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नासिरुद्दीन महमूद (1246-1265ई.) कौन था

नासिरुद्दीन महमूद (1246-1265ई.) – शम्सुद्दीन इल्तुतमिश का नासिरुद्दीन महमूद पौत्र था। जब उसे अमीरों ने सुल्तान बनाया, वह 17 साल का नवयुवक था। 1236 से 1246 ई. के बीच राजवंश के चार राजकुमार सिंहासन पर बैठाए गए थे और बाद में उनकी हत्या कर दी गयी थी। यह इस युवक के लिये चेतावनी थी। शम्सी मलिक, जिन्होंने उसका समर्थन किया था, उसके लिए खतरे का स्रोत भी थे। जब तक इन शम्सी मलिकों में एकता रही, नासिरुद्दीन के लिये कोई समस्या उत्पन्न नहीं हुई। सुल्तान और तुर्की अमीरों के संघर्ष का कोई अवसर नहीं आया। सुल्तान नासिरुद्दीन को धर्म परायण और सच्चरित्र शासक बताया गया, जो शासन करने का इच्छुक नहीं था। चूँकि उसने गद्दी पर आने के लिये बलबन के साथ षङयंत्र में भाग लिया था, इसलिए यह नहीं माना जा सकता कि वह सुल्तान का पद नहीं सँभालना चाहता था। पर इसके साथ ही वह तुर्क अधिकारियों को अप्रसन्न नहीं करना चाहता था।
दिल्ली सल्तनत में नासिरुद्दीन महमूद का योगदान

सुल्तान नासिरुद्दीन ने यह अनुभव किया कि उसके पहले जिन सुल्तानों की हत्या हुई उसका मुख्य कारण यही था कि उन्होंने तुर्की सरदारों की शक्ति का विरोध किया था। शासन की बागडोर उसने अपने नायब बलबन के हाथ में सौंप दी, जिससे तुर्की अमीरों की वैमनस्यता का सामना उसे नहीं करना पङा। वह उनकी शक्ति से पूर्णतः अवगत था। इतिहासकार इसामी ने लिखा है कि वह बिना उनकी (तुर्की अधिकारी की) पूर्व आज्ञा के अपनी कोई राय व्यक्त नहीं करता था। वह बिना उनकी आज्ञा के हाथ-पैर तक नहीं हिलाता था। वह बिना उनकी जानकारी के न पानी पीता था और न सोता था। इससे प्रतीत होता है कि उसने अपने अधिकारों का प्रयोग नहीं किया और पूर्ण आत्मसमर्पण कर दिया। शसान के प्रारंभिक वर्षों में उसने वही किया जो बलबन ने चाहा।

7 अक्टूबर, 1249 ई. में उसने बलबन को उलुग खाँ की उपाधि प्रदान की और सेना पर पूर्ण नियंत्रण के साथ नायबे मुलाकात का पद दिया। बाद में उसे अमीर हाजिब बनाया गया और उसने अपनी पुत्री का विवाह सुल्तान से किया। थोङे समय के अवकाश (1252-53ई.) के अलावा उसने लगभग अगले चालीस वर्ष तक शासन किया, बीस वर्ष एक वजीर की हैसियत से और बीस वर्ष एक सुल्तान के रूप में।

मिनहाज के वर्णन से पता चलता है, कि 1252 ई. के बाद नासिरुद्दीन के शासन के नौ वर्षों का मुख्य विषय तुर्क खानों और मलिकों के दो दलों का सत्ता के लिये संघर्ष है। उलुग खाँ (बलबन) का मुख्य प्रतिद्वंद्वी कुतुलुग खाँ था जो तुर्की मलिकों में सबसे ऊँचा स्थान रखता था। उसका जमाता ईजुद्दीन बलबन किश्लू खाँ था जो कुतुलुग खाँ का मुख्य समर्थक था। इनका नेता था इमादुद्दीन रिहान। भारतीय मुसलमानों का दल इस समय तक प्रभावशाली हो गया था और वह तुर्की अमीरों के सत्ता पर एकाधिकार से असंतुष्ट था।

