आधुनिक भारतइतिहास

संघीय कार्यपालिका 1935 के अधिनियम के अनुसार

संघीय कार्यपालिका 1935 के अधिनियम के अनुसार

संघीय कार्यपालिका –

1935 ई. के अधिनियम में प्रस्तावित यदि अखिल भारतीय संघ स्थापित होता तो इसके अन्तर्गत केन्द्र में एक कार्यपालिका प्रस्तावित की गयी। इस संघीय कार्यपालिका के तीन भाग थे – गवर्नर जनरल, कौंसिल और मंत्रि परिषद।

गवर्नर जनरल

संघीय कार्यपालिका में सबसे महत्त्वपूर्ण स्थान गवर्नर जनरल का था, जो ब्रिटिश ताज का प्रतिनिधित्व करता था और जिसके हाथ में ताज की कार्यपालिका शक्ति निहित थी। गवर्नर जनरल की नियुक्ति ब्रिटिश सम्राट द्वारा होती थी और इस हेतु सम्राट, ब्रिटिश प्रधानमंत्री की राय लेता था। उसका कार्यकाल कम से कम प्रांच वर्ष होता था। भत्ते के अलावा उसे वार्षिक वेतन के रूप में 2,50,800 रुपया मिलता था, जिसे संघ के कोष से प्रदान किाय जाता था। उसे प्रदान किये गये अधिकारों एवं शक्तियों के कारण वह विश्व का सबसे बङा अधिनायक था।

उसके ये अधिकार और शक्तियाँ तीन तरह की थी-

1.) वह शक्ति जो वह अपनी इच्छानुसार प्रयोग में लाता था अर्थात् स्वैच्छाधिकार की शक्ति,
2.) वह शक्ति जो वह व्यक्तिगत निर्णय से प्रयुक्त करता था,
3.) वह शक्ति जो मंत्रियों के परामर्श से प्रयोग करता था।

अपने स्वैच्छाधिकार की शक्ति के अन्तर्गत गवर्नर जनरल मुख्य रूप से निम्न शक्तियों का प्रयोग करता था-

1.)सुरक्षा, विदेशी मामले, कबीले के क्षेत्र तथा धार्मिक मामलों पर नियंत्रण। ये रक्षित विषय थे और इसके संबंध में वह भारत सचिव के प्रति उत्तरदायी था।
2.)वह कौंसिलरो, आर्थिक परामर्शदाता, चीफ कमिश्नरों, संघ लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष एवं सदस्यों, रिजर्व बैंक के गवर्नर एवं डिप्टी गवर्नर, फेडरल रेल्वे ऑथोरिटी के 3/7 सदस्यों तथा रेलवे ट्रिब्युनल के प्रधान की नियुक्ति करता था। वह संघीय लोक सेवा आयोग के सदस्यों के वेतन, कार्यकाल और सेवा की शर्तें निश्चित करता था। वह मंत्रियों की नियुक्ति व बर्खास्तगी भी करता था और मंत्रिमंडल की बैठकों की अध्यक्षता भी करता था।
3.)सरकार के कार्य को सुचारु रूप से चलाने तथा इन कार्यों को मंत्रियों को सौंपने हेतु नियम बना सकता था। वह इस संबंध में भी नियम बना सकता था कि मंत्री उसे प्रत्येक कार्यवाही की सूचना देते रहेंगे तथा सरकारी आदेशों को कार्यान्वित करते रहेंगे।
4.) इस क्षेत्र में उसके ये अधिकार भी आते थे – 1.) वह संविधान को निरस्त कर सकेगा, अध्यादेश व आपत्तिकालीन घोषणाएं कर सकेगा, विधेयकों पर सहमति रोक सकेगा, विधेयकों को प्रस्तुत करने से रोक सकेगा, वह निम्न सदन की बैठक बुला सकेगा, उसे स्थगित कर सकेगा और उसे समाप्त कर सकेगा, वह कोई भी अधिनियम बना सकेगा जिसे गवर्नर जनरल का अधिनियम कहा जायेगा और वह प्रांतों के गवर्नरों के स्वैच्छाधिकार व व्यक्तिगत निर्णय के अधिकार संबंधी कार्यों को नियंत्रित कर सकेगा।

