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हिटलर की विदेश नीति क्या थी

हिटलर की विदेश नीति क्या थी

हिटलर की विदेश नीति का मुख्य उद्देश्य

हिटलर के नेतृत्व में नात्सी शासन ने जो विदेश नीति अपनाई वह राष्ट्रीय समाजवादी दल द्वारा 1920 में स्वीकृत कार्यक्रम की नीति से भिन्न थी। उसकी विदश नीति उसकी पुस्तक मीन कैफ(मेरा संघर्ष) पर आधारित थी ।

हिटलर की विदेश नीति के मुख्य उद्देश्य निम्नलिखित थे-

 हिटलर की विदेश नीति

जर्मन मूल वंश के लोगों को आत्म-निर्णय के सिद्धांत के आधार पर एक वृहत्तर जर्मन साम्राज्य में संगठित करना। वैसे बिस्मार्क ने प्रशा के नेतृत्व में जर्मन राज्यों का एकीकरण किया था, परंतु वह जर्मन आबादी वाले प्रदेशों को जर्मन साम्राज्य के अन्तर्गत नहीं ला सका था।

आस्ट्रिया के अधिकांश निवासी जर्मन भाषा-भाषी थे। इसी प्रकार डेन्जिग, स्विट्जरलैण्ड, चेकोस्लोवाकिया और बाल्टिक राज्यों के कई प्रदेशों को जर्मन साम्राज्य में सम्मिलित करना चाहता था।

हिटलर की विदेश नीति का दूसरा मुख्य उद्देश्य वर्साय तथा अन्य शांति समझौतों को रद्द करना था। वह इन्हें जर्मनी के लिये अपमानित तथा कलंकित मानता था।

हिटलर ने एक बार कहा था कि, इसकी (वर्साय) प्रत्येक बात को जर्मन जाति के दिल और दिमाग में इस तरह भर दिया जाय कि अन्ततः 6 करोङ नर-नारियों के ह्रदय की लज्जा और घृणा की संयुक्त भावनाओं का एक जाज्वल्यमान सागर बन जाए और उस भट्टी में से मजबूत फौलाद का एक ऐसा संकल्प पैदा हो, ऐसी भावना विकसित हो कि “हम फिर से हथियार लेंगे।”

हिटलर की गृह नीति

हिटलर की विदेश नीति का एक मुख्य ध्येय गुप्त रूप से अपने को सुसज्जित करके दूसरे देशों पर वार करने का था। उसके सामने जर्मनी की बढती हुई आबादी को बसाने की समस्या थी। इसके लिये जर्मनी का प्रादेशिक विस्तार करना आवश्यक था।

प्रादेशिक विस्तार के लिये हिटलर की विदेश नीति का मूल लक्ष्य जर्मनी के लिये महाद्वीपीय आधार प्राप्त करना था, अर्थात् विस्तृत प्रदेशों को जर्मनी के आस-पास ही प्राप्त करना था न कि उपनिवेशों को प्राप्त करना था। इसके लिये पूर्व की ओर अर्थात रूस की दिशा में प्रादेशिक विस्तार अधिक सुगम माना गया।

दूसरे शब्दों में हिटलर जर्मनी की पूर्व की ओर अग्रसर होने की परंपरागत विदेश नीति को पुनर्जीवित करना चाहता था। इसे पूरा करने के लिये इंग्लैण्ड तथा इटली के साथ अच्छे संबंध बनाए रखने तथा फ्रांस को मित्रविहीन रखने की आवश्यकता थी।

हिटलर की विदेश नीति का एक मुख्य ध्येय प्रथम महायुद्ध के बाद जर्मनी द्वारा खोए हुए कुछ क्षेत्रों को वापस लेना था। इन्हें केवल युद्ध के द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता था। प्रार्थना अथवा विरोध प्रदर्शन से इन्हें वापस नहीं लिया जा सकता था। प्रार्थना अथवा विरोध प्रदर्शन से इन्हें वापस नहीं लिया जा सकता था।

मीन कैम्फ में हिटलर ने अपनी विदेश नीति का उल्लेख करते हुये लिखा है, यूरोप में कभी दो शक्तियों को उठने न दिया जाय, जर्मनी की सीमा पर जब भी दूसरी शक्ति के उदय की संभावना हो, तभी जर्मनी को उसे कुचल देने का प्रयास करना चाहिए। शायद हिटलर की विदेश नीति का ध्येय यूरोप की अन्य सभी सैनिक शक्तियों पर आक्रमण करके उन्हें कमजोर बनाने तथा जर्मन को विश्व शक्ति के रूप में प्रतिष्ठित करने का रहा हो।

इस प्रकार की विदेश नीति को कार्यान्वित करने के लिये उत्तम टेकनीक की आवश्यकता थी। हिटलर ने निम्नलिखित साधनों का प्रयोग किया

पुनः शस्री करण

हिटलर युद्ध को मानव जाति के कल्याण के लिये आवश्यक मानता था। उसका मानना था कि संघर्ष के द्वारा ही अच्छी चीज का सृजन होता है। अतः उसने शस्रीकरण की तरफ वेशेष ध्यान दिया और इसके लिये जर्मनी को राष्ट्रसंघ की सदस्यता छोङनी पङी।

प्रचार

हिटलर का मानना था कि विजय केवल तलवार के द्वारा ही प्राप्त नहीं होती है। इसके लिये लेखनी और प्रचार की भी आवश्यकता है। उसने पश्चिमी देशों को यह आश्वासन दिया कि वह साम्यवाद को रोकने का अथक प्रयत्न कर रहा है। इसी चक्कर में इंग्लैण्ड और फ्रांस ने जर्मनी द्वारा शांति संधियों का उल्लंघन सहन कर लिया था। जब तक पश्चिमी देशों को साम्यवादी भूत का भय बना रहा, हिटलर निश्चिंत रहा।

मतभेद उत्पन्न करना

हिटलर हमेशा किसी भी समस्या को इस ढँग से प्रस्तुत करने में विश्वास रखता था जिससे पश्चिमी देशों में आपसी मतभेद उत्पन्न हो जाय। उदाहरणार्थ, जर्मनी और जापान का समझौता पश्चिमी देशों के विरुद्ध किया गया था, परंतु हिटलर ने उसे साम्यवाद विरोधी रूप दिया।

इसी प्रकार स्पेन के गृह-युद्ध में उसने साम्यवादियों के विरुद्ध कैथोलिकों को सहयोग देने की बात कह कर जनरल फ्रांकों को मदद दी और प्रजातान्त्रिक सरकार का गला घोट दिया।

विदेश नीति के प्रमुख कार्य

राष्ट्रसंघ से अलग होना

4 अप्रैल, 1933 को हिटलर के निर्देशन में जर्मन सुरक्षा परिषद की स्थापना की गई और इसे गुप्त रूप से युद्ध के लिये लामबंदी की योजनाएँ बनाने का तथा शस्त्रों के निर्माण का अधिकार दे दिया गया।

हिटलर की यह नीति राष्ट्रसंघ के उद्देश्यों के प्रतिकूल थी, क्योंकि राष्ट्रसंघ शस्रों को कम करना चाहता था और जर्मनी को निःशस्त्रीकरण में कोई रुचि नहीं थी। इसलिये 14 अक्टूबर, 1933ई. को हिटलर निःशस्रीकरण सम्मेलन से अलग हो गया और राष्ट्रसंघ की सदस्यता भी त्याग दी।

