सोलंकी वंश के शासक मूलराज का इतिहास
गुजरात के चौलुक्य शाखा की स्थापना मूलराज प्रथम (941-995 ईस्वी) ने की थी। उसने प्रतिहारों तथा राष्ट्रकूटों के पतन का लाभ उठाते हुये 9 वीं शता.के द्वितीयार्ध में सरस्वती घाटी में अपने लिये एक स्वतंत्र राज्य स्थापित कर लिया। गुजराती अनुश्रुतियों से पता चलता है, कि मूलराज का पिता राजि कल्याण-कटक का क्षत्रिय राजकुमार था तथा उसकी माता गुजरात के अण्हिलपुर के चापोत्कट वंश की कन्या थी। उसके पिता की उपाधि महाराजाधिराज की मिलती है, किन्तु उसकी स्वतंत्र स्थिति में संदिह है। संभवतः वह प्रतिहारों का सामंत था।
प्रतिहारों का इतिहास में योगदान।
राष्ट्रकूट शासकों का इतिहास में योगदान।
मूलराज एक शक्तिशाली शासक था। गद्दी पर बैठने के बाद वह साम्राज्य विस्तार के कार्य में जुट गया। कादि लेख से पता चलता है, कि उसने सारस्वत मंडल को अपने बाहुबल से जीता था। कुमारपालीनकालीन वाडनगर प्रशस्ति से पता चलता है, कि उसने चापोत्कट वंश की लक्ष्मी को बंदी बना लिया था। अनुश्रुतियों के अनुसार मूलराज सारस्वत मंडल को ग्रहण करने मात्र से ही संतुष्ट नहीं हुआ, अपितु उसने उत्तर पश्चिम तथा दक्षिण दिशा में अपने राज्य का विस्तार किया। उसकी महत्वाकांक्षाओं ने उसे अपने पङोसियों के साथ संघर्ष में ला दिया। इनमें सर्वप्रथम शाकंभरी के सपादलक्ष शासक विग्रहराज एवं लाट का शासक वारप्प थे। वारप्प को कभी-2 तैलप का सेनापति भी कहा जाता है, जो पश्चिमी चालुक्य वंश का राजा था।
प्रबंधचिंतामणि से पता चलता है, कि वारप्प तथा विग्रहराज ने मिलकर मूलराज पर आक्रमण किया। मूलराज इनका सामना नहीं कर सका तथा उसने कंथा दुर्ग में शरण ली। बाद में मूलराज ने चाहमान नरेश से संधि कर ली तथा वारप्प पर आक्रमण करने की योजना तैयार की।
हेमचंद्र के द्वाश्रयमहाकाव्य से पता चलता है, कि मूलराज के पुत्र चामुंडराज ने शुभ्रावती नदी पार कर लाट में प्रवेश किया, जहां वारप्प को पराजित कर मार डाला। त्रिलोचनपाल के सूरत दानपत्र से भी इसका समर्थन होता है, जिसमें कहा गया है, कि वारप्प के पुत्र गोगिराज ने अपने देश को शत्रुओं से मुक्त करवाया था। यहाँ शत्रुओं से तात्पर्य मूलराज से ही है।
सोमेश्वर कृत कीर्तिकौमुदी से पता चलता है, कि मूलराज ने स्वयं वारप्प की हत्या की थी। हेमचंद्र के द्वाश्रयकाव्य से पता चलता है, कि मूलराज ने सुराष्ट्र तथा कच्छ को जीतकर अपने साम्राज्य में मिला लिया था। सुराष्ट्र का राजा ग्राह रिपु जाति का आभीर था तथा उसकी नियुक्ति स्वयं मूलराज द्वारा ही की गयी थी।
लेकिन वह दुराचारी हो गया। उसने कच्छ के राजा लक्ष अथवा लाखा को भी अपनी ओर मिलाकर अपनी शक्ति बढा ली। उसे दंडित करने के लिये मूलराज ने उस पर आक्रमण कर उसे मार डाला।
प्रबंधचिंतामणि से पता चलता है, कि कच्छ के राजा लाखा ने 11 बार मूलराज को हराया, लेकिन 12वीं बार मूलराज ने उसे मार डाला था। इस विजय के फलस्वरूप चौलुक्यों अथवा सोलंकी वंश का सौराष्ट्र पर अधिकार हो गया। यहां स्थित सोमनाथ मंदिर उनके राज्य का प्रसिद्ध तीर्थ बन गया। मेरुतुंग के अनुसार मूलराज प्रत्येक सोमवार को वहाँ दर्शन के निमित्त जाया करता था। बाद में मंडाली में उसने सोमेश्वर का मंदिर बनवाया था।
मूलराज को कुछ अन्य क्षेत्रों में भी सफलता प्राप्त हुयी। राष्ट्रकूट नरेश धवल के बीजापुर लेख से पता चलता है, कि मूलराज ने आबू पर्वत के परमार शासक धरणिवराह को पराजित किया था। धरणिवराह ने राष्ट्रकूट नरेश के दरबार में शरण ली थी। परंतु उसे परमारवंशी मुंज तथा चौहान शासक विग्रहराज द्वितीय के हाथों पराजय उठानी पङी थी। विग्रहराज के विरुद्ध युद्ध में वह मार डाला गया।
References : 1. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, लेखक- के.सी.श्रीवास्तव 2. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास, लेखक- वी.डी.महाजन