इसके बाद की घटनाओं के संबंध में मिनहाज का कहना है कि इमादुद्दीन रिहान ने गुप्त रूप से सुल्तान और मलिकों का उलुग खाँ के प्रति रुख बदल दिया। सुल्तान ने उलुग खाँ को अपनी अक्ता की ओर चले जाने की आज्ञा दी। 23 वर्षीय सुल्तान के आदेशों का पालन कर उलुग खाँ ने अत्यंत बुद्धिमतापूर्ण मार्ग अपनाया। कुतुलुग, किश्लू और इमादुद्दीन को स्थायी लाभ हो गया था किंतु कुछ समय के मनन के बाद शम्सी मलिकों का विचार उलूग खाँ के पक्ष में अवश्य बदलना था। रिहान ने यह आग्रह किया कि उलुग खाँ हाँसी छोङकर नागौर चला जाए। यह भी उलुग खाँ ने स्वीकार किया। वजीर का पद मलिक मुहम्मद जुनैदी को 1253 में दिया गया। इजुद्दीन किश्लू खाँ नायब अमीरे हाजिब बना और स्वयं रिहान वकीलेदार नियुक्त हुआ। उलुग खाँ द्वारा की गई समस्त नियुक्तियाँ बदली गई या उन्हें उखाङ फेंका गया। शासन की सुदृढ स्थिति रिहान के अनुचित निर्णयों से अस्त-व्यस्त हो गयी। राज्य के सारे महत्त्वपूर्ण पदों पर रिहान द्वारा चुने गए व्यक्ति रखे गए। बलबन के भाई शेर खाँ को भटिंडा व मुल्तान के अक्तादार के पद से हटा दिया गया। इतिहासकार मिनहाज को भी मुख्य काजी के पद से हटाया गया।

मिनहाज के वर्णन के आधार पर अनेक आधुनिक इतिहासकारों ने रेहान की आलोचना की है। उसे एक धर्मच्युत हिंदू, शक्ति का अपहरणकर्ता, षङयंत्रकारी आदि कहा गया है। परंतु रिहान के कार्यों और चरित्र के संबंध में इन विचारों को स्वीकार नहीं किया जा सकता। पी.सरन का विचार है कि समकालीन इतिहासकार मिनहाज के इस कथन पर विश्वास नहीं किया जा सकता कि रिहान के समय शासन अस्त-व्यस्त हो गया। वास्तव में रिहान में प्रशासनिक कुशलता का अभाव नहीं था जिसका परिचय उसने अपने अल्पकालीन वकीलेदार पद को अयोग्यतापूर्वक निभाने के दौरान किया। रिहान के प्रति मिनहाज की आलोचना व्यक्तिगत कारणों से थी। मिनहाज को पदच्युत कर दिया गया था, क्योंकि वह रिहनान के विरोधी दल का प्रमुख सदस्य था। सामान्यतः समकालीन इतिहासकार भी रिहान की प्रशासनिक योग्यता पर संदेह नहीं करते, परंतु उसे केवल बलबन के प्रति ईर्ष्यालु बताते हैं। विदेशी तुर्की अमीरों का दल बलबन का पूर्ण समर्थक था। परंतु हिंदुस्तानी दल, जिसमें हिंदू था, बाद में धर्म परिवर्तन कर मुसलमान बन गया था। अतः उसका विरोध जातीय आधार पर किया गया। तुर्की अमीर हिंदुस्तानी दल को घृणा की दृष्टि से देखते थे और अपने से भिन्न समझते थे। इसिलए तुर्क इस बात को कभी स्वीकार नहीं कर सकते थे कि हिंदुस्तानी दल का कोई भी सदस्य उच्च पद प्राप्त करे।

