इतिहासराजस्थान का इतिहास

उज्जैन के गुर्जर-प्रतिहार

उज्जैन के गुर्जर-प्रतिहार

उज्जैन के गुर्जर-प्रतिहार

उज्जैन के गुर्जर-प्रतिहारों ने मंडौर से अपना राज्य-विस्तार शुरू किया था और उनका पूर्वज हरिश्चंद्र नामक ब्राह्मण था। संभव है कि हरिश्चंद्र के समय से ही उसके वंशजों ने अपनी सुविधानुसार राजस्थान, गुजरात, मालवा, कन्नौज आदि क्षेत्रों में बसना शुरू कर दिया था।

और जब अवसर मिला अपने राज्य भी स्थापित करते चले गये। डॉ. ओझा का मत है कि इन प्रतिहारों ने सर्वप्रथम चावङा, राजपूतों से भीनमाल का राज्य अधिकृत किया और फिर आबू, जालौर आदि क्षेत्रों को जीता। इसके बाद उन्होंने उज्जैन में अपनी राजधानी स्थापित की।

कालान्तर में उन्होंने कन्नौज के क्षेत्र को अधिकृत कर कन्नौज को अपनी राजधानी बनाया। परंतु अधिकांश व्यक्तियों के एक जैसे नाम होने तथा शिलालेखों और साहित्यिक रचनाओं में विभिन्न नाम की राजधानियों के एक जैसे नाम होने तथा शिलालेखों और साहित्यिक रचनाओं में विभिन्न नाम की राजधानियों के विवरण से गुर्जर-प्रतिहारों का क्रमबद्ध इतिहास जानना बहुत ही कठिन हो गया है।

उज्जैन के गुर्जर-प्रतिहार

आठवीं सदी के प्रथम चरण में नागभट्ट प्रथम ने उज्जैन में एक नवीन गुर्जर-प्रतिहार राज वंश की स्थापना की। ग्वालियर अभिलेख में इस वंश को क्षत्रिय तथा सौमित्रि (लक्ष्मण) से उद्भूत हुआ बताया गया है। साहित्यिक कृतियों में उन्हें रघुकुल तिलक तथा रघुवंश मुकुटमणि आदि शब्दों से संबोधित किया गया है।

इस शाखा का मूल स्थान राजस्थान था अथवा अवन्ति इस पर इतिहासकार एकमत नहीं हैं। परंतु चूँकि गुर्जर-प्रतिहारों का आदि-स्थान मारवाङ रहा है, अतः यह अनुमान तो लगाया जा सकता है कि सभी गुर्जर-प्रतिहारों के पूर्वजों का मूल स्थान राजस्थान ही था।

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नागभट्ट प्रथम

उज्जैन के गुर्जर-प्रतिहार राजवंश के संस्थापक नागभट्ट प्रथम का समय 730 ई. से 760ई. का माना जाता है। नागभट्ट की उपलब्धियों में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है, – दक्षिण-पश्चिम में अरब आक्रमणकारियों के विस्तार को रोकना। ग्वालियर अभिलेख से पता चलता है, कि उसने मलेच्छ (अरब) सेना को पराजित किया। संभव है कि सिन्ध के गवर्नर जुनैद के निर्बल उत्तराधिकारियों को नागभट्ट ने पराजित किया हो। इसके बाद उसने भङोंच प्रदेश को जीता। इसकी पुष्टि हंसोत अभिलेख से होती है। इस अभिलेख से पता चलता है, कि भर्तृवृद्ध द्वितीय नामक चाहमान सामन्त उसकी अधीनता में इस क्षेत्र पर शासन कर रहा था।

कक्कुट और देवराज

नागभट्ट के बाद उसका भतीजा कक्कुक सिंहासन पर बैठा। उसके बारे में हमें अधिक जानकारी नहीं मिलती। कक्कुक के बाद उसका छोटा भाई देवराज सिंहासनारूढ हुआ। डॉ. विमल चंद्र पाण्डेय के अनुसार कक्कुक और देवराज दोनों का समय 760 ई. से 783 ई. तक निर्धारित किया जा सकता है। ग्वालियर अभिलेख में उसके द्वारा अनेक राजाओं को पराजित करने का उल्लेख है। परंतु साक्ष्यों के अभाव में यह कहना कठिन है कि उसने कौनसे राजाओं को पराजित किया और इन युद्धों में उसे क्या लाभ प्राप्त हुआ।

