इतिहासराजस्थान का इतिहास

राजस्थान में सामंत व्यवस्था कैसी थी

राजस्थान में सामंत व्यवस्था – सामंत व्यवस्था से तात्पर्य – राजस्थान में सामंत व्यवस्था एक प्रकार से सामाजि-राजनीतिक व्यवस्था का रूप थी, जिसमें नेता के रूप में राजा होता था और उसके साथ उसके अपने कुल के वंशज या अन्य राजपूत कुल के वंशज उसके साथी और सहयोगी के रूप में रहते थे। वस्तुतः राजस्थान में सामंत व्यवस्था राजतंत्र प्रणाली का ही प्रतिफल थी। लगभग सभी राज्यों के संगठन में कुलीय भावना की प्रधानता थी। राज्य का स्वामी एक होता था, जो राजा कहलाता था और राज्य का शासक होता था। शासक प्रायः मृत राजा का ज्येष्ठ पुत्र होता था तथा उसके अन्य भाइयों को जीवन यापन के लिये अपने राज्य में से कुछ भूमि जागीर के रूप में दे दी जाती थी। उस जागीर पर उनका वंशानुगत अधिकार होता था और वे अपने को राजा के समकक्ष मानते थे। जागीरें प्राप्त करने वाले ये राजपूत ही सामंत कहलाते थे। राजस्थान के अधिकांश राज्यों में अन्य कुल के राजपूतों को उनके द्वारा प्रदान की गई सेवाओं के लिये जागीरें दे दी जाती थी। इस प्रकार एक राज्य में अन्य कुल के राजपूत भी सामंत बन जाते थे। शासक और सामंतों के बीच भाइचारे का संबंध होता था और इस कारण शासक की स्थिति बराबर वालों में प्रथम के समान थी। राजस्थान में यह सामंत व्यवस्था स्वतंत्रता प्राप्ति के कुछ समय उपरांत तक बनी रही।

सामंत प्रथा का उद्भव

यद्यपि राजस्थान के सामाजिक एवं राजनीतिक जीवन में सामंत प्रथा का एक विशेष एवं महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है, लेकिन इस प्रथा का जन्म कब और किन परिस्थितियों में हुआ, यह विषय काफी विवादास्पद है। फिर भी इतना तो निश्चित है कि सामंत प्रथा का जन्म राजपूत राज्यों की स्थापना के साथ ही हो गया, क्योंकि यह प्रथा राजपूत राज्यों की सैनिक व्यवस्था और संगठन के साथ जुङी हुई थी। राजपूताने में राजपूतों के विभिन्न कुलों ने ज्यों-ज्यों अपने – अपने राज्यों की स्थापना की, उसके साथ ही अपने राज्य में व्यवस्था बनाये रखने तथा बाह्य आक्रमणों से राज्य की सीमाओं को सुरक्षित रखने के लिये राजपूत शासकों ने अपने परिवारजनों, कुलीय संबंधियों तथा अपने विश्वस्त सेनानायकों एवं अधीनस्थों को जागीरें देकर अपना सामंत बना लिया। प्रायः राजस्थान के प्रत्येक राज्य के सीमावर्ती प्रदेशों की परिधि के मध्यस्थल का प्रदेश खालसा क्षेत्र होता था, जो शासक के सीधे नियंत्रण एवं प्रशासन में होता था। इस खालसा क्षेत्र के चारों ओर सामंतों की जागीरें होती थी, जिससे खालसा का क्षेत्र विशेष रूप से सुरक्षित था। राज्य की विशेष सेवा करने पर ही खालसा क्षेत्र से किसी को भूमि या जागीर दी जाती थी और इस प्रकार भूमि या जागीर प्राप्त करने पर सामंत अपने आपको बङा सम्मानित समझता थआ। ज्यों-ज्यों राज्यों का विस्तार होता गया, त्यों-त्यों इन सामंतों की जागीरों में वृद्धि होती गयी तथा नये सामंतों की संख्या में वृद्धि होती गई। लेकिन अधिकांश जागीरों पर राज्य कुल से संबंधित सामंतों का ही अधिकार होता था। वे अपने आपको शासक का सामंत मात्र ही नहीं अपितु शासक का सगोत्री, बंधु और संबंधी भी समझते थे। एक ही कुल का सदस्य होने के कारण सामंत लोग शासक का नेतृत्व स्वीकार करते थे और राज्य की सेवा के लिये हमेशा तत्पर रहते थे।