उसने अपनी नीति को निम्नलिखित शब्दों में स्पष्ट किया – जर्मनी की भूतपूर्व सरकार ने राष्ट्रसंघ की सदस्यता इस विश्वास के साथ ग्रहण की थी कि वहाँ पर सभी को समानाधिकार एवं सुविधाएँ प्रदान की जाएँगी और जर्मनी अपने भूतपूर्व शत्रुओं के साथ अच्छे संबंध बना सकेगा।

परंतु राष्ट्रसंघ में न तो समानता है और न समानाधिकार। अतः इस प्रकार के असम्माननीय वातावरण में रहना जर्मन जाति के गौरव के विरुद्ध हो जाता है। इसके तुरंत बाद ही हिटलर ने राष्ट्रसंघ छोङने के अपने निर्णय को जर्मन मतदाताओं के सम्मुख प्रस्तुत किया और 95 प्रतिशत मतदाताओं ने उसके निर्णय का समर्थन किया।

यह इस बात की स्पष्ट चेतावनी थी कि स्ट्रेसमान की सहयोगी नीति का अंत हो चुका है और हिटलर आक्रामक नीति को अपनाने का दृढ संकल्प कर चुका है।

पोलैण्ड के साथ अनाक्रमण समझौता

वर्साय की संधि द्वारा पोलैण्ड को जर्मनी के बहुत से क्षेत्र – डेन्जिग बंदरगाह, साइलेशिया, पोसेन आदि प्राप्त हुए थे। हिटलर का सत्तारूढ होना पोल राजनीतिज्ञों के लिये सरदर्द बन गया था, क्योंकि हिटलर कई बार सार्वजनिक तौर पर जर्मनी द्वारा खोए हुये प्रांतों को लेने की बात कह चुका था।

राष्ट्रसंघ का परित्याग करने के कारण सारा संसार भी हिटलर को अविश्वास की निगाह से देखने लगा था। ऐसी स्थिति में संसार को अपनी शांतिप्रियता का प्रमाण देने हेतु हिटलर ने 26 जनवरी, 1934 ई. को पोलैण्ड के साथ दस वर्ष के लिये एक अनाक्रमण समझौता सम्पन्न कर लिया।

परंतु उसका वास्तविक उद्देश्य फ्रांस की सुरक्षा-प्रणाली को निर्बल बनाना था जिसका पोलैण्ड एक महत्त्वपूर्ण सदस्य था। इस समझौते के बाद पोलैण्ड, सामूहिक सुरक्षा नीति के मार्ग से दूर खिसकने लगा और फ्रांस की यह आशा धूमिल पङ गई कि पोलैण्ड, रूस और जर्मनी के मध्य संतुलन बनाए रखने में सफल होगा।

अपनी इस कूटनीतिक चाल से हिटलर जर्मनी के प्रबल शत्रु पोलैण्ड को अपना मित्र बनाने में सफल हो गया। हिटलर की इस नीति के पीछे कुछ अन्य कारण भी निहित थे।

चूँकि हिटलर ने अपने कार्यों के द्वारा पश्चिमी देशों और साम्यवादी रूस दोनों को असंतुष्ट बना दिया था, अतः इस समय जर्मनी अकेला पङ गया था और उसे दिखावे के लिये ही एक मित्र की आवश्यकता थी। दूसरा कारण यह था कि अगले वर्ष सार घाटी में जनमत संग्रह होने वाला था।

एक कारण यह भी था कि पोलैण्ड के साथ समझौता करके वह पूर्व की तरफ से निश्चिंत होकर अन्य दिशाओं में अपनी विस्तारवादी योजना को कार्यान्वित कर सकता था। पोलैण्ड ने भी अपने स्वार्थों की वजह से समझौता किया था। उसके दोनों पङौसी – रूस और जर्मनी उसके शत्रु थे।

दोनों शत्रुओं के साथ अधिक समय तक शत्रुता बनाए रखना उसके हित में अच्छा नहीं था। लोकार्नों की संधि से पोलैण्ड का अपने मित्र फ्रांस से विश्वास उठ गया था। क्योंकि फ्रांस को अपनी सुरक्षा की चिन्ता पहले थी और इसके लिये वह अपने मित्रों के हितों के प्रति उदासीन रुख अपना सकता था।

इधर जर्मनी काफी शक्ति सम्पन्न हो गया था। अतः पोलैण्ड ने एक शत्रु की चिन्ता से मुक्त होने के लिये जर्मनी से समझौता कर लेना उचित समझा।

आस्ट्रिया को हङपने का प्रयास

सेंट जर्मन की संधि के द्वारा आस्ट्रिया के सात जर्मनी का एकीकरण वर्जित कर दिया गया था। फिर भी 1919 के बाद कई वर्षों तक अधिकांश आस्ट्रियन जनता जर्मनी के साथ एकीकरण की इच्छुक थी। परंतु जर्मनी में नात्सी दल के सत्तारूढ होने के बाद अधिकांश आस्ट्रियन लोगों का यह मत बदल गया था।

केवल जर्मनी के थोङे अनुयायी नाजी लोग ही इसके लिये प्रयत्नशील थे। हिटलर अपनी मातृभूमि आस्ट्रिया का जर्मनी के साथ एकीकरण करने का अधिक उत्सुक था। उसने आस्ट्रियन नाजियों को अस्र-शस्र तथा सैनिक प्रशिक्षण दिलवाया तथा गुप्त रूप से उनकी पूरी मदद की।

इसके बाद हिटलर के इशारे पर आस्ट्रियन सरकार का तख्ता पलटने का प्रयास किया गया। आस्ट्रिया के चान्सलर डाल्फस को कत्ल करवा दिया गया और आस्ट्रियन नाजियों ने कई महत्त्वपूर्ण सरकारी इमारतों पर अधिकार कर लिया। आस्ट्रियन जनता ने नाजियों को समर्थन नहीं दिया।

आस्ट्रियन सेना ने यथाशीघ्र नाजियों के विद्रोह को कुचल दिया। जाल्फस की हत्या की सूचना मिलते ही इटली के मुसोलिनी ने आस्ट्रियन सीमान्त पर अपनी फौजों को तैनात कर दिया और जर्मनी को चेतावनी दे दी कि आस्ट्रिया में हस्तक्षेप करने का अर्थ – इटली से युद्ध छेङना होगा।

हिटलर को इस प्रकार की परिस्थिति के उत्पन्न हो जाने की आशंका नहीं थी और फिलहाल वह किसी भी बङे युद्ध के लिये तैयार नहीं था। अतः उसने इस समूची कार्यवाही से अपने किसी भी प्रकार के संबंध को अस्वीकार कर दिया। इस प्रकार, आस्ट्रिया को हङपने का प्रयास विफल रहा।

परंतु इसके महत्त्वपूर्ण परिणाम निलके। हिटलर को मुसोलिनी की मित्रता का महत्त्व मालूम हो गया। अतः अब उसने मुसोलिनी की मित्रता प्राप्त करने की तरफ विशेष ध्यान दिया। हिटलर की कार्यवाहियों से शंकित होकर रूस ने राष्ट्रसंघ की सदस्यता स्वीकार कर ली। फ्रांस ने भी इटली के प्रति मित्रता का हाथ बढाया और दोनों में 1935 में समझौता हो गया। इतना ही नहीं, आस्ट्रिया ने भी फ्रांस के साथ मैत्री-समझौता कर लिया।

