आधुनिक भारतइतिहास

कर्जन की फारस के प्रति नीति कैसी थी?

कर्जन की फारस के प्रति नीति

कर्जन की फारस के प्रति नीति (Curzon’s policy towards Persia)

फारस में इंग्लैण्ड के अनेक स्वार्थ थे। इंग्लैण्ड और भारत को जोङने वाला रास्ता फारस की खाङी से होकर गुजरता था, जो व्यापार की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण था। अतः ब्रिटेन की यह नीति थी कि फारस को भारत पर आक्रमण करने का मार्ग न बनने दिया जाय और न फारस की खाङी किसी अन्य शत्रु शक्ति के नियंत्रण में चली जाय, जिससे भारत पर आक्रमण का भय उत्पन्न हो जाय। अतः ब्रिटिश सरकार सदैव फारस की खाङी पर अपना नियंत्रण चाहती थी। ब्रिटेन और भारत के बीच संपर्क मार्ग को बनाये रखने के लिए ब्रिटेन के लिए यह अनिवार्य हो गया था कि अदन से लेकर बिलोचिस्तान तक संपूर्ण पूर्वी समुद्रतट की रेखा पर नियंत्रण हो।

कर्जन की फारस के प्रति नीति

कर्जन की उत्तर-पश्चिमी सीमांत नीति

कर्जन के भारत आने के समय फारस की खाङी में स्थिति अत्यन्त ही पेचीदा हो चुकी थी। रूस उत्तरी फारस में अपनी स्थिति सुदृढ करने में लगा हुआ था। तथा खाङी में अपने राजनीतिक प्रभाव को बढाने हेतु यहां के दो बंदरगाहों अल्बास व ओरमुज में रेल लाइन बनाने की योजना बना रहा था। जर्मनी भी इस क्षेत्र में बर्लिन-बगदाद रेल लाइन का अंतिम स्टेशन बनाकर अपना राजनीतिक प्रभाव स्थापित करने का इच्छुक था।

तुर्की भी कुवैत के शासक शेख मुबारक की स्वाधीनता समाप्त कर कुवैत पर अधिकार करने का प्रयत्न कर रहा था। इस प्रकार रूस, फ्रांस, जर्मनी और तुर्की इस क्षेत्र पर अपना राजनीतिक प्रभाव स्थापित करने के लिए प्रयत्नशील थे। इनमें से किसी का भी नियंत्रण स्थापित होना, भारत की सुरक्षा को खतरा उत्पन्न कर सकता था। अतः 5 मई, 1903 को ब्रिटिश विदेशी मंत्री लार्ड लैन्सडाउन ने घोषणा की कि यदि राष्ट्र ने फारस की खाङी में अपने पैर जमाने का प्रयत्न किया अथवा वहाँ किलेबंदी की तो इसे ब्रिटिश हितों के लिए चुनौती समझा जायेगा।

लार्ड कर्जन ने लैन्सडाउन की नीति को दृढता से लागू किया। फरवरी, 1899 में जब कर्जन को पता चला कि फारस के सुल्तान ने जिस्सेह का बंदरगाह फ्रांसीसियों को दे दिया है तब उसने ब्रिटिश एजेण्ट कर्नल मीड को लिखा कि वह सुल्तान से जोर देकर कहे कि वह फ्रांसीसियों को दिये गये क्षेत्र को वापिस ले ले। कर्नल मीड की सहायता के लिए कर्जन ने एडमिरल डगलस को भी भेजा। डगलस ने सुल्तान को चेतावनी दी कि यदि उसने अँग्रेजों की बात स्वीकार नहीं की तो वह उसके महल पर बमबारी प्रारंभ कर देगा। सुल्तान अपना साहस खो बैठा और उसने वही किया जो उससे कहा गया था।

जिस्सेह का बंदरगाह वापिस ले लिया गया। अँग्रेजों की इस कार्यवाही की आलोचना नहीं की जा सकती, क्योंकि सुल्तान ने स्वयं 1891 ई. की एक गुप्त संधि के अन्तर्गत यह वादा किया था कि वह अपने क्षेत्र में से कोयला स्टोर बनाने के लिए थोङा सा स्थान दे दिया। इस प्रकार कर्जन ने, जिस किसी शक्ति ने फारस की खाङी में अपने पैर जमाने का प्रयत्न किया, उन प्रयत्नों को विफल कर दिया। कर्जन ने खाङी में निरंतर चौकसी रखने हेतु तीन युद्धपोत रखे तथा खाङी के बंदरगाहों में द्रुतगामी डाक की व्यवस्था की।

1903 ई. में वह स्वयं वहाँ गया तथा सुरक्षा व्यवस्था बनाये रखने हेतु वहाँ के अनेक सरदारों से मिला। जब कर्जन भारत से लौट रहा था, उस समय फारस की खाङी में ब्रिटेन के शत्रुओं के चिह्न भी दिखाई नहीं दे रहे थे।

अतः स्पष्ट है कि लार्ड कर्जन ने फारस की खाङी के मामले में अत्यधिक रुचि ली और यह प्रयास किया कि विदेशी शक्तियों से इसकी रक्षा की जाय। उसने खाङी पर विदेशी आक्रमणों का विरोध ही नहीं किया बल्कि उसने ऐसे कदम भी उठाये जिससे कि भविष्य में वहाँ कोई कठिनाई न हो। उसने हेन्जाम में तार स्टेशन बनवाया तथा बाद में इसे अब्बास बंदरगाह से जोङ दिया। बसीद पर ब्रिटिश अधिकार को अधिक प्रभावी बनाया।

काउंसलों की संख्या में वृद्धि की गयी तथा अब्बास जैसे नये स्थानों पर काउंसल स्थापित किये गये। नवम्बर-दिसंबर 1905 में उसने पुनः खाङी का दौरा किया और वहाँ के छोटे-छोटे शासकों पर ब्रिटिश प्रभुत्व स्थापित किया। कर्जन ने फारस की खाङी में ही नहीं बल्कि पूरे दक्षिणी फारस और फारस-अफगान सीमा से लगे क्षेत्रों में भी रुचि दिखाई। फारस-अफगान सीमा क्षेत्र में उसने सीस्तान की समस्या को भी हल किया और वहाँ रूसी प्रभाव स्थापित होने की संभावना समाप्त कर दी। कर्जन की फारस के प्रति नीति को देखते हुए वह प्रशंसा का पात्र है।

Related Articles

error: Content is protected !!