सामंत प्रथा का स्वरूप

प्रत्येक राज्य में सर्वोपरि स्थान शासक का होता था तथा शासक के बाद राज्यों में महत्त्वपूर्ण स्थान सामंतों का था। लगभग प्रत्येक राज्य का संगठन, कुलीय भावना पर आधारित था। शासक कुल का नेता होने के कारण राज्य में उसका विशेष महत्त्व था। उसके अधिकांश सामंत और अधिकारी उसी के वंश की विभिन्न शाखाओं के मुखिया होते थे। राज्य केवल शासक की संपत्ति नहीं माना जाता था, बल्कि कुलीय सामंतों की सामूहिक धरोहर था, अर्थात् सामंत अपने आपको कुलीय संपत्ति (राज्य) का हिस्सेदार मानते थे। राज्य के सामंत अपने आपको शासक के परिवार का ही सदस्य मानते थे। राज्य के महत्त्वपूर्ण एवं विश्वसनीय पदों पर सामंतों की ही नियुक्ति की जाती थी और सामंत अपने आपको शासक का सहयोगी मान कर राज्य की सेवा करते थे। सामंत अपने आपको शासक के अधीन नहीं, बल्कि उसका सहयोगी मानते थे। उनका राजा के साथ बंधुत्व एवं रक्त का संबंध था, स्वामी और सेवक का नहीं। दोनों के बीच बंधुत्व का संबंध होने के कारण ही शासक की स्थिति बराबर वालों में प्रथम के समान थी। सामंत घरेलू और राजनैतिक मामलों में सामाजिक समानता का दावा करते थे। यद्यपि अन्य कुलों के राजपूतों को उनकी सेवाओं को ध्यान में रखते हुए जागीरें दी जाती थी, तथापि राज्य के महत्त्वपूर्ण और विश्वसनीय पदों पर सामान्यतः स्वकुलीय सामंतों को ही नियुक्त किया जाता था। एक ही कुल के सदस्य होने के कारण तथा स्वामी धर्म के सिद्धांत से उत्प्रेरित होकर वे राजा की सेवा करने के लिये सदैव तत्पर रहते थे। युद्ध के समय सामंत राजा की सहायता करते थे, क्योंकि उनमें यह भावना निहित थी कि वे अपनी पैतृक संपत्ति की सामूहिक रूप से रक्षा करने हेतु ऐसा कर रहे हैं। राजा की ओर से अपने भाई-बेटों को जीवनयापन हेतु भूमि दे दी जाती थी, जो उसकी वंशानुगत जागीर के रूप में बनी रहती थी। राजा अपने सामंतों को भाई जी और काका जी आदि आदरसूचक शब्दों से संबोधित करते थे। इसी प्रकार सामंत भी राजा को बापजी कहकर संबोधित करते थे, क्योंकि राजा उनके वंश का मुखिया था और वह कुल का प्रतिनिधित्व करता था। शासन कार्य में सामान्यतः प्रमुख सामंतों की सलाह ली जाती थी। सामंतों की इच्छा के विपरीत शासक के लिये सामान्यतः कोई भी महत्त्वपूर्ण निर्णय लेना संभव नहीं था। यहाँ तक कि सामंतों की सहमति के बिना शासक द्वारा मनोनीत व्यक्ति उसका उत्तराधिकारी नहीं हो सकता था। यद्यपि राजस्थान के राजपूत राज्यों में सामान्यतः ज्येष्ठाधिकार की परंपरानुसार उत्तराधिकार प्रचलित था, तथापि यदि सामंतों को ज्येष्ठ पुत्र की योग्यता एवं नेतृत्व क्षमता के प्रति संदेह होता तो वे मृत राजा के किसी अन्य योग्य पुत्र अथवा भाई को सिंहासन पर बैठा देते थे। राजस्थान की सामंत व्यवस्था के सिद्धांतों की व्याख्या करते हुए कर्नल टॉड ने लिखा है कि, सामंत व्यवस्था का मूल सिद्धांत यह है कि राजा आश्रय दे तथा सामंत अपने राजा के प्रति निर्धारित कर्त्तव्यों का पालन करे। इस सिद्धांत के अन्तर्गत यह व्यवस्था एक ओर सामंतों को अपने स्वामी को दी जाने वाली सेवाओं के लिये बाध्य करती है, तो दूसरी ओर राजा पर, अपने सामंतों की सुरक्षा का दायित्व भी आ जाता है। यदि यह सिद्धांत दोनों पक्षों की ओर से भंग हो जाता है तो एक पक्ष अपनी भूमि खो बैठता है तथा दूसरा पक्ष अपने प्रभुत्व एवं अधिकार खो देता है। सामंत व्यवस्था का मूल सिद्धांत इन पंक्तियों से स्पष्ट हो जाता है, अर्थात् शासक अपने सामंतों के अधिकारों और विशेषाधिकारों का सम्मान करे तथा सामंत शासक के प्रति अपने निर्धारित कर्त्तव्यों का पालन करे, यही सामंत व्यवस्था का मूल सिद्धांत था। शासक से यह अपेक्षा की जाती थी कि वह अपने सामंतों के परंपरागत अधिकारों एवं विशेषाधिकारों का सम्मान करे तथा सामंतों से यह अपेक्षा की जाती थी कि वे अपने शासक के प्रति परंपरागत कर्त्तव्यों का पालन करें। वस्तुतः शासक, राज्य रूपी शिविर (टैंट) के मुख्य खंभे के समान था तथा उसके सामंत उस शिविर के चारों ओर लगी हुई खूँटियों के समान थे। यदि उस शिविर की एक खूँटी को अलग कर दिया जाय, तो समस्त शिविर धराशायी हो जाता है। ठीक उसी प्रकार शासक और सामंतों के संबंध थे। सामंतों के अधिकार, विशेषाधिकार और कर्त्तव्य सहयोग और निष्ठा के सिद्धांत पर आधारित थे। दोनों पक्षों में से यदि एक भी पक्ष अपने सहयोग और निष्ठा से च्युत हो जाता था, तो सामंत व्यवस्था की नींव हिलने लग जाती थी।

मुगल संरक्षण में सामंत व्यवस्था

राजस्थान में मुगलों का आधिपत्य स्थापित हो जाने पर राजपूत राज्यों की सामंत व्यवस्था में परिवर्तन आने लगा। इसका मूल कारण मुगल सम्राटों की नीति थी। अकबर और उसके उत्तराधिकारी मुगल सम्राट राजपूत राजाओं पर अपना पूर्ण आधिपत्य बनाये रखना चाहते थे। अतः उन्होंने राजपूत राजाओं के उत्तराधिकार के मामलों में विशेष रुचि ली और अपने कृपापात्रों को राजा बनाने की नीति अपनाई। इसे वे अपनी सर्वोच्चता का प्रतीक मानते थे। अकबर ने राजा के मरने पर उसके उत्तराधिकारी के ललाट पर टीका लगाने की रस्म प्रारंभ की। सामान्यतः मृत राजा द्वारा मनोनीत उत्तराधिकारी और इसके अभाव में ज्येष्ठ पुत्र को राज्य का टीका दे दिया जाता था। परंतु विवादग्रस्त उत्तराधिकार के मामले में अथवा मनोनीत उत्तराधिकारी की स्वामिभक्ति में संदेह होने की स्थिति में मुगल सम्राट अपने कृपापात्र उम्मीदवार को टीका दे दिया करते थे। मुगल सम्राट द्वारा नियुक्त प्रत्याशी राजा का विरोध करना सरल नहीं था। इस प्रकार, उत्तराधिकार के मामलों में अब स्वकुलीय सामंतों की मान्यता के स्थान पर मुगल शासकों की मान्यता का महत्त्व अधिक हो गया, जिससे सामंतों के महत्त्व में कमी आ गई।

