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पंजाब का अंग्रेजी राज्य में विलय

पंजाब का अंग्रेजी राज्य में विलय

पंजाब का अंग्रेजी राज्य में विलय –

27 जून, 1839 को रणजीतसिंह की मृत्यु हो गयी। रणजीतसिंह की मृत्यु के साथ ही केन्द्रीय शासन का प्रभाव क्षीण हो गया, क्योंकि रणजीतसिंह ने जिस ढँग से शासन व्यवस्था स्थापित की थी, उसे प्रभावकारी ढंग से चलाने के लिए शासक में व्यक्तिगत योग्यता का होना आवश्यक था।

पंजाब का उत्थान

दुर्भाग्यवश रणजीतसिंह का कोई भी उत्तराधिकारी उस आवश्यक योग्यता को प्रमाणित न कर पाया। राजा के किसी मंत्री, सेनानायक अथवा अधिकारी ने भी वैसी योग्यता का परिचय नहीं दिया। राज्य के प्रमुख सरदारों तथा अधिकारियों ने अपने-अपने व्यक्तिगत स्वार्थों की पूर्ति के लिए कुचक्र, षङयंत्र तथा हत्याओं का सहारा लिया तथा सिक्ख सेना को आर्थिक सुविधाएँ एवं प्रलोभन देकर उसका समर्थन प्राप्त करने का प्रयास किया।

अतः सेना को राजनीति पर हावी होने का अवसर प्राप्त हो गया। सेना का समर्थन उस किसी भी नेता को प्राप्त हो सकता था, जो उसे अधिक लाभ पहुँचने का वायदा करे। ऐसी स्थिति में राजनीति और शासन पर सेना का प्रभाव बढना स्वाभाविक ही था। जब सिक्ख राजनेता सेना के अनियंत्रित प्रभाव से दुःखी हो गये तो उन्होंने सेना की शक्ति कमजोर बनाने का षङयंत्र रचा। इस षङयंत्र का ध्येय था – सिक्ख सेना को अंग्रेजों से भिङाकर परास्त करवाना। इसी षङयंत्र के फलस्वरूप प्रथम सिक्ख युद्ध आरंभ हुआ था।

प्रथम सिक्ख युद्ध के मूल कारण निम्नलिखित थे-

रणजीतसिंह के कमजोर उत्तराधिकारी –

रणजीतसिंह के सात पुत्र थे और उनमें से प्रत्येक महाराजा बनने का स्वप्न देखा करता था। रणजीतसिंह की मृत्यु के बाद उसका ज्येष्ठ पुत्र खङकसिंह गद्दी पर बैठा, यद्यपि उसके भाई शेरसिंह ने अंग्रेजों से साँठ-गाँठ करके गद्दी प्राप्त करने का प्रयत्न किया था। खङकसिंह एक अयोग्य एवं विलासी व्यक्ति था, अतः उसने शासन संबंधी कार्यों में कभी रुचि नहीं ली।

परंतु खङकसिंह का युवा पुत्र नौनिहालसिंह योग्य एवं महत्त्वाकांक्षी व्यक्ति था। उसने शीघ्र ही शासन की बागडोर अपने हाथ में ले ली। वह सिक्ख राज्य में डोगरा सरदारों के प्रभाव को समाप्त करना चाहता था, क्योंकि उसके अनुसार वे शेरसिंह के समर्थक थे। नवम्बर, 1840 ई. में खङकसिंह की मृत्यु हो गयी और उसके दाहसंस्कार से लौटते समय एक दर्दनाक दुर्घटना से उसका लङका नौनिहाल घायल होकर उसी रात मर गया।

कुछ विद्वानों की मान्यता है कि यह दुर्घटना डोगरा सरदार गुलाबसिंह के षङयंत्र का परिणाम थी। खङगसिंह और नौनिहाल की मृत्यु के बाद डोगरा सरदारों ने रणजीतसिंह के पुत्र शेरसिंह का पक्ष लिया तो सिंघनवालिया सिक्ख सरदारों ने खङकसिंह की विधवा चांदकौर को गर्भवती बताया तथा पुत्र होने तक उसे संरक्षिका के रूप में कार्य करने का प्रस्ताव दिया।

दोनों ही पक्षों ने अंग्रेजों से सहायता प्राप्त करने का प्रयास किया, जिससे अंग्रेजों को पंजाब की राजनीति में सक्रिय भाग लेने का अवसर मिल गया। उन्होंने शेरसिंह को अपना गुप्त समर्थन दिया। शेरसिंह ने सेना के एक भाग को अधिक वेतन का लालच देकर अपनी ओर मिलाया और उसकी सहायता से लाहौर पर अधिकार कर गद्दी पर बैठ गया। शेरसिंह ने सेना को प्रलोभनकारी राजनीति में घसीट कर सिक्ख राज्य के पतन का मार्ग प्रशस्त कर दिया।

शेरसिंह एक अयोग्य शासक था। वह राज्य की बिगङती हुई स्थिति को न संभाल सका। उधर अंग्रेजों ने भी सिक्ख राज्य को कमजोर बनाने की तरफ विशेष ध्यान दिया।