गवर्नर जनरल द्वारा व्यक्तिगत निर्णय से प्रयुक्त करने वाली मुख्य शक्तियाँ निम्नलिखित थी –

भारत या भारत के किसी भी भाग में शांति एवं व्यवस्था को भंग करने वाले तत्वों की रोकथाम करना तथा आर्थिक स्थिरता को सुरक्षित बनाये रखना।

अल्पसंख्यकों के वैध हितों की रक्षा करना तथा भारतीय रियासतों के शासकों के अधिकारों एवं प्रतिष्ठा की रक्षा करना। सार्वजनिक सेवाओं के अधिकारों एवं उचित हितों की रक्षा करना। इंग्लैण्ड या बर्मा से भारत में आयात होने वाली सामग्री के साथ भेदभाव रोकना।

संघ के एडवोकेट जनरल की नियुक्ति करना, उसका वेतन निर्धारित करना तथा उसकी पद मुक्ति करना। लेकिन वह यह पद उसी को दे सकता था जो किसी संघीय न्यायालय में न्यायाधीश का पद प्राप्त करने के योग्य हो।

गवर्नर जनरल को अपने व्यक्तिगत निर्णय की शक्ति का प्रयोग करते समय अपने मंत्रियों से परामर्श करना पङता था, किन्तु मंत्रियों के परामर्श को मानने के लिए बाध्य नहीं था।

मंत्रियों से परामर्श करके गवर्नर जनरल कार्यकारिणी की अवशिष्ट शक्तियों का प्रयोग करता था, लेकिन ये शक्तियाँ कोई विशेष महत्त्व की नहीं थी। सभी महत्त्वपूर्ण शक्तियाँ प्रथम दो भागों में आ जाती थी तथा मंत्रियों को दी गयी शक्तियाँ नहीं के बराबर थी। किन्तु गवर्नर जनरल को यह निर्देश दिया गया था कि वह अपने कौंसिलरों व मंत्रियों के बीच संयुक्त विचार-विमर्श को प्रोत्साहन दे, विशेषकर प्रतिरक्षा के मामले में।

गवर्नर जनरल को आर्थिक अधिकार

गवर्नर जनरल के आदेश से ही अनुमानित आय-व्यय का वार्षिक वजट संघीय व्यवस्थापिका के समक्ष प्रस्तुत किया जाता था। उसकी अनुमति के बिना किसी प्रकार के अनुदान की माँग व्यवस्थापिका के समक्ष प्रस्तुत नहीं की जा सकती थी। व्यवस्थापिका द्वारा किसी मद में की गयी कटौती को पुनर्स्थापित करने का भी उसे अधिकार था। वह व्यय के उन मदों का भी निर्णय करता था जिन पर व्यवस्थापिका में मत लिये जायेंगे या नहीं।

आपत्तिकाल में उसे किसी भी सीमा तक व्यय करने का अधिकार था। संघ की आर्थिक साख और स्थिरता को बनाये रखने के लिए वह एक आर्थिक परामर्शदाता की नियुक्ति करता था। यह आर्थिक परामर्शदाता वित्तमंत्री की तरह ही शक्तिशाली और प्रभावशाली होता था।

गवर्नर जनरल की विधायी शक्तियाँ

गवर्नर जनरल को संघीय एसेम्बली का अधिवेशन बुलाने, स्थगित करने तथा भंग करने का पूरा अधिकार था। उसे विधेयकों के बारे में केन्द्रीय विधानमंडल को संदेश भेजने, अनुचित विधेयकों को रोकने और उनको अस्वीकार करने का भी अधिकार था। कुछ विधेयकों का विधान मंडल में प्रस्तुत करने से पूर्व गवर्नर जनरल की आज्ञा लेना आवश्यक था। वह कुछ विधेयकों को ब्रिटिश सम्राट की स्वीकृति के लिए आरक्षित कर सकता था।

