इतिहासप्राचीन भारत

प्राचीन काल में शिक्षा पद्धति के दोष

प्राचीन शिक्षा पद्धति की यदि हम आलोचनात्मक समीक्षा करें, तो उसमें गुणों के साथ-साथ कुछ दोष भी दिखाई देते हैं। इन दोषों का विवरण निम्नलिखित है-

  1. प्राचीन भारतीय शिक्षा पद्धति पर धर्म का व्यापक प्रभाव था। यह व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास पर अधिक बल देती थी। इसका दृष्टिकोण व्यावहारिकता की अपेक्षा आदर्शवादी अधिक था।
  2. शिक्षा के पाठ्यक्रम में लौकिक विषयों की अपेक्षा धार्मिक विषयों को प्रधानता दी गयी थी। अध्यापक अधिकतर पुरोहित हुआ करते थे, जिनका दृष्टिकोण पूर्णतया धार्मिक था। वेद, पुराण, दर्शन, धर्मशास्त्रों आदि के अध्ययन पर बल दिया गया। इसके विपरीत इतिहास, राजनीति, अर्थशास्त्र, गणित, खगोलविद्या आदि लौकिक विषयों के अध्ययन की उपेक्षा की गयी थी, जिससे इनका स्वतंत्र रूप से अध्ययन नहीं हो पाया। वाणिज्य, उद्योग तथा ललित कलाओं के अध्ययन पर भी विशेष ध्यान नहीं दिया गया, जिसके परिणामस्वरूप इनका विकास अवरुद्ध हो गया। शिल्प तथा कला निम्न-वर्गीय उद्यम बन गये।
  3. भारतीय शिक्षा पद्धति में वेदों तथा उनके आधार पर प्रणीत ग्रंथों को अपौरुषेय एवं पवित्र माना जाता था। किसी प्रकार की शोध या कोई भी सिद्धांत इनके अविरुद्ध होने पर ही मान्य होता था। इसके परिणामस्वरूप अध्ययन के क्षेत्र में तर्कशक्ति का महत्त्व समाप्त सा हो गया तथा उसका स्वतंत्र विकास न हो सका। इस प्रकार की व्यवस्था में मौलिक चिन्तन तथा स्वतंत्र गवेषणाओं के लिये कोई भी स्थान नहीं रहा। आर्यभट्ट, वाराहमिहिर, ब्रह्मगुप्त, जैसे वैज्ञानिकों ने भी सूर्य एवं चंद्रग्रहण संबंधी सत्य जानते हुये भी पौराणिक अवधारणा के विरुद्ध बोलने का साहस नहीं किया। ब्रह्मगुप्त ने तो आर्यभट्ट तथा वाराहमिहिर की नवीन सिद्धातों के प्रतिपादन के लिये आलोचना भी की, यद्यपि वह जानता था, कि इनमें सत्य का अंश विद्यमान है। प्राचीन चिकित्सा पद्धति में बहुत समय तक जो विच्छेद की क्रिया का अनस्तित्व रहा उसके पीछे धार्मिक विश्वास ही उत्तरदायी रहा। इसी प्रकार ब्राह्मणों, बौद्धों, तथा जैनों द्वारा कृषि-कार्य त्यागने के पीछे भी धार्मिक रूढियाँ ही उत्तरदायी थी।
  4. शिक्षा का उद्देश्य प्राचीन संस्कृति की सुरक्षा तथा उसे समृद्धशाली बनाना था। पाँचवीं शती तक दर्शन, भाषाविज्ञान, व्याकरण, तर्कशास्त्र, खगोल, गणित, चिकित्सा आदि क्षेत्रों में उल्लेखनीय प्रगति हुई। किन्तु बाद में भारतीय विद्वानों की रचनात्मक प्रतिभा जाती रही तथा उनकी समस्त शक्ति प्राचीन ज्ञान -विज्ञान को सुरक्षित रखने में ही लग गयी। भारतीय शिक्षा पद्धति ऐसे विद्वानों को तैयार न कर सकी जो प्राचीन ज्ञान विज्ञान की आलोचनात्मक समीक्षा कर नवीन मौलिक सिद्धांतों का प्रतिपादन कर सकते।
  5. शिक्षा पद्धति में प्राचीन ज्ञान विज्ञान के ऊपर अतिशय बल दिये जाने का एक कुपरिणाम यह निकला कि भारतीय विद्वानों में कूपमण्डूकता आ गयी तथा वे विदेशी ज्ञान विज्ञान की प्रगति से उदासीन हो गये।आर्यभट्ट, वाराहमिहिर आदि कुछ प्रारंभिक विद्वानों ने अपने को बाह्य जगत की वैज्ञानिक प्रगति से परिचित रखा, किन्तु बाद के भारतीय विद्वान संकीर्ण, हठधर्मी तथा दंभी हो गये। अलबरूनी ने भारतीय विद्वानों की इस प्रवृति का उल्लेख किया है।
  6. शिक्षा का प्राचीन दृष्टिकोण व्यापक था तथा सभी को इसे प्राप्त करने का अवसर मिला। किन्तु कालान्तर में यह उच्चवर्ग तक ही सीमित हो गयी तथा सामान्य जन इससे वंचित हो गये। शिक्षा का माध्यम संस्कृत थी तथा इसमें लोकभाषाओं की उपेक्षा की गयी। संस्कृत भाषा सामान्य जन की समझ से बाहर थी। हिन्दू विचारकों ने प्राकृत तथा अन्य जन भाषाओं को विकसित करना उपयुक्त नहीं समझा। समाज में संस्कृत के ज्ञाता विद्वान को ही सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था।
  7. भारतीय शिक्षा पद्धति में विभिन्न शाखाओं के बीच सामंजस्य स्थापित करने का प्रयास नहीं हुआ। प्रत्येक शाखा के विद्वान अपनी ही समस्याओं के विषय में सोचते थे। व्याकरण, साहित्य, तर्कविद्या, दर्शन, गणित, ललितकलाओं आदि के विविध विषयों की सापेक्षिक उपयोगिता को प्राचीन काल के शिक्षाविदों ने नहीं समझा। व्याकरण, साहित्य, तर्कशास्त्र आदि के अध्ययन पर आवश्यकता से अधिक जोर दिया जाता था, जबकि इतिहास, गणित, खगोलविद्या आदि का अध्ययन अपेक्षाकृत उपेक्षित था। संगीत, चित्रकारी आदि ललित कलायें सामान्य पाठ्यक्रम का विषय नहीं थी।