ऐसी विपरीत परिस्थितियों में रिहान केवल अपनी योग्यता के आधार पर वकील-ए-दर के पद पर पहुँच सका था। बलबन जैसे शक्तिशाली विरोधी का सामना करना बाएँ हाथ का खेल नहीं था, इसलिए उसकी योग्यता के संबंध में कोई शंका नहीं हो सकती। परंतु केवल मुसलमान बन जाने से उसे तुर्की के समान नहीं समझा जा सकता था। तुर्की अमीर भारतीय मुसलमानों के प्रति उतने ही उदासीन थे जितने वे हिंदुओं के प्रति थे। केवल तुर्कों का उच्च पदों पर एकाधिकार था। ऐसी स्थिति में यह स्वाभाविक था कि वे सब रिहान के कट्टर विरोधी और आलोचक हों। इसी आधार पर उसे अपहरणकर्त्ता और विद्रोही कहा भी गया।

रिहान और हिंदुस्तानी दल की सफलता अल्पकालीन रही। बलबन ने शीघ्र ही कुतलुग किश्लू दल के अधिकांश तुर्क अधिकारियों को अपने पक्ष में कर लिया। प्रांतीय अक्तादारों ने बलबन को सहायता का आश्वासन दिया। 1254 ई. में बलबन और उसके समर्थक तबरहिंद में एकत्रित हो गए। रिहान ने सुल्तान को युद्ध करने की सलाह दी और सुल्तान ने दिल्ली से सुनाम की ओर कूच किया। परंतु सभी तुर्की सरदार अब बलबन के पक्ष में हो गए थे और सुल्तान युद्ध के लिए तत्पर नहीं था। अंत में सुल्तान व विद्रोही मलिक इस बात के लिए सहमत हो गए कि रिहान को हटाकर बलबन को पुनः नायब का पद दिया जाए। रिहान को दरबार से हटाकर पहले बदायूं और इसके बाद बहराइच भेजा गया, जहाँ उसकी मृत्यु हुई। इस प्रकार हिंदुस्तानी दल द्वारा सत्ता प्राप्त करने का प्रयत्न असफल रहा।

नायबे मुमलकत बन जाने के बाद उलुग खाँ (बलबन) दिल्ली लौट आया। उसकी शक्ति व महत्वाकांक्षाओं पर अब कोई अंकुश नहीं रहा। उसे अपने विरोधियों का दमन करने का पूर्ण अधिकार मिल गया। कुतलुग खाँ को अपनी पुरानी अक्ताएँ उच्छ और मुल्तान लौटा दी गयी थी। सन 1255 में उसने व किश्लू खाँ ने दिल्ली के विरुद्ध विद्रोह किया। 21 जून, 1257 को वे दिल्ली के निकट पहुँचे, परंतु उनके जिन समर्थकों ने उन्हें पत्र लिखकर दिल्ली आने का निमंत्रण दिया था, उन्हें बलबन ने पहले से ही नगर से निकाल द्वार बंद करवा दिए थे। अतः विद्रोहियों को वापस लौट जाना पङा। कुतुलग खाँ को लखनौती भेजा गया जहाँ उसकी मृत्यु हो गयी। किश्लू खाँ की मृत्यु 1259 ई. में हुई। इस प्रकार बलबन के सभी विरोधियों का विनाश हो गया।

दुर्भाग्यवश नासिरुद्दीन के शासनकाल के अंतिम छह वर्षों तथा बलबन के शासनकाल की घटनाओं के लिये कोई समकालीन अभिलेख नहीं है। संक्षेप में बलबन ने चालीस के दल का भी दमन किया। इसामी का कथन है, जब उलुग खाँ सिंहासनारूढ हुआ तो अधिकारियों की कमर टूट गई। वे सब बिना तर्क या वाद-विवाद के उसके अधीन हो गए। इस प्रकार शम्सी वंशों का अंत हुआ। इल्तुतमिश की मृत्यु के बाद से चला आ रहा इल्तुतमिश व अमीरों के बीच का संघर्ष भी समाप्त हो गया और बलबन सर्वसत्ताधिकारी सुल्तान बन गया।

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