वत्सराज

देवराज के बाद उसका पुत्र वत्सराज उज्जैन के सिंहासन पर बैठा। उसने 783 ई. से 795 ई. तक शासन किया। वह अपने समय का एक महत्वाकांक्षी शासक सिद्ध हुआ। उसने भंडी जाति को पराजित करके मध्य राजस्थान पर अपना अधिकार जमाया। इसकी इस विजय की पुष्टि ओसिया अभिलेख और दौलतपुर अभिलेख से होती है।

कन्नौज का राज्य जीतने के लिए उसे बंगाल के पालवंशी राजा धर्मपाल से युद्ध करना पङा। वस्तुतः इस समय कन्नौज पर निर्बल राजा इन्द्रायुद्ध राज्य कर रहा था और गुर्जर-प्रतिहार तथा पाल दोनों ही कन्नौज का राज्य हथियाना चाहते थे। इस युद्ध में वत्सराज विजयी रहा जिसकी पुष्टि अभिलेखों से होती है।

पालों के विरुद्ध सफलता प्राप्त करने के पश्चात् वत्सराज को दक्षिण के राष्ट्रकूट नरेश ध्रुव से लङना पङा। इस बार वत्सराज बुरी तरह से पराजित हुआ और मरुस्थल में शरण लेनी पङी। ध्रुव ने बंगाल के धर्मपाल को भी पराजित किया। परंतु ध्रुव के लौटते ही धर्मपाल ने कन्नौज पर आक्रमण कर दिया।

इन्द्रायुध को हटाकर चक्रायुद्ध को सिंहासन पर बैठाया। वत्सराज को चुपचाप कन्नौज पर पालों का प्रभुत्व स्वीकार करना पङा। ध्रुव के आक्रमण तथा वत्सराज की पराजय से उज्जैन के नवोदित प्रतिहार राजवंश को गहरा धक्का लगा। वत्सराज को अपनी राजधानी जालौर (ज्वालीपुर) ले जानी पङी बहुत से विद्वानों की मान्यता है कि अब उसा राज्य मध्य राजपूताना तक ही सीमित रह गया था।

नागभट्ट द्वितीय (795-833ई.)

वत्सराज की मृत्यु के बाद उसका पुत्र नागभट्ट द्वितीय गुर्जर-प्रतिहारों के सिंहासन पर बैठा। उसने अपने पराक्रम से गुर्जरों की खोई हुई प्रतिष्ठा को पुनः स्थापित किया तथा राज्य की सीमाओं का विस्तार भी किया।

राष्ट्रकूटों से युद्ध

नागभट्ट द्वितीय को भी अपने वंश के शत्रु राष्ट्रकूट वंश के शासक के साथ युद्ध करना पङा। युद्ध का मूल कारण उत्तरी भारत में अपनी-अपनी सर्वोच्चता स्थापित करना था। संजान ताम्रपत्र, पठारी स्तंभ लेख और रघनपुर ताम्रपत्र से पता चलता है कि इस युद्ध में भी गुर्जर-प्रतिहारों को पराजय का सामना करना पङा।

राष्ट्रकूट नरेश गोविन्द तृतीय ने नागभट्ट द्वितीय को परास्त करके खदेङ दिया। यह युद्ध संभवतः 806-808ई. के मध्य लङा गया था। इस युद्ध के बाद कन्नौज के चक्रायुद्ध और बंगाल के धर्मपाल ने भी राष्ट्रकूट नरेश गोविन्द तृतीय की अधीनता स्वीकार कर ली।

कन्नौज विजय

राष्ट्रकूटों से परास्त होने के बाद भी नागभट्ट ने साहस नहीं खोया। वह अपनी शक्ति को संगठित कर उचित अवसर की प्रतीक्षा करने लगा। गोविन्द तृतीय काफी वृद्ध हो चुका था और अपने उत्तरी अभियान से वापस लौटने के बाद वह अपनी घरेलू समस्याओं में फँस गया। स्थिति को अनुकूल समझकर नागभट्ट द्वितीय ने अपने राज्य की सीमाओं का विस्तार तथा गुर्जर-प्रतिहारों की शक्ति को पुनः प्रतिष्ठित करने का निश्चय किया। उसने कन्नोज पर आक्रमण कर दिया और चक्रायुद्ध को परास्त करके कन्नौज राज्य को जीत लिया। इस विजय के बाद कन्नौज गुर्जर-प्रतिहारों की नई राजधानी बनाई गयी। इस विजय की ख्याति पुनः स्थापित हो गयी।

