रणजीत सिंह के साथ अंग्रेजों के संबंध
रणजीत सिंह के साथ अंग्रेजों के संबंधों (ranjit singh ke sath angrejon ke sambandh) का वर्णन हम निम्नलिखित बिन्दुओं से कर सकते हैं-
मुन्शी युसुफ अली का मिशन –
रणजीत सिंह के उदय के बाद सिक्खों और अंग्रेजों का प्रथम प्रत्यक्ष संपर्क 1800 ई. में हुआ था। इस समय अफगानिस्तान के शासक जमानशाह के भारत पर आक्रमण करने की संभावना बनी हुई थी। अतः अंग्रेज चाहते थे कि जमानशाह के भारत पर आक्रमण करने की अवस्था में रणजीतसिंह उनकी सहायता करे। रणजीत सिंह का जीवन परिचय
अतः 1800 ई. में भारत के गवर्नर जनरल लार्ड वेलेजली ने मुन्शी युसुफ अली को बहुमूल्य उपहार देकर रणजीतसिंह के दरबार में भेजा और उनसे अनुरोध किया गया कि यदि जमानशाह भारत पर आक्रमण करे, तो वह जमानशाह को सहायता न दे। भारत के गवर्नर जनरल
परंतु ज्यों ही जमानशाह के भारत पर आक्रमण करने की आशंका न रही, तो अंग्रेजों ने मुन्शी युसुफ अली को वापिस बुला लिया। इस प्रकार रणजीतसिंह से अंग्रेजों की पहली भेंट एक घटना मात्र ही बनकर रह गयी।
रणजीत सिंह की अँग्रेजों से लाहौर की संधि
1805 ई. में मराठा सरदार होल्कर अंग्रेजों से पराजित होकर पंजाब पहुँचा। उसने रणजीतसिंह से अंग्रेजों के विरुद्ध सहायता देने की प्रार्थना की।
परंतु रणजीत सिंह ने होल्कर को अंग्रेजों के विरुद्ध सहायता देने से इन्कार कर दिया। 1806 में अँग्रेजों तथा रणजीत सिंह के बीच मित्रता तथा सहयोग की एक संधि हुई, जिसकी शर्तें निम्नलिखित थी-
- अंग्रेजों ने रणजीत सिंह को यह आश्वासन दिया कि वे मराठों को पंजाब में उपद्रव नहीं करने देंगे।
- रणजीत सिंह होल्कर को अमृतसर छोङने के लिए कहेगा और कम से कम उसे 30 मील दूर भेज देगा।
- अंग्रेजों ने रणजीत सिंह को आश्वासन दिया कि जब तक वह अंग्रेजों का मित्र बना रहेगा, तब तक वे रणजीत सिंह के राज्य पर आक्रमण नहीं करेंगे।
चार्ल्स मेटकाफ एवं रणजीत सिंह की भेंट
रणजीत सिंह सतलज पार के सिक्ख राज्यों पर अधिकार कर लेना चाहता था। 1807 ई. में उसने सतलज नदी को पार किया और अनेक सिक्ख राज्यों पर अधिकार कर लिया। रणजीत सिंह के बढते हुए प्रभाव से अंग्रेज बङे चिन्तित हुए। दूसरी ओर सतलज पार के सिक्ख राज्यों ने भी रणजीत सिंह के विरुद्ध अंग्रेजों से सहायता मांगी। इस समय फ्रांस के सम्राट नेपोलियन बोनापार्ट के भारत पर आक्रमण करने की आशंका बनी हुई थी। नेपोलियन की विश्व को देन
अतः अंग्रेजों ने कूटनीतिक प्रयासों द्वारा रणजीत सिंह से संधि करने का निश्चय किया। 1808 में भारत के गवर्नर जनरल लार्ड मिण्टों ने अपने विशेष प्रतिनिधि सर चार्ल्स मेटकाफ को रणजीत सिंह से समझौता करने के लिए तैयार लाहौर भेजा। 11 सितंबर, 1808 को चार्ल्स मेटकाफ ने रणजीत सिंह से भेंट की और उससे अनुरोध किया कि यदि फ्रांस भारत पर आक्रमण करे, तो वह अंग्रेजों की सहायता करे।