राजपूत राज्यों पर मुगल आधिपत्य स्थापित होने से पूर्व राजा और उसके सामंतों के बीच भाई बंधु का संबंध था। सामंतों में राज्य निष्ठा की भावना इतनी प्रबल थी कि वे अपने राजा की मर्यादा की रक्षा हेतु प्रत्येक क्षण अपने प्राणों की आहुति देने को तत्पर रहते थे। चूँकि राजा के पास अपनी कोई स्थायी सेना नहीं होती थी, अतः वे अपने सामंतों की सेना पर निर्भर रहते । ऐसी स्थिति में सामंतों द्वारा प्रदान की जाने वाली सैनिक सेवाएँ स्वाभाविक रूप से निर्णायक होती थी। इसलिए राजा सदैव अपने सामंतों की परंपरागत स्थिति का सम्मान करता था और सामंत भी अपने राजा की निष्ठापूर्वक सेवा करते थे। किन्तु मुगलों का आधिपत्य स्थापित हो जाने के बाद समस्त राजस्थान की सामंत व्यवस्था पूर्ण रूप से प्रभावित हुई। राजस्थान के शासकों द्वारा मुगल सम्राट के प्रति अपनी पूर्ण निष्ठा रखने के कारण अब वह अपने सामंतों की अवज्ञा कर सकते थे, क्योंकि वे अपने विद्रोही सामंतों को दबाने के लिये मुगल सम्राट की सहायता प्राप्त कर सकते थे। परिणामस्वरूप अब सामंतों का अपने राजाओं के साथ संबंध भाई बंधु का न रहकर स्वामी और सेवक का होने लगा। इससे सामंतों की शक्ति क्षीण हुई। उदाहरणार्थ, मारवाङ के राजा उदयसिंह ने मुगल संरक्षण स्वीकार करने के बाद अपने सामंतों की शक्ति को कुचलना शुरू कर दिया। उसने अपने कुल के प्रभावशाली मेङतिया सामंतों की अधिकांश जागीरों को खालसा कर दिया। उदावतों से जैतारण छीन लिया और चाँपावतों की बहुत सी जागीरों को खालसा कर दिया। इस प्रकार मुगलों के संरक्षण में राजाओं की शक्ति का विकास हुआ जबकि सामंतों की शक्ति का हास हुआ। किन्तु मेवाङ की सामंत व्यवस्था पर, मुगल आधिपत्य का, अन्य राज्यों से सर्वथा भिन्न प्रभाव पङा। 1615 ई. के पूर्व यद्यपि राजस्थान के लगभग सभी शासकों ने मुगलों की अधीनता स्वीकार कर ली थी, लेकिन मेवाङ ने मुगलों की अधीनता स्वीकार नहीं की थी। मेवाङ के महाराणा दीर्घकाल तक मुगलों से युद्ध करते रहे। मुगलों से निरंतर युद्धों के कारण ज्यों-ज्यों महाराणा की सामंती सेवा पर निर्भरता बढती गई, त्यों-त्यों मेवाङ के सामंत अधिकाधिक शक्तिशाली होते गये। मेवाङ-मुगल संधि (1615ई.) के बाद भी, एक ओर राजस्थान के अन्य शासक मुगल बादशाह के प्रति अपनी निष्ठा प्रदर्शित कर मुगल दरबार में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहे थे तथा राजस्थान की राजनीति में श्रेष्ठता प्राप्त कर रहे थे तो दूसरी ओर मेवाङ-मुगल संधि के बाद भी महाराणा का मुगल सम्राट से पृथकत्व के कारण राजस्थान में मेवाङ के महाराणा की श्रेष्ठता कम होने लगी, जिसका लाभ उठाकर मेवाङी सामंतों ने शक्ति-संचय कर ली। मेवाङ-मुगल संधि से पूर्व सामंतों के मुख्य गाँव को छोङकर जागीर के अन्य गाँवों की समय-समय पर अदला-बदली होती रहती थी जिससे सामंतों का किसी एक क्षेत्र में स्थायी प्रभाव स्थापित नहीं हो पाता था। लेकिन दीर्घकालीन युद्धों के कारण सामंतों की जागीरों का बदलना महाराणा के लिये संभव नहीं रहा। अतः मेवाङ-मुगल संधि के समय मेवाङी सामंतों के अधिकारों में निश्चित और स्थायी जागीरें थी, जिससे वे अधिक शक्तिशाली हो गये। यहाँ तक की महाराणा के दरबार में प्रथम श्रेणी के सामंतों का स्थान युवराज (उत्तराधिकारी राजकुमार) से भी ऊँचा हो गया।

