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सातवाहनों की स्थापत्य कला(स्तूप) का इतिहास

सातवाहन सम्राटों की धार्मिक सहिष्णुता की नीति से दक्षिण भारत में बौद्ध कला को बहुत अधिक प्रोत्साहन मिला। इस समय नये स्तूपों का निर्माण हुआ तथा स्तूपों का जीर्णोंद्धार किया गया। दुर्भाग्यवश उस समय के स्तूपों में से आज कोई भी अपनी पूर्ण अवस्था में प्राप्त नहीं है।

स्तूप किसे कहते हैं?

स्तूप का शाब्दिक अर्थ है- ‘किसी वस्तु का ढेर’। स्तूप का विकास ही संभवतः मिट्टी के ऐसे चबूतरे से हुआ, जिसका निर्माण मृतक की चिता के ऊपर अथवा मृतक की चुनी हुई अस्थियों के रखने के लिए किया जाता था। गौतम बुद्ध के जीवन की प्रमुख घटनाओं, जन्म, सम्बोधि, धर्मचक्र प्रवर्तन तथा निर्वाण से सम्बन्धित स्थानों पर भी स्तूपों का निर्माण हुआ। स्तूप के 4 भेद हैं- शारीरिक स्तूप पारिभोगिक स्तूप उद्देशिका स्तूप और पूजार्थक स्तूप स्तूप एक गुम्दाकार भवन होता था, जो बुद्ध से संबंधित सामग्री या स्मारक के रूप में स्थापित किया जाता था।

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प्रमुख स्तूप निम्नलिखित हैं-

अमरावती स्तूप-

स्तूपों में अमरावती (आंध्र प्रदेश के गुंटुर जिले में स्थित) का स्तूप सर्वाधिक प्रसिद्ध था। आंध्र प्रदेश में अमराराम का प्रसिद्ध शैव तीर्थ ही अमरावती नाम से प्रसिद्ध है। इसी को अमरेश्वर भी कहा जाता है। संप्रत्ति इससकी स्थिति गुण्टूर जिले के कृष्णा नदी तट पर है। बस्ती से लगभग 18 मील दक्षिण दिशा में महान बौद्ध स्तूप था। लेखों में अमरावती का प्राचीन नाम धान्यकटक मिलता है। ऐसा प्रतीत होता है, कि मौर्य शासक अशोक ने अन्य स्थानों के समान यहाँ भी एक स्तूप का निर्माण करवाया था।

सातवाहन काल में यहां महास्तूप का निर्माण करवाया गया। इसे महाचेतिय अर्थात् महाचैत्य कहा गया है। पुलुमावी के समय में स्तूप का जीर्णोद्धार हुआ तथा इसे कलाकृतियों से सजाया गया है। संभवतः चारों ओर पाषाण वेदिका भी इसी समय बनाई गयी। दुर्भाग्यवश अब यह स्तूप अपने मूल स्थान से नष्ट हो गया है तथा इसके अवशेष कलकत्ता, मद्रास एवं लंदन के संग्रहालयों में सुरक्षित हैं। सर्वप्रथम 1797 ई. में मैकेंजी को इस स्तूप का पता चला था। उन्होंने यहाँ से प्राप्त शिलापट्टों तथा मूर्तियों के सुंदर रेखाचित्र तैयार किये थे। 1840 ई. में इलियट द्वारा स्तूप के एक भाग की खुदाई करवायी गयी, जिसमें कई मूर्तियाँ प्राप्त हुई।

अमरावती स्तूप के शिलापट्टों पर उत्कीर्ण लेखों के आधार पर इसके वास्तु के विषय में कुछ अंदाजा लगाया जा सकता है। स्तूप के चारों ओर की वेदिका या विष्टिनी काफी लंबी थी, जिसमें उष्णीश, फूलों से उत्कीर्ण सूचियाँ तथा चार तोरण द्वार एवं स्तंभ लगे थे। प्रत्येक तोरण द्वार के पीछे स्तूप के आधार से निकलता हुआ एक चबूतरा था, जिसे आयक (पूज्य) कहा जाता है। इस पर पांच आयक स्तंभ लगाये जाते थे। आयकों का उद्देश्य स्तंभ को आधार प्रदान करना था।