वह विधानमंडल की इच्छा के विरुद्ध अपनी इच्छा से अधिनियम बना सकता था, जिन्हें गवर्नर जनरल का अधिनियम कहा जाता था। गवर्नर जनरल को अध्यादेश जारी करने का भी अधिकार था। अध्यादेश दो प्रकार के थे। प्रथम तो ऐसे अध्यादेश जो तब जारी किये जाते थे जबकि केन्द्रीय विधानमंडल का अधिवेशन न हो रहा हो और कोई संकटकालीन स्थिति उत्पन्न हो जाय।

किन्तु ऐसे अध्यादेशों को केन्द्रीय विधान मंडल के समक्ष प्रस्तुत करना पङता था। यदि वे केन्द्रीय विधान मंडल द्वारा अधिवेशन के प्रारंभ होने के छः सप्ताह में पारित नहीं किये जाते तो उनकी अवधि समाप्त हो जाती और वे लागू नहीं किये जा सकते थे। दूसरे प्रकार के अध्यादेश ऐसे थे जो गवर्नर जनरल द्वारा किसी समय (चाहे केन्द्रीय विधानमंडल का अधिवेशन चल रहा हो) जारी किये जा सकते थे।

इस प्रकार के अध्यादेश एक बार में छः महीने तक जारी रहते थे, किन्तु किसी दूसरे अध्यादेश द्वारा इनको छः महीने तक दुबारा बढाया जा सकता था। अधिनियम की 45 वीं धारा के अनुसार गवर्नर जनरल को संघ में संपूर्ण संविधान को स्थगित कर देने का अधिकार था। जब वह इस प्रकार की घोषणा करता था तो वह संघीय न्यायालय को छोङकर, उन सभी अधिकारों व शक्तियों को या उनके कुछ हिस्से के अधिकार स्वयं ग्रहण कर सकता था, जो पहले किसी भी फेडरल ऑथोरिटी के पास थी। किन्तु ऐसी घोषणा की सूचना भारत सचिव को तुरंत भेज देनी पङती थी, जो ब्रिटिश संसद के दोनों सदनों में इसे प्रस्तुत करता था। ऐसी घोषणा छः महीने के पूर्व भी इसे रद्द किया जा सकता था।

संघीय कौंसिलर्स

संघीय कार्यपालिका का दूसरा अंग कौंसिलर्स थे। 1935 ई. के अधिनियम मं यह व्यवस्था की गयी थी कि गवर्नर जनरल की सहायता के लिए एक कार्यकारिणी परिषद होगी। इसमें तीन से अधिक सदस्य नहीं होंगे। ये सदस्य गवर्नर जनरल को रक्षित विभागों के शासन संचालन में सहायता देंगे। गवर्नर जनरल रक्षित विभागों के लिए भारत सचिव द्वारा ब्रिटिश संसद के प्रति उत्तरदायी होगा।

कौंसिलर्स की नियुक्ति ब्रिटिश ताज द्वारा होती थी, किन्तु ये कौंसिलर्स केवल गवर्नर जनरल के प्रति उत्तरदायी होते थे। कौंसिलर्स दोनों सदनों की बैठकों में भाग लेते थे, किन्तु उन्हें मत देने का अधिकार नहीं था। वे केन्द्रीय विधानमंडल के प्रति बिल्कुल उत्तरदायी नहीं थे। अधिनियम के अन्तर्गत उनका कार्यकाल और योग्यताएँ निर्धारित नहीं की गयी थी। उनका काम केवल गवर्नर जनरल को परामर्श देना था। उस परामर्श का मानना या न मानना गवर्नर जनरल की इच्छा पर निर्भर था।