राजपूत राज्यों पर मुगल आधिपत्य स्थापित होने के बाद जब शासकों को मुगलों की सहायता का विश्वास हो गया, तब वे अपने सामंतों पर अपनी सर्वोच्चता स्थापित करने का प्रयास करने लगे। उन्होंने अपने-अपने सामंतों को सैनिक सहयोगियों के रूप में बदलने की प्रक्रिया आरंभ कर दी। मुगल व्यवस्था के अनुकूल राजस्थानी सामंतों की जागीरों का मूल्यांकन कर, जागीरों की आय के अनुपात में सामंतों का सैनिक बल निर्धारित किया गया। सामंतों के उत्तराधिकारी को भी नियंत्रित किया गया और उत्तराधिकार शुल्क, जिसे अलग-अलग राज्यों में हुकुमनामा, कैद खालसा, तलवार बंधाई, नजराना आदि विभिन्न नामों से पुकारा जाता था, की प्रथा प्रारंभ हुई। अनेक प्रकार के नये-नये कर लागू करके सामंतों की आर्थिक स्थिति को भी कमजोर बनाने का प्रयास किया गया। मुगलों की मनसबदारी-प्रथा से प्रेरणा लेकर राजपूत राजाओं ने भी अपने सामंतों को पद एवं प्रतिष्ठा के आधार पर विभिन्न श्रेणियों में विभाजित कर दिया। चूँकि राजपूत राजाओं को मुगल सत्ता का समर्थन प्राप्त था, अतः सामंतों को विवश होकर बराबर वाली स्थिति से निम्न स्थिति अर्थात् सेवक की स्थिति को सहन करना पङा।

18 वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में मुगलों की केन्द्रीय सत्ता पतनोन्मुख हो गयी। अतः राजस्थानी रियासतों पर नियंत्रण रखने वाली कोई सर्वोच्च सत्ता नहीं रही। अब तक जो व्यक्तिगत महत्त्वाकांक्षाएँ और रियासतों की आपसी प्रतिस्पर्द्धाएँ रुकी हुई थी, वे बाधा प्राप्त प्रबल स्रोत की तरह फूट पङी। सभी शासकों के अपने-अपने प्रभाव को बढाने का प्रयास किया । ऐसी स्थिति में राजपूत राजाओं को पुनः अपने सामंतों की सहायता और सहयोग पर निर्भर हो जाना पङा। तब सामंतों ने भी अपनी परंपरागत स्थिति और अधिकारों को पुनः स्थापित करने का प्रयास किया। परिणामस्वरूप सामंतों और शासकों के बीच पारस्परिक झगङे शुरू हो गये। राजस्थानी नरेशों पर उनके सामंतों का दबाव दिन-प्रतिदिन बढने लगा। अतः अपने सामंतों के आंतरिक दबाव से मुक्त होने, पारस्परिक संघर्षों को सफलतापूर्वक संचालित करने तथा अपने निरंकुश अधिकारों को बनाये रखने के लिये राजस्थानी नरेशों ने मराठों का सैनिक सहयोग प्राप्त किया। परंतु आगे चलकर मराठों का सहयोग आर्थिक व राजनैतिक दृष्टि से विनाशकारी सिद्ध हुआ और अन्ततोगत्वा राजस्थानी नरेशों ने ब्रिटिश संरक्षण स्वीकार कर लिया। ब्रिटिश सरकार ने दोनों ही पक्षों को कमजोर बनाने की नीति का अनुसरण किया।

अंग्रेजों के समय में सामंतों की स्थिति

18 वीं सदी के पूर्वार्द्ध में मुगलों की केन्द्रीय शक्ति के पतन के पश्चात् राजपूत राजाओं को पुनः अपने सामंतों की सहायता और सहयोग पर निर्भर हो जाना पङा जिसके परिणामस्वरूप राजपूत राज्यों को मराठों और पठानों की लूट-खसोट का शिकार होना पङा। इसके बाद राजपूत राजाओं ने ब्रिटिश संरक्षण स्वीकार कर लिया। अधिकांश सामंत इसके विरुद्ध थे क्योंकि उन्हें यह भय था कि कहीं उन्हें भी इसकी भारी कीमत न चुकानी पङे और दीर्घकालीन परंपराओं से प्राप्त अपने विशेषाधिकारों से वंचित न होना पङे।

शासकों और सामंतों की आपसी कलह में ब्रिटिश सरकार की नीति किसी पक्ष विशेष का समर्थन करने की न थी। अपितु दोनों पक्षों की शक्ति को क्षीण करके दोनों को ही आपना आश्रित बनाकर राज्यों के आंतरिक शासन पर अपना नियंत्रण स्थापित करने की थी। जहाँ एक तरफ उसकी नीति किसी भी शासक को पूर्ण निरंकुश होने से रोकने की थी, वहीं दूसरी तरफ किसी भी राज्य में सामंतों को पहले की भाँति शक्तिशाली हो जाने के भी विरुद्ध थी।

19 वीं सदी के पूर्वार्द्ध तक सामंत लोग अपनी जागीरों में लगभग स्वतंत्र शासक की भांति शासन करते थे। बङे सामंतों के अपने दरबार थे। अपने अधिकारी, कर्मचारी तथा सैनिक दस्ते थे। अपनी जागीरों में शांति और व्यवस्था को बनाये रखने तथा आंतरिक उपद्रवों को दबाने की जिम्मेदारी भी उन्हीं की थी। उनके न्यायिक अधिकार भी बढे-चढे थे। बङे सामंतों को मृत्यु दंड के अलावा सभी प्रकार के शुल्क वसूल करने का अधिकार प्राप्त था। इस प्रकार सामंतों को अपने-अपने क्षेत्रों में पर्याप्त अधिकार प्राप्त थे जिसके परिणामस्वरूप अपनी प्रजा पर उनका मजबूत नियंत्रण कायम था।

