैं, कि वस्तुतः वाकाटकों की शक्ति को समुद्रगुप्त ने आघात पहुँचाया, जिससे वे सामंत स्थिति को प्राप्त हुये। समुद्रगुप्त के पूर्व तो वाकाटकों ने ही गुप्तों को अपने नियंत्रण में रखा था। प्रवरसेन ने पाटलिपुत्र पर आक्रमण कर चंडसेन का उन्मूलन कर दिया। चंडसेन के पुत्र तथा उत्तराधिकारी समुद्रगुप्त ने गुप्त शक्ति का पुनरुद्धार किया। समुद्रगुप्त द्वारा उन्मूलित वाकाटक नरेश रुद्रसेन था, जिसे प्रयाग प्रशस्ति में रुद्रदेव कहा गया है।वह कौशांबी में राज्य कर रहा था। वहीं पर युद्ध में समुद्रगुप्त ने उनका विनाश किया था। जायसवाल की धारणा है,कि इसके पूर्व समुद्रगुप्त भी वाकाटकों का सामंत था।यही कारण है,कि समुद्रगुप्त के व्याघ्रहनन का समीकरण वाकाटक नरेश पृथ्वीषेण के सामंत व्याघ्रदेव के साथ करते हैं तथा इस आधार पर यह प्रतिपादित करते हैं कि, चूँकि समुद्रगुप्त ने वाकाटकों के सामंत को पराजित किया था, अतः दोनों राजवंशों के बीच अवश्य ही युद्ध छिङा होगा।

इस प्रकार आयंगर, जायसवाल, फ्लीट तथा सरकार ने विभिन्न तर्कों द्वारा सिद्ध करने का प्रयास किया है, कि चंद्रगुप्त द्वितीय के पूर्व वाकाटकों तथा गुप्तों के बीच किसी न किसी प्रकार का युद्ध अवश्य हुआ था।

गुप्तों एवं वाकाटकों के बीच मित्रतापूर्वक संबंध निम्नलिखित थे-

इस मत के लिये कोई आधार नहीं है, कि चंद्रगुप्त प्रथम ने प्रवरसेन प्रथम के उत्तराधिकारी रुद्रसेन को पराजित किया, जिससे वह सामंत स्थिति में आ गया। महाराज की उपाधि को सामंत – सूचक नहीं माना जा सकता। दक्षिण भारत के अनेक स्वतंत्र शासक भी इसे ग्रहण करते थे। प्रसिद्ध चालुक्य शासक पुलकेशिन द्वितीय को भी महाराज कहा गया है। केवल उत्तर भारत के शासक ही गुप्तकाल से महाराज तथा महाराजाधिराज की उपाधियों में विभेद करने लगे तथा महाराजा को सामंत स्थिति का द्योतक माना गया।

अल्तेकर का विचार है, कि प्रवरसेन के उत्तराधिकारी द्वारा महाराज की उपाधि धारण करने के लिये राजनैतिक तथा धार्मिक कारण थे। राजनैतिक दृष्टि से वाकाटक साम्राज्य प्रवरसेन के बाद उसके चार पुत्रों में बँट गया। अतः कोई भी इतना अधिक शक्तिशाली नही हुआ कि वह सम्राट की उपाधि ग्रहण करता। धार्मिक दृष्टि से यह उपाधि केवल वही ग्रहण कर सकता था, जिसने वाजपेय यज्ञ का अनुष्ठान किया हो। प्रवरसेन प्रथम ने यह यज्ञ किया था। अतः उसने सम्राट की उपाधि ग्रहण की। इसके विपरीत यह यज्ञ नही कर सकने के कारण उसके उत्तराधिकारी इस उपाधि से वंचित रह गये। इस प्रकार मात्र महाराज उपाधि के आधार पर हम उन्हें सामंत शासक सिद्ध नहीं कर सकते।

गुप्तों की उत्पत्ति के संबंध में हम इस बात की समीक्षा कर चुके हैं कि कौमुदीमहोत्सव ऐतिहासिक रचना नहीं है। अतः इसके आधार पर कोई भी निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता। समुद्रगुप्त द्वारा उन्मूलित आर्यावर्त्त का शासक रुद्रदेव, रुद्रसेन नहीं है। रुद्रदेव दक्षिणापथ का राजा था, जबकि रुद्रदेव उत्तर भारत का शासक बनाया गया है। यदि सचमुच ही समुद्रगुप्त वाकाटक नरेश को परास्त करता तो इसका उल्लेख बङे गर्व के साथ प्रयाग प्रशस्ति में किया गया होता।

जायसवाल ने समुद्रगुप्त के व्याघ्रहनन प्रकार के सिक्कों पर राजा की उपाधि के आधार पर जो यह दिखाया है, कि वह वाकाटकों का सामंत शासक था, तर्कसंगत नहीं है। अल्तेकर का कहना है कि इन सिक्कों पर स्थानाभाव के कारण महाराजाधिराज जैसी लंबी उपाधि का अंकन न हो सका।

प्रयाग प्रशस्ति के व्याघ्रराज का समीकरण वाकाटक सामंत व्याघ्रदेव के साथ स्थापित करना संदिग्ध है। व्याघ्रराज विन्धयपर्वत के दक्षिण भाग का शासक था, जबकि व्याघ्रदेव विन्धयपर्वत के उत्तर में स्थित बघेलखंड में राज्य करता था।

इस प्रकार हम कह सकते हैं कि समुद्रगुप्त के अभियान से वाकाटकों को कोई हानि नहीं हुई और न ही समुद्रगुप्त ने रुद्रदेव प्रथम को पराजित किया। यह सही है,कि प्रवरसेन प्रथम के काल में वाकाटकों का दक्षिणी कोशल समुद्रगुप्त की विजय के पूर्व ही ये राज्य अपने को वाकाटकों की अधीनता से मुक्त कर चुके थे।

Reference : https://www.indiaolddays.com

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