इन सभी दोषों के अलावा प्राचीन भारतीय शिक्षा पद्धति में कई खूबीयाँ भी थी। जैसे कि, भारतीय संस्कृति के उत्कर्ष काल में शिक्षा व्यवस्था का दृष्टिकोण व्यापक था और इसमें संकीर्णता नहीं थी। सभी वर्गों के लिये शिक्षा प्राप्त करने का सुअवसर मिला हुआ था। भारतीय शिक्षा के विभिन्न विषयों के प्रकाण्ड विद्वानों को उत्पन्न किया, जिन्होंने अपने ज्ञान से स्वदेश तथा विदेश को आलोकित किया। विदेशों से अनेक लोग भारतीय विद्वानों की ख्याति से प्रभावित होकर यहाँ अध्ययन करने के लिये आया करते थे। प्राचीन शिक्षा केन्द्रों में भारत के अलावा कई बाह्य देशों के विद्यार्थी भी शिक्षा ग्रहण करने के लिये आया करते थे। प्राचीन शिक्षा ने ही भारतीय संस्कृति की विरासरत को सुरक्षित रखा तथा उसे समृद्धशाली भी बनाया। प्राचीन शिक्षा के अनेक तत्व आधुनिक शिक्षा पद्धति के लिये भी सम्मान रूप से आदर्श एवं अनुकरणीय बने हुये हैं।

References :
1. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, लेखक- के.सी.श्रीवास्तव 

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