रणजीत सिंह ने अँग्रेजों को इस शर्त पर सहायता देना स्वीकार कर लिया कि अँग्रेज उसे सतलज पार के राज्यों का स्वामी स्वीकार कर लेंगे। परंतु मेटकाफ इस शर्त को मानने के लिए तैयार नहीं था। अतः रणजीत सिंह तथा अंग्रेजों के बीच समझौता-वार्ता विफल हो गयी।
1808 ई. में रणजीत सिंह ने सतलज नदी को पार करके फरीदकोट, मालेरकोटला, अंबाला आदि पर अधिकार कर लिया।
कुछ समय बाद परिस्थितियाँ बदल गई, क्योंकि 1808 ई. में नेपोलियन बोनापार्ट स्पेन के साथ युद्ध में फंस गया और भारत पर नेपोलियन के आक्रमण की आशंका समाप्त हो गयी। अतः अंग्रेजों ने रणजीत सिंह के प्रति कठोर नीति अपनाने का निश्चय कर लिया।
इसके अलावा फरवरी, 1809 में लार्ड मिण्टो ने जनरल आक्टरलोनी ने एक घोषणा के द्वारा सतलज के पूर्व में स्थित राज्यों को अंग्रेजों के संरक्षण में ले लिया और रणजीत सिंह को चेतावनी देते हुए कहा कि यदि उसने सतलज के पूर्व में स्थित राज्यों पर आक्रमण किया, तो अंग्रेज सैन्य शक्ति का प्रयोग करेंगे। रणजीत सिंह अंग्रेजों की सैन्य शक्ति से भयभीत था। वह अंग्रेजों से टक्कर लेने में असमर्थ था। अतः उसने अंग्रेजों से समझौता करने का निश्चय कर लिया।
25 अप्रैल, 1809 ई. को अंग्रेजों तथा रणजीत सिंह के बीच एक संधि हुई, जिसे अमृतसर की संधि कहते हैं। इस संधि की प्रमुख शर्तें निम्नलिखित थी-
- रणजीत सिंह ने सतलज नदी के पूर्व के राज्यों में हस्तक्षेप न करने का वचन दिया। सतलज के उत्तर-पश्चिम के क्षेत्रों में रणजीत सिंह को खुली छूट दे दी गयी। अंग्रेजों ने इन क्षेत्रों में हस्तक्षेप न करने का वचन दिया।
- सतलज रणजीत सिंह के राज्य की दक्षिणी सीमा मान ली गयी।
- रणजीत सिंह ने सतलज पार के राज्यों पर ब्रिटिश संरक्षण स्वीकार कर लिया और रणजीत सिंह ने वचन दिया कि वह उन राज्यों पर आक्रमण नहीं करेगा।
- कोई भी पक्ष सतलज नदी के किनारे पर अधिक सेना नहीं रखेगा। परंतु सतलज नदी के उत्तर के 45 परगनों में रणजीत सिंह का आधिपत्य स्वीकार कर लिया और यह तय किया गया कि इन परगनों में रणजीत सिंह आंतरिक शांति एवं व्यवस्था बनाए रखने के लिए आवश्यक सेना रख सकेगा।
- दोनों पक्षों ने परस्पर स्थायी मैत्री बनाये रखने का वचन दिया।
- अंग्रेजों ने रणजीत सिंह को एक स्वतंत्र शासक स्वीकार कर लिया।
- किसी भी पक्ष द्वारा संधि की एक धारा का उल्लंघन करने पर संपूर्ण संधि समाप्त मानी जायेगी।
1809 ई. से 1812 ई. तक रणजीत सिंह के अंग्रेजों के साथ संबंध
1809 से 1812 ई. तक की अवधि में दोनों पक्षों में एक-दूसरे के प्रति संदेह बना रहा। रणजीत सिंह ने अपनी स्थिति को सुदृढ करने के लिए सतलज नदी के किनारे फिल्लौर नामक स्थान पर एक दुर्ग बनवाया तथा वहाँ एक शक्तिशाली सेना रख दी। अंग्रेजों की सेना से भाग कर आने वाले सैनिकों को भी रणजीत सिंह ने संरक्षण देना शुरू किया।
मैत्रीपूर्ण संबंध (1812-1826ई.)
