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कौटिल्य और अर्थशास्त्र की जानकारी

कौटिल्य और अर्थशास्त्र

कौटिल्य और अर्थशास्त्र

कौटिल्य को चाणक्य के नाम से भी जाना जाता है। चाणक्य 376 ई॰पू॰ – 283 ई॰पु॰ में  चन्द्रगुप्त मौर्य के महामंत्री थे। कौटिल्य के पिता श्री चणक  थे जिसके कारण वह चाणक्य कहे गए।

कौटिल्य और अर्थशास्त्र

विष्णुगुप्त कूटनीति, अर्थनीति, राजनीति के महाविद्वान और अपने महाज्ञान का ‘कुटिल’ ‘सदुपयोग जनकल्याण तथा अखंड भारत के निर्माण जैसे सृजनात्मक कार्यो को करने के कारण कौटिल्य कहलाये।

आचार्य विष्णुगुप्त जन्म से वैश्य कर्मो से सच्चे ब्राह्मण और उत्पत्ति से क्षत्रिय और सम्राट चन्द्रगुप्त के गुरु तथा अपने माता-पिता के प्रथम संतान थे। जन्म उपरान्त इनकी माता का निधन हो गया था। राज ज्योतिष ने भविष्यवाणी की थी कि बालक में राजयोग बिल्कुल नहीं है। लेकिन बालक में चमत्कारिक ज्ञानयोग व विद्वता है। इसकी विलक्षण विद्वत्ता जो सूर्य के प्रकाश के समान सम्पूर्ण जम्बू द्वीप को आलोकित करेगी।

वे तक्षशिला विश्वविद्यालय के आचार्य थे, उन्होंने मुख्यत: भील और किरात राजकुमारों को प्रशिक्षण दिया। उन्होंने नंदवंश का नाश करके चन्द्रगुप्त मौर्य को अजापाल से प्रजापाल (राजा) बनाया।

उनके द्वारा रचित अर्थशास्त्र नामक ग्रन्थ राजनीति, अर्थनीति, कृषि, समाजनीति आदि का महान ग्रंन्थ है।अर्थशास्त्र मौर्यकालीन भारतीय समाज का दर्पण माना जाता है।

विष्णुपुराण, भागवत आदि पुराणों तथा कथासरित्सागर आदि संस्कृत ग्रंथों में तो चाणक्य का नाम आया ही है, बौद्ध ग्रंथो में भी इनकी कथा बराबर मिलती है। 

बुद्धघोष की बनाई हुई विनयपिटक की टीका तथा महानाम स्थविर रचित महावंश की टीका में चाणक्य का वृत्तांत दिया हुआ है। चाणक्य तक्षशिला  के निवासी थे। इनके जीवन की घटनाओं का विशेष संबंध मौर्य चंद्रगुप्त की राज्यप्राप्ति से है।

अर्थशास्त्र

कौटिल्य का अर्थशास्त्र लोक प्रशासन के क्षेत्र में प्राचीन भारत में रचित सबसे महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है। कौटिल्य ने स्वयं अर्थशास्त्र के बारे में लिखा है, कि – यह जमीन (धरती) को पाने और उसे सुरक्षित बनाये रखने में मार्गदर्शन करता है।

लोक प्रशासन विज्ञान मुख्यतः तीन समस्याओं के बारे में अध्ययन करता है – 1.) लोक प्रशासन, 2.) सरकारी तंत्र, 3.) कर्मचारी।

कौटिल्य के अर्थशास्त्र में लोक प्रशासन के सिद्धांतों का कोई स्पष्ट ब्यौरा मौजूद नहीं है, बल्कि यह उन्हीं अध्यायों में शामिल है, जिनमें राजा, उसके मंत्रियों तथा विभिन्न श्रेणी के अधिकारियों के गुणों का वर्णन किया गया है। इनमें राजा के उच्चस्तरीय अधिशासक दल (सुपर या आंतरिक काबीना जिसमें राजा के सर्वाधिक विश्वस्त तीन या चार अथवा कई मंत्रियों की परिषद शामिल होती है) और निम्न स्तरीय सरकारी नौकरों के सात रिश्तों का विस्तृत उल्लेख है।

