इतिहासगुप्तोत्तर कालप्राचीन भारत

हर्ष की मृत्यु के बाद कन्नौज की स्थिति कैसी थी

हर्षवर्धन की मृत्यु के बाद उत्तर भारत में राजनीतिक विकेन्द्रीकरण एवं विभाजन की शक्तियाँ एक बार पुनः सक्रिय हो गयी। कामरूप में भास्करवर्मा ने कर्णसुवर्ण तथा उसके आस-पास के क्षेत्रों को जीतकर अपना स्वतंत्र साम्राज्य स्थापित कर लिया तथा मगध में हर्ष के सामंत माधवगुप्त के पुत्र आदित्यसेन ने अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित कर लिया। भारत के पश्चिमी तथा उत्तरी-पश्चिमी भागों में कई स्वंतत्र राज्यों की स्थापना हुई। कश्मीर में कार्कोटवंश की सत्ता स्थापित हुई। सामान्यतः यह काल पारस्परिक संघर्ष तथा प्रतिद्वन्द्विता का काल था। हर्ष के बाद उत्तर भारत की राजनीतिक गतिविधियों का केन्द्र बिन्दु कन्नौज बन गया, जिस पर अधिकार करने के लिये विभिन्न शक्तियों में संघर्ष प्रारंभ हुआ।

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चीनी आक्रमण-

हर्ष के कोई पुत्र नहीं था, अतः उसके बाद कन्नौज पर अर्जुन नामक किसी स्थानीय शासक ने अधिकार कर लिया था। चीनी लेखक मा-त्वान-लिन हमें यह बताता है, कि 646 ईस्वी में चीनी नरेश ने वंग हुएनत्से के नेतृत्व में तीसरा दूतमंडल भारत भेजा था। जब वह कन्नौज पहुँचा तो हर्ष की मृत्यु हो चुकी थी। तथा अर्जुन वहाँ का राजा था। उसने अपने सैनिकों के द्वारा दूतमंडल को रोका तथा उनकी लूटपाट की। वंग ने किसी तरह भागकर अपनी जान बचाई। प्रतिशोध की भावना से उसने तिब्बती राजा गंपो तथा नेपाली राजा अंशुवर्मा से सैनिक लेकर अर्जुन पर आक्रमण किया। अर्जुन पराजित हुआ। उसके बहुत से सैनिक मारे गये तथा उसे पकङकर चीन ले जाया गया, जहाँ कारागार में उसकी मृत्यु हो गयी। इस कथन से यह तात्पर्य निकलता है, कि हर्ष की मृत्यु के बाद उत्तरी भारत में अराजकता एवं अव्यवस्था की स्थिति व्याप्त हो गयी थी तथा विभिन्न भागों में छोटे-2 राज्य स्वतंत्र हो गये थे।

हर्ष की मृत्यु के बाद उत्तरी भारत में प्रमुख शक्तियों का विवरण निम्नलिखित है-

हर्ष की मृत्यु के बाद लगभग 75 वर्षों तक कन्नौज का इतिहास अंधकारमय दिखाई देता है. इस अंध युग की समाप्ति के बाद हम कन्नौज के राजसिंहासन पर यशोवर्मन नामक एक महत्वाकांक्षी एवं शक्तिशाली शासक को देखते हैं।

यशोवर्मन

यशोवर्मन के वंश एवं प्रारंभिक जीवन के बारे में हमें कुछ भी जानकारी प्राप्त नहीं है। उसके नाम के अंत में वर्मन शब्द जुङा देखकर कुछ विद्वान उसे मौखरि वंश का शासक मानते हैं। परंतु इस विषय में हम निश्चित रूप से कुछ भी नहीं कह सकते। यशोवर्मन के शासन काल में की घटनाओं के विषय में हम उसके दरबारी कवि वाक्यपति के गौडवहो नामक प्राकृत भाषा के लिखित काव्य से जानकारी प्राप्त करते हैं, जो उसके इतिहास का सर्वप्रमुख स्रोत है।

गौडवहो यशोवर्मन् के सैनिक अभियान का विवरण प्रस्तुत करता है जो इस प्रकार है-

एक वर्षा ऋतु के अंत में वह अपनी सेना के साथ विजय के लिये निकला। सोन घाटी से होता हुआ, वह विन्ध्यपर्वत पहुँचा और विन्ध्यवासिनी देवी को पूजा द्वारा प्रसन्न किया। यहाँ से उसने मगध शासक पर चढाई की। युद्ध में मगध का राजा मार डाला गया। तत्पश्चात् उसने बंगदेश पर चढाई की। बंग लोगों ने उसकी अधीनता स्वीकार कर ली।

बंगविजय के बाद यशोवर्मन ने दक्षिण के राजा को परास्त किया तथा मलयगिरि को पार किया। उसने पारसीकों पर चढाई की तथा उन्हें युद्ध में हरा दिया। पश्चिमी घाट के दुर्गम क्षेत्रों में उसे कर प्राप्त हुया। वह नर्मदा नदी के तट पर आया तथा समुद्रतट से होता हुआ, मरुदेश (राजस्थानी रेगिस्तान) जा पहुँचा। यहाँ से वह श्रीकंठ आया तथा फिर कुरुक्षेत्र होते हुये अयोध्या पहुंचा। मंदराचल पर्वत के निवासियों ने उसकी संप्रभुता स्वीकार की। उसने हिमालय क्षेत्र की भी विजय की।