धर्मपाल की पराजय

चक्रायुध, धर्मपाल का आश्रित राजा था। अतः धर्मपाल ना नागभट्ट द्वितीय को सबक सिखाने का निश्चय किया और उसके विरुद्ध युद्ध के लिये चल पङा। परंतु घमासान युद्ध में उसे नागभट द्वितीय के हाथों पराजित होकर बंगाल लौटना पङा। पालों की पराजय से गुर्जर-प्रतिहारों की प्रतिष्ठा और भी अधिक बढ गयी।

जोधपुर अभिलेख से पता चलता है कि यह युद्ध मुदगिरी (मुंगेर)के पास लङा गया था जिसमें मारवाङ के शासक कक्क (नागभट्ट का सामंत) ने भाग लिया था। चाटसू अभिलेख में नागभट्ट के एक अन्य सामंत शंकरगण द्वारा इस युद्ध में भाग लेने का उल्लेख मिलता है। इससे यह भी स्पष्ट हो जाता है, कि राजस्थान के बहुत बङे क्षेत्र पर नागभट्ट द्वितीय का अधिकार बना हुआ था।

अन्य विजयें

ग्वालियर अभिलेख में नागभट्ट द्वितीय की अन्य विजयों का विवरण भी दिया गया है। इस लेख के अनुसार उसने आनर्त (उत्तरी काठियावाङ), मालवा, किरात (हिमालय प्रदेश का कोई हिस्सा),तुरूष्क (पश्चिमी भारत का मुस्लिम राज्य), वत्स (कौशांबी प्रदेश), और मत्स (पूर्वी राजस्थान) के राज्यों पर आक्रमण कर उन पर अधिकार जमाया।

परंतु अन्य साक्ष्यों के अभाव में इस अभिलेख को सही मानना उचित नहीं होगा। क्योंकि यदि इस सही माना जाय तो इसका यह अर्थ हुआ कि नागभट्ट द्वितीय के राज्य में संपूर्ण उत्तर-प्रदेश, मालवा, गुजरात का कुछ भाग, राजपूताना का विस्तृत भाग और पश्चिमी भारत के कुछ क्षेत्र भी सम्मिलित थे। संभव है कि इन सभी क्षेत्रों पर कुछ समय के लिये उसका राजनीतिक वर्चस्व बना रहा हो।

ग्वालियर अभिलेख, प्रबंध कोश तथा खुम्माण रासो से यह पता चलता है कि नागभट द्वितीय ने मुसलमानों को पराजित किया और इसमें उसके चाहमान सामंत गोविन्दराज (गवूक प्रथम), गुहिल सामन्त खुम्माण आदि ने पूरा-पूरा सहयोग दिया। संभवतः सिन्ध के मुसलमानों की तरफ से नागभट के राज्य के पश्चिमी भाग पर आक्रमण किया गया हो और अपने सामन्तों की सहायता से उसने मुस्लिम आक्रमणकारियों को परास्त करके खदेङ दिया हो।

इससे यह पुनः स्पष्ट हो जाता है कि उसके समय तक चौहान और गुहिलवंशी शासक स्वतंत्र शासक न होकर गुर्जर-प्रतिहारों के सामंत के रूप में शासन कर रहे थे।

मूल्यांकन

नागभट्ट द्वितीय अपने समय का पराक्रमी शासक हुआ। राष्ट्रकूट नरेश गोविन्द तृतीय के हाथों पराजित होने के बाद भी अपने मन में निराशा को उत्पन्न नहीं होने दिया। उसने अपनी शक्ति को पुनः संगठित कर कन्नौज को जीता तथा कन्नौज के संरक्षक पालवंशी नरेश धर्मपाल शक्ति को पुनः संगठित कर कन्नौज को जीता तथा कन्नौज के संरक्षक पालवंशी नरेश धर्मपाल को पराजित करके उत्तरी भारत की राजनीति में गुर्जर-प्रतिहारों के वर्चस्व को पुनः प्रतिष्ठित किया।