अर्थशास्त्र नामक वृहद ग्रंथ जिन पंद्रह पुस्तकों में विभाजित है उनमें प्राचीन भारत के लोक प्रशासन को समझने की दृष्टि से चार खंड सर्वाधिक महत्त्व रखते हैं, जो निम्नलिखित हैं-

पहला, दूसरा, पांचवां और छवां।

अर्थशास्त्र का आधा से ज्यादा हिस्सा विदेश और प्रतिरक्षा रणनीतियों को समर्पित है जिनका लोक प्रशासन से कोई संबंध नहीं है। अर्थशास्त्र के दूसरे खंड का शीर्ष है सरकारी प्रबंधकों के कर्त्तव्य। इस किताब में लगभग सभी विभागों के बारे में बताया गया है। लेकिन इस संदर्भ में सरकारी तंत्र पर विचार नहीं किया गया है।

पहले खंड के एक बङे हिस्से में राजा के मंत्रियों, जासूसों, विशेषदूतों और राजकुमारों के साथ रिश्तों का वर्णन है। अर्थशास्त्र में कर्मचारियों के बारे में लिखा गया है लेकिन सिर्फ उच्चस्तरीय कर्मचारियों के बारे में ही। निम्न कर्मचारियों के बारे में इसमें विचार नहीं किया गया। उच्च श्रेणी के कर्मचारियों सहित विभिन्न मंत्रियों के समक्ष स्थिति का भी इसमें वर्णन है। लेकिन ज्यों-ज्यों हम सरकारी तंत्र में नीचे की ओर आते हैं, उदाहरण के तौर पर विभिन्न विभागों के प्रबंधकों और राजा के बीच रिश्तों के बाबत जानना चाहें तो तस्वीर स्पष्ट नहीं होती। निचले स्तर के कर्मचारियों को तो एक तरह से बिल्कुल नकार ही दिया गया है। पाँचवें खंड के तीसरे अध्याय में एक मामूली उल्लेख के अलावा इनके बारे में और कहीं कोई संदर्भ नहीं है। हालांकि इस किताब के इस अध्याय में निचले स्तर के कर्मचारियों की भर्ती के तरीकों, प्रशिक्षण, वेतन स्तर, सभी तरह के कर्मचारियों की प्रोन्नति की अवस्थाओं (विभिन्न श्रेणियों के कर्मचारियों की बुनियादी वेतन भिन्नता), स्थानान्तरण और निम्न कर्मचारियों की सेवा निवृत्ति आदि के बारे में उल्लेख किया गया है। मगर यह बहुत मामूली स्तर पर है। अगर भर्ती के तरीकों की बात छोङ दें तो लगभग यही उपेक्षित व्यवहार उच्च श्रेणी में कर्मचारियों के साथ भी किया गया है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में सारा का सारा ध्यान राजा पर ही दिया गया है। कर्मचारी समूहों के सदस्यों के बारे में इसमें अलग से कुछ नहीं सोचा गया। हां, किसी कर्मचारी के व्यवहार से राजा और उसका अधिकार क्षेत्र किस तरह से प्रभावित होता है, इस बात के मद्देनजर उस पर विचार हुआ है। कर्मचारियों की गुणवत्ता के बारे में इसमें विस्तृत ब्यौरा मौजूद है। ऐसा हो भी क्यों न? आखिर सरकारी मशीनरी तंत्र और कर्मचारियों के बाबत किसी सुनिश्चित और लिखित संविधान के अभाव में राजा और उसके सहायक कर्मचारियों की गुणवत्ता ही तो थी जो कौटिल्य के समय में सरकार के चरित्र और उसके अस्तित्व का आधार थी।

लोक प्रशासन अप्रत्यक्ष है और अर्थशास्त्र में वर्णित लोक प्रशासन के सिद्धांतों का मूल स्त्रोत राज सत्तात्मक है। लेकिन अर्थशास्त्र अपने व्यवहारिक इस्तेमाल में लोकतांत्रिक है, जो इसकी अद्भुत विशेषता है। इस विशेषता के कई नुकसान भी हैं। जैसे कि – सत्ता के स्त्रोत और उनकी संरचना भिन्न है, अतः अर्थशास्त्र में कर्मचारियों का गुणात्मक पक्ष उभरकर नहीं आया। इन सबके बावजूद भी अर्थशास्त्र का आधुनिक लोक प्रशासन के विद्यार्थियों के लिए बहुत महत्त्व है, क्योंकि इसमें एक प्रभावशाली सरकारी कार्य प्रणाली का वर्णन है। और यह न मानने का कोई कारण नहीं है कि ये मानव कर्मचारी ही हैं जो उस तंत्र में भागीदार होते हैं जो तंत्र किसी सिद्धांत को असली जामा पहनाता है।

