हर्ष के समय में साहित्य तथा शिक्षा
हर्षवर्धन स्वयं एक उच्चकोटि का विद्वान था, अतः अपने शासन काल में उसने शिक्षा एवं साहित्य की उन्नति को पर्याप्त प्रोत्साहन प्रदान किया। पूरे देश में अनेक गुरुकुल, आश्रम एवं विहार थे, जहाँ विद्यार्थियों को विविध विद्याओं की शिक्षा दी जाती थी। बाण के विवरण से पता चलता है, कि वेदों तथा वेदांगों का सम्यक् अध्ययन होता था। अनेक गोष्ठियाँ आयोजित होती थी, जहाँ महत्त्वपूर्ण विषयों पर वाद-विवाद होते थे। व्याकरण, रामायण, महाभारत आदि के अध्ययन में लोगों की विशेष रुचि थी।
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ह्वेनसांग ने पंच्चविद्याओं शब्द विद्या (व्याकरण), शिल्पस्थान विद्या, चिकित्सा विद्या, हेतु विद्या (न्याय अथवा तर्क) तथा अध्यात्म विद्या, का उल्लेख किया है, जो बालकों के पाठ्यक्रम का अनिवार्य अंग थी। ब्राह्मण चार वेदों का अध्ययन करते थे। वैदिक विद्यालयों के अलावा मठ तथा विहार भी शिक्षा के प्रसिद्ध केन्द्र थे।
हर्ष को संस्कृत के तीन नाटक ग्रंथों का रचयिता माना जाता है, वो तीन ग्रंथ निम्नलिखित हैं-
- प्रियदर्शिका,
- रत्नावली,
- नागानंद
बाणभट्ट के हर्षचरित में उनके काव्य-चातुर्य की प्रशंसा की गयी है तथा बताया गया है, कि उसकी कविता का शब्दों द्वारा पर्याप्त रूप से वर्णन नहीं किया जा सकता। अन्यत्र बाण लिखते हैं, कि काव्य कथाओं में वह अमृत की वर्षा करता था, जो उसकी अपनी वस्तु थी, दूसरे से प्राप्त हुई नहीं भारत की साहित्यिक परंपरा में कवि के रूप में हर्ष को 17वी. शती तक स्मरण किया गया है।
11वी. शती के कवि सोड्ढल ने अपने ग्रंथ अवंति सुंदरी कथा में उसके विषय में लिखा है, कि सैकङों करोङ मुद्राओं से बाण की पूजा करने वाला वह केवल नाम से ही हर्ष नहीं था, साकार में वाणी (सरस्वती) का हर्ष था।
जयदेव ने हर्ष को भास, कालिदास, बाण, मयूर आदि कवियों की समकक्षता में रखते हुए उसे कविताकामिनी का साक्षात हर्ष निरूपित किया है। 17 वी. शता. के प्रसिद्ध दार्शनिक मधुसूदन सरस्वती ने भी हर्ष को रत्नावली नामक नाटक का लेखक स्वीकार किया है।
भारतीय साहित्य के अलावा चीनी यात्री इत्सिंग ने भी हर्ष के विद्या-प्रेम की प्रशंसा करते हुए लिखा है, कि उसने जीमूतवाहन की कथा के आधार पर एक नाटक ग्रंथ लिखा तथा बाद में उसका मंचन करवाया। इससे उसकी लोकप्रियता काफी बढ गयी थी। इस नाटक से तात्पर्य नागानंद से लगता है।
प्रियदर्शिका चार अंकों का नाटक है, जिसमें वत्सराज उदयन तथा प्रियदर्शिका की प्रणकथा का वर्णन हुआ है । रत्नावली में भी चार अंक हैं तथा यह नाटक वत्सराज उदयन तथा उसकी रानी वासवदत्ता की परिचायिका नागरिका की प्रणय कथा का बङा ही रोचक वर्णन करता है। नागानंद बौद्ध धर्म से प्रभावित रचना है, और इसमें पाँच अंक हैं। इस नाटक में जीमूतवाहन नामक एक विद्याधर राजकुमार के आत्महत्या की कथा वर्णित है।
विद्वानों का संरक्षक
स्वयं विद्वान एवं विद्याप्रेमी होने के साथ-2 हर्ष विद्वानों का उदार संरक्षक भी था। हर्ष के दरबार में अनेक विद्वान कवि एवं लेखक निवास करते थे।
इन विद्वानों के नाम निम्नलिखित हैं-
- बाणभट्ट – बाणभट्ट ने हर्षचरित तथा कादंबरी की रचना की। हर्ष का दरबारी कवि भी बाणभट्ट ही था।
- मयूर – मयूर ने सूर्य शतक नामक एक सौ श्लोकों का संग्रह लिखा।
- मातंगदिवाकर – मातंगदिवाकर की किसी भी रचना के विषय में हमें जानकारी प्राप्त नहीं है।
कुछ विद्वान पूर्वमीमांसा के प्रकाण्ड विद्वान कुमारिलभट्ट को भी हर्षकालीन मानते हैं। इसके अलावा प्रसिद्ध गणितज्ञ ब्रह्मगुप्त का जन्म भी हर्ष के समय में ही हुआ था। उसका ग्रंथ ब्रह्मसिद्धांत नाम से प्रसिद्ध है। जयादित्य तथा वामन ने काशिकावृति नामक प्रसिद्ध व्याकरण ग्रंथ इसी समय लिखा था।
नालंदा का बौद्ध विहार
हर्ष के समय में नालंदा महाविहार महायान बौद्धधर्म की शिक्षा का प्रधान केन्द्र था। नालंदा, बिहार के पटना जिले में राजगृह से 8 मील दूरी पर आधुनिक बङगाँव नामक ग्राम के पास स्थित था। मूलतः इस महाविहार की स्थापना गुप्तशासक कुमारगुप्त प्रथम (415-445 ईस्वी) के समय हुई थी। यह लगभग एक मील लंबा तथा आधा मील चौङा था। इसके बीच में 8 बङे कमरे तथा व्याख्यान के लिये 300 छोटे कमरे बने थे। यहाँ तीन भवनों में स्थित धर्मगंज नामक विशाल पुस्तकालय था। नालंदा से प्राप्त एक लेख में यहाँ के भवनों के भव्य एवं गगनचुंबी होने का प्रमाण मिलता है। हर्ष के समय नालंदा विश्वविद्यालय अपनी उन्नति की पराकाष्ठा पर था। आचार्य शीलभद्र हर्ष के समय यहां के कुलपति थे। हर्ष ने एक सौ ग्रामों की आय इसका खर्च चलाने के लिये प्रदान की तथा यहाँ लगभग 100 फीट ऊँचा पीतल का एक विहार बनवाया था।
References : 1. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, लेखक- के.सी.श्रीवास्तव
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