आयक स्तूप के आधार से लगभग 20 फीट की ऊँचाई पर बनाये गये थे। प्रत्येक आयक के अगल-बगल सीढियाँ बनाई जाती थी, जिनसे होकर प्रदक्षिणापथ तक पहुँचा जाता था। स्तंभों से स्तूप अलंकारिक लगता था, तथा ये संपूर्ण संरचना को सुदृढ आधार प्रदान करते थे। आयक मंचों का निर्माण आंध्र स्तूपों की अपनी विशिष्टता थी। स्तूप की न केवल वेदिका तथा प्रदक्षिणापथ अपितु गुंबद भी संगमरमर की पटियाओं से जङा गया था।

गुंबद के शीर्ष पर एक मंजूषा थी, जिसके ऊपर लौह – छत्र लगा था। अनुमान किया जाता है, कि स्तूप का आधार काफी बङे आकार का रहा होगा। संभवतः उसका व्यास 162 फीट था, तथा वेदिका का घेरा 800 फीट था। इसमें नौ फीट ऊँचे 136 स्तंभ तथा पौने तीन फीट ऊंची 348 सूचियां लगी थी। सभी के ऊपर कलापूर्ण नक्काशी की गयी थी। सबसे ऊपरी भाग पर छत्र युक्त हर्मिका थी। द्वार की वेदिका पर चार सिंहों की मूर्तियाँ हैं।

दो सिंह भीतरी भाग में आमने-सामने मुँह किये हुए तथा बाहर की ओर स्तंभों के दो सिंह सामने मुँह किये हुए उकेरे गये हैं। निश्चयतः अपनी पूर्णता में यह स्तूप उच्च धार्मिक आदर्शों तथा अत्यंत विकसित कलात्मक भावना पर आधारित स्थापत्य कला की ओजपूर्ण शैली का प्रतिनिधित्व करता है।

अमरावती स्तूप के प्रत्येक अंग पर व्यापक कलात्मक अलंकरण मिलता है। कलाविदों ने उत्कीर्ण शिल्प को चार भिन्न-2 कालों से संबद्ध किया है, जो निम्न लिखित हैं-

प्रथम काल (ई.पू. 200 से ई.पू. 100 तक) – इस समय अर्धस्तंभ, स्तंभ शीर्ष पर विभिन्न प्राणियों एवं बुद्ध के प्रतीकों आदि का अंकन किया गया। अभी तक बुद्ध की मूर्ति गढने की प्रथा प्रारंभ नहीं हुई थी।

द्वितीय काल (ई.पू. 100 से 100 ई. तक) – इस अवधि की शिल्पकारी पहले की अपेक्षा भव्य एवं सुंदर है। बुद्ध का अंकन प्रतीक तथा मूर्ति दोनों में मिलता है। महाभिनिष्क्रमण, मार-विजय जैसे कुछ दृश्य अत्युत्कृष्ट हैं।

तृतीय काल (150 से 250 ई.) – यह सातवाहन नरेश पुलुमावी का काल है, जिसमें वास्तु तथा शिल्प दोनों दृष्टियों से स्तूप का अधिकतम संवर्द्धन किया गया। स्तंभों, सूचियों तथा उष्णीशों पर सुंदर शिल्प उत्कीर्ण हुए। स्तंभों के बाहरी बाजुओं पर बीच में बङा कमल, ऊपर अर्धकमल उत्कीर्ण है तथा मध्य भाग में बुद्ध के जीवन की विविध घटनायें दिखाई गयी हैं। छज्जे के भीतरी बाजू के स्तंभ, सूची आदि पर जातक ग्रंथों से ली गयी विविध कथायें हैं। एक सूची पर उत्कीर्ण नलगिरि हाथी के दमन का दृश्य काफी प्रभावोत्पादक है। धर्मचक्र, पूजा आदि के दृश्य भी सुंदर हैं।

चतुर्थ काल (200 से 250 ई.तक) – इस समय अमरावती ईक्ष्वाकुवंशी राजाओं के शासन में आ गया। इसी समय नागार्जुनीकोण्ड के स्तूप का भी निर्माण हुआ। अतः अमरावती शिल्प पर उसका प्रभाव पङा। पूर्ण स्तूप की आकृति वाले शिलापट्ट चारों ओर लगा दिये गये तथा पहले के कुछ पुराने शिलापट्ट निकाल कर उनके पीछे की ओर स्तूप आदि की आकृतियां खोदकर उन्हें पुनः स्तूप के चारों ओर लगा दिया गया। शिल्पकारी का स्तर पहले जैसा रमणीय नहीं रह गया।मानव आकृतियां अधिक लंबी और छरहरे बदन की बनायी गयी। इन्हें मोती मालाओं से लादा गया है। गोल घेरों में फूल पत्तियों की छोटी बेल बनाई गयी है। झरोखों से झांकती हुई स्त्री-पुरुषों के मुखङे बनाये गये हैं। अलंकरण में पहले जैसी सुंदरता एवं सजीवता नहीं मिलती ।