सार पर अधिकार

वर्साय की संधि के अनुसार 13 जनवरी, 1935 को राष्ट्रसंघ के तत्त्वाधान में सार क्षेत्र में यह जानने के लिये जनमत संग्रह किया गया कि वहाँ की जनता फ्रांस के साथ अथवा जर्मनी के साथ मिलना चाहती है। सार की जनता ने भारी बहुमत से जर्मनी के पक्ष में मतदान किया।

परिणामस्वरूप राष्ट्रसंघ की कौंसिल ने 17 जनवरी को संपूर्ण सार क्षेत्र जर्मनी को सौंप दिया और 1 मार्च, 1935 को औपचारिक विधि भी अदा कर दी गयी। पश्चिमी देशों को संतुष्ट करने के लिये हिटलर ने सार पर अधिकार करने के बाद घोषणा की कि उसे पश्चिम में और अधिक प्रान्तों की आकांक्षा नहीं है।

शस्त्रीकरण

सार प्रदेश पर अधिकार होते ही हिटलर ने शस्रीकरण के काम को तेजी से आगे बढाने की निश्चय कर लिया। इसी समय फ्रांस ने अपने यहाँ अनिवार्य सैनिक सेवा की अवधि दोगुनी कर दी और इंग्लैण्ड ने भी वायु-सेना की वृद्धि शुरू कर दी इससे हिटलर को शस्रीकरण का स्वर्ण अवसर मिल गया।

16 मार्च, 1935 को हिटलर ने जर्मनी के पुनः शस्रीकरण की घोषणा की, जिसमें कहा गया कि चूँकि मित्र राष्ट्र वर्साय संधि के अन्तर्गत निःशस्त्रीकरण का पालन करने में असमर्थ रहे हैं, अतः जर्मनी संधि के एकपक्षीय पहलू या दायित्व का पालन करने के लिये बाध्य नहीं है।

जर्मन रीष्टाग तत्काल ही अनिवार्य भर्ती के द्वारा अपनी शांतिकालीन सेना में 5 लाख सैनिकों की वृद्धि करेगी। हिटलर के इस कदम की भर्त्सना की। परंतु जर्मनी को अपने दायित्व से मुँह मोङने के लिये सजा देने संबंधी कोई कदम नहीं उठाया गया जिससे हिटलर का उत्साह बढ गया और वह जर्मनी की सैन्य शक्ति की वृद्धि में जुट गया।

एंग्लो-जर्मन नौसेना समझौता

हिटलर द्वारा जर्मनी के पुनः शस्रीकरण की घोषणा से फ्रांस और रूस दोनों विशेष रूप से भयभीत हो गये और उन दोनों ने जर्मनी के विरुद्ध फ्रेंच-सोवियत पैक्ट पर हस्ताक्षर कर दिये।परंतु हिटलर ने इंग्लैण्ड के साथ समझौता करके इस पैक्ट को अर्थहीन बना दिया।

25 मार्च, 1935 को हिटलर ने इंग्लैण्ड के सामने एंग्लो-जर्मन-नौ-सैनिक समझौते का प्रस्ताव रखा था जो कुछ विशेष कूटनीतिक दाँव-पेंच के बाद 18 जून, 1935 ई. को सम्पन्न हो गया। इस समजौते के अनुसार जर्मनी को ग्रेट ब्रिटेन की जल सेना के 35 ई. को सम्पन्न हो गया।

इस समझौते के अनुसार जर्मनी को ग्रेट ब्रिटेन की जल सेना के 35 प्रतिशत के अनुपात से जलसेना रखने की स्वीकृति मिल गई। इस संधि के द्वारा जर्मनी को नपडुब्बियाँ बनाने का भी अधिकार मिल गया जिसका वर्साय की संधि में निषेध किया गया था। जो भी हो, यह समझौता हिटलर की एक महान कूटनीतिक सफलता थी।

इंग्लैण्ड ने अपने साथी राष्ट्रों से सलाह लिए बिना यह समझौता किया था कि जिससे वे इंग्लैण्ड को अविश्वास की दृष्टि से देखने लगे। इससे मित्रराष्ट्रों में मतभेद बढने लगा और यहीं से जर्मनी को संतुष्ट करने की नीति का सूत्रपात हुआ जिसे किसी भी आधार पर न्यायोचित नहीं ठहराया जा सकता।

इस समझौते की टीका करते हुये जर्मन राजदूत रिब्बनट्रांप ने लिखा था कि “इस समझौते का सबसे बङा महत्त्व यह था कि इससे ब्रिटेन वर्साय की संधि की शस्त्रास्त्र संबंधी व्यवस्थाएँ तोङने के लिये तैयार हो गया।”

राइन प्रदेश का सैन्यीकरण

हिटलर लोकार्नो की संधि को समाप्त करके राइन प्रदेश को पुनः सामरिक दृष्टि से सुसज्जित करना चाहता था। उसे शीघ्र ही अवसर प्राप्त हो गया। मई, 1935 में फ्रांस और चेकास्लोवाकिया ने रूस के साथ पारस्परिक सुरक्षा-संधि सम्पन्न कर ली। हिटलर ने इस संधि का विरोध किया।

2 मई, 1936 ई. को उसने राइन प्रदेश पर अधिकार कर लिया और घोषणा की कि फ्रेंको-रशियन समझौते ने लोकार्नो संधि की आत्मा को ही समाप्त कर दिया हा। अतः अब जर्मनी लोकार्नो को मानने के लिये कटिबद्ध नहीं है। इस प्रकार, उसने फ्रांस के ऊपर आरोप लगाकर पश्चिमी देशों को जर्मनी के विरुद्ध किसी प्रकार की कार्यवाही करने से रोक दिया।

जर्मन रीष्टाग ने उसकी कार्यवाही का समर्थन नहीं किया। हिटलर ने रीष्टांग को भंग कर अपनी नीति को जनता के सामने रखा। 28 मार्च, 1936 को जनता ने 88.8 प्रतिशत मतों से उनकी नीति का समर्थन किया।

लोकार्नो संधि के अंत में वर्साय संधि पर आधारित सुरक्षा प्रणाली को पूर्णतः नष्ट कर दिया । जर्मन सेनाओं को आक्रमण का मार्ग मिल गया। इसके परिणामस्वरूप फ्रांस और चेकोस्लावाकिया के मध्य स्थापित सैनिक सहयोग भी व्यर्थ हो गया और आस्ट्रिया की स्वतंत्रता को बचाना अब और भी दुष्कर हो गया।

हिटलर के इस कदम से छोटे राष्ट्रों का इंग्लैण्ड और फ्रांस से विश्वास जाता रहा और जर्मनी की तरफ मैत्री का हाथ बढाने लगे। राजनीतिक दृष्टि से रूस अकेला पङ गया और वह राष्ट्रसंघ को अधिक शक्तिशाली बनाने के लिये निरर्थक हाथ पैर मारता रहा।