कौटिल्य कहते हैं, यह वित्त ही है जिसकी बदौलत सेना और खजाना प्राप्त होता है, जो राजा को दुश्मनों और अपने मातहतों को काबू में रखने के काम आता है।

कौटिल्य ने कई जगहों पर इस बात की चर्चा की है कि सरकार की गतिविधियों और उसके स्तर को प्रभावशाली बनाने में वित्त एक महत्त्वपूर्ण कारक साबित होता है। कुछ एक जगहों में कौटिल्य ने अर्थशास्त्र को शासन का विज्ञान भी कहा है जबकि लोक प्रशासन को वह शासन विज्ञान का ही एक अंग मानते हैं। उनके मुताबिक वह राजसत्ता जिसमें अनविक्षकी विज्ञान, तीन वेदों और वर्त का कल्याण तथा विकास निर्भर है, दंड (सजा) कहलाती है। दंड के जरिये लागू किए जाने वाले नियम को वह दंड नियम या सरकार की दंडनीति कहते हैं। यह नीति योग्यतम लोगों के बीच उन्नति का बंटवारा और उसकी सुरक्षा सुनिश्चित करती है।

इतिहास में अर्थशास्त्र को पुराण, इतिवृत्त (इतिहास), अख्यायिका (कथाएं), उदाहरण (चित्रात्मक कथाएं) तथा धर्मशास्त्र के साथ शामिल किया गया है। इतिवृत्त और इतिहास की पुनरावृत्ति भ्रम पदा करती है।
अर्थशास्त्र जोर देता है कि किसी भी प्रशासन को प्रशासनिक विज्ञान का ज्ञान होना बहुत जरूरी है। कौटिल्य के मुताबिक कोई भी प्रशासक लोक प्रशासन की कला में तभी माहिर हो सकता है जब उसे प्रशासनिक विज्ञान का ज्ञान हो। उनके मुताबिक सरकार के सभी महत्त्वपूर्ण पदाधिकारियों मसलन राजा, युवराज, पुरोहित, मंत्रिगण आदि को इस पेशे में पारंगत होना ही चाहिए।इसीलिए कौटिल्य का विचार है कि एक राजकुमार को विशेषज्ञों के सान्निध्य में रहकर सभी विज्ञानों का अध्ययन और उनके नियमों का कङाई से पालन करना चाहिए। कौटिल्य के अनुसार सर्वोच्च पुरोहित को भी लोक प्रशासन विज्ञान में दक्ष होना चाहिए। मंत्रियों के बारे में तो कौटिल्य यहां तक कहते हैं कि जो मंत्री लोक प्रशासन विज्ञान का विशेषज्ञ न हो उसे मंत्रिपरिषद की कार्यवाहियों में भाग तक नहीं लेने दिया जाना चाहिए। इस मामले में कौटिल्य लोक प्रशासन के सर्वोच्च अधिष्ठाता राजा को भी नहीं छोङते। राजा के बारे में उनका कहना है कि लोक प्रशासन विज्ञान का गैर जानकार राजा कुप्रशासन के जरिये अपने राज्य का विनाश कर लेता है। क्योंकि कुशल प्रशासन न होने के कारण वह भ्रष्ट हो ही जाता है, एक जनपक्षधर समाज विज्ञान का विरोधी भी हो जाता है।

कौटिल्य ने लोक प्रशासन विज्ञान और कला की विपरीत दिशाओं से भी पर्दा उठाया है। उनका मानना है कि लोक कला की प्रवीणता में वही व्यक्ति माहिर बन सकता है, जिसे लोक प्रशासन विज्ञान के बारे में बेहतर जानकारी हो। एक तरह से कला और विज्ञान में अन्योन्याश्रित रिश्ता है। इसीलिए वह राजकुमारों के लिए तय करते हैं कि किसी राजकुमार को वर्तविज्ञान का वास्तविक ज्ञान हासिल करने के लिये सरकारी प्रबंधकों या सरकारी तंत्र के अर्थ अधीक्षकों की देख रेख में अध्ययन करना चाहिए। ठीक इसी तरह कौटिल्य राजकुमारों को दंडनीतिज्ञों के सान्निध्य में रहने का सुझाव देते हैं। जिससे इस क्षेत्र के तमाम सैद्धांतिक और व्यवहारिक ज्ञान राजकुमार हासिल कर सकें।