संघीय मंत्रिपरिषद

हस्तांतरित विषयों का शासन चलाने के लिए एक मंत्रिपरिषद की व्यवस्था की गयी थी। मंत्रियों की संख्या 10 से अधिक नहीं हो सकती थी। कानूनी दृष्टि से वे गवर्नर जनरल द्वारा नियुक्त किये जाते थे। किन्तु अनुदेश प्रपत्र के अनुसार मंत्रियों को चुनाव करते समय संघीय एसेम्बली में बहुमत दल के नेता की सिफारिश के अनुसार मंत्रियों की नियुक्ति की जानी थी तथा भारतीय रियासतों और अल्पसंख्यकों को उचित प्रतिनिधित्व देने की भी व्यवस्था की गयी थी।

मंत्रियों के लिए यह आवश्यक था कि वे केन्द्रीय विधान मंडल के दोनों सदनों में से किसी भी सदन के सदस्य हो। यदि किसी ऐसे व्यक्ति को मंत्री नियुक्त कर दिया जाता, जो केन्द्रीय विधानमंडल के किसी भी सदन का सदस्य नहीं होता तो उसे या तो छः महीने में सदन का सदस्य बनना पङता था या त्याग पत्र देना पङता था। सभी मंत्री केन्द्रीय विधानमंडल के प्रति उत्तरदायी होते थे। इन्हें संघीय विधानमंडल द्वारा निर्धारित वेतन भारतीय कोष से दिया जाता था और इस पर मतदान नहीं कराया जाता था।

लेकिन गवर्नर जनरल की स्वैच्छाचारी शक्तियों तथा व्यक्तिगत निर्णय की शक्तियों ने मंत्रियों की शक्तियों को अत्यंत सीमित कर दिया था। गवर्नर जनरल अपने निशेष उत्तरदायित्व का बहाना लेकर मंत्रियों के कार्यों में हस्तक्षेप कर सकता था। फिर, एक तरफ तो गवर्नर जनरल मंत्रियों को बर्खास्त कर सकता था तो दूसरी तरफ विधानमंडल के अविश्वास प्रस्ताव द्वारा भी उन्हें हटाया जा सकता था। अतः मंत्रियों को अपने दो स्वामियों को प्रसन्न रखना पङता था।

संघीय व्यवस्थापिका

1935 ई. के अधिनियम में केन्द्र में द्विसनीय संघीय व्यवस्थापिका की रचना का प्रस्ताव था, जिसमें से उच्च सदन को राज्य सभा तथा निम्न सदन को संघीय परिषद कहा जायेगा।

राज्य सभा

राज्सभा के सदस्यों की संख्या 260 निश्चित की गयी। इनमें से 104 सदस्य भारतीय रियासतों से आने थे। प्रत्येक देशी रियासत को स्थान उसकी महत्ता, वंशीय उच्चता या ऐसी ही अन्य बातों से निर्धारित किये गये। भारतीय देशी रियासतों की आबादी केवल 23 प्रतिशत थी, फिर भी राज्य सभा में उन्हें 40 प्रतिशत स्थान दे दिये गये। देशी रियासतों की प्रजा को अपना प्रतिनिधि चुनने का अधिकार नहीं दिया गया, बल्कि वहाँ के शासकों को अपने प्रतिनिधि मनोनीत करने का अधिकार दिया गया।

शेष 156 स्थान ब्रिटिश प्रांतों के लिए रखे गये। इनमें से 6 गवर्नर जनरल द्वारा मनोनीत किये जाने थे, 75 सामान्य निर्वाचन क्षेत्रों से, 49 मुसलमानों, 4 सिक्खों, 7 यूरोपियनों, 2 भारतीय ईसाइयों, 1 एंग्लो इंडियन, 6 महिलाओं तथा 6 अनुसूचित जातियों के द्वारा चुने जाने थे।