रोम-बर्लिन धुरी

यह शायद स्वाभाविक ही था कि तीन असंतुष्ट महान शक्तियाँ – जर्मनी, जापान और इटली जो कि 1931-36 के काल में अपनी आक्रामक कार्यवाहियों के द्वारा शेष संसार को विक्षुब्ध किए हुए थी, आपसी समर्थन के लिये एक दूसरे के समीप आ जायँ, क्योंकि 1935 के प्रारंभ में प्रत्येक देश पृथक खङा था और संसार की सहानुभूति को खो चुका था।

सर्वप्रथम जर्मनी ने अपने अकेलेपन को तोङने का प्रयत्न किया। इसका एक कारण यह भी था कि 1934 में मुसोलिनी के विरोध के कारण ही जर्मनी आस्ट्रिया को हङपने में विफल रहा। अतः इटली की मित्रता को प्राप्त करना बहुत आवश्यक था।

इधर इथोपियन संकट ने इटली को इंग्लैण्ड और फ्रांस से दूर फेंक दिया था और मुसोलिनी हिटलर की तरफ झुकने लगा था, क्योंकि हिटलर ने राष्ट्रसंघ द्वारा इटली के विरुद्ध लगाए गए आर्थिक प्रतिबंधों का मुकाबला करने में मुसोलिनी को पूरी-पूरी सहायता दी थी।

इतना ही नहीं, इटली की इथोपिया विजय को मान्यता देने वाला पहला देश जर्मनी ही था। जुलाई, 1936 में हिटलर के गुप्त सुझावों के अनुकूल आस्ट्रिया ने अपने आपको एक जर्मन राज्य घोषित कर दिया। हिटलर ने आस्ट्रिया की प्रभुसता को स्वीकार करते हुये मान लिया कि आस्ट्रिया का राजनीतिक ढाँचा उसका घरेलू मामला है और वह प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से इसमें हस्तक्षेप नहीं करेगा।

हिटलर की इस नीति के पीछे मुसोलिनी की मित्रता को प्राप्त करने की भावना मुख्य थी। इस संपूर्ण प्रसंग में मुसोलिनी चुप्पी साधे रहा जिसका अर्थ था – हिटलर की समर्थन। संयोगवश, इसी समय स्पेन का गृह-युद्ध शुरू हो गया, जिसमें एक तरफ प्रतिक्रियावदी जनरल फ्रांको था तो दूसरी तरफ लोकतांत्रिक सरकार थी।

मुसोलिनी जनरल फ्रांको की मदद कर रहा था। उसे खुश करने के लिये हिटलर ने जनरल फ्रांको को पूरा-पूरा सहयोग एवं समर्थन प्रदान किया जब कि फ्रांस मुसोलिनी से चिढ गया था और इंग्लैण्ड का रुख भी मुसोलिनी के अनुकूल नहीं रहा। ऐसी स्थिति में मुसोलिनी और हिटलर का नजदीक आना स्वाभाविक ही था।

21 अक्टूबर, 1936 को इटली के विदेशमंत्री ने बर्लिन की यात्रा की और 25 अक्टूबर, 1936 को इटली और जर्मनी में एक समझौता हो गया। इसमें यह व्यवस्था की गयी –

  • समान हितों से संबंधित सभी मामलों में दोनों के मध्य सहयोग,
  • साम्यवाद के विरुद्ध यूरोपीय सभ्यता की सुरक्षा,
  • डेन्यूब नदी क्षेत्र में आर्थिक सहयोग,
  • स्पेन की प्रादेशिक तथा औपनिवेशिक अखंडता को बनाए रखान।

1 नवम्बर, 1936 को मुसोलिनी ने प्रथम बार संसार को “रोम-बर्लिन धुरी” के बारे में जानकारी दी।

बर्लिन-टोकियो धुरी

मुसोलिनी से मैत्री-संबंध हो जाने पर भी हिटलर को सोवियत रूस के विरुद्ध एक और शक्तिशाली मित्र की आवश्यकता थी। 25 नवम्बर, 1936 को जर्मनी ने जापान के साथ “एण्टी-कॉमिणटर्नपर हस्ताक्षर कर दिए। इस समझौते का उद्देश्य साम्यवादी रूस का विरोध करना था परंतु वास्तव में यह रूस और पश्चिमी देशों, दोनों के विरुद्ध किया गया था।

इसके अनुसार दोनों देशों ने कोमिण्टर्न की कार्यवाहियों को एक दूसरे को सूचित करने तथा इसके विरुद्ध कदम उठाने के संबंध में आपसी सलाह एवं सहयोग देने का वचन दिया। इससे बर्लिन-टोकियो धुरी का निर्माण हुआ। 6 नवम्बर, 1937 को इटली भी इस समझौते में सम्मिलित हो गया।

इस प्रकार तीन प्रमुख असंतुष्ट शक्तियाँ “कोमिण्टर्न-विरोधी गुट” की चादर ओढ कर एकता के सूत्र में बंध चुकी थी और रोम-बर्लिन-टोकियो धुरी रचना पूर्ण हो चुकी थी। महाशक्तियाँ पुनः दो गुटों में विभाजित होने की तैयारी में लग चुकी थी।

रोम-बर्लिन-टोकियो गुट का सहयोग कई अवसरों पर उनकी संयुक्त नीति से शीघ्र ही स्पष्ट हो गया। 1937 ई. में इटली ने घोषणा की कि वह जर्मनी द्वारा आस्ट्रिया को अपने संघ में मिलाने के प्रयत्न के विरुद्ध आस्ट्रिया की सुरक्षा के लिये सैनिक सहायता नहीं देगा। इसी प्रकार, जर्मनी ने जापान द्वारा स्थापित “मंचूको” राज्य को मान्यता देकर आपसी सहयोग का परिचय दिया।

आस्ट्रिया को हङपना

स्पेन के गृहयुद्ध, चीन पर जापान के नए आक्रमण तथा नवीन संधि समझौतों के परिणामस्वरूप 1938 तक यूरोप की राजनीतिक स्थिति इतनी संदिग्ध बन चुकी थी कि हिटलर को आस्ट्रिया हङपने की अपनी चिर-अभिलाषा को पूर्ण करने का अवसर मिल गया।

मुसोलिनी जिसने कि पहले उसका इस संबंध में विरध किया था, अब हिटलर का मित्र बन चुका था। फ्रांस इस समय मंत्रिमंडलों की अस्थिरता के दौर से गुजर रहा था और एक निश्चित प्रभावकारी कदम उठाने की स्थिति में नहीं था।

ग्रेट ब्रिटेन की सरकार जर्मनी के प्रति तुष्टिकरण की नीति को अपना रही थी अतः हिटलर के लिये यह उपयुक्त अवसर था।

हिटलर ने आस्ट्रिया के संबंध में अपना प्रथम कदम 12 फरवरी, 1938 को बढाया जबकि आस्ट्रिया का चान्सलर शुशनिग हिटलर से मिलने आया। हिटलर की धमकियों के कारण शुशनिग को आस्ट्रियन नाजी नेता आर्थर सेइस इन्क्वार्ट को गृहमंत्री तथा अन्य नेताओं को न्याय तथा विदेशमंत्री नियुक्त करने का वचन देना पङा।