ब्रिटिश सरकार ने सामंतों को खालसा भूमि (जिस पर उन्होंने बलात् अधिकार कर रखा था) वापस लौटाने के लिये विवश कर दिया। बीकानेर में सामंतों के राजस्व वसूली अधिकार को सीमित एवं निश्चित कर दिया गया। जोधपुर में सामंतों के भूमि अनुदान संबंधी अधिकार को समाप्त कर दिया गया। जागीरों के निवासी अपने जागीरदारों की स्वीकृति के बिना अपना मूल निवास स्थान छोङकर कहीं अन्यत्र आबाद नहीं हो सकते थे। ब्रिटिश सरकार ने राज्यों के शासकों पर दबाव डालकर सामंतों के इस विशेषाधिकार को समाप्त करवाया। सामंतों को सैनिक सेवा के बदले में नकद रुपये देने के लिए विवश किया गया। इसका उनकी स्थिति पर दूरगामी प्रभाव पङा। उन्हें अपने सैनिक दस्ते भंग करने पङे जिससे उनकी शक्ति और प्रभाव में कमी आ गई। धीरे-धीरे उनके न्यायिक अधिकारों को भी कम कर दिया गया। अब उनके विरुद्ध अभियोगों की सुनवाई के लिये सरदार कोर्ट्स स्थापित किये गये। बीकानेर राज्य में तो सामान्य न्यायालयों को भी सामंतों के विरुद्ध अभियोगों की सुनवाई करने तथा उनके विरुद्ध कुर्की के आदेश जारी करने के अधिकार दिये गये। सामंतों को भी सामान्य लोगों की भाँति न्यायालय शुल्क देने के लिये विवश होना पङा। न्यायिक अधिकारों के छिन जाने अथवा अत्यधिक सीमित हो जाने तथा न्यायालयों के सम्मुख साधारण जनता और उनकी स्थिति में विशेष अंतर न रहने से सामंतों का सार्वजनिक प्रभाव काफी कम हो गया।

19 वीं सदी के पूर्वार्द्ध तक सामंत लोगों का सेठ-साहूकारों तथा व्यापारियों पर भारी प्रभाव था। वे लोग व्यापारियों से राहदारी इत्यादि शुल्क के बदले में व्यापारियों को सुरक्षा प्रदान करते थे। परंतु अब अँग्रेजों के सुझावानुसार शासकों ने उनके इस विशेषाधिकार को भी समाप्त कर दिया और इस प्रकार के शुल्कों को लागू करने तथा वसूल करने का एकमात्र अधिकार राज्य सरकार का माना गया। इससे सामंतों को न केवल अपनी आय के एक प्रमुख स्रोत से ही वंचित हो जाना पङा अपितु व्यापारी वर्ग पर उनका प्रभाव भी कम हो गया। यातायात के नये साधनों विशेषतः रेल मार्गों के खुल जाने से कई जागीरदारों का व्यापारियों पर रहा सहा प्रभाव से मुक्त हो जाने में सहयोग प्रदान किया। इन्हें अपने आसामियों से ऋण वसूली के लिये अब पहले की भाँति सामंतों के अनुग्रह की आवश्यकता नहीं रही। इससे सामान्य जनता पर सामंतों का नियंत्रण एवं प्रभाव धीरे-धीरे कम होता गया क्योंकि अब वे पहले की भांति सत्ता के स्रोत नहीं रह गये थे।

राज्यों में सामंत व्यवस्था के नये नियमों ने भी उनकी प्रतिष्ठा को कम करने में योगदान दिया। उदाहरणार्थ, पहले जागीरों के नाम से आने वाले सामान पर चूँगी नहीं लगती थी, परंतु नये नियम के अन्तर्गत उनकी यह छूट बंद कर दी गयी। पहले उन्हें अपराधियों तथा राजद्रोहियों को भी अपनी गढी में शरण देने तथा शराब की भट्टियाँ रखने के अधिकार प्राप्त थे और स्टाम्प शुल्क तथा न्यायालय शुल्क से छूट मिली हुई थी । परंतु नये न्यायालयों तथा नियमों के अन्तर्गत उनके ये अधिकार भी समाप्त कर दिये गये। इस प्रकार, सामंत वर्ग कई मामलों में सर्वसाधारण की सामान्य स्थिति में आ गया, जिससे उसकी गरिमा एवं प्रभाव में कमी आना स्वाभाविक ही था।

ब्रिटिश सरकार ने राज्यों में अपने प्रति निष्ठावान और स्वाभाविक नौकरशाही के नये वर्ग को प्रोत्साहित किया ताकि उसकी सहायता से उसे अपनी इच्छानुसार हस्तक्षेप करने का अवसर मिलता रहे। इस नीति के फलस्वरूप उन्नीसवीं सदी के अंत तक लगभग सभी राज्यों की शासन व्यवस्था पर सामंतों की अपेक्षा इस नये नौकरशाही वर्ग का प्राधान्य स्थापित हो गया। इस नये नौकरशाही वर्ग को सामंतों की वक्र दृष्टि का जरा भी भय नहीं था क्योंकि उसे ब्रिटिश सरकार का परोक्ष समर्थन प्राप्त था। इससे जागीरदारों का राज्यों के शासन तंत्रों पर रहा सहा प्रभाव भी क्षीण हो गया।

19 वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में समाज तेजी के साथ बदलने लग गया था। परिवर्तित सामाजिक जीवन में संबंधों का मुख्य आधार पूँजीवादी अर्थव्यवस्था, व्यापारिक संबंध और शैक्षणिक योग्यता होता गया। राजपूत सामंतों ने इन सभी नये आधारों में योग्यता प्राप्त करने का प्रयास नहीं किया। व्यापार-वाणिज्य तथा पूँजी के विनियोग को वे बनियों का काम समझते थे और शिक्षा को आजीविका का साधन मात्र मानते थे। सामंतों के पुत्रों को स्कूल भेजना ही पसंद नहीं किया, हालाँकि कुछ शासकों ने तो उन्हें इस संबंध में सख्त आदेश भी जारी किये थे। परिणाम यह निकला कि वर्षों तक समाज का नेतृत्व करने वाले तथा राज्य की सुरक्षा और विस्तार के लिये मर मिटने वाले राजपूत सामंत संपन्न तथा शिक्षित परिवारों की तुलना में पिछङने लगे और धीरे-धीरे समाज का नेतृत्व भी उनके अधिकार से निकल गया। फिर भी, इसमें कोई संदेह नहीं कि एक लंबे समय तक सामंत व्यवस्था ने इतिहास में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया।