1812 के बाद दोनों पक्षों के संबंधों में सुधार हुआ। 1812 ई. में रणजीत सिंह के पुत्र खङग सिंह के विवाह के अवसर पर जनरल आक्टरलोनी को आमंत्रित किया गया।
जब सतलज के पश्चिम में स्थित सिक्ख राज्यों ने रणजीत सिंह के विरुद्ध अंग्रेजों से संरक्षण की याचना की तो अंग्रेजों ने उन्हें संरक्षण देने से इन्कार कर दिया।
अंग्रेजों ने रणजीत सिंह के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप न करने की नीति अपनाई। दूसरी ओर रणजीत सिंह ने भी संधि की शर्तों का पालन करने का भरसक प्रयास किया।
1816 में अंग्रेजों तथा नेपाल के बीच हुए युद्ध के अवसर पर नेपाल के गोरखों ने अंग्रेजों के विरुद्ध रणजीत सिंह से सहायता मांगी परंतु रणजीत सिंह ने सहायता देने से इन्कार कर दिया।
1824 में जब अंग्रेजों तथा बर्मा के बीच युद्ध हुआ, तो उस अवसर पर भी रणजीत सिंह ने अंग्रेजों की कठिनाइयों से कोई लाभ उठाने का प्रयत्न नहीं किया।
इसी प्रकार तृतीय आंग्ल-मराठा युद्ध के अवसर पर नागपुर के अप्पा जी भोंसले ने अंग्रेजों के विरुद्ध रणजीत सिंह से सहायता मांगी, परंतु रणजीत सिंह ने सहायता देने से इन्कार कर दिया।
1825 में भरतपुर के शासक ने रणजीत सिंह से अंग्रेजों के विरुद्ध सहायता मांगी परंतु रणजीत सिंह ने भरतपुर के शासक की प्रार्थना को अस्वीकार कर दिया। 1826 में जब रणजीत सिंह बीमार पङ गया, तो उसकी चिकित्सा के लिए डॉ. मुर्रे को भेजा गया।
आंग्ल-सिक्ख संबंधों में परिवर्तन (1826-1839 ई.) – इस अवधि में ऐसी अनेक घटनाएँ घटी जिनसे अंग्रेजों तथा रणजीत सिंह के बीच कटुता उत्पन्न हुई। ऐसी प्रमुख घटनाएँ निम्नलिखित थी-
वहाबी जाति के अफगानों का विद्रोह
1826 ई. में उत्तर-पश्चिम प्रांत की वहाबी जाति के अफगानों ने रणजीत सिंह के विरुद्ध जिहाद (धर्म युद्ध) छेङ दिया। यद्यपि अंग्रेजों को इसकी जानकारी मिल चुकी थी, परंतु उन्होंने वहाबियों की गतिविधियों का दमन करने का कोई प्रयास नहीं किया। वस्तुतः अंग्रेज चाहते थे कि पठान लोग उत्तर-पश्चिमी सीमा पर रणजीत सिंह का विरोध करते रहें जिससे उसकी शक्ति कमजोर हो जाये।
सिन्ध की समस्या
रणजीत सिंह सिन्ध पर अधिकार कर लेना चाहते थे। परंतु अंग्रेज भी सिंध पर अपना अधिकार स्थापित करना चाहते थे। 1831 ई. में लार्ड विलियम बैंटिक ने रोपङ नामक स्थान पर रणजीत सिंह से भेंट की और उसे अपनी मित्रता का विश्वास दिलाया। इसी समय उसने कर्नल पोटिंगर को सिंध के अमीरों के साथ संधि करने को भेज दिया। विलियम बैंटिक ने रणजीत सिंह को अपना वास्तविक उद्देश्य नहीं बतलाया। रोपङ का इतिहास
1832 ई. में अंग्रेजों और सिंध के अमीरों के बीच एक संधि हो गयी जिसके अनुसार सिन्ध अंग्रेजों के राजनीतिक प्रभाव में आ गया। इस प्रकार रणजीत सिंह सिंध पर अधिकार करने के अवसर से वंचित हो गया।
शिकारपुर की समस्या