शुशनिग ने स्वदेश आकर घोषणा की कि वह यह प्रश्न जनता के सामने रखेगा और चार दिन बाद इस पर जनमत संग्रह लिया जाएगा। शुशनिग को यह विश्वास था कि इतने कम समय में नाजी लोग अपने प्रचार कार्य में सफल नहीं होंगे और जनमत संग्रह उसके पक्ष में रहेगा तथा संसार को मालूम हो जाएगा कि आस्ट्रिया की जनता जर्मनी के साथ मिलना नहीं चाहती।

परंतु हिटलर जनमत संग्रह के पक्ष में नहीं था। उसने शुशनिग को मतसंग्रह को रद्द करने तथा त्यागपत्र देने को कहा और यह धमकी भी दी कि यदि ऐसा नहीं किया गया तो जर्मन सेना आस्ट्रिया पर आक्रमण कर देगी और संसार की कोई शक्ति आस्ट्रिया को नहीं बचा सकेगी।

अपने देशवासियों को सम्भावित रक्तपात से बचाने की दृष्टि से शुशनिग ने हिटलर की दोनों माँगें स्वीकार कर ली । सेइस इनक्वर्ट चान्सलर बनाया गया और उसने तत्काल ही जर्मनी से प्रार्थना की कि आस्ट्रिया में शांति बनाए रखने के लिये जर्मन सेना भेजी जाए।

13 मार्च, 1938 को जर्मन रीष्टाग ने एक कानून बनाया जिसके अनुसार आस्ट्रिया को जर्मन संघ का एक राज्य स्वीकार कर लिया गया। आस्ट्रियन राष्ट्रपति मिकलास को त्याग-पत्र देना पङा। 14 मार्च को हिटलर ने सशस्त्र जर्मन सेना के साथ वियना में प्रवेश किया।

जनता ने भारी उत्साह के साथ आस्ट्रिया में जन्मे हिटलर का शानदार स्वागत किया।इस प्रकार आस्ट्रिया को जर्मन साम्राज्य में मिला लिया गया।

आस्ट्रिया के संबंध में जर्मनी की कार्यवाही की प्रतिक्रिया बङी रुचिपूर्ण रही। इंग्लैण्ड में यह माना गया है कि साम्यवदी तूफान को रोकने के लिये जो बान्ध बन रहा था वह अब और अधिक मजबूत हो गया। कुछ लोगों ने इसे आत्म-निर्णय का सुन्दर उदाहरण माना।

मुसोलिनी भी घबरा गया परंतु उसने अपनी घबराहट प्रकट नहीं की। फ्रांस को इससे सख्त अफसोस हुआ। पोलैण्ड को अपनी सुरक्षा की चिन्ता लग गई। दूसरी तरफ, मध्य यूरोप में अब जर्मनी की स्थिति मजबूत हो गई और हिटलर को अपनी “पूर्व की तरफ” प्रसार की नीति को सार्थक करने का मार्ग मिल गया।

आस्ट्रियन प्रभुत्व ने जर्मनी को दक्षिण-पूर्वी यूरोप के संपूर्ण यातायात का वास्तविक नियंत्रण प्रदान कर दिया। चेकोस्लोवाकिया अकेला पङ गया। उसके व्यापारिक मार्ग जर्मनी में से होकर जाते थे, जो अब जर्मनी की कृपा पर निर्भर करते थे।

चेकोस्लोवाकिया का अंग-भंग

हिटलर की अगली योजना चेकोस्लोवाकिया का अंग-भंग थी। इस योजना को कार्यान्वित करने के कई कारण थे

  • चेकोस्लोवाकिया लोकसभात्मक राष्ट्र था।
  • राष्ट्रसंघ का कट्टर समर्थक था
  • फ्रांस और रूस का मित्र था
  • वर्साय की संधि से इसकी उत्त्पति हुई थी।
  • शक्तिशाली चेक सेना का अस्तित्व कभी भी संकट का कारण बन सकता था।
  • सामरिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण था
  • हिटलर को विश्वास था कि इस समय कोई भी राष्ट्र उसकी सहायता को नहीं आ सकेगा।
  • चेकोस्लोवाकिया विविध जातियों का घर था।1930 की जनगणना के अनुसार उसकी आबादी में 74,47,000 चेक, 32,31,600 जर्मन, 26,09,000 स्लोवाक, 6,91,000मगयार, 4,49,000 रूथीनियन और 81,000 पोल लोग थे।

यदि आत्म-निर्णय के सिद्धांत को लागू किया जाता तो चेकोस्लोवाकिया का अंग-भंग निश्चित था। चेकोस्लोवाकिया के मामले में भी हिटलर ने अपने पुराने नुस्खे का उपयोग किया। चेकोस्लोवाकिया के जर्मन आबादी वाले सूडेटन प्रदेश के जर्मनों की ओट में काम शुरू किया गया।

जर्मनों का नेता था कोनर्ड हेनलिन। उसके चेकोस्लोवाकिया में स्थित सभी जर्मनों से अपने दल में सम्मिलित होने की प्रार्थना की और चेकोस्लोवाकिया के मंत्रिमंडल के जर्मन सदस्यों में आम चुनावों के समय स्थिति इतनी बिगङ चुकी थी कि बहुतों को यह संदेह हुआ कि चुनाव के परस्पर विरोधी राष्ट्रीय वर्गों के आपसी झगङे की ओट में, कहीं जर्मनी, सूडेटन जर्मनों का पक्ष लेकर चेकोस्लोवाकिया में न घुस आए। परंतु ऐसा नहीं हुआ।

यद्यपि फ्रांस ने अपने मित्र चेकोस्लोवाकिया से अनुरोध किया था कि कुछ सीमा तक सूडेटन जर्मनों को सुविधाएँ प्रधान करके उन्हें संतुष्ट करें, परंतु फिर भी उसने स्पष्ट कर दिया कि यदि चेकोस्लोवाकिया पर जर्मनी ने आक्रमण किया तो वह अपने मित्र की सहायता को पहुँच जाएगा।

ब्रिटिश सरकार ने पेरिस के साथ निरंतर सम्पर्क कायम रखा और बर्लिन तथा प्राग दोनों को शांतिपूर्वक झगङे को निपटाने की सलाह दी। इधर जर्मनी ने राइन के किनारे-किनारे स्विट्जरलैण्ड से लेकर नीदरलैण्ड तक किलेबंदी शुरू कर दी।

इसे पश्चिमी दीवार कहा जाता है और इसका उद्देश्य पश्चिम में फ्रांस को रोकना था, यदि पूर्व में जर्मनी चेकोस्लोवाकिया पर आक्रमण करे।

जुलाई में, ब्रिटिश सरकार ने, चेक सरकार की स्वीकृति के साथ, सूडेटन जर्मनों के विवाद को निपटाने में, चेक सरकार की सहायता के लिये लॉर्ड रन्सीमैन को प्राग भेजा। 7 सितंबर, 1938 को चेक सरकार ने रन्सीमैन की सलाह से तैयार की गयी एक योजना हेनलिन को भेजी।

यह योजना सूडेटन जर्मनों की समस्त प्रारंभिक माँगों को वास्तविक रूप से पूरा करने वाली थी। परंतु 12 सितंबर को हिटलर ने एक सार्वजनिक भाषण में कहा कि सूडेटन जर्मनों को आत्म-निर्णय का अधिकार दिया जाना चाहिये। यदि वे अपनी सुरक्षा अपने आप नहीं कर सकते तो उन्हें हमसे सहायता मिलेगी।