विभिन्न प्रांतों के लिए सीटों का निर्धारण उसकी जनसंख्या, व्यापारिक महत्ता एवं ऐतिहासिक महत्ता को ध्यान में रखकर किया गया। सामान्य स्थानों, मुसलमानों और सिक्खों के लिए आरक्षित स्थानों के लिए प्रत्यक्ष मतदान होता था, जबकि यूरोपीयनों, ऐग्लो-इंडियन और ईसाइयों के लिए अप्रत्यक्ष मतदान की व्यवस्था की गयी थी। दलित वर्ग के चुनाव भी अप्रत्यक्ष रखे गये। जिन संप्रदायों का चुनाव अप्रत्यक्ष होना था, उनके सदस्यों को प्रांतीय विधानमंडल में उस संप्रदाय के सदस्य मिलकर चुनने की व्यवस्था की गयी। मताधिकार की योग्यता संपत्ति से जुङी हुई थी।

इस आधार पर संपूर्ण ब्रिटिश भारत में केवल एक लाख व्यक्तियों को मताधिकार दिया गया, जबकि ब्रिटिश भारत की जनसंख्या लगभग 28 करोङ थी। राज्यसभा के सदस्यों का कार्यकाल 9 वर्ष रखा गया। इनमें से एक-तिहाई सदस्य प्रत्येक तीन वर्ष बाद अवकाश ग्रहण करेंगे और उनके स्थान पर सदस्यों का चुनाव होना था। इस प्रकार यह एक स्थायी सदन था और इसे कभी भंग नहीं किया जा सकता था।

संघीय परिषद

यह निम्न सदन था। इसमें 375 स्थान निर्धारित किये गये। इनमें से 125 स्थान देशी रियासतों को दिये गये और 250 स्थान ब्रिटिश प्रांतों के लिए रखे गये। देशी रियासतों में स्थानों का विभाजन लगभग जनसंख्या पर आधारित किया गया, लेकिन सबसे अधिक जनसंख्या वाली देशी रियासतों का प्रतिनिधित्व थोङा घटा दिया गया, जिससे कि सभी रियासतों को प्रतिनिधित्व दिया जा सके। ब्रिटिश प्रांतों के लिए निर्धारित 250 स्थानों में से 105 सामान्य निर्वाचन क्षेत्रों से (इनमें 19 स्थान दल वर्ग के लिए सुरक्षित थे), 82 मुसलमानों, 6 सिक्खों, 4 एंग्लो-इंडियनों, 8 यूरोपियनों, 8 भारतीय ईसाइयों, 11 व्यापार-वाणिज्य, 7 जमींदारों, 10 श्रमिकों एवं 9 स्थान स्त्रियों के लिए निश्चित किये गये।

संघीय परिषद के चुनाव अप्रत्यक्ष रखे गये जबकि राज्यसभा के लिए प्रत्यक्ष/अप्रत्यक्ष चुनावों के लिए यह व्यवस्था की गयी कि प्रांतीय विधानसभाओं के सदस्य अपने-अपने संप्रदाय के सदस्यों को अनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के आधार पर चुनेंगे। दलित वर्ग के लिए यह व्यवस्था की गयी कि प्रारंभिक चुनाव में संघीय परिषद की एक सीट के लिए चार उम्मीदवारों को चुना जाना था और इस तरह चुने गये लोग ही चुनाव लङने के अधिकारी होंगे।

यूरोपीयनों, एंग्लो-इंडियनों, भारतीय ईसाइयों तथा महिलाओं के, प्रत्येक प्रांत में प्रतिनिधि, पूरे ब्रिटिश भारत के लिए निर्वाचक मंडल का रूप ग्रहण कर लेते थे, जो संघीय परिषद के लिए निर्धारित सीटें पूरी करने का कार्य करते थे। देशी रियासतों के प्रतिनिधि वहाँ के शासकों द्वारा मनोनीत किये जाने थे। इस प्रकार से गठित संघीय परिषद का कार्यकाल 5 वर्ष रखा गया, किन्तु गवर्नर जनरल इस अवधि से पूर्व भी इसे भंग कर सकता था।