रणजीत सिंह शिकारपुर पर भी अधिकार कर लेना चाहता था। अतः 1834 ई. में रणजीत सिंह ने एक सेना लेकर शिकारपुर की ओर प्रस्थान किया। दूसरी ओर अंग्रेजों ने भी केप्टन बैड के नेतृत्व में एक शक्तिशाली सेना शिकारपुर भेज दी। अतः अंग्रेजों के विरोध के कारण रणजीत सिंह शिकारपुर पर अधिकार नहीं कर सका।
फिरोजपुर की समस्या
1835 में अंग्रेजों ने फिरोजपुर पर अधिकार कर लिया जबकि वे फिरोजपुर पर रणजीत सिंह के दावे को पहले स्वीकार कर चुके थे। फिरोजपुर अंग्रेजों के लिए सैनिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण था, क्योंकि यह रणजीत सिंह की राजधानी लाहौर से केवल 40 मील दूर था और यहाँ से लाहौर पर धावा बोलना बहुत आसान था।
यद्यपि रणजीत सिंह ने अंग्रेजों की इस कार्यवाही का घोर विरोध किया परंतु अंग्रेजों ने इस पर कोई ध्यान नहीं दिया और फिरोजपुर पर अपना अधिकार बनाए रखा। अंग्रेजों की इस शत्रुतापूर्ण कार्यवाही को भी रणजीत सिंह ने चुपचाप सहन कर लिया। इससे उसकी विवशता स्पष्ट हो जाती है।
त्रिदलीय संधि
1836-37 में अफगानिस्तान के शासक दोस्त मुहम्मद ने रूप से मैत्रीपूर्ण संबंध बनाने शुरू कर दिये, जिससे अंग्रेज बङे चिन्तित हुए और उन्होंने अफगानिस्तान के भूतपूर्व शासक शाह शुजा को अफगानिस्तान की गद्दी पर बिठाने का निश्चय कर लिया। इसके लिए रणजीत सिंह का सहयोग प्राप्त करना आवश्यक था।
अतः 26 जून, 1838 को अंग्रेजों ने शाह शुजा तथा रणजीत सिंह से एक सम्मिलित संधि कर ली। जिसके अनुसार शाह शुजा को अफगानिस्तान का शासक बनाने का निश्चय किया।
यद्यपि इस संधि से रणजीत सिंह को कोई लाभ नहीं था, फिर भी उसे बाध्य होकर इस त्रिदलीय संधि में सम्मिलित होना पङा। वास्तव में रणजीत सिंह स्वयं अफगानिस्तान पर अधिकार करना चाहता था, जबकि अंग्रेज भी इस क्षेत्र पर अपना अधिकार स्थापित करना चाहते थे। अतः इस त्रिदलीय संधि से रणजीत सिंह का असंतुष्ट होना स्वाभाविक था।
रणजीत सिंह के साथ अंग्रेजों के संबंधों की समीक्षा
यद्यपि रणजीत सिंह ने अंग्रेजों को नाराज करने का कोई भी अवसर प्रदान नहीं किया, परंतु अंग्रेजों ने सिक्खों के हितों का कोई ध्यान नहीं रखा।
उन्होंने रणजीत सिंह के प्रति कठोर और अपमानजनक नीति अपनाई। 1809 की अमृतसर की संधि रणजीत सिंह के लिए बङी अपमानजनक थी, परंतु रणजीत सिंह ने अंग्रेजों की सैन्य शक्ति से भयभीत होकर इस संधि को स्वीकार कर लिया।
रणजीत सिंह को शिकारपुर, सिंध, फिरोजपुर आदि के मामलों में नीचा देखना पङा परंतु वह अंग्रेजों के प्रति कठोर नीति नहीं अपना सका।
जब सिक्ख सरदारों ने उसको अंग्रेजों से संघर्ष करने का सुझाव दिया, तो उसका उत्तर था, सब कुछ लाल हो जायेगा। अर्थात् पंजाब की नदियाँ खून से लाल हो जायेंगी।
यद्यपि अंग्रेज पंजाब पर अधिकार स्थापित करने के लिए कटिबद्ध थे, परंतु रणजीत सिंह अपनी दुर्बलता को भांप कर युद्ध को टालता रहा और अंग्रेजों से संघर्ष करने की जिम्मेदारी अपने उत्तराधिकारियों पर छोङ दी। यह उसकी भारी भूल थी।