इस घोषणा से स्थिति और भी खराब हो गया और उपद्रव बढते ही गए।

इस प्रकार की संकटकालीन स्थिति में इंग्लैण्ड के प्रधानमंत्री चेम्बरलेन ने हिटलर को सन्तुष्ट करने तथा भावी युद्ध को टालने की दृष्टि से 15 सितंबर को हिटलर से व्यक्तिगत मुलाकात की।

यहाँ चेम्बरलेन को मालूम हुआ कि हिटलर यह तय कर चुका है कि यदि सूडेटन जर्मन जर्मनी में मिलना चाहें तो उन्हें ऐसा करने की सुविधा दी जानी चाहिए और वह उन्हें यूरोपीय युद्ध की जोखिम पर भी सहायता देने को कटिबद्ध है। ब्रिटिश और फ्रेंच सरकारों के सामने युद्ध को टालने का एकमात्र मार्ग रह गया – आत्म-निर्णय के सिद्धांत को स्वीकार कर लेना।

19 सितंबर को दोनों सरकारों ने अपने निर्णय चेक सरकार को भेज दिए और यह स्पष्ट कर दिया कि यदि वह इस पर अमल नहीं करेगी तो उसे किसी प्रकार की सहायता नहीं दी जाएगी।

इंग्लैण्ड और फ्रांस के विश्वासघात का कोई भी कारण रहा हो, निर्बल चेकोस्लोवाकिया को उनके आदेश को स्वीकार करना पङा। चेक नेताओं की यह इच्छा नहीं थी कि संसार उन्हें दूसरे महायुद्ध के लिये दोषी ठहराए। अतः 21 सितंबर को चेक सरकार ने एंग्लो-फ्रेंच प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। चेम्बरलेन इस खुशखबरी के साथ हिटलर से मिलने गया। हिटलर ने अब अपनी माँगों को भी बढा दिया, जो इस प्रकार थी –

  • जर्मनी को सौंपा जाने वाला संपूर्ण क्षेत्र 1 अक्टूबर तक जर्मनी को सौंप दिया जाय
  • इस क्षेत्र में किसी प्रकार की संपत्ति नहीं हटाई जाय और न नष्ट की जाय
  • चेक सेना या पुलिस के सूडेटन जर्मनों को रिहा कर दिया जाय और अन्य जर्मन कैदियों को भी छोङ दिया जाय
  • अंतिम निपटारा जर्मन-चेक या अन्तर्राष्ट्रीय आयोग के नियंत्रण में मत-संग्रह द्वारा हो। मतसंग्रह 25 नवम्बर तक हो जाना चाहिये।

म्यूनिख समझौता

24 सितंबर को चेक सरकार ने हिटलर की माँगों को “सर्वथा और बिना शर्त अस्वीकार्य” कहकर ठुकरा दिया। इंग्लैण्ड और फ्रांस ने भी हिटलर की उप्रयुक्त माँगों को अनुचित बतलाया। चेम्बरलेन तथा अन्य नेताओं ने मुसोलिनी से अनुरोध किया कि वह हिटलर को शक्ति के उपयोग से रोकने के लिये अपने प्रभाव का सद् उपयोग करे।

मुसोलिनी ने फोन पर हिटलर से बातचीत की और हिटलर ने इस प्रश्न पर अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन बुलाने की बात को स्वीकार कर लिया। उसने मुसोलिनी, चेम्बरलेन और दिलादिये (फ्रेंच विदेशमंत्री) को 29 सितंबर को म्यूनिख आने का निमंत्रण दिया।

हिटलर की विदेश नीति

निश्चित दिन पर हिटलर उन तीनों से म्यूनिख स्थान पर मिला और एक समझौता हो गया जो हिटलर की माँगों का ही दूसरा रूप था। यह ध्यान देने की बात है कि इस संबंध में न तो चेकोस्लोवाकिया को और न उसके हिमायती रूस को ही बुलाया गया था। विवश चेक सरकार के सामने म्यूनिख समझौते को स्वीकार करने के अलावा और कोई मार्ग नहीं था। म्यूनिख समझौते को स्वीकार करने के अलावा और कोई मार्ग नहीं था।

म्यूनिख समझौते की शर्तें इस प्रकार थी-

  • चेक सरकार सूडेटन प्रदेश को खाली कर देगी और यह काम 10 अक्टूबर तक पूरा हो जाएगा। चेक सरकार इस क्षेत्र की किलेबंदी को नष्ट नहीं कहेगी।
  • सूडेटन प्रदेश को खाली करने की शर्तों का निर्धारण एक अन्तर्राष्ट्रीय आयोग करेगी जिसमें जर्मनी, ब्रिटेन, फ्रांस, इटली और चेकोस्लोवाकिया का एक-एक प्रतिनिधि होगा।
  • जनमत संग्रह किन प्रदेशों में किया जाय, इसका निर्णय 5 सदस्यों का उपर्युक्त अन्तर्राष्ट्रीय आयोग करेगी। जनमत संग्रह की तिथि भी आयोग निर्धारित करेगा परंतु वह नवम्बर के अंत तक ही होनी चाहिए।
  • सीमाओं का अंतिम निर्धारण भी अन्तर्राष्ट्रीय आयोग करेगा।
  • जनता को 6 महीने तक दिए गए प्रदेशों को छोङने या उनमें बसने की स्वतंत्रता होगी। जनसंख्या की इस अदला-बदली का काम जर्मन-चेकोस्लोवाकिया आयोग करेगा।
  • चेक सरकार 4 सप्ताह के भीतर-भीतर जर्मन राजनीतिक बंदियों को रिहा कर देगी।
  • ब्रिटेन और फ्रांस ने चेकोस्लोवाकिया को नए सीमान्तों की सुरक्षा की गारण्टी दी।

1 अक्टूबर, 1938 को प्रातःकाल जर्मन सैनिकों ने सूडेटन प्रदेश पर अधिकार कर लिया। इसी अवसर पर चेकोस्लोवाकिया को तेसचेन के आस-पास का लगभग 400 वर्ग मील का क्षेत्र पोलैण्ड को सौंपना पङा, क्योंकि पोल सेनाएँ इस क्षेत्र की सीमा तक बढ आई थी।

हंगरी ने भी मगयार आबादी वाले क्षेत्र का दावा किया और 2 नवम्बर को 48,00 वर्ग मील का क्षेत्र हंगरी को सौंपना पङा। इस प्रकार चेकोस्लोवाकिया का अंग-भंग हो गया।

म्यूनिख समझौते का यूरोप की अन्तर्राष्ट्रीय स्थिति पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव पङा। इसने मोटे तौर पर फ्रांस द्वारा निर्मित महाद्वीपीय सुरक्षा-पंक्ति को नष्ट कर दिया। पोलैण्ड, रूमानिया और यूगोस्लाविया, जिनके साथ फ्रांस दीर्घ समय से यथास्थिति को बनाए रखने के लिये प्रतिज्ञाबद्ध था, सामान्य रूप से सामूहिक सुरक्षा और विशेषकर फ्रेंच दायित्व के पश्न पर संदिग्ध हो उठे। मास्को से अफवाहें आती रही कि सोवियत सरकार फ्रांस के साथ संबंध विच्छेद करने वाली है।