संघीय व्यवस्थापिका की शक्तियाँ

संघीय विधानमंडल को संघीय सूची तथा समवर्ती सूची में दिये गये विषयों पर कानून बनाने का अधिकार था। जहाँ तक देशी रियासतों का संबंध है, संघीय विधानमंडल उन्हीं विषयों पर कानून बना सकता था, जो देशी रियासतों के शासकों द्वारा सहमति पत्र द्वारा केन्द्र को सौंपे गये हों।

संघीय विधानमंडल चीफ कमिश्नर प्रांतों के किसी मसले पर कानून बना सकती थी। गवर्नर जनरल द्वारा आपात्तकाल की घोषणा करने के बाद संघीय विधानमंडल, प्रांतीय सूची के किसी विषय पर कानून बना सकता था। कोई बिल दोनों सदनों द्वारा पारित होने पर तथा गवर्नर जनरल की स्वीकृति मिलने पर ही कानून का रूप ग्रहण कर सकता था। दोनों सदनों में मतभेद होने की स्थिति में दोनों सदनों की संयुक्त बैठक बुलाकर निर्णय लिया जाता था।

संघीय परिषद अपने सदस्यों में से स्पीकर एवं डिप्टी स्पीकर तथा राज्य सभा अपने सदस्यों में से अध्यक्ष एवं उपाध्यक्ष का चुनाव करते थे। राज्य सभा के अध्यक्ष एवं उपाध्यक्ष को, सदन का सदस्य न रहने पर अपना पद छोङना पङता था, परंतु संघीय परिषद के स्पीकर और डिप्टी स्पीकर सदन के समाप्त होने पर भी अपने पद पर, नये सदन की प्रथम बैठक तक अपने पद पर बने रह सकते थे। इन चुने गये अधिकारियों को अपने सदन के बहुमत से हटाया जा सकता था, जिसके लिए 14 दिन का नोटिस देना पङता था।

संघीय परिषद ब्रिटिश सम्राट और उसके परिवार को प्रभावित करने वाले विषय पर कानून नहीं बना सकता था। इसके अलावा आर्मी एक्ट, एयर फोर्स एक्ट तथा नेवल डिफेन्स एक्ट के विरुद्ध भी कोई कानून या नियम पारित नहीं कर सकता था। यह 1935 ई. के अधिनियम में न तो कोई संशोधन कर सकता था और न इसके विरुद्ध कोई कानून यह नियम पारित कर सकता था।

गवर्नर जनरल के स्वैच्छाधिकार के विरुद्ध या उसके द्वारा घोषित अधिघोषणा के विरुद्ध कोई कानून नहीं बना सकता था। दोनों सदनों द्वारा पारित तथा गवर्नर जनरल द्वारा स्वीकृत किसी अधिनियम को ब्रिटिश सम्राट रोक सकता था। गवर्नर जनरल किसी भी बिल को, सदन को पारित करने के लिए कह सकता था और यदि वह(सदन)ऐसा करने से इन्कार कर दे तो वह अपनी संस्तुति से उसे कानून का रूप दे सकता था।

दोनों सदनों की कार्यकारिणी शक्तियाँ समान नहीं थी। मंत्रिपरिषद केवल संघीय परिषद के प्रति उत्तरदायी थी अर्थात मंत्रियों को केवल संघीय परिषद अविश्वास प्रस्ताव द्वारा हटा सकती थी। लेकिन कौंसिलर्स दोनों में से कोई सदन अविश्वास प्रस्ताव द्वारा नहीं हटा सकता था। कार्यकारिणी अधिकारों पर दोनों सदनों में प्रस्तावों, स्थगत प्रस्तावों, प्रश्नों और पूरक प्रश्नों द्वारा रोक लगाई जा सकती थी।दोनों सदनों में प्रस्तावों, स्थगन प्रस्तावों, प्रश्नों और पूरक प्रश्नों द्वारा रोक लगाई जा सकती थी।