सामंत प्रथा के गुण एवं दोष

सामंत प्रथा का उद्भव ही इस विश्वास के साथ हुआ था कि वे राज्यों की सुरक्षा के लिये शासकों की सहायता करेंगे तथा राज्य के प्रशासन को सुचारु रूप से संचालित करने में सहयोग करेंगे। सामंतों के कारण ही शासक न केवल अपने राज्य के अस्तित्व को बनाये रख सके, बल्कि समय-समय पर उसका विस्तार करने में भी सफल रहे। सामंतों के कारण ही शासक को अपनी राजधानी से दूरस्थ प्रदेशों की सुरक्षा की चिन्ता नहीं रहती थी। जिस युग में राजा दूसरे राज्य को समाप्त कर अपने राज्य का विस्तार करना चाहता था, उस युग में सामंत अपने शासक के तथा राज्य के प्रति निष्ठावान सहयोगी सिद्ध हुए। चूँकि राजा के पास अपनी स्वयं की कोई सेना होती नहीं थी, अतः आवश्यकता पङने पर राज्य के सभी सामंत अपनी अपनी जमीयत (सेना) लेकर शासक की सेवा में उपस्थित हो जाते थे और सामंतों की यह जमीयत ही शासक और राज्य की सेना होती थी। जिस प्रकार एक राजा का कर्त्तव्य अपनी प्रजा का पोषण करना तथा राज्य की रक्षा करना था, उसी प्रकार सामंतों का कर्त्तव्य राज्य की सुरक्षा में शासक को सहयोग देना था। सामंतों की शक्ति ही शासकों की शक्ति थी। अतः सामंत प्रथा शासकों को शक्तिसम्पन्न बनाये रखने में सहायक सिद्ध हुई। सामंत प्रथा राज्य में भूमि कर वसूल करने में भी सहायक सिद्ध हुई, क्योंकि सामंत अपनी-अपनी जागीर से भूमि कर वसूल करते थे और उसमें से निर्धारित रकम राजकोष में जमा करा देते थे। इस प्रकार पूरे राज्य से भूमि कर की वसूली बङी आसानी से हो जाती थी। सामंत वर्ग प्रायः राजा के स्वकुलीय होते थे तथा उनमें भाइचारे का संबंध होने के कारण राजपूतों में एकता की भावना रहती थी। राज्य पर आये संकट को वे अपने परिवार पर आये संकट समझ कर राजा की सहायता करते थे। राजा का गौरव भी दरबार में उपस्थित सामंतों के कारण होता था। विशेष अवसरों पर दरबार में उपस्थित होकर सामंत राजा का अभिवादन करते थे और भेंट या नजराना आदि देते थे, जिससे राज्य को आय तो होती ही थी, लेकिन साथ ही राजा के सम्मान में भी वृद्धि होती थी। सामंत प्रथा के कारण ही राजा स्वेच्छाचारी और निरंकुश नहीं हो सकता था। क्योंकि राज्य प्रशासन के महत्त्वपूर्ण मसलों पर राजा अपने सामंतों से ही मंत्रणा करता था। यद्यपि राजपूत राज्यों में सामान्यतः ज्येष्ठाधिकार की परंपरा प्रचलित थी, परंतु यदि सामंतों को ज्येष्ठ पुत्र की योग्यता और नेतृत्व क्षमता के प्रति संदेह होता तो वे भूतपूर्व शासक के किसी अन्य योग्य पुत्र को सिंहासन पर बैठा देते थे। अतः राज्य का शासक बनने के लिये ज्येष्ठ पुत्र होना ही पर्याप्त नहीं था, कुलीय सामंतों की स्वीकृति भी आवश्यक होती थी। इस प्रकार योग्य शासक के होते हुए राज्य की प्रतिष्ठा बनी रहती थी तथा राज्य प्रशासन भी सुचारु रूप से संचालित होता था और इसके साथ ही राजा की निरंकुशलता पर सामंतों का नियंत्रण रहता था। इससे शासक स्वेच्छाचारी और निरंकुश नहीं हो सकता था।