यह बात ठीक भी थी। म्यूनिख समझौते से रूस को विश्वास हो गया कि इंग्लैण्ड और फ्रांस ने जान-बूझकर हिटलर को संतुष्ट करने का प्रयत्न किया है ताकि वह पूर्व की तरफ प्रसार की नीति को लागू कर सके और सोवियत रूस से उलझ जाय। वास्तव में यह समझौता तुष्टिकरण की नीति का चरमोत्कर्ष था और सामूहिक सुरक्षा प्रणाली के अवसान का प्रतीक था।

इससे इंग्लैण्ड और फ्रांस की कायरतापूर्ण नीति का पर्दाफाश हो गया। चेकोस्लोवाकिया के लिये यह समझौता ने केवल फाँसी का हुक्म था, अपितु एक भयंकर विश्वासघात था। फिर भी, म्यूनिख से लौटकर चेम्बरलेन ने कहा था कि मैं “सम्मान सहित शांति” लेकर आया हूँ। इस पर विस्टन चर्चिल ने कहा था कि युद्ध एवं अपमान में से एक को चुनना था।

आपने अपमान को चुना है अब शीघ्र ही युद्ध करना पङेगा। वस्तुतः म्यूनिख समझौता हिटलर के कूटनीतिक जीवन की सबसे बङी विजय और चेम्बरलेन की सबसे बङी पराजय थी।

चेकोस्लोवाकिया का अंत

म्यूनिख समझौते के समय हिटलर ने यह विश्वास दिलाया था कि सूडेटन प्रदेश के बाद यूरोप में उसकी कोई प्रादेशिक महत्त्वाकांक्षा नहीं है। परंतु यह विश्वास भी पहले की भाँति दिखावा मात्र था। उसका ध्यान संपूर्ण चेकोस्लोवाकिया को हङपने की तरफ लगा हुआ था।

बोहेमिया और मोरेविया के हवाई अड्डों की प्राप्ति, चेक सेना के अस्र-शस्रों को प्राप्त करने की अभिलाषा, चेक विदेशी स्वर्ण और मुद्रा का प्रलोभन, कृषि-भूमि और मानवीय शक्ति को प्राप्त करने तथा सामरिक दृष्टि से जर्मनी को सुदृढ बनाने की इच्छा से हिटलर ने चेकोस्लोवाकिया का अंत करने का निश्चय कर लिया था।

सर्वप्रथम उसने चेकोस्लोवाकिया प्रान्त के नाजी जर्मनों को चेक सरकार से पृथक एवं स्वतंत्र होने के लिये उकसाया। फलस्वरूप 14 मार्च, 1939 को स्लोवाकिया की स्वतंत्रता स्वीकार कर ली गयी। परंतु हिटलर की तृष्णा का अंत नहीं हुआ। उसने चेक राष्ट्रपति हच्चा को बर्लिन बुलाया और उसे डरा-धमका कर चेक शासन की बागडोर जर्मन नाजीदल को सौंपने के लिये विवश किया।

15 मार्च, 1939 को जर्मन सेनाओं ने चेकोस्लोवाकिया में प्रवेश किया और संपूर्ण देश को अपने अधिकार में ले लिया। हिटलर के इस कदम ने इंग्लैण्ड और फ्रांस के भ्रम को दूर कर दिया। मुसोलिनी भी काफी क्रोधित हो उठा परंतु अब हिटलर का साथ छोङने का समय नहीं था।

मेमल

हिटलर का अगला शिकार लिथुआनिया बना। 21 मार्च को हिटलर ने उससे मेमल का प्रदेश पुनः जर्मन रीष्टाग को सौंपने की माँग की। लिथुआनिया हिटलर की माँग को ठुकराने की स्थिति में नहीं था और न ही उसे पश्चिमी देशों की सहायता का विश्वास था।

अतः उसने तुरंत ही बर्लिन सरकार के साथ समझौता कर लिया। 23 मार्च, को हिटलर ने मेमल में प्रवेश किया। तब तक लिथुआनिया ने इस क्षेत्र को पूर्ण रूप से खाली करके जर्मन अधिकारियों को सौंप दिया था। मेमल आधिपत्य पश्चिमी राष्ट्रों की सामूहिक सुरक्षा नीति की विफलता का एक ज्वलन्त उदाहरण था।

सोवियत रूस के साथ संधि हिटलर की इन सभी कार्यवाहियों से इंग्लैण्ड और फ्रांस का विश्वास समाप्त हो गया था और अब उन्हें यह आशंका उत्पन्न हो गयी कि हिटलर का अगला शिकार पोलैण्ड होगा। यह आशंका निर्मूल नहीं थी। वास्तव में हिटलर ने पोलैण्ड पर आक्रमण करने की योजना बना ली थी।

31 मार्च, 1939 को इंग्लैण्ड और फ्रांस ने पोलैण्ड को अपनी स्वतंत्रता बनाए रखने में पूरी-पूरी सहायता का आश्वासन दिया। इसी प्रकार के आश्वासन यूनान, रूमानिया आदि देशों को भी दिए गए। परंतु इसके लिये सोवियत रूस की मैत्री आवश्यक थी। क्योंकि पूर्वी यूरोप में तत्काल ही सैनिक सहायता पहुँचाना पश्चिमी देशों के लिये संभव नहीं था।

अतः सोवियत रूस के साथ बातचीत शुरू की गयी जो अगस्त तक चलती रही और जिसका कोई ठोस परिणाम नहीं निकला।

दूसरी तरफ, हिटलर भी अपने प्रबल शत्रु सोवियत रूस के सहयोग के महत्त्व से अपरिचित नहीं था। अतः उसने रूस के साथ समझौता करके उसे पश्चिमी देशों से विमुख करने की शानदार कूटनीतिक चाल खेली और इससे वह सफल भी रहा। 23 अगस्त, 1939 को हिटलर सोवियत रूस के साथ अनाक्रमण संधि करने में सफल रहा।

संधि के अनुसार यह तय हुआ कि जर्मनी और रूस के मध्य शांतिपूर्ण संबंध बने रहेंगे और कोई देश एक-दूसरे पर आक्रमण नहीं कहेगा और न ही किसी दूसरे देश को एक-दूसरे के विरुद्ध आक्रमणों में ही सहायता देगा। परंतु इससे भी अधिक महत्त्व दोनों देशों में सम्पन्न गुप्त समझौते का है।

इस गुप्त समझौते के द्वारा जर्मनी और रूस ने पूर्वी यूरोप को आपस में निम्न तरह से बाँट लिया

  • फिनलैण्ड, एसथोनिया और लेटविया को रूसी प्रभाव क्षेत्र में मान लिया गया। लिथुआनिया और वियना जर्मन प्रभाव क्षेत्र में माने गए
  • पोलैण्ड की नरू, विस्तुला और सेन नदियों को रूस और जर्मनी की सीमा मानी गयी। पोलैण्ड को स्वतंत्र रखना तय हुआ या बाद में परिस्थितियों के अनुकूल कार्य करने का तय किया गया।
  • रूमानिया का बसारविया प्रान्त रूसी प्रभाव के अन्तर्गत माना गया।

