हर्षवर्धन द्वारा किये गये युद्ध एवं विजये
हर्ष को कुन्तल नामक अश्वारोही से अपने बङे भाई राज्यवर्धन की गौङाधिपति शशांक द्वारा हत्या का समाचार प्राप्त हुआ। इधर सेनापति सिंहनाद के उत्प्रेरक वचन ने उसमें साहस तथा ओजस्व भर दिया। हर्ष ने शीघ्र ही एक सेना तैयार की तथा युद्ध के लिये प्रस्थान किया।
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प्रस्थान करने के पूर्व हर्ष ने यह प्रतिज्ञा की – यदि कुछ ही दिनों में धनुष चलाने की चपलता के घमंड में भरे हुए समस्त उद्धत राजाओं के पैरों को बेङियों की झंकार से पूर्ण करके पृथ्वी को गौङों से रहित न बना दूँ तो घी से धधकती हुई आग में पतंगे की तरह पातकी अपने को जला दूँगा।
इसी प्रकार अन्य स्वाधीन हुए राजाओं तथा सामंतों को चेतावनी देते हुए अपने युद्ध सचिव अवंति के माध्यम से उसने घोषणा करवायी कि पूर्व में उदयाचल, पश्चिम में अस्ताचल, उत्तर में गंदमादन तथा दक्षिण में त्रिकूट तक के समस्त शासक या तो वे कर देने के लिये या फिर युद्ध के लिये तैयार हो जायें। उसके बाद उसने अपने गज सेना के नायक स्कंदगुप्त को चारागाह में निकले हुए हाथियों के समूह को वापस बुलाने तथा दिग्विजय के लिये कूच करने का आदेश दिया।
बाणभट्ट ने हर्षचरित में हर्ष की विजय यात्रा का बङा ही रोचक वर्णन किया है। हर्षचरित के अनुसार हर्ष की सेना प्रतिदिन 8 कोस की दूरी तय करती थी। पहले दिन की यात्रा के बाद हर्ष से कामरूप के राजा भास्करवर्मा का भेजा हुआ हंसबेग नामक दूत मिला जो मैत्री का प्रस्ताव लेकर बहुमूल्य उपहारों के साथ आया था। हर्ष ने प्रस्ताव मान लिया तथा उपहार स्वाकार कर लिये। यह संधि गौङ नरेश शशांक के विरुद्ध की गयी थी। शशांक भास्करवर्मा तथा हर्ष दोनों का ही शत्रु था।
इसके बाद सेना ने आगे प्रस्थान किया। सेना बिना रुके एक ही गति से आगे बढ रही थी। एक दिन किसी पत्रवाहक ने हर्ष को सूचित किया कि, भंडि मालवराज की संपूर्ण सेना के साथ आकर निकट के शिवर में रुका हुआ है। ऐसा लगता है, कि देवगुप्त को पराजित करके मार डालने के बाद स्वयं राज्यवर्धन ने ही अपनी सेना के एक भाग के साथ थानेश्वर भेज दिया था तथा अपनी बहिन राज्यश्री को बचाने के लिये कन्नौज की ओर कूच कर गया।
हर्ष के विषय में सूचना मिलते ही भंडि स्वयं उसके शिविर में पहुंचा तथा उसने हर्ष को राज्यवर्धन के मारे जाने की सूचना दी। साथ ही यह भी बताया कि, गुप्त नामक व्यक्ति ने कान्यकुब्ज पर अधिकार कर लिया तथा राज्यश्री कारागार से निकलकर जंगलों में सती होने के लिये भाग गयी है। उसे पता लगाने के लिये भेजे गये सैनिक भी वापस नहीं लौटे हैं।
हर्ष को राज्यश्री के विषय में जानकर बङा दुख हुआ तथा वह अपनी कार्य योजना बदलने के लिये मजबूर हो गया। उसने भंडि को एक सेना लेकर शशांक पर आक्रमण करने का आदेश दिया तथा स्वयं माधवगुप्त तथा अन्य सैनिकों के साथ राज्यश्री की खोज में विन्ध्यवन की ओर चल पङा। यहाँ पहुँच कर वह एक सामंत सरदार शरभकेतु के पुत्र व्याघ्रकेतु से मिला जो अपने साथ विन्ध्य क्षेत्र के स्वामी भूकंप के भांजे निर्घात नामक युवक को लाया था। वे राजा को ग्रहवर्मा के बाल सखा बौद्ध भिक्षु दिवाकर मित्र के आश्रम में ले गये। बङी कठिनाई से दिवाकरमित्र की सहायता से उसने राज्यश्री का पता लगा लिया – ठीक उस समय जब वह चिता बनाकर जलने जा रही थी। हर्ष ने अपनी बहन को बहुत समझाया जिससे वह आत्मदाह का विचार छोङने पर सहमत हुई।