दोनों सदन किसी विषय पर प्रस्ताव पास करके गवर्नर जनरल के पास भेज सकते थे, लेकिन यह गवर्नर जनरल की इच्छा पर निर्भर था कि वह प्रस्ताव को माने या न माने। संघीय विधानमंडल को यह भी अधिकार नहीं था कि वह संघीय न्यायालय के न्यायाधीशों या उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के आचरण पर विवाद करें। दोनों सदनों की वित्तीय शक्तियाँ लगभग समान थी, परंतु बजट पहले संघीय परिषद में रखा जाता था। बजट के दो भाग होते थे। पहले भाग में संघ के राजस्व पर भारित व्यय और दूसरा शेष व्यय।

संघ के राजस्व पर भारित व्यय पर संघीय विधानमंडल बहस तो कर सकता था, लेकिन मतदान नहीं कर सकता था। बजट का लगभग 80 प्रतिशत भाग बजट के प्रथम भाग में आता था। इस प्रकार बजट के 80 प्रतिशत भाग पर संघीय विधान मंडल का कोई नियंत्रण नहीं था। बजट के शेष 20 प्रतिशत भाग पर विधानमंडल बहस कर सकता था, किसी अनुदान की माँग में कटौती कर सकता था या किसी माँग को पूर्णतः अस्वीकार कर सकता था, लेकिन माँग में वृद्धि नहीं कर सकता था। गवर्नर जनरल को यह विशेष अधिकार था कि किसी कटौति या अस्वीकृत की गयी माँग को पुनर्स्थापित कर दें।

अन्य संघीय निकाय

1935 ई. के अधिनियम में एक संघीय न्यायालय की स्थापना का प्रावधान था। दिसंबर, 1937 ई. में संघीय न्यायालय का कार्य आरंभ हो गया। यह 1950 ई. तक कार्य करता रहा। 1950 ई. में जब स्वतंत्र भारत का नया संविधान लागू किया गया तब इसे ही उच्चतम न्यायालय बना दिया गया और इसकी शक्तियों में वृद्धि कर दी गयी।

इस अधिनियम द्वारा रेलों के उचित प्रबंध के लिए संघीय रेल्वे प्राधिकरण की स्थापना का प्रस्ताव था। इसमें 7 सदस्य रखे गये थे, जिसमें से 3 सदस्य गवर्नर जनरल मनोनीत करता था तथा शेष 4 सदस्य मंत्रियों के परामर्श से गवर्नर जनरल मनोनीत करता था। इन सात सदस्यों में से अध्यक्ष की नियुक्ति गवर्नर जनरल करता था। किन्तु संघीय विधानमंडल का इस पर कोई नियंत्रण नहीं रखा गया। भाग्य से इस अधिनियम के अनुसार यह निकाय स्थापित ही नहीं हुआ।

यद्यपि वित्त का विषय लोकप्रिय मंत्रियों में सौंपने की व्यवस्था की गयी थी, लेकिन गवर्नर जनरल को यह विशेष उत्तरदायित्व सौंपा गया था कि वह संघीय सरकार की आर्थिक स्थिरता और साख को बनाये रखे।

चूँकि सरकार की आर्थिक स्थिरता और साख का संबंध मुद्रा और विनिमय से है, अतः विनिमय के नियंत्रण हेतु रिजर्व बैंक की स्थापना की व्यवस्था की गयी थी। बैंक व्यवस्था के लिए गवर्नर जनरल के अलावा 15 डायरेक्टरों के एक बोर्ड की व्यवस्था की गयी थी, जिसमें से 8 डायरेक्टरों का चुनाव बैंक के हिस्सेदारों द्वारा किया जाना था और शेष डायरेक्टर गवर्नर जनरल द्वारा मनोनीत किये जाने थे। यह बैंक 1935 में स्थापित किया गया।

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