इन सभी गुणों के बावजूद सामंत प्रथा में अनेक दोष भी थे जिससे राज्य को हानि भी उठानी पङती थी। सामंत प्रथा का सबसे बङा दोष तो यह था कि राज्य में राजा यद्यपि सर्वोच्च अधिकारी होता था, लेकिन प्रत्येक प्रशासनिक मामले में राजा को अपने सामंतों पर आश्रित रहना पङता था। राजा के पास कोई स्वयं की सेना न होने के कारण राज्य की सुरक्षा के लिये भी सामंतों की सैनिक सहायता पर निर्भर रहना पङता था। सामंतों के सैनिक केवल अपने सामंत के नेतृत्व में युद्ध में भाग लेते थे। अतः सभी सामंतों की सेनाओं में न तो एकता रह पाती थी और न समन्वय ही रहता था। इसके अलावा सामंतों की सेना प्रशिक्षित भी नहीं होती थी। इसलिए कहा जाता था कि राजपूत सेना मरना जानती है, लङना नहीं। सामंत लोग प्रकृति के बङे स्वाभिमानी होते थे, अतः जब कभी राजा अपने अधिकारों का प्रयोग करते हुए किसी सामंत के तुच्छ से विशेषाधिकार को समाप्त करने का प्रयास करता तो सभी सामंत राजा का विरोध करते हुए उसके शत्रु बन जाते थे। मुगल काल में तो ऐसे अनेक उदाहरण मिल जाते थे, जबकि किसी राज्य का सामंत अपने राजा से रुष्ट होकर मुगल सम्राट से सीधा संपर्क कर लेता था। मुगल सम्राट भी ऐसे सामंतों को प्रोत्साहित करते थे और उन्हें अपनी सेवा में लेकर कोई परगना अलग से जागीर में दे देते थे। वह सामंत उस परगने का स्वतंत्र शासक बनकर राजा के लिये संकट पैदा कर देता था। मुगल साम्राज्य के पतनोन्मुख काल में तो लगभग प्रत्येक राज्य में शासक और सामंतों के बीच झगङे आरंभ हो चुके थे। शासकों में इतनी शक्ति नहीं रह गई थी कि वे अपने सामंतों को नियंत्रित कर सकें। राजपूत शासकों द्वारा ब्रिटिश संरक्षण स्वीकार करने का एक कारण यह भी था कि वे ब्रिटिश सहयोग से अपने सामंतों को नियंत्रित करना चाहते थे। सामंत प्रथा का दूसरा दोष यह था कि राज्य की भूमि सामंतों में और तत्पश्चात् सामंत के पुत्रों में बँट जाती थी। फलस्वरूप किसी-किसी सामंत के पास तो इतनी छोटी भूमि रह जाती थी कि उस भूमि से उसका जीवन निर्वाह होना भी कठिन हो जाता था। सामंत प्रायः रूढिवादी और परंपरावादी होते थे। परिवर्तित परिस्थितियों में भी उन्हें अपनी जागीर या राज्य की प्रगति पसंद नहीं थी। इतना ही नहीं वे अपनी जागीर के लोगों को बाहरी लोगों के प्रभाव से बचाने के लिये न तो यातायात के साधनों को विकसित करते थे और न अपनी जागीर से किसी को अपनी भूमि बेचकर अन्यत्र जाने देते थे। बदले हुए समय के साथ-साथ सामंतों को जब-जब धन की आवश्यकता होती थी, वे अपने किसानों पर अतिरिक्त कर लगा देते थे और किसानों से मुफ्त में बेगार लेते थे। इन लाग-बागों के कारण ही आगे चलकर किसानों को आंदोलनों का सहारा लेना पङा। इन किसान आंदोलनों ने तो सामंत प्रथा के उन्मूलन की पृष्ठभूमि तैयार कर दी थी। लगभग प्रत्येक राज्य में सामंतों का वर्गीकरण कर उनकी श्रेणियाँ निर्धारित कर दी गयी थी। अतः सामंतों में परंपरागत समानता की भावना समाप्त हो गयी। प्रथम श्रेणी का सामंत अपनी बहिन-बेटियों की शादी प्रथम श्रेणी के सामंत पुत्र के साथ ही करना पसंद करता था। सामंतों में पारस्परिक द्वैष उत्पन्न होने से इसका प्रभाव राज्य पर पङता था। राजपूत राज्यों के मुगल संरक्षण में जाने के बाद जब शासक को सामंतों की सैनिक सेवा की आवश्यकता नहीं रही, तब सामंतों का जीवन विलासपूर्ण हो गया। सामंतों की विलासिता ब्रिटिश काल में और भी बढ गई तथा वे सुरा व सुन्दरी के दास बन गये। राज्य की राजधानियों में सामंतों की हवेलियाँ होती थी जहाँ सदैव नृत्य और संगीत की झंकार सुनाई देती थी। जागीर में सामंत की अनुपस्थिति में जागीर का कामदार किसानों पर भीषण अत्याचार करने लग गये। 19 वीं शताब्दी के अंत में तथा 20 वीं शताब्दी के प्रारंभ में सामंतों की आय के साधन तो सीमित हो गये लेकिन सामंत अपनी शान और शौकत बनाये रखने हेतु तथा अपने विलासपूर्ण जीवन के लिये कर्जदार बनता गया। ऐसी परिस्थितियों में सामंत प्रथा का अंत होना तो स्वाभाविक ही था। अतः स्वतंत्रता प्राप्ति के कुछ समय उपरांत ही राजस्थान में सामंत प्रथा को समाप्त कर दिया गया।

यूरोपीय सामंत पद्धति से तुलना

कर्नल जेम्स टॉड ने राजस्थान की सामंत पद्धति की तुलना मध्ययुगीन सामंत पद्धति से की है। डॉ.गोपीनाथ शर्मा ने इस संदर्भ में लिखा है कि, इसमें कोई संदेह नहीं कि यहाँ की सामंत पद्धति और यूरोप की सामंत पद्धति में कई साम्यताएँ हैं, परंतु राजस्थानी सामंत व्यवस्था एक प्रकार की सामाजिक -राजनीतिक व्यवस्था का रूप है, जिसमें नेता के रूप में एक राजा रहता है और उसके साथ उसी के वंशज या अन्य जाति के वंशज उसका साथ और सहयोगी बने रहते हैं। यूरोप में एक स्वामी के साथी आश्रित के रूप में रहते थे जिनकी स्वतंत्र कोई स्थिति नहीं थी। यहाँ एक प्रकार से राजा के सामंत उसी या समकक्ष वंश के होने से राज्य के बराबरी के हिस्सेदार होते थे।

