इतिहासतुर्क आक्रमणमध्यकालीन भारत

तुर्कों के भारत आगमन के समय भारत की धार्मिक स्थिति कैसी थी?

तुर्कों के भारत आगमन के समय भारत की धार्मिक स्थिति – इस काल में धार्मिक मामलों में बङा परिवर्तन हुआ। 11 वीं शताब्दी तक बौद्ध धर्म का पतन हो गया था। अब जो बौद्ध धर्म प्रचलित था, यह बौद्ध और शाक्त धर्मों का सम्मिश्रण था और केवल देश के एक कोने में बंगाल और बिहार तक सीमित रहा इसके विपरीत जैन धर्म गुजरात और राजपूताना में फैला। यह परिवर्तन इस कारण हुआ कि सामाजिक स्तर में ब्राह्मणों की स्थिति ऊँची हो गयी थी। शैव और वैष्णव धर्म सामान्य जनता के और अर्ध हिन्दुओं के धर्म थे। इसी युग में बहुत से धार्मिक सुधारकों का भी उदय हुआ, जैसे कुमारिल भट्ट, शंकराचार्य, रामानुजाचार्य और माधवाचार्य आदि। शंकराचार्य ने अद्वैतवाद की पुनः स्थापना की और धार्मिक सुधारकों ने भक्ति – पद्धति का प्रचार किया। पुराणों में भक्ति के विषय में लिखा गया है कि वह एकेश्वरवाद के दर्शन पर निर्भर थी। उसी समय के ब्राह्मणवाद को ध्यान में रखकर अलबरूनी ने लिखा है, हिंदू एक ईश्वर में विश्वास करते हैं, जो शाश्वत है और अनादि-अनंत है। अलबरूनी के लेखों में यह भी है कि हिंदू दर्शन और विज्ञान यद्यपि बहुत उन्नत दशा में नहीं था, लेकिन वह उस समय प्रचलित था और आवश्यक भी था।

यह वह समाज था, जिस पर तुर्कों की विजय संभव हुई । प्रश्न यह उठता है, कि राजपूतों ने जो प्रतिरोध किया वह स्थानीय था या राष्ट्रीय? इसका सीधा उत्तर होगा कि राष्ट्रीयता की भावना राजपूतों में संभव नहीं थी। राजपूतों में केवल संकुचित स्थानीय और पृथकतावादी भावनाओं का प्राधान्य था। परंतु, इसमें कोई संदेह नहीं कि राजपूतों ने साहस और दृढता से विरोध किया। फिर भी, किसी भी शक्तिशाली कुशल सैनिक आक्रमणकारियों के लिये भारत सुंदर क्रीङास्थल बन गया। राजनीतिक फूट, सामंतशाही, सैनिक संगठन, सामाजिक विश्रृंखलता तथा जनसाधारण की राजनीतिक उदासीनता ने उनके विजय अभियान को सरल बनाने में योगदान दिया। तुर्कों ने इस स्वर्ण अवसर से लाभ उठाया और कालांतर में यहाँ अपना विस्तृत साम्राज्य स्थापित कर लिया।

Related Articles

error: Content is protected !!