यह कहना कठिन है कि इस समझौते के लिये हिटलर और स्टालिन को कौन-कौन से तत्त्वों ने प्रेरित किया होगा ? शायद हिटलर ने सोचा हो कि इस समझौते से घबरा कर इंग्लैण्ड और फ्रांस, पोलैण्ड को दिए गए आश्वासन से मुँह मोङ लें या फिर उसका यह विचार रहा हो कि पहले पश्चिमी यूरोप को अपने अधिकार में ले लिया जाय और फिर रूस से निपट लिया जाय।

स्टालिन, शायद इस निर्णय पर पहुँच चुका था कि इंग्लैण्ड और फ्रांस से उसे किसी प्रकार की सहायता नहीं मिल सकती। इसके अलावा यदि जर्मनी एक लंबे समय तक पश्चिमी देशों से युद्ध में उलझा रहा तो रूस को अपनी सैनिक तैयारी करने का अवसर मिल जाएगा और तब जर्मन आक्रमण जिसे वह अवश्यम्भावी समझा था, का डटकर प्रतिरोध किया जा सकेगा।

युद्ध के फलस्वरूप पश्चिमी देशों के निर्बल हो जाने की संभावना भी थी और उस स्थिति में साम्यवाद का प्रसार सुगमता से किया जा सकता था। जो कुछ भी हो, इतना नश्चित है कि रूस से मित्रता करके हिटलर ने पश्चिमी देशों को करारी कूटनीतिक शिकस्त दे दी।

पोलैण्ड पर आक्रमण

1934 ई. में हिटलर ने परिस्थितिवश पोलैण्ड के साथ दस वर्षीय अनाक्रमण संधि पर हस्ताक्षर कर दिये थे परंतु हिटलर की आंतरिक इच्छा अवसर मिलते ही पोलैण्ड से जर्मनी के उन प्रदेशों को वापस लेने की थी जो वर्साय की संधि के द्वारा पोलैण्ड को दिए गये थे।

पोलैण्ड भी हिटलर के इरादों से सर्वथा अनभिज्ञ नहीं था और इसलिए अपने को निरापद अनुभव नहीं कर रहा था। 1934 के प्रारंभ से ही पोलैण्ड को विक्षोभ के चिह्न दिखलाई देने लग गए। मार्च, 1938 में जर्मन समाचार-पत्रों में पोलिश गलियारे में आबाद जर्मन लोगों पर होने वाले अत्याचारों को बढा-चढा कर छापना शुरू कर दिया गया और पोलैण्ड की कङी बुराई की जाने लगी।

28 अप्रैल, 1939 को हिटलर ने पोलैण्ड से डेन्जिग बंदरगाह को पुनः लौटाने की माँग की जिसे पोलैण्ड ने ठुकरा दिया। पौलैण्ड पर आक्रमण करने के पूर्व हिटलर ने कूटनीतिक खेल खेलना पसंद किया और उसने रूस के साथ अनाक्रमण संधि सम्पन्न कर ली।

इस संधि को सम्पन्न करने के पीछे हिटलर का एक उद्देश्य था कि इंग्लैण्ड और फ्रांस घबरा जायँ और वे पोलैण्ड को दिए गये आश्वासन को पूरा न करें।

परंतु हिटलर की धारणा गलत निकली। इंग्लैण्ड और फ्रांस अपने आश्वासन पर डटे रहे और उन्होंने बार-बार अपनी बात को दोहराया कि वे किसी भी स्थिति में पोलैण्ड की सहायता करने से पीछे नहीं हटेंगे। 1 सितंबर, 1939 को प्रातः काल बिना विधिवत युद्ध की घोषणा किए ही जर्मन सेनाओं ने पोलैण्ड पर आक्रमण कर दिया।

जर्मन वायुसेना ने भी पोलैण्ड पर बम वर्षा शुरू कर दी। कुछ ही घंटों के बाद हिटलर ने डेन्जिग पर अधिकार करने का आदेश प्रसारित कर दिया और उस नगर के नाजी नेता को वहाँ का प्रशासक भी नियुक्त कर दिया। इंग्लैण्ड और फ्रांस ने तत्काल ही जर्मनी को चेतावनी दी कि यदि जर्मनी ने पोलैण्ड के विरुद्ध अपनी कार्यवाही को तत्काल बंद नहीं किया और जर्मन सेनाओं को पोलैण्ड से नहीं हटाया गया तो वे तत्काल ही अपने दायित्व को पूरा करने के लिये पोलैण्ड की सहायता को आ पहुँचेंगे।

3 सितंबर,1939 को प्रातः 9 बजे तक इस चेतावनी का उत्तर न आने पर बर्लिन स्थित ब्रिटिश राजदूत ने जर्मनी को सूचित किया कि यदि 11 बजे तक उत्तर नहीं दिया गया तो दोनों देशों में युद्ध शुरू हो जाएगा।

इस पर भी जर्मनी ने कोई उत्तर नहीं दिया तो 11 पजकर 15 मिनट पर चेम्बरलेन ने जर्मनी के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। इस प्रकार, द्वितीय महायुद्ध शुरू हो गया। कुछ समय के बाद जापान और इटली भी जर्मनी के पक्ष में आ डटे। 1941 ई. तक रूस जर्मनी के साथ सम्पन्न गुप्त समझौते के अनुसार पूर्वी यूरोप के इलाकों पर अधिकार करता रहा परंतु जब जर्मनी ने उसके विरुद्ध भी युद्ध की घोषणा कर दी तो वह भी मित्रराष्ट्रों के पक्ष में आ गया।

इस प्रकार, हिटलर ने अपनी विदेश नीति के द्वारा संपूर्ण संसार को द्वितीय महायुद्ध की ओर धकेल दिया। परंतु इसके लिये हिटलर को दोषी ठहराना उचित नहीं होगा। द्वितीय महायुद्ध का दायित्व मित्रराष्ट्रों पर भी है। उन्होंने शुरू में युद्ध को टालने की इच्छा से तानाशाहों को संतुष्ट करने की नीति अपनाई।

साम्यवादी रूस के प्रभाव को रोकने के लिये वर्साय व्यवस्था के विरुद्ध छोटे-छोटे राष्ट्रों को तानाशाहों की स्वार्थवेदी पर अर्पित कर दिया। यदि तानाशाहों का सही समय पर उपचार कर दिया गया होता तो द्वितीय महायुद्ध की नौबत न आती।

महत्त्वपूर्ण प्रश्न एवं उत्तर

प्रश्न : वर्साय की अपमानजनक संधि के कारण जर्मनी के किस चांसलर ने इस्तीफा दे दिया
उत्तर : शीडमैन

प्रश्न : नाजी दल का मुख्यालय सर्वप्रथम किस नगर में स्थापित किया गया था
उत्तर : म्यूनिख

प्रश्न : मीन कैम्फ का लेखक कौन था
उत्तर : हिटलर

प्रश्न : हिटलर द्वारा आस्ट्रिया को हङपने का प्रथम प्रयास किस देश के कारण विफल रहा
उत्तर : इटली

प्रश्न : पोलैण्ड से हिटलर ने किस स्थल की माँग की थी
उत्तर : डेन्जिग


1. पुस्तक- आधुनिक विश्व का इतिहास (1500-1945ई.), लेखक - कालूराम शर्मा

Online References
wikipedia : हिटलर

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