यदि हम मध्ययुगीन यूरोप तथा राजपूत राज्यों में प्रचलित सामंत व्यवस्था का गहन अध्ययन करें तो दोनों में अनेक भिन्नताएँ स्पष्ट रूप से दृष्टिगत होती हैं। सर्वप्रथम तो दोनों का उद्भव भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में हुआ। यूरोप में रोमन साम्राज्य की शक्ति एवं प्रतिष्ठा के अवसान के फलस्वरूप सर्वत्र अराजकता एवं अशांति व्याप्त हो गयी थी। सरकार अपनी प्रजा की जान-माल की सुरक्षा का प्राथमिक कार्य करने में असमर्थ रही। इस स्थिति के फलस्वरूप यूरोप में सामंत पद्धति का उदय हुआ। कर्नल टॉड और गिबन जैसे विद्वानों ने भी इस सत्य को स्वीकार किया है कि यूरोप में सामंती प्रथा का जन्म बर्बरतापूर्ण वातावरण के फलस्वरूप हुआ था। इस प्रकार के वातावरण में स्थानीय लोगों की जान-माल की सुरक्षा का दायित्व सामंतों ने स्वीकार किया। उन्हें अपने क्षेत्र में शांति एवं व्यवस्था बनाये रखने के लिये अनेक अधिकार दिये गये, जैसे – सिक्कों को ढलवाना, निजी तौर पर युद्ध लङना, सामंती कर के अलावा अन्य किसी प्रकार के कर न देना, अपने क्षेत्र के लिये कानून बनाना तथा न्याय प्रदान करना आदि। वस्तुतः यूरोपीय सामंत पद्धति राजा और सामंत के मध्य एक प्रकार का अनुबंध था। दोनों का संबंध स्वामी और सेवक का था। इस समझौते का आधार पारस्परिक सुरक्षा एवं सेवाएँ थी। राजस्थान में सामंती प्रथा के अभ्युदय के लिये ऐसी परिस्थिति नहीं थी। राजा और सामंत का संबंध रक्त और बंधुत्व का था। राजस्थान में सामंत पद्धति का जन्म राजा की शक्ति की क्षीणता के कारण नहीं हुआ था। इसलिए यूरोपीय सामंतों की भाँति राजपूत सामंतों को व्यापक अधिकार कभी नहीं मिल पाये, जैसे सिक्कों को ढलवाना, अपने क्षेत्र के लिये स्वतंत्र रूप से कानून बनाना, न्याय करना आदि। दूसरी भिन्नता इस बात में है कि यूरोप में भूमि राजा की मानी जाती थी अर्थात् जमीन का स्वामित्व राजा का था। परंतु राजस्थान में भारत के अन्य भागों की तरह भूमि का स्वामी किसान था। राजा अथवा उसका सामंत केवल भूमि की उपज का भाग लेने का अधिकारी मात्र था। इसलिए यूरोपीय राजाओं की भाँति राजस्थान के राजा भूमि के स्वामित्व का हस्तान्तरण नहीं कर सकते थे। वे केवल भूमि कर की वसूली के अधिकार को हस्तान्तरित कर सकते थे।

राजस्थान में न्याय का कार्य तो सामान्यतः ग्राम-पंचायत या जाति-पंचायतों के हाथ में था। यह व्यवस्था राजस्थान के सामंती युग में भी विद्यमान थी और इन पंचायतों के कार्य में सामंती लोग कभी भी हस्तक्षेप नहीं करते थे। यूरोप में इस प्रकार की परंपरा अथवा व्यवस्था कभी नहीं रही। वहाँ सामंत के पास न्याय संबंधी सभी अधिकार प्राप्त थे। राजस्थान में स्वतंत्रता पूर्व कुछ सामंतों को न्याय संबंधी अधिकार प्राप्त थे परंतु वे नाममात्र के थे।

यूरोप में सामंत अपने स्वामी की मदद में युद्ध करने जाता था। यह उनका दायित्व था और एक प्रकार का अनुबंध था। परंतु राजस्थान में सामंत लोग अपने राजा की मदद इसलिए करते थे कि वह उनके कुल का नेता था। उसके साथ सामंतों के व्यक्तिगत एवं रक्त के संबंध थे। संपूर्ण राज्य को वे संपूर्ण कुल की संपत्ति मानते थे। उदाहरणआर्थ, जोधपुर के महाराजा मानसिंह ने जब अपने बहुत से सामंतों को उनकी जागीरों से निष्कासित कर दिया तो सामंतों ने ब्रिटिश सरकार को ज्ञापन दिया जिसमें उन्होंने स्पष्ट रूप से भूमि पर कुलीय दावे और शासक के साथ अपनी समानता का दावा प्रस्तुत किया था।

अंत में, हम यह देखते हैं कि यूरोप में जब राष्ट्रीय राज्यों का उदय हुआ तो राजाओं की शक्ति का विकास हुआ और सामंतों का पतन हुआ और शनैः शनैः सामंती प्रथा का अस्तित्व ही समाप्त हो गया। राजस्थान में राजा और सामंतों की संस्थाएँ साथ-साथ अंत तक चलती रही। इससे स्पष्ट है कि यूरोप और राजस्थान में सामंती प्रथा का उदय भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में हुआ और उनके विकास में भी कोई विशेष साम्यता नहीं थी। राजस्थान में सामाजिक एवं नैतिक कारणों से न कि राजनीतिक आवश्यकता के कारण सामंत प्रथा का विकास हुआ। कर्नल टॉड का दोनों व्यवस्थाओं में समानता स्थापित करना उचित नहीं जान पङता। डॉ. गोपीनाथ शर्मा ने ठीक ही लिखा है कि, टॉड ने जिस समय इस प्रथा को देखा था, उस समय राजस्थान के सामंत निर्बल हो चुके थे और उस समय इनकी स्थिति केवल एक राज्य के आश्रित के रूप में थी।

References :
1. पुस्तक - राजस्थान का इतिहास, लेखक- शर्मा व्यास

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