अंग्रेजों के कहने पर सिंघनवालिया सरदारों को पुनः दरबार में स्थान दिया गया, जो डोगरा सरदारों के शत्रु थे। फलस्वरूप अब सिंघनवालिया व डोगरा सरदारों में संघर्ष आरंभ हो गया। 1842 ई. में डोगरा सरदारों ने चांदकौर का कत्ल कर दिया, तब सिंघनवालिया सरदारों ने सितंबर, 1843 ई. में शेरसिंह और उसके पुत्र प्रतापसिंह की हत्या करवा दी। अब सिक्ख राज्य की हत्याओं का सिलसिला चल पङा।

ध्यानसिंह के लङके हीरासिंह ने सेना की सहायता से लाहौर पर अधिकार कर अनेक सिंघनवालिया सरदारों को मौत के घाट उतार दिया। हीरासिंह के समर्थन से रणजीतसिंह के नौ वर्षीय पुत्र दलीपसिंह को गद्दी पर बैठाया गया तथा रणजीतसिंह की विधवा रानी जिंदन (झिण्डन) को दलीपसिंह की संरक्षिका नियुक्त किया गया।

कुछ दिनों तक तो रानी और हीरासिंह के संबंध अच्छे रहे। परंतु रानी का चरित्र संदेहपूर्ण था। सरदार लालसिंह के साथ उसका प्रेम चर्चा का विषय बन चुका था। अब रानी जिंदन शासनमें हीरासिंह का प्रभाव समाप्त करना चाहती थी। अतः उसने 21 दिसंबर, 1844 को हीरासिंह की हत्या करवा दी। अब शासन की बागडोर रानी के भाई और वजीर जवाहरसिंह तथा रानी के प्रेमी लालसिंह के हाथों में चली गयी।

परंतु उन दोनों में इतनी योग्यता नहीं थी कि वे राज्य की बिगङती हुई स्थिति को सुधार सकें। रणजीतसिंह के कमजोर एवं अयोग्य उत्तराधिकारियों के कारण राज्य की शक्ति और समृद्ध शनैःशनैः समाप्त होती जा रही थी और उधर अंग्रेज पंजाब को हथियाने को तैयार बैठे थे।

सरदारों का आपसी संघर्ष

सिक्ख राज्य की बिगङती हुई स्थिति के लिए राज्य के प्रमुख सरदारों का आपसी आत्मघात संघर्ष और सेना का बढता हुआ प्रभाव, काफी अंश तक जिम्मेदार थे। रणजीतसिंह की मृत्यु के बाद राज्य में जम्मू के डोगरा राजदूत सरदारों और सिंघनवालिया सिक्ख सरदारों का महत्त्व बढ गया था।

परंतु ये दोनों एक-दूसरे के विरोधी थे और एक-दूसरे के बढते हुए प्रभाव को समाप्त करना चाहते थे। डोगरा राजपूतों का नेतृत्व तीन भाइयों – ध्यानसिंह, सुचेतसिंह और गुलाबसिंह के हाथों में था। सतलज से लेकर काश्मीर तक के क्षेत्र डोगरों के अधिकार में था और उन्होंने अपनी शक्तिशाली सेना संगठित कर ली थी। इसमें भी ध्यानसिंह काफी चतुर एवं पराक्रमी था और रणजीतसिंह ने उसे अपना वजीर नियुक्त किया था।

अपनी मृत्यु के पूर्व रणजीतसिंह उसे अपने पुत्र खङकसिंह का वजीर तथा प्रमुख सलाहकार नियुक्त कर गया था। सिंघनवालिया सरदारों का नेतृत्व अजीतसिंह और अत्तरसिंह के हाथों में था। उनके पास भी विस्तृत जागीरें थी, परंतु सेना में उसका विशेष प्रभाव न था। 1845 ई. में उन्होंने महाराजा शेरसिंह और उसके पुत्र प्रतापसिंह तथा वजीर ध्यानसिंह को मौत के घाट उतार कर शासन की बागडोर अपने हाथ में लेने का प्रयास किया, किन्तु ध्यानसिंह के लङके हीरासिंह ने उनकी योजना को विफल बना दिया और स्वयं वजीर बन गया।

वजीर बनने के बाद हीरासिंह ने सिंघनवालिया सरदारों से अपने पिता की हत्या का बदला लिया। फलस्वरूप अजीतसिंह, लहनासिंह और लगभग 600 सिंघनवालिया समर्थकों को मौत के घाट उतार दिया गया। इस प्रकार सरदारों के आपसी संघर्ष के परिणामस्वरूप अनेक योग्य नेताओं को अपने प्राणों से हाथ धोना पङा। 1844 ई. में हीरासिंह की हत्या कर दी गयी।

सिक्ख सेना का राजनीति में प्रवेश

महाराजा रणजीतसिंह के शासनकाल में सिक्ख सेना अपने शासन के प्रति निष्ठावान रही, परंतु उसके कमजोर उत्तराधिकारियों के शासनकाल में सिक्ख सेना प्रशासन पर हावी होती चली गयी। शेरसिंह से लेकर दलीपसिंह तक सभी महाराजाओं, मंत्रियों और सरदारों ने अपनी स्थिति एवं सत्ता को बनाये रखने के लिए सेना का सहयोग प्राप्त करने का जी तोङ प्रयत्न किया और सहयोग की ऊँची कीमत चुकाने का आश्वासन दिया।

परिणाम यह निकला कि अब सेना का समर्थन उसी को मिलने लगा, जो अधिक कीमत चुका सकता था या चुकाने का आश्वासन दे। 1841 ई. में जब सिक्खों को यह जानकारी मिली कि अंग्रेज सतलज पार करने की योजना बना रहे हैं तो महाराजा शेरसिंह घबरा गया और उसने सेना के प्रत्येक यूनिट से दो-दो प्रतिनिधियों को बुलाकर उनसे सलाह मशविरा शुरू किया। यहीं से शासन पर सेना का प्रभाव बढने लगा।

अब स्वयं सेना ने अपनी एक खालसा पंचायत बना ली और उसी के द्वारा अपने निर्णय स्वयं करने लगी। इससे सेना पर महाराजा और उसके मंत्रियों का प्रभाव समाप्त हो गया। सेना ही शासन का प्रमुख स्तंभ बन गयी। दुर्भाग्यवश अधिकांश योग्य सेनानायकों – मुखमसिंह, दीवानचंद, रामदयाल, हरिसिंह नलवा आदि का देहांत महाराजा रणजीतसिंह के जीवनकाल में ही हो गया था।

अब जो सेनानायक बचे थे, उनमें राज्य के प्रति निष्ठा और ईमानदारी का अभाव तो था ही परंतु युद्धकौशल एवं योग्यता का भी अभाव थआ। रानी जिंदल तथा उसके समर्थक सरदारों को सेना का प्रभाव पसंद न आया और उन्होंने सेना की शक्ति को नष्ट करने का फैसला किया। परिणामस्वरूप उन्हें सतलज पार करने को उकसाया गया और सिक्ख युद्ध की शुरुआत हुई।

अंग्रेजों की नीति

महाराजा रणजीतसिंह की मृत्यु के साथ ही अंग्रेजों की नीति में परिवर्तन आ गया और वह पंजाब को अपने साम्राज्य में मिलाने का स्वप्न देखने लगे। फरवरी, 1840 ई. में ही ऑकलैण्ड ने सिक्खों से लङने की इच्छा व्यक्त की थी। परंतु चूँकि अभी तक सिक्ख सरदारों ने अंग्रेजों के प्रत्येक आदेश का पालन किया था, अतः अंग्रेजों के पास लङाई छेङने का कोई बहाना न था। अंग्रेज चाहते थे कि पंजाब में ऐसा वातावरण तैयार किया जाय, जिससे उनके आक्रमण का औचित्य सिद्ध हो सके और इंग्लैण्ड का लोकमत भी उनसे अप्रसन्न न हो। तदनुसार उन्होंने गुलाबसिंह, लालसिंह, तेजसिंह जैसे स्वार्थी सरदारों से साँठ-गाँठ करके कुचक्र रचने शुरू कर दिये।

1842 ई. में लॉर्ड एलनबरो के गवर्नर-जनरल बनकर आते ही ब्रिटिश सरकार ने पंजाब की तरफ विशेष ध्यान देना शुरू कर दिया, क्योंकि प्रथम अफगान युद्ध में अंग्रेजों को भारी क्षति उठानी पङी थी और पंजाब में भी अराजकता फैली हुई थी। ऐसी स्थिति में भारत की उत्तर-पश्चिमी सीमा काफी कमजोर प्रतीत हो रही थी।

यही कारण है कि मार्च, 1842 ई. में ड्यूक ऑफ वेलिंगटन ने एलनबरो को यह सुझाव दिया कि वह सतलज नदी पर सबसे कमजोर स्थल पर सेना एकत्र करे तथा फिरोजपुर और लुधियाना की सुरक्षा का पुख्ता इंतजाम करे। तदनुसार एलनबरो ने सरहिन्द पर 15,000 सैनिकों को तैनात करने के आदेश जारी कर दिये।

इसके बाद एलनबरो सिक्ख सेना में असंतोष पैदा करने में लगा रहा और अपने अधिकारियों से विचार करता रहा कि पंजाब में व्याप्त अव्यवस्था का लाभ उठाने के लिए ब्रिटिश सरकार को किस प्रकार की नीति अपनानी चाहिए। इससे साफ जाहिर है कि सतलज के उस पार घटने वाली घटनाओं तथा उनसे उत्पन्न कठिनाइयों के प्रति ब्रिटिश सरकार पूर्ण रूप से सतर्क थी। सिक्खों से युद्ध निश्चित था परंतु ब्रिटिश सरकार पूरी तैयारी के बाद युद्ध करने के पक्ष में थी।

अतः सतलज क्षेत्र में सेना की संख्या में वृद्धि की जाती रही। 1845 ई. में सतलज सीमा पर 40,000 से अधिक अंग्रेजी सेना और 94 तोपें तैनात की जा चुकी थी। अब उन्हें बहाने की आवश्यकता थी, जिसके आधार पर युद्ध शुरू किया जा सके, क्योंकि उन्हें अब भी इंग्लैण्ड के लोकमत का भय बना हुआ था। जब ब्रिटिश सरकार ने सतलज के पूर्वी तट पर लाहौर सरकार के अधिकृत क्षेत्रों को अपने अधिकार में ले लिया तो सिक्ख सेना में उत्तेजना फैल गयी।

सिक्ख सेना को भङकाने में लालसिंह एवं तिजसिंह जैसे नेताओं, सिक्ख तोपखाने का संचालक कैप्टन गार्डनर जो कि गुप्त रूप से अंग्रेजों से मिला हुआ था और ब्रिटिश एजेण्ट ब्रोडफुट ने भी महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की। फरवरी, 1845 ई. में जब सिन्धु नदी के द्वारा सैनिक नावों का एक शक्तिशाली बेङा फिरोजपुर पहुँच गया तो सिक्ख सेना का संयम जाता रहा।

युद्ध का आरंभ –

नवम्बर, 1845 में अंग्रेजों ने लुधियाना के निकटवर्ती दो गाँवों पर अचानक अधिकार कर लिया। ये दोनों गाँव सिक्ख राज्य के अधिकार में थे। अंग्रेजों ने इन गाँवों पर अधिकार करते समय यह तर्क दिया कि इन गाँवों में ब्रिटिश सरकार के अपराधी छिपे हुए हैं और उनको पकङने के लिए यह सैनिक कार्यवाही की गयी है। इसके तुरंत बाद गवर्नर-जनरस हार्डिंग भी सतलज की तरफ बढने लगा।

7-8 सितंबर, को हार्डिंग ने मेरठ, अम्बाला आदि स्थानों में तैनात अंग्रेजी सेना को फिरोजपुर पहुँचने के आदेश प्रसारित किये। अंग्रेजी सेना की इन गतिविधियों ने सिक्ख सेना को उत्तेजित कर दिया।

इस सन्दर्भ में कनिंघम ने लिखा है कि, यदि सिक्ख सेनाओं ने अंग्रेजों की सैनिक तैयारी न देखी होती तो वे लालसिंह और तेजसिंह जैसे नेताओं के बहकावे में न आती। लालसिंह इस समय सिक्ख राज्य का वजीर और तेजसिंह सेनापति था। ये दोनों नेता अंग्रेजों की राय से काम कर रहे थे और दोनों ही सिक्ख सेना को परास्त करवाना चाहते थे ताकि बाद में अंग्रेजों की सहायता से वे अपने व्यक्तिगत स्वार्थों को पूरा कर सकें।

11-12 दिसंबर को सिक्ख सेना ने सतलज नदी को पार किया और हार्डिंग ने तुरंत युद्ध की घोषणा कर दी। ध्यान देने योग्य बात यह है कि सतलज को पार करके सिक्ख सेना अपने ही क्षेत्र में रही। उसने अंग्रेजों के संरक्षित क्षेत्र में प्रवेश नहीं किया था।

इससे अंग्रेज लेखकों की यह बात गलत सिद्ध हो जाती है कि सिक्खों ने अंग्रेजों पर आक्रमण किया था, इसलिए अंग्रेजों को युद्ध लङना पङा। कैम्पबेल ने लिखा है कि इतिहास में यह लिखा हुआ है कि सिक्ख सेना ने हम पर आक्रमण करने के संकल्प के साथ ब्रिटिश क्षेत्र पर आक्रमण किया, परंतु अधिकांश व्यक्तियों को यह जानकर आश्चर्य होगा कि उन्होंने ऐसा कोई काम नहीं किया। उन्होंने न तो हमारी सीमावर्ती छावनियों पर आक्रमण किया और न ही हमारे क्षेत्र में प्रवेश किया। उन्होंने केवल नदी पार करके अपनी सीमा में अपना अड्डा जमा लिया थआ। गवर्नर जनरल हार्डिंग के एक मित्र राबर्ट एन.कस्ट ने अंग्रेजों की कार्यवाही को पंजाब के स्वतंत्र राज्य पर पहला आक्रमण बतलाया था।

सिक्खों और अंग्रेजों के मध्य पहली टक्कर 18 दिसंबर, 1845 के दिन फिरोजपुर के निकट मुदकी नामक स्थान पर हुई। इसमें सिक्ख सेना के अग्रिम दस्ते के 2,000 सैनिकों ने ही भाग लिया था। सिक्ख सेना को पीछे हटना पङा परंतु उन्होंने अंग्रेजों को काफी नुकसान पहुँचाया और अंग्रेजों को भी मालूम हो गया कि रणजीतसिंह जिस प्रशिक्षित सेना को छोङ गया है, उसे पराजित करना आसना काम नहीं है। 21 दिसंबर, को फिरोजशाह नामक स्थान पर दूसरा युद्ध लङा गया। सिक्खों ने अंग्रेजों के आक्रमण को विफल बना दिया। उनके तोपखाने ने अंग्रेजों के हौंसले पस्त कर दिये थे और अंग्रेजों को अपनी पराजय का पूरा विश्वास हो गया था, परंतु लालसिंह ने सिक्ख सेना को लाभ नहीं उठाने दिया।

पीछे हटती हुई अंग्रेज सेना का पीछा करने के स्थान पर लालसिंह सेना सहित युद्ध मैदान से वापस लौट गया। इस प्रकार जीता हुआ युद्ध पराजय में बदल गया।

इस संदर्भ में मैलीसन ने लिखा है कि फिरोजशाह का युद्ध अंग्रेजों ने हारने के बाद जीता था। इस समय अंग्रेजों की स्थिति ठीक नहीं थी। उनको गोला-बारूद भी समाप्त हो गया था और यदि सिक्ख सेना को इसी समय युद्ध का आदेश दिया गया होता तो अंग्रेजों की पराजय निश्चित थी। परंतु विश्वासघाती नेताओं ने उन्हें इतना समय दे दिया कि वे लोग गोला-बारूद एकत्र करके अपनी स्थिति को मजबूत बना सके।

फिर भी 21, फरवरी, 1846 ई. को दोनों पक्षों के मध्य अलीवाल बुदवाल नामक स्थान पर जो युद्ध हुआ, उसमें अंग्रेजों की पराजय हुई। तेजसिंह ने अवसर का लाभ नहीं उठाया और सिक्ख सेना को पीछे हटा लिया। 10 फरवरी, 1846 ई. को सोबराय नामक स्थान पर अंतिम युद्ध लङा गया, जिसमें सिक्ख सेना की पराजय हुई। इससे अंग्रेजी सेना का सम्मान भी बच गया। 13 फरवरी को अंग्रेजी सेना ने सतलज को पार किया और 20 फरवरी को लाहौर पर उसका कब्जा हो गया। सिक्खों को विवश होकर संधि करनी पङी।

लाहौर की संधि (1846 ई.) – 9 मार्च, 1846 ई. को दोनों शक्तियों के मध्य लाहौर की संधि संपन्न हुई। संधि पर हस्ताक्षर करने के लिए महाराजा दलीपसिंह को गवर्नर-जनरल के शिविर में लाया गया। इस संधि की शर्तें निम्नलिखित थी-

पंजाब के सिक्ख राज्य ने सतलज नदी के दक्षिणी प्रदेशों पर से अपना अधिकार त्याग दिया और वे प्रदेश कंपनी के सुपुर्द कर दिए गए।

सतलज एवं व्यास नदी के बीच का जलंधर, दोआब तथा इसमें स्थित सभी किलों पर से महाराजा दलीपसिंह ने अपना अधिकार हटा लिया और इस पर कंपनी का अधिकार स्वीकार कर लिया गया।

पंजाब राज्य पर 1.50 करोङ रुपया युद्ध का हर्जाना थोप दिया गया। पंजाब राज्य ने 50 लाख रुपये चुकाने का आश्वासन दिया और 1 करोङ के बदले में हजारा एवं कश्मीर के प्रदेश कंपनी को सौंप दिये।

सिक्ख सेना की संख्या निश्चित कर दी गयी। अब पंजाब राज्य के लिए 12,000 घुङसवार और 20,000 पदाति सैनिक से अधिक सेना रखने पर प्रतिबंध लगा दिया गया। युद्ध के दौरान सिक्खों ने कंपनी की जो तोपें छीन ली थी, उन्हें वापिस लौटा दिया गया। पंजाब के तोपखानों को भी सीमित कर दिया गया।

दलीपसिंह को पंजाब का महाराजा, रानी जिन्दल को उसकी संरक्षिका और लालसिंह को उसका वजीर स्वीकार किया गया।

पंजाब राज्य ने कंपनी की पूर्व स्वीकृति के बिना किसी भी यूरोपियन अथवा अमेरिकन को अपनी सेवा में न रखने का वचन दिया।

कंपनी की सेना को स्वतंत्रतापूर्वक पंजाब के एक भाग में आने-जाने की स्वीकृति दी गयी। पंजाब दरबार में एक अंग्रेज रेजीडेण्ट नियुक्त करने की बात मान ली गयी। सर हेनरी लारेन्स को इस पद पर नियुक्त कर दिया गया। कंपनी ने पंजाब के आंतरिक शासन में हस्तक्षेप न करने का आश्वासन दिया।

अक्टूबर, 1846 ई. में कंपनी ने काश्मीर तथा उसके आस-पास के क्षेत्र को डोगरा सरदार गुलाबसिंह को एक करोङ रुपये में बेच दिया। इस प्रकार विश्वासघाती गुलाबसिंह को उसकी सेवाओं के लिए पुरस्कृत किया गया और उसे एक विशाल प्रदेश का शासक बना दिया गया। इससे वजीर लालसिंह को ईर्ष्या उत्पन्न हो गयी और उसने काश्मीर के गवर्नर इमामुद्दीन को गुलाबसिंह के विरुद्ध विद्रोह करने के लिए उकसाया।

कंपनी ने अपनी सेना भेजकर इमामुद्दीन के विद्रोह को कुचल दिया और जाँच-पङताल के बाद पता चला कि इस विद्रोह को भङकाने में लालसिंह का हाथ था, तो कंपनी ने उसे वजीर पद से हटा दिया। इस घटना से सिक्ख सरदारों ने सोचा कि यदि अंग्रेज पंजाब से हट गये तो पंजाब में पुनः अराजकता पैदा हो जायेगी।

अतः 5 दिसंबर, 1846 को एक आम दरबार में सिक्खों ने यह तय किया कि महाराजा दलीपसिंह के वयस्क होने तक शासन सत्ता के समस्त अधिकार अंग्रेज एजेण्ट को सौंप दिये जायें। तदनुसार कंपनी से प्रार्थना की गयी कि वह लाहौर की संधि में पर्याप्त संशोधन करे।

भैरोवाल की संधि –

सिक्ख सरदारों के अनुरोध पर 30 दिसंबर, 1846 को पंजाब राज्य तथा कंपनी के मध्य नयी संधि संपन्न हुई जिसे भेरोवाल की संधि कहा जाता है। कुछ विद्वान इसे लाहौर की द्वितीय संधि के नाम से भी पुकारते हैं।

इसकी मुख्य शर्तें निम्नलिखित थी-

  • महाराजा दलीपसिंह के वयस्क होने तक पंजाब राज्य का शासन एक परिषद को सौंपना तय किया गया। अंग्रेज रेजीडेण्ट को परिषद का अध्यक्ष नियुक्त किया गया और उसे परिषद के आठों सदस्य मनोनीत करने का अधिकार दे दिया गया। रानी जिंदल को प्रशासन से बिल्कुल वंचित कर दिया गया।
  • कंपनी की सेना को पंजाब में रखने का फैसला किया गया और इसके लिए पंजाब राज्य ने 22 लाख रुपया वार्षिक कंपनी को देना तय किया।

द्वितीय सिक्ख युद्ध (1848-1849ई.)

जनवरी, 1848 ई. में हार्डिंग के स्थान पर लॉर्ड डलहौजी नया गवर्नर-जनरल बनकर भारत आया। वह हार्डिंग की भाँति प्रयोगात्मक सहनशीलता की नीति में विश्वास रखने वाला व्यक्ति नहीं था। वह कट्टर साम्राज्यवादी था और भारत में ब्रिटिश सत्ता का विस्तार तथा सुदृढीकरण चाहता था। उसके आने के कुछ महीनों बाद ही द्वितीय सिक्ख युद्ध छिङ गया और पंजाबको अंग्रेजी साम्राज्य में मिला लिया गया।

द्वितीय सिक्ख युद्ध के कारण निम्नलिखित थे-

अधिकांश सिक्खों का विश्वास था कि प्रथम सिक्ख युद्ध में उनकी पराजय का मूल कारण उनकी कम संख्या अथवा कमजोरी न होकर उनके नेताओं लालसिंह, तेजसिंह और गुलाबसिंह की गद्दारी थी। सिक्खों का मानना था कि यदि वे अब भी संयुक्त होकर अंग्रेजों से युद्ध करें तो उन्हें परास्त करना कठिन न था। सभी चाहते थे कि अंग्रेजों को परास्त करके रणजीतसिंह के सिक्ख राज्य को पुनः स्वतंत्रता तथा स्थिरता प्रदान की जाय। इसके लिए अंग्रेजों को युद्ध में परास्त करना आवश्यक था।

पंजाब में नियुक्त ब्रिटिश रेजिडेन्ट सर हेनरी लारेन्स ने पंजाब के आंतरिक मामलों में काफी हस्तक्षेप करना आरंभ कर दिया था। मुसलमानों को कुछ विशेष सुविधाएँ प्रदान की गयी, जो सिक्खों की धार्मिक भावना को पसंद न आई। सामाजिक क्षेत्र में किये जाने वाले सुधार भी परंपरावादी सिक्ख समाज को पसंद न आये। भू-राजस्व व्यवस्था तथा जमींदारी व्यवस्था में जब मामूली परिवर्तन किए गए तो सिक्खों का असंतोष और भी अधिक बढ गया और उन्होंने ब्रिटिश सत्ता को समाप्त करने का निश्चय किया।

कश्मीर विद्रोह के बाद वजीर लालसिंह को पदच्युत करके बनारस भेज दिया गया था, परंतु रानी जिंदल के विरुद्ध कोई कार्यवाही नहीं की गयी थी। अब रानी पर अंग्रेज विरोधी षङयंत्र रचने का आरोप लगाकर शासन से पृथक कर दिया गया। उसे वार्षिक पेंशन देकर पंजाब के बाहर रहने पर विवश किया गया। इसे सिक्खों ने संपूर्ण सिक्ख जाति का अपमान समझा और अंग्रेजों के विरुद्ध कोई ठोस कदम उठाने की बात सोचने लगे।

भेरोवाल की संधि के बाद जो नई संरक्षण परिषद बनाई गयी थी, शासन के समस्त अधिकार ब्रिटिश रेजिडेन्ट के हाथ में आ गए थे और वह अपनी इच्छानुसार शासन चलाने लगा। ब्रिटिश रेजिडेन्ट ने शासन में उच्च पदों पर अंग्रेज अधिकारियों को नियुक्त करना शुरू कर दिया। इससे राज्य प्रशासन में अंग्रेजों का प्रभाव बढने लगा और सिक्खों का प्रभाव कमजोर हो गया।

लाहौर की संधि में सिक्ख सेना में भारी कमी करने की शर्त थी। ब्रिटिश रेजिडेन्ट हेनरी लारेन्स और उसके भाई जॉन लारेन्स ने संधि की शर्त को कार्यान्वित करते हुए हजारों सिक्क सैनिकों की सेवाओं को समाप्त कर दिया। बचे हुए सैनिकों के वेतन में भी कमी कर दी गयी, जिससे सैनिकों में असंतोष व्याप्त हो गया और वे अंग्रेजों के विरुद्ध पुनः युद्ध की बात करने लगे।

दीवान मूलराज का अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह द्वितीय सिक्ख युद्ध का तात्कालिक कारण था। 1844 ई. में अपने पिता सावंतमल की मृत्यु के बाद मूलराज मुल्तान का गवर्नर बना। लाहौर दरबार ने उससे उत्तराधिकार के रूप में 30 लाख रुपये की माँग की, जिसके लिए मूलराज तैयार न हुआ। इस पर लाहौर दरबार ने दूसरा प्रस्ताव रखा, जिसके अनुसार जंग का जिला मुल्तान से पृथक करने तथा मूलराज से पहले वर्ष में 19 लाख के स्थान पर 25 लाख रुपया और बाद में 30 लाख रुपया प्रतिवर्ष लेने का निर्णय किया गया।

परंतु मूलराज को यह प्रस्ताव भी पसंद न आया और उसने सूबेदारी से त्याग-पत्र दे दिया। डॉ.एम.एस.जैन ने लिखा है कि, अगस्त, 1846 ई. में मुल्तान के गवर्नर मूलराज ने अपने जिले का वार्षिक लगान 19 लाख 6 हजार रुपये देना तय किया। लेकिन 1847 ई. के जॉन लारेन्स के सुधारों के फलस्वरूप वह इतना लगान नहीं दे सकता था। इसलिए, दिसंबर, 1847 ई. में उसने लारेन्स से लगान घटाने का आग्रह किया। लारेन्स के न मानने पर उसने गवर्नरी से त्यागपत्र दे दिया।

कारण जो भी रहा हो, मूलराज ने अपने पद से त्यागपत्र दे दिया। परंतु जॉन लारेन्स ने उसे कुछ महीने और कार्य करने को कहा। मूलराज ने लारेन्स के प्रस्ताव को इस शर्त पर स्वीकार कर लिया कि उसके त्यागपत्र को गोपनीय रखेगा अन्यथा लगान वसूली में काफी कठिनाइयाँ उत्पन्न हो सकती थी।

कुछ दिनों के बाद लारेन्स के स्थान पर क्यूरी नया रेजेडेन्ट बन कर आया। उसने सार्वजनिक रूप से मूलराज के त्याग-पत्र को स्वीकार कर लिया और उसके स्थान पर सरदार खानसिंह मान को नया गवर्नर नियुक्त किया। उसकी सहायता के लिए दो अंग्रेज अधिकारियों – एग्नियू और एण्डरसन को मुल्तान भेजा गया।

19 अप्रैल, 1848 को मूलराज ने शांतिपूर्वक मुल्तान का किला खानसिंह को सौंप दिया, परंतु उत्तेजित स्थानीय सैनिकों ने उसी दिन दोनों अंग्रेज अधिकारियों की हत्या कर दी। उसी दिन मूलराज ने भी विद्रोह कर दिया। इसलिए कुछ अंग्रेज इतिहासकारों ने इन हत्याओं में मूलराज का हाथ होने का आरोप लगाया है। परंतु स्वयं डलहौजी ने यह स्वीकार किया था कि इसमें मूलराज का हाथ नहीं था।

लाहौर दरबार ने मुल्तान के विद्रोह को तुरंत दबाने में अंग्रेजों को पूरा-पूरा सहयोग देने का आश्वासन दिया, परंतु गवर्नर-जनरल डलहौजी ने जानबूझकर इस विद्रोह को पंजाब के अन्य भागों में फैल जाने दिया, ताकि बाद में उसे पंजाब हथियाने का बहाना मिल सके। डलहौजी ने अगस्त, 1848 ई. में ही पंजाब को अंग्रेजी राज्य में मिलाने का निर्णय ले लिया था। अतः मुल्तान के विद्रोह को समय पर नहीं दबाया गया और इसका प्रभाव पंजाब के दूसरे क्षेत्रों पर भी पङा। बन्नू, पेशावर और पंजाब के उत्तर-पश्चिमी भागों में भी विद्रोह फैल गया और सिक्ख लोग अंग्रेजों को पंजाब से बाहर निकालने के लिए उठ खङे हुए।

विद्रोह के फैलने का एक कारण अंग्रेजों द्वारा मूलराज के विद्रोह में रानी जिंदन का हाथ होने का आरोप लगाकर उसे पंजाब के बाहर भिजवाना था। वस्तुतः इस समय दीवान मूलराज तथा विद्रोही सिक्ख सैनिकों की आशाएँ रानी को विद्रोह का केन्द्र बिन्दु बनाने में लगी हुई थी। अंग्रेजों ने विद्रोह को भङकाने के लिए ही रानी पर झूठा आरोप लगाकर उसे पंजाब से निर्वासित किया था। दूसरा कारण हजारा के सूबेदार छत्तरसिंह (राजा शेरसिंह का पिता तथा महाराजा दलीपसिंह के होने वाले ससुर) को अंग्रेज अधिकारियों द्वारा अपमानित किया जाना था।

मजे की बात यह है कि इस समय राजा शेरसिंह को लाहौर दरबार की तरफ से मूलराज के विद्रोह को दबाने के लिए मुल्तान भेजा गया था। अंग्रेज चाहते थे कि शेरसिंह भी विद्रोही बन जाये, ताकि उन्हें पंजाब पर आक्रमण करने का ठोस आधार मिल जाय। इसलिए शेरसिंह को भी विद्रोह में सम्मिलित हो जाना पङा। इस प्रकार डलहोजी की योजना सफल रही।

पंजाब में चारों ओर अव्यवस्था तथा अशांति फैल चुकी थी और अब मौसम भी सैनिक कार्यवाही के अनुकूल हो गया था। ऐसी स्थिति में लार्ड डलहौजी ने घोषणा की कि, बिना किसी सूचना अथवा बिना किसी कारण के सिक्ख राष्ट्र युद्ध को आमंत्रित किया है और उन्हें तीक्ष्ण रूप से युद्ध मिलेगा।

लाहौर दरबार तो अभी तक अंग्रेजों का वफादार बना हुआ था और वहाँ का शासन भी अंग्रेज अधिकारियों के हाथों में था। अतः लाहौर दरबार द्वारा अंग्रेजों को चुनौती देने का प्रश्न ही पैदा नहीं होता। अंग्रेज सेनापति लार्ड गफ को पंजाब पहुँचने तक यह जानकारी नहीं थी कि उसे लाहौर दरबार के समर्थन में अथवा विरुद्ध भेजा गया है। वस्तुतः डलहौजी ने पंजाब पर युद्ध थोपकर उसे हथियाने की योजना अपने कुछ विश्वस्त साथियों तक ही सीमित रख छोङी थी। इसलिए पंजाब के विरुद्ध बाकायदा युद्ध घोषित नहीं किया।

घटनायें

शेरसिंह और मूलराज ने मिलकर अंग्रेजों के विरुद्ध सिक्ख सैनिकों को संगठित करना शुरू कर दिया। अत्तारवाला सिक्ख सरदारों ने उन्हें पूरा-पूरा सहयोग दिया। नवम्बर, 1848 ई. में लाहौर दरबार की तरफ से हजारा के विद्रोह का दमन करने के लिए अंग्रेजी सेना ने रावी नदी को पार किया।

22 नवम्बर, 1848 को चिनाव नदी के तट पर रामनगर के स्थान पर दोनों पक्षों में पहला युद्ध लङा गया, जिसमें अंग्रेजों को हानि उठानी पङी। डलहौजी ने इसे एक दुःखद घटना कहा। 3 दिसंबर, को सादुलपुर के निकट दोनों पक्षों में अनिर्णायक युद्ध हुआ। 13 जनवरी, 1849 ई. को चिलियानवाला का भयंकर युद्ध लङा गया, जिसमें दोनों पक्षों को भारी हानि उठानी पङी। स्वयं डलहौजी ने लिखा था कि एक और ऐसी ही विजय हमें नष्ट कर देगी।

इस बीच अंग्रेजों ने मुल्तान पर भी आक्रमण कर दिया था और 22 फरवरी, 1848 को मूलराज ने आत्मसमर्पण कर दिया। दोनों पक्षों के मध्य अंतिम युद्ध चिनाव नदी के तट पर गुजरात नामक स्थान पर 21 फरवरी, 1849 ई. को लङा गया। इस निर्णायक युद्ध में सिक्खों की पराजय हुई और अंग्रेजी सेना ने 15 मील तक सिक्ख सैनिकों का पीछा किया। 12 मार्च, 1849 ई. को शेरसिंह, छत्तरसिंह तथा अन्य सरदारों ने आत्मसमर्पण कर दिया और इसके साथ ही द्वितीय सिक्ख युद्ध बंद हो गया।

पंजाब का विलय

29 मार्च, 1849 को डलहौजी की एक घोषणा के द्वारा महाराजा दलीपसिंह के राज्य को ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया गया। डलहौजी ने अपनी जिम्मेदारी पर यह काम किया था, क्योंकि उस समय इंग्लैण्ड की सरकार पंजाब विलय के पक्ष में न थी। यही कारण है कि डलहौजी ने कंपनी के डायरेक्टरों की आज्ञा की भी प्रतिक्षा नहीं की।

डलहौजी की घोषणा के पूर्व महाराजा दलीपसिंह ने एक आम दरबार में कोहीनूर हीरा और अपना राज्य अंग्रेजों को समर्पित कर दिया।

दलीपसिंह को पेंशन देकर बनारस भेज दिया गया। कुछ वर्षों बाद वह इंग्लैण्ड चला गया। उसकी माँ रानी जिंदन भी इंग्लैण्ड चली गयी। वहाँ दलीपसिंह ने ईसाई धर्म भी स्वीकार कर लिया।

इस प्रकार, रणजीतसिंह के शक्तिशाली सिक्ख राज्य का अंत हो गया। अब भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की सीमाएँ भारत की प्राकृतिक भौगोलिक सीमाओं तक जा पहुँची। अंग्रेजों के लिए अफगानिस्तान पर नियंत्रण रखना सरल हो गया। सिक्खों की पराजय के साथ ही भारत में उन्हें चुनौती देने वाली शक्ति का भी अंत हो गया। अब अंग्रेजों को किसी भारतीय शक्ति से किसी प्रकार का कोई खतरा नहीं रहा।

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