नागार्जुनीकोण्ड स्तूप-

अमरावती से 95 किलोमीटर की दूरी पर उत्तर में स्थित नागार्जुन पहाङी (कृष्णा नदी के तट पर) पर भी तीसरी शता.ईस्वी में स्तूपों का निर्माण किया गया था, जिसे नागार्जुनीकोण्ड स्तूप कहा जाता है। यहाँ ईक्ष्वाकुवंशी राजाओं की राजधानी थी, जो सातवाहनों के उत्तराधिकारी थे।

नागार्जुनीकोण्ड स्तूप का एक अन्य नाम विजयपुरी है। ईक्ष्वाकु वंशी शासक ब्राह्मण धर्म के अनुयायी थे, किन्तु उनकी रानियों की अनुरक्ति बौद्ध धर्म में थी। इन्हीं की प्रेरणा से यहाँ स्तूपों का निर्माण करवाया गया। ईक्ष्वाकु नरेश मराठी पुत्र वीरपुरुष दत्त के शासनकाल में महास्तूप का निर्माण एवं संवर्धन हुआ। उसकी एक रानी बपिसिरिनिका के एक लेख से महाचैत्य का निर्माण पूरा किये जाने की सूचना मिलती है। महास्तूप के साथ-2 बौद्ध धर्म से संबंधित अन्य स्मारकों एवं मंदिरों का निर्माण भी हुआ। रानियों द्वारा निर्माण कार्य के लिये नवकर्म्मिक नामक अधिकारियों की नियुक्ति की गयी थी।

सर्वप्रथम 1926 ई. में लांगहर्स्ट नामक विद्वान ने यहां के पुरावशेषों को खोज निकाला था। तत्पश्चात् 1927 से 1959 के बीच यहां कई बार उत्खनन कार्य हुए। फलस्वरूप यहां से अनेक स्तूप, चैत्य, विहार, मंदिर आदि प्रकाश में आये हैं।

नागार्जुनीकोण्ड से लांगहर्स्ट को नौ स्तूपों के ध्वंसावशेष प्राप्त हुए थे, जिनमें से चार पाषाण पटियाओं से जङे गये थे। नागार्जुनीकोण्ड से जा स्तूप मिलते हैं, वे अमरावती के स्तूप से मिलते – जुलते हैं। यहाँ का महास्तूप गोलाकार था। इसका व्यास 106 फुट तथा ऊँचाई लगभग 80 फुट थी। भूतल पर 13 फुट चौङा प्रदक्षिणापथ था, जिसके चारों ओर वेदिका थी। स्तूप के ऊपरी भाग को कालांतर में उत्कीर्ण किया गया है। कुछ दृश्य जातक कथाओं से भी लिये गये हैं।

प्रमुख दृश्यों में बुद्ध के जन्म, महाभिनिष्क्रिमण, संबोधि, धर्मचक्रप्रवर्तन, माया का स्वप्न, मार विजय आदि हैं।नागार्जुनीकोण्ड स्तूप की प्रमुख विशेषता आयकों का निर्माण है। आयक एक विशेष प्रकार का चबूतरा होता था. स्तूप के आधार को आयताकार रूप में बाहर की ओर चारों दिशाओं में आगे बढाकर बनाया जाता था। नागार्जुनिकोण्ड के आयकों पर अमरावती स्तूप की ही भांति अलंकृत शिलापट्ट का कला-सौन्दर्य दर्शनीय है। तक्षण की ऐसी स्वच्छता, सच्चाई एवं बारीकी, संपुजन की निपुणता, वस्त्राभूषणों का संयम एवं मनोहर रूप आदि अन्यत्र मिलना कठिन है। ये आंध्र शिल्प की चरम परिणति को सूचित करते हैं।

Reference : https://www.indiaolddays.com/

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