कौटिल्य की सलाह है कि एक प्रतिभाशाली और सौम्य राजकुमार को सेनानायक बना देना चाहिए। अगर यह संभव न हो तो उसे राज्य का उत्तराधिकारी अथवा युवराज घोषित कर दिया जाना चाहिए। इससे राजकुमार राजकाज में स्वयं ही गंभीरता से रुचि लेने लगता है जिससे भविष्य में राजा बनने पर उसे बहुत फायदा होता है।

जहां तक लोक प्रशासन की कला का सवाल है, उसमें दो बातें ध्यान देने योग्य हैं। पहली तो यह कि कौटिल्य निम्न स्तर के विभागीय कर्मचारियों से ऐसी कोई अपेक्षा नहीं करते अर्थात् प्रशासन विज्ञान में पारंगत होने की जिम्मेदारी वह किसी विभाग के निचले स्तर के कर्मचारियों पर नहीं डालते। दूसरी बात यह कि वह राजा से अपेक्षा से कहीं ज्यादा पारंगत होने की अपेक्षा करते हैं। यहां तक कि वह जासूसी जैसी व्यवस्था को भी राजा के प्रशासनिक दायरे में शामिल कर देते हैं। उनका मानना है कि राजा को जिम्मेदारियों का यह बोझ उठाना ही चाहिए क्योंकि सत्ता जितनी ज्यादा एक जगह केन्द्रित होती है, जिम्मेदारियां भी उसी अनुपात में बढ जाती हैं।

लोक प्रशासन के सिद्धांत प्रशासनिक व्यवस्था को नियंत्रित करते हैं। सुविधा के हिसाब से हम इन सिद्धांतों को दो हिस्सों में बांट लेते हैं, – 1.) अधिकार, आज्ञा पालन और अनुशासन, कर्तव्य और हित तथा उत्तरदायित्व के सिद्धांत 2.) कार्य विभाजन, संयोजन, पृथक्करण, विशेषज्ञता, क्रमिकता और बराबरी का सिद्धांत। सिद्धांतों के पहले समूह में राज्य का मूलभूत गुण अर्थात् संप्रभुता समाहित होता है, जबकि सिद्धांतों का दूसरा समूह, सही मायनों में राज्य को संचालित करता है। अर्थशास्त्र में सिद्धांतों के ये दोनों समूह मौजूद हैं। इनमें से पहले समूह की चर्चा दूसरे से ज्यादा हुई है। दूसरा सिद्धांत समूह अर्थशास्त्र में उल्लेखित प्रशासनिक व्यवस्था में निहित है। अधिकार, आज्ञापालन और अनुशासन के सिद्धांत राज्य के विधायी सिद्धांत के मुताबिक इसकी मूल भावना का प्रतिनिधित्व करते हैं। इन दो महत्त्वपूर्ण और परस्पर संबद्ध सिद्धांतों को अर्थशास्त्र में बङे चित्रात्मक ढंग से प्रस्तुत किया गया है। उदाहरण के लिए जब दंड विधान को स्थगित कर दिया जाता है तो ऐसे में जो व्यवस्था पैदा होगी, उसे मछलियों के एस मुहावरे से समझा जा सकता है जिसमें कहा गया है कि न्यायाधीश की अनुपस्थिति में शक्तिशाली व्यक्ति कमजोर आदमी को निगल जायेगा। लेकिन अगर इस कमजोर आदमी को उसी शक्तिशाली व्यक्ति का संरक्षण मिल जाए तो यही व्यक्ति शक्तिशाली का विरोध कर सकता है। इस तरह धार्मिक राज्य व्यवस्था में जब चार वर्णों और चार जातियों के लोग राजा के राज्याधिकार से शासित होंगे, तो वह अपने दायित्वों और पेशों के प्रति समर्पित होंगे तथा अपनी राह चलेंगे।

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