इस संसार को जीतता हुआ, वह अपनी राजधानी कन्नौज वापस लौट आया।

गौडवहो का उपर्युक्त विवरम कहाँ तक सही है, यह नहीं कहा जा सकता। इसमें बंग (गौङ) देश के राजा का नाम नहीं मिलता। गौङ विजय का उल्लेख भी काव्य के अंत में हुआ है. इस काव्य का विवरण अत्यंत अतिरंजित प्रतीत होता है, तथा यहग विश्वास करना कठिन है, कि उसने इसमें वर्णित उत्तर और दक्षिण के सभी राज्यों को जीता होगा। परंतु उसकी पूर्वी विजयों की पुष्टि नालंदा से प्राप्त एक लेख से हो जाती है। इसमें उसे सार्वभौम शासक कहा गया है। इससे मगध तथा गौङ पर उसका अधिकार प्रमाणित होता है। उसके समय हुई-चाओ नामक चीनी यात्री कन्नौज आया था। यद्यपि वह शासक का नाम नहीं लिखता फिर भी यह बताता है, कि वह एक विस्तृत प्रदेश का स्वामी तथा अनेक युद्धों का विजेता था।

यशोवर्मन ने 731 ईस्वी में पु-टा-सिन (बुद्धसेन) नामक अपने मंत्री को चीनी शासक के दरबार में भेजा था। चीनी विवरणों में उसे इ-श-फो-मो कहा गया है, जो मध्यदेश का राजा था। कश्मीर नरेश ललितादित्य मुक्तापीङ, जिसने 736 ईस्वी में अपना एक दूतमंडल चीन भेजा था, यशोवर्मन का उल्लेख अपने एक मित्र के रूप में करता है। ऐसा लगता है, कि इन दोनों राजाओं ने चीनी शासक से अरबों के विरुद्ध सैनिक सहायता की मांग की थी। सिंध को जीतने के बाद अरबों ने कन्नौज की ओर एक सेना भेजी जिसे यशोवर्मन ने हरा दिया होगा। अतः गौङवहो के पारसीकों से तात्पर्य सिंध के अरबों से ही प्रतीत होता है।

इस प्रकार ललितादित्य तथा यशोवर्मन ने कुछ समय के लिये अरबों के विरुद्ध मौर्चा तैयार किया। परंतु शीघ्र ही इन दोनों के संबंध बिगङ गये। कल्हण की राजतरंगिणी में दोनों शासकों के पारस्परिक संघर्षों का उल्लेख हुआ है। ऐसा पता चलता है, कि युद्ध में यशोवर्मन बुरी तरह पराजित किया गया और उसका राज्य छिन्न-भिन्न हो गया। राजतरंगिणी में काव्यात्मक ढंग से कहा गया है, कि वाक्पति, भवभूति आदि कवियों द्वारा सेवित यशोवर्मा उसका (ललितादित्य का) गुणगान करने लगा तथा यमुना से लेकर कालिका (काली) नदी तक के बीच का कन्नौज राज्य का भाग ललितादित्य के महल का आंगन बन गया।

यशोवर्मन विद्वानों का आश्रयदाता

यशोवर्मन ने 700 ईस्वी से 740 ईस्वी तक शसान किया। वह विद्वानों का आश्रयदाता भी था। वाक्पति के अलावा संस्कृत के महान नाटककार भवभूति उसके दरबार में निवास करते थे।

भवभूति ने तीन प्रसिद्ध नाटक ग्रंथों की रचना की है, जो इस प्रकार हैं-

  1. मालतीमाधव – मालतीमाधव 10 अंकों का नाटक है, जिसमें माधव तथा मालती की प्रणय – कथा वर्णित है।
  2. उत्तररामचरित – उत्तररामचरित में भी सात अंक हैं। इसमें रामायण के उत्तरकांड की कथा है। भवभूति करुणरस के आचार्य माने जाते हैं।
  3. महावीरचरित – महावीरचरित के सात अंकों में राम के विवाह से राज्याभिषेक तक की कथा है।

यशोवर्मन का धर्म

यशोवर्मन शैवमतानुयायी था। उसका उत्थान और पतन उल्का की भाँति रहा। जैन ग्रंथों में उसके पुत्र का नाम आमराजव मिलता है। जिसने उसके बाद कन्नौज और ग्वालियर पर शासन किया, किन्तु इन विवरणों की ऐतिहासिकता संदिग्ध है। वर्तमान स्थिति में हम यशोवर्मन के उत्तराधिकारियों के विषय में निश्चित रूप से कुछ भी नहीं कह सकते। उसके बाद हम कन्नौज में आयुध नामधारी राजाओं को शासन करता हुआ पाते हैं। इनमें वज्रायुध, इंद्रायुध तथा चक्रायुध के नाम मिलते हैं। ये सभी अत्यंत ही निर्बल शासक थे।

References :
1. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, लेखक- के.सी.श्रीवास्तव 

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