हर्ष अपनी बहिन को बचाकर गंगा नदी के तट पर वापस आया जहाँ उसकी सेना भंडि के नेतृत्व में उसके आगमन का इंतजार कर रही थी।
हर्षचरित का विवरण अचानक इसी स्थान पर समाप्त हो जाता है, जिसके कारण आगे की घटनाओं के विषय में जानकारी अधूरी रह जाती है। हर्ष ने शशांक के विरुद्ध जो सैनिक अभियान किया उसका क्या परिणाम निकला हर्ष और शशांक के बीच कोई युद्ध हुआ या नहीं अथवा शशांक का क्या हुआ, आदि अनेक बातें ऐसी हैं, जिनके विषय में हर्षचरित मौन है।
आर्यमंश्रीमूलकल्प में एक श्लोक उल्लेखित है जिससे पता चलता है, कि ‘ह’ (हर्ष) नामक राजा पूर्वी भारत की ओर गया तथा पुण्ड्रनगर में जा पहुँचा। दुष्ट कर्म करने वाला सोम (शशांक) पराजित हुआ और अपने राज्य के अंदर बंद पङे रहने के लिये बाध्य किया गया। गौङ लोगों द्वारा स्वागत न किये जाने के कारण हर्ष स्वदेश लौट आया।
आर्यमंश्रीमूलकल्प की घटना कहाँ तक सही है अथवा नहीं है इस बात के बारे में हम कुछ नहीं कह सकते, लेकिन इतना स्पष्ट है, कि शशांक बच निकला था। ऐसा लगता है, कि शशांक ने बिना युद्ध के ही कन्नौज खाली कर दिया।
शशांक द्वारा कन्नौज को खाली करने के कारण निम्नलिखित हो सकते हैं-
- शशांक का प्रियमित्र देवगुप्त राज्यवर्धन द्वारा पहले ही मारा जा चुका था, जिसके कारण मालवा से अब उसे कोई सहायता नहीं मिल सकती थी।
- हर्ष तथा भास्करवर्मा के बीच मैत्री हो जाने से शशांक का बंगाल स्थित राज्य पूर्व में भास्करवर्मा से तथा पश्चिम में हर्ष से घिर गया।
इन सभी विपरीत परिस्थितियों से परेशान होकर गौङ नरेश शशांक ने हर्ष से बिना युद्ध किये ही कन्नौज को खाली कर दिया, तथा कन्नौज स्वतंत्र हो गया। कन्नौज के मंत्रियों ने हर्ष से पार्थना करी कि वह कन्नौज का राजसिंहासन स्वीकार करे, लेकिन हर्ष ने यह स्वीकार नहीं किया।
ह्वेनसांग ने लिखा है, कि हर्ष ने अवलोकितेश्वर बोधिसत्व से परामर्श किया। बोधिसत्व ने उसे सिंहासन पर बैठने तथा महाराज की उपाधि धारण करने से मना कर दिया।
हर्ष ने अपने को राजपुत्र कहा तथा अपना उपनाम शीलादित्य रखा। राज्यश्री को ही शासिका माना गया, जिसने अपने भाई हर्ष की देख-रेख में शासन का संचालन करना स्वीकार किया।
चीनी स्रोतों के अनुसार हर्ष एवं राज्यश्री साथ-2 कन्नौज के सिंहासन पर बैठते थे। हर्ष ने अपनी राजधानी थानेश्वर से कन्नौज में स्थानांन्तरति कर ली, ताकि वह राज्यश्री को प्रशासनिक कार्यों में सहायता प्रदान कर सकें।
प्रमाणों के अभाव में हम हर्ष के आगे के अभियानों आदि का सही से पता नहीं लगा सकते, लेकिन फिर भी ह्वेनसांग जैसे विद्वानों ने अपने अंदाज से कुछ बाते कही है, जिनका विवरण इस प्रकार है-
हुएनसांग ने लिखा है, कि हर्ष एक बङी सेना के साथ लगातार 6 वर्षों तक युद्ध करता रहा।सर्वप्रथम उसने पूर्व की ओर प्रस्थान किया और जिन शक्तियों ने उसकी अधीनता नहीं मानी थी उनको अपने अधीन किया। इसके बाद भी वह तब तक युद्ध करता रहा जब तक कि पंचभारत का स्वामी नहीं बन गया। उसने पंचभारत को इन-तु कहा है। इसके बाद उसने युद्ध-क्रिया रोक दी। अस्र-शस्र शस्रागारों में जमा कर दिये गये तथा निरंतर तीस वर्षों तक उसने शांतिपूर्वक राज्य किया। इस बीच हर्ष ने कोई भी युद्ध नहीं किया।
कुछ विद्वानों ने हर्ष के राज्यकाल को दो भागों में बाँटा है-