वह एक धर्मनिष्ठ शासक था और उसने कई यज्ञों के द्वारा धर्म के महत्त्व की प्रतिष्ठा को बढाया। वह भगवती देवी का भी परम भक्त था। वह कवियों और विद्वानों का आश्रयदाता था। उसकी प्रेरणा एवं प्रोत्साहन से गुर्जर-प्रतिहारों की नई राजधानी कन्नौज विद्या का केन्द्र बन गयी। वह एक निपुण सेनानायक और पराक्रमी सैनिक था। उसने मुस्लिम आक्रमणकारियों को परास्त करके उनकी विस्तारवादी योजना को विफल बना दिया। यह उसकी एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है।

नागभट्ट द्वितीय के उत्तराधिकारी

नागभट्ट द्वितीय के बाद उसका पुत्र रामभद्र 833 ई. में कन्नौज के सिंहासन पर बैठा। उसने केवल तीन वर्ष तक राज्य किया और वह अल्प समय भी अशांति, अव्यवस्था और संकट का रहा। संभवतः चंदेलों ने कालिंजर प्रदेश पर और मंडौर के प्रतिहारों ने गुर्जरत्रा प्रदेश पर अधिकार कर अपने को कन्नौज के आधिपत्य से स्वतंत्र कर लिया हो।

यद्यपि ग्वालियर प्रशस्ति में लिखा है कि रामभद्र ने अपने सामंतों की सहायता से अपने शत्रुओं का दमन किया परंतु पालों के अभिलेखों के अनुसार पालवंशी देवपाल ने गुर्जर-प्रतिहारों को परास्त किया था।

भोज प्रथम(836-889ई.)

रामभद्र के बाद उसका पुत्र 836 ई. में सिंहासन पर बैठा। उसे मिहिरभोज भी कहा जाता है। उसने 889 ई. तक शासन किया। वह अपने वंश का पराक्रमी शासक हुआ। उसने गुर्जर-प्रतिहार साम्राज्य को पुनः संगठित एवं शक्तिशाली बनाया। उसने चंदेलों को परास्त करके बुन्देलखंड पर पुनः गुर्जर-प्रतिहारों की सत्ता स्थापित की।

रामभद्र के शासनकाल में मंडौर के प्रतिहारों ने गुर्जरत्रा भाग पर अपना अधिकार कर लिया था। परंतु भोज ने अवसर मिलते ही मंडौर के प्रतिहारों को पराजित करके राजपूताना पर पुनः अपना अधिकार कायम कर लिया। इसकी पुष्टि 843 ई. के दौलतपुर लेख तथा प्रतापगढ अभिलेख से भी होती है. अन्य साक्ष्यों से यह भी ज्ञात होता है कि राजस्थान के प्रतिहार, चौहान तथा गुहिलवंशी शासक मिहिरभोज (भोज)के सामंतों के रूप में काम कर रहे थे। हरियाणा, पंजाब, काठियावाङ तथा मध्य भारत के बहुत से क्षेत्रों पर उसका अधिकार था।

मिहिरभोज ने राष्ट्रकूटों से भी युद्ध लङे। प्रारंभ में मिहिरभोज को नर्मदा नदी तक अपना राज्य विस्तृत करने में सफलता मिली। परंतु फिर राष्ट्रकूटों के गुजरात के सामन्त ध्रुव द्वितीय ने मिहिरभोज को परास्त कर दिया।

भोज ने पुनः आक्रमण किया। गुर्जर-प्रतिहारों के अभिलेखों के अनुसार भोज विजयी रहा और राष्ट्रकूटों के अभिलेखों के अनुसार राष्ट्रकूट नरेश कृष्ण द्वितीय विजयी रहा। ऐसा प्रतीत होता है कि अवन्ती के प्रदेश को लेकर दोनों पक्षों के मध्य संघर्ष जारी रहा जिससे कभी इस पक्ष की और कभी उस पक्ष की जय-पराजय होती रही।

इसी प्रकार, पालवंशीय शासकों के साथ भी मिहिरभोज का संघर्ष चलता रहा और इस संघर्ष में भी कभी किसी पक्ष की तो कभी किसी पक्ष को सफलता मिलती रही। जहाँ तक राजस्थान का संबंध है, यह निश्चित तौर पर कहा जा सकता है कि मिहिरभोज यहाँ के अधिकांश भू-भाग पर अपनी सत्ता को बनाये रखने में कामयाब रहा।

इसमें कोई संदेह नहीं है कि वह अपने वंश का ही नहीं अपितु भारतीय इतिहास के प्रतापी शासकों में से एक था और उसने एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की। उसके पराक्रम से आतंकित मुसलमानों ने दक्षिण अथवा पूर्व में अपना राज्य-विस्तार करने का साहस नहीं किया।

भोज द्वितीय (910-913ई.)

मिहिरभोज (भोज प्रथम)के बाद उसका पुत्र महेन्द्रपाल 885 ई. के आस-पास सिंहासन पर बैठा। उसने 908 ई. तक शासन किया। उसने गुर्जर-प्रतिहार साम्राज्य की यथा-स्थिति को बनाये रखा। उसके समय का अंतिम अभिलेख 907 ई. का मिलता है। उसकी मृत्यु के बाद गुर्जर-प्रतिहार साम्राज्य में संभवतः उत्तराधिकार युद्ध लङा गया था।

महेन्द्रपाल के दो पुत्रों – भोज द्वितीय और महीपाल प्रथम का उल्लेख मिलता है। वस्तुतः एक लेख में महेन्द्रपाल और देह नागादेवी के पुत्र भोज द्वितीय का उल्लेख मिलता है परंतु इसमें महीपाल का उल्लेख नहीं है। जबकि अन्य स्थान पर महेन्द्रपाल और महीदेवी के पुत्र महीपाल का उल्लेख है, परंतु इसमें भोज का उल्लेख नहीं है।

इससे अनुमान लगाया जाता है कि महेन्द्रपाल के दो पुत्र थे – भोज और महीपाल और दोनों के मध्य सिंहासन प्राप्ति के लिये संघर्ष हुआ था। इस संघर्ष में भोज द्वितीय सफल रहा और वह कन्नौज का शासक बना।

उत्तराधिकारी संघर्ष में भोज को अपने सामन्त चेदि नरेश कोक्कलदेव प्रथम से महत्त्वपूर्ण सहयोग मिला था। इसकी पुष्टि कोक्कल देव के बिल्हरी अभिलेख से होती है। परंतु भोज द्वितीय अधिक समय तक अपने उत्तराधिकार की सुरक्षा न कर पाया। परास्त महीपाल अपनी शक्ति को संगठित करने में लगा हुआ था।

सौभाग्यवश उसे चंदेल नरेश हर्षदेव का समर्थन मिल गया। दूसरी तरफ, भोज का मुख्य समर्थक कोक्कल देव मर चुका था। अतः इस बार महीपाल का पलङा भारी रहा। उसने भोज को पराजित करके कन्नौज पर अधिकार कर लिया। इस प्रकार केवल 2 या 3 वर्ष तक राज्य करने के बाद भोज द्वितीय का सितारा अस्त हो गया।

महिपाल प्रथम और उसके उत्तराधिकारी

913 ई. के आसपास भोज द्वितीय को परास्त करके महीपाल सिंहासन पर बैठा। उसे विनायक पाल और हेरम्बपाल भी कहा जाता है। सिंहासन पर बैठते ही उसे राष्ट्रकूट नरेश इन्द्र तृतीय के आक्रमण का सामना करना पङा। राष्ट्रकूटों ने उज्जैन पर अधिकार करने के बाद कन्नौज पर आक्रमण कर उसे नष्ट-भ्रष्ट कर डाला।

महीपाल परास्त होकर राजधानी से भाग खङा हुआ। राष्ट्रकूटों की वापसी के बाद वह कन्नौज लौट आया और उसने अपने राज्य के सभी क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया। डॉ.मजूमदार का मत है कि इस काम में उसे चंदेल नरेश हर्ष से महत्त्वपूर्ण सहयोग मिला था। राजशेखर ने अपने आश्रयदाता महीपाल की बहुत सी विजयों का उल्लेख किया है।

संभव है कि राष्ट्रकूट नरेश इन्द्र तृतीय की मृत्यु के बाद उसके अयोग्य एवं निर्बल उत्तराधिकारियों के समय में उसने दक्षिण के कुछ राजाओं को पराजित किया हो।

महीपाल के बाद उसका पुत्र महेन्द्रपाल द्वितीय सिंहासन पर बैठा। ऐसा प्रतीत होता है कि वह 2-3 वर्ष ही शासन कर पाया। उसके बाद देवपाल शासक बना। ये दोनों शासक कमजोर निकले और चंदेल नरेश यशोवर्मन ने गुर्जरों के कई क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया। बाद के गुर्जर शासकों के समय में कन्नौज की शक्ति धीरे-धीरे कमजोर होती गयी।

देवपाल के पोते राज्यपाल के समय में महमूद गजनवी ने कन्नौज पर चढाई कर उसे और भी अधिक निर्बल बना दिया । 1093 ई. के आसपास चंद्रदेव गहङवाल ने प्रतिहारों से कन्नौज छीनकर उसके स्वतंत्र राजनीतिक अस्तित्व को समाप्त कर दिया। इसके बाद हमें प्रतिहारों का उल्लेख गहङवालों, राठौङों और चौहानों के सामन्तों के रूप में मिलता है।

देवपाल के समय से ही गुर्जर-प्रतिहारों के राजस्थानी सामंत स्वतंत्र बनने के प्रयास में लग गये थे और आगे चलकर उन्हें गुर्जरों के प्रभुत्व से स्वतंत्र हो जाने में सफलता भी मिल गई।

मध्यकाल शौर्य और पराक्रम का युग था। जब तक गुर्जरों में साहसी एवं पराक्रमी शासक उत्पन्न होते रहे, उनका राज्य विस्तृत होता गया। प्रारंभ में मंडौर के प्रतिहारों में नागभट्ट शीलुक, बाउक आदि पराक्रमी शासक हुए और उन्होंने अपने राज्य को शक्तिशाली ही नहीं बनाया अपितु उसका विस्तार भी किया।

उज्जैन-कन्नौज के प्रतिहारों में भी अनेक प्रतिभाशाली शासक हुए और हर्ष की मृत्यु के बाद रिक्त केन्द्रीय शक्ति को हथियाने के लिये बंगाल के पालों तथा दक्षिण के राष्ट्रकूटों के साथ त्रिपक्षीय संघर्ष में कूद पङे और कई बार उन्हें महत्त्वपूर्ण सफलताएँ भी मिली।

उन्होंने लगभग समूचे राजस्थान को अपने अधिकार में बनाए रखा और गुहिल, राठौङ, चौहान तथा भाटी – सभी को गुर्जर-प्रतिहारों का सामंत बनकर शासन करने के लिये विवश होना पङा। परंतु गुर्जरों की केन्द्रीय शक्ति के निर्बल पङते ही उनके राजस्थानी सामंतों ने उनके आधिपत्यों की बेङियों को काटकर अपने स्वतंत्र राज्य स्थापित कर लिये।

जिस राजस्थान की भूमि में उनका उदय हुआ था, उसी राजस्थान को वे हमेशा के लिये अपने नियंत्रण में नहीं रख पाये।

महत्त्वपूर्ण प्रश्न एवं उत्तर

प्रश्न : छठी शताब्दी के द्वितीय चरण में पश्चिमी राजस्थान का क्षेत्र कहलाया था
उत्तर :
गुर्जरत्रा

प्रश्न : नागभट्ट प्रथम प्रतिहार के दादा का नाम था
उत्तर :
रज्जिक

प्रश्न : 1395 ई. में मंडौर पर प्रतिहारों का प्रभाव समाप्त हो जाता है, क्योंकि
उत्तर :
प्रतिहारों ने राठौङ राव चूण्डा को मंडौर का दुर्ग दहेज में दे दिया था।

प्रश्न : नागभट्ट द्वितीय ने मुसलमानों को पराजित किया, जिसकी जानकारी मिलती है
उत्तर :
ग्वालियर अभिलेख से।

References :
1. पुस्तक - राजस्थान का इतिहास, लेखक- शर्मा व्यास
Online References
wikipedia : गुर्जर-प्रतिहार

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