- युद्धकाल (606-612 ईस्वी)- इस काल में हर्ष ने अनेक युद्ध किये थे।
- शांति काल (612-642 ईस्वी) – इस काल में हर्ष ने शांतिपूर्वक शासन किया था।
ऐसा प्रतीत होता है, कि कन्नौज पर अधिकार कर लेने के बाद हर्ष ने पहला पूर्वी अभियान किया, जिसमें समस्त उत्तरप्रदेश और बिहार का पश्चिमी भाग जीत लिया। परंतु शशांक का राज्य जिसके अंतर्गत मगध, बंगाल और उङीसा के प्रदेश सम्मिलित थे, वह प्रथम अभियान में नहीं जीता सा सका होगा। मालवा के ऊपर भी लगभग इसी समय हर्ष का अधिकार हो गया होगा। इन युद्धों में उसके राज्यारोहण के बाद के छः वर्ष (606-612 ईस्वी) तक समय लग गया होगा।
612 ईस्वी के बाद कालक्रम की दृष्टि से हर्ष ने निम्नलिखित युद्ध किये होंगे-
बलभी का युद्ध
बलभी राज्य आधुनिक गुजरात में स्थित था। वहाँ का शासक ध्रुवसेन द्वितीय था। हर्ष ने उस पर आक्रमण किया। हर्ष ने उस पर आक्रमण किया। …अधिक जानकारी
सिंध के साथ युद्ध
हुएनसांग के विवरण से पता चलता है, कि सिंध देश का राजा जाति से शूद्र था और बौद्ध धर्म में उसकी आस्था थी। यहाँ हर्ष ने धर्मविजयी शासक की नीति का अनुसरण किया, जो समुद्रगुप्त की दक्षिणापथ की नीति के समान है। ऐसा लगता है, कि हर्ष उससे भेंट लेकर ही संतुष्ट हो गया तथा उसने उसका राज्य वापस लौटा दिया। …अधिक जानकारी
पुलकेशिन द्वितीय के साथ युद्ध
ह्वेनसांग का यात्रा विवरण सी-यू-की के अनुसार अपने राज्यारोहण के बाद लगातार 6 वर्षों तक हर्ष ने अनेक युद्ध किये। उसने कई शक्तियों को पराजित किया। परंतु मो-हो-ल-च-अ अर्थात् महाराष्ट्र का शासक बङा वीर और स्वाभिमानी था। उसने हर्ष की अधीनता नहीं मानी। यहाँ चीनी यात्री ने जिस राजा का उल्लेख किया है, उससे पता चलता है, कि पुलकेशिन द्वितीय ही वह राजा है। …अधिक जानकारी
द्वितीय पूर्वी सैनिक अभियान
उङीसा के गंजाम जिले से शशांक के सामंत शैलोद्भववंशी माधवराज का लेख मिला है, जिसकी तिथि गुप्त संवत् 300 (619 ईस्वी) है। इससे पता चलता है, कि इस तिथि तक वह एक स्वतंत्र शासक के रूप में महाराजाधिराज की उपाधि के साथ शासन कर रहा था। …अधिक जानकारी
हर्ष और नेपाल
हर्ष ने नेपाल की विजय की थी राधाकुमुद मुकर्जी के अनुसार नेपाल में हर्ष संवत् का प्रचलन था, जो वहाँ उसके आधिपत्य की सूचना देता है। …अधिक जानकारी
कश्मीर का राज्य
इस पर कश्मीरनरेश ने स्वयं मध्यस्थता करके दाँत को हर्ष के सम्मुख कर दिया। उसे देखते ही शिलादित्य अर्थात् हर्ष श्रृद्धा-विह्लल हो उठा तथा बल प्रयोग करके दाँत को अपने साथ उठा ले गया। …अधिक जानकारी
हर्ष तथा कामरूप
भास्करवर्मा ने कहला भेजा कि वह चीनी यात्री के बदले अपना सिर देना पसंद करेगा। इस पर हर्ष क्रोधित हुआ तथा उसने उसका सिर तुरंत भेजने को कहा।…अधिक जानकारी
हर्ष और दक्षिण भारत
हर्ष ने नर्मदा नदी के दक्षिण में सैनिक अभियान किया था। नर्मदा नदी के दक्षिणी भाग में कुंतल, चोल, कांची की विजय की। हर्ष का यह अभियान पुलकेशिन द्वितीय की मृत्यु के बाद हुआ अर्थात् 643 ईस्वी के लगभग यह अभियान हुआ। इस अभियान में उसने चोल और पल्लव नरेशों को अपनी अधीनता में ले लिया था। …अधिक जानकारी
References : 1. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, लेखक- के